उत्सव का अर्थशास्त्र है और अर्थशास्त्र का उत्सव / जयप्रकाश चौकसे

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उत्सव का अर्थशास्त्र है और अर्थशास्त्र का उत्सव
प्रकाशन तिथि :25 मई 2016


जैसे नदियों में बाढ़ के जाने के बाद उसके किनारों पर कचरा, कूड़ा-करकट जमा हो जाता है, वैसे ही उत्सव समाप्त होने पर जन-जीवन के कूल-किनारों पर भी कुछ कचरा, कूड़ा-करकट इत्यादि जमा रहता है। मध्यप्रदेश सरकार का उत्सव दायित्व भी अभी समाप्त नहीं हुआ है। इससे भी बड़ी बात यह है कि उज्जैन के रहवासियों को अब सामान्य जीवन में लौटना है। इसमें कुछ शांति है तो कुछ उदासी भी शामिल है, क्योंकि रौनक की अभ्यस्त आंखों को सामान्य के अंधेरे-उजाले में साफ देख पाना कठिन होता है। इसी तरह शोर के आदी कान सन्नाटे के अभ्यस्त होने में कुछ अनकही सुनने लगते हैं। याद आता है साहिर का लिखा 'प्यासा' का गीत, 'जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गई।' विधू विनोद चोपड़ा की '1942 ए लव स्टोरी' में जावेद अख्तर साहिर के पहाड़ों से लौटी प्रतिध्वनि से लगते हैं, 'कुछ न कहो, कुछ भी ना कहो।'

साधु-संत अपने अखाड़ों सहित बेस कैंप पर लौट चुके हैं और अपने भीतर के सन्नाटे से जूझ रहे हैं। भीड़ और भक्तों के आदी हो जाने वाले साधु-संतों के लिए यह सन्नाटा चुनौती है। सितारों का भी यही हाल होता है, जब प्रशंसकों की भीड़ छंट जाती है। इस तरह की नीरवता ने राजेश खन्ना को विचलित कर दिया था। इसी अवस्था में, लड़खड़ाते हुए राजेश खन्ना ने डिम्पल की संगमरमरी बांहों का सहारा लिया था। वे तो तर गए पर डिम्पल अभी तक गोते खा रही हैं। उज्जैन के व्यापारियों को भी सिंहस्थ लाभ के कारण कहीं और जाकर छुटि्टयां मनाने का अवसर मिल गया है। कुंभ मंथन से निकले अमृत लाभ के कारण व्यापारियों की बांछें खिल गई हैं। कुछ व्यापारियों में असंतोष है कि अपेक्षित लाभ नहीं मिला।

उत्सव का अपना अर्थशास्त्र है। मध्यप्रदेश सरकार ने पांच सौ करोड़ स्वाहा किए हैं, जबकि प्रदेश के कई भागों में जल-संकट है। सूखे से हुई ग्रामीण अंचलों में मौत का लेखा-जोखा सरकार की अदृश्य स्याही से लिखा जाता है। दरअसल, अक्षर और आंकड़े अदृश्य होते हैं परंतु दोष स्याही पर मढ़ा जाता है। सरकारी इबारतें इसी स्याही से लिखी जाती हैं। जब पेरिस में एफिल टॉवर के उद्‌घाटन पर वर्ष भर उत्सव मनाया गया तब उत्सव के बाद के सूनेपन व सन्नाटे के कारण अनेक लोगों ने आत्महत्या कर ली थी! मनोरंजन और उत्तेजना की लंबी अवधि तक ली गई खुराक इसी तरह के मानसिक डायरिया द्वारा अभिव्यक्त होती है। इसी कारण तमाम तानाशाह लंबे उत्सव रचते रहे हैं।

अब कुंभ बार-बार तो नहीं हो सकता। अत: सरकार कुंए खुदवाए और उनके उद्‌घाटन का उत्सव मनाए। वोट बैंक के मिथक के कारण धर्म-प्रेरित सरकार बहुसंख्यक क्षेत्रों में ही कुंए खुदवाती है। उसके लिए अल्पसंख्यक क्षेत्रों में बारहमासी सूखा बनाए रखना आवश्यक होता है। धर्मनिरपेक्षता की हानि को खुदर्बीन से देखिए। विहंगम दृश्य शांति और सद्‌भावना का भ्रम रचता है। सामाजिक मांसपेशियों का क्लोज-अप ही सत्य दिखाता है कि कितनी अशांति है, कितना क्रोध है, कितनी कसक है दिन-रात। इस असंतोष के छिटके हुए द्वीप दूर-दूर हैं और इनके नज़दीक आकर महाद्वीप बनने की संभावनाओं से सत्ता खौफ खाती है। सत्ता अपने खौफ के द्वीप में कैद है और स्वतंत्र विचार को उसने सॉलिटरी सेल में कैद कर रखा है। कैदखानों में अंडाकार एकल कक्ष होते हैं, जिनमें विचारवान व्यक्ति को लंबे समय तक रखते हैं और बार-बार पूछते हैं कि पहले अंडा आया या मुर्गी? अंडाकार कक्ष और अंडे का प्रश्न व्यक्ति को पागल बना देता है और प्रलाप करने लगता है कि अंडे और मुर्गी दोनों के पहले भैंस आई। यही रीत है सरकारी गोबर तंत्र की।

इस आयोजन के समय बार-बार यह ख्याल आया कि साधू-संतों के जुट को अखाड़ा क्यों कहते हैं। अखाड़ा तो कुश्ती क्षेत्र का द्योतक है। कुश्ती तो मल्ल युद्ध है परंतु साधु-संतों का क्षेत्र तो शांति होता है या होना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन साधु-संतों के मन में भी सत्ता का मोह है और उनका सारा ताम-झाम महज उनका मुखौटा है। उज्जैन में इन्हीं लोगों के दो गुटों में खूनी संघर्ष हुआ है। हम तो सदियों से सत्ता की खातिर लड़े गए हर युद्ध को धर्म युद्ध का नाम देते आए हैं। यहां तक कि वेदव्यास के महान ग्रंथ का पहले नाम 'विजय' ही था, िसे हम आज महाभारत के नाम से बांचते हैं।

जय-विजय और लाभ हमारे वैचारिक केंद्र रहे हैं परंतु हमने कभी असली इरादे जाहिर ही नहीं किए। यहां तक कि लक्ष्मी की पूजा हमारा सबसे बड़ा उत्सव है। हमने भौतिकवादी जीवन-शैली को आध्यात्मिकता का नाम दिया है। हमारा मित्र देश अमेरिका भी पूंजीवादी है। जाने ये परदेदारी क्यों रची गई है। आज तो चीन भी समाजवादी तौर-तरीकों से पूँजीवाद को ही साध रहा है। दरअसल, समाजवाद के विराट वोट बैंक को छलने के लिए यह जरूरी है।