उत्सव का समाजवादी पक्ष और रहस्यमय कमी / जयप्रकाश चौकसे

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उत्सव का समाजवादी पक्ष और रहस्यमय कमी
प्रकाशन तिथि : 06 नवम्बर 2013


जीवन की नदी में उत्सव की बाढ़ चले जाने के बाद किनारों पर कचरा जमा हो जाता है। हमारा समाज उत्सवप्रेमी है और उसे कचरे से भी कोई खास नफरत नहीं है। दरअसल वह असमानता को भी मनुष्य का बनाया समीकरण नहीं मानता। उत्सव केे बाद की दो छुट्टियों में राकेश रोशन की 'कृष-3 उस कमाई की हकदार हो गई जो उसकी गुणवत्ता के साथ न्याय है। हॉलीवुड के समकक्ष तकनीक और पारंपरिक मूल्यों का निर्वाह करने वाली 'कृष-3' कंगना रनोट और विवेक ओबेरॉय को अनेक अवसर उपलब्ध कराएगी और अवसर ऋतिक की हमेशा प्रतीक्षा करते हैं।

सिनेमा की आय पूरे बाजार की आय का संकेत देती है। करोड़ों रुपए की खरीदी और पटाखों के धुएं में उड़ाए गए धन को देखकर कोई भी कह सकता है कि भारत फिर 'सोने की चिडिय़ा' हो गया है। भले ही खुदाई में सोना नहीं मिला हो परंतु खुदाई में संलग्न कुछ मजदूरों को रोजी-रोटी मिली तो उनकी दिवाली भी सुखद हो गई। हर अर्थहीन प्रयास का कुछ अर्थ कहीं न कहीं निकल ही आता है। उत्सव के कारण श्रेष्ठि वर्ग ने रंग-रोगन, खाने-पीने इत्यादि पर भी खर्च किया जिसका लाभ गरीब वर्ग को मिला। गोया कि उत्सव एक मायने में समाजवादी है। लक्ष्मी पूजन का समाजवादी पक्ष भारत की मौलिक देन है।

मध्यम वर्ग के लिए यह वार्षिक सफाई का अवसर है जो गृहणियों की कमर तोड़ देता है और महंगाई भी कमरतोड़ है परंतु सफाई को साप्ताहिक करके वार्षिक कष्ट को कम किया जा सकता है। महंगाई तो हमारे आयात किए विकास मॉडल का हिस्सा है जिसका विरोध गुल खाकर गुलगुले से परहेज की तरह है। मध्यमवर्ग की ओढ़ी हुई मान्यताएं और संस्कृति के स्वयंभू रक्षक की स्वनिर्मित भूमिका के कारण उसे उत्सव में रिवाजों को निभाने का पूरा भार उठाना पड़ता है। उसे दूर भागती आस्था की निकटता का भरम भी रचना पड़ता है। गोया कि यह वर्ग जमकर 'उत्सव उत्सव' खेलता है। इसी वर्ग में संवेदना और शिक्षा के अलग स्तर से आए कुछ लोग उत्सव के समय खूब प्रसन्न होते हुए भी कमी महसूस करते हैं। 'जीवन में न जाने क्या है कमी'। यह पंक्ति शैलेंद्र रचित 'चोरी-चोरी' से है - 'इठलाती हुई हवा, नीलम सा गगन, कलियों पर बेहोशी सी नमी, ऐसे में भी क्यों बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी।' यह रहस्यमय कमी यकीनन अपराध बोध है कि उजाले से कहीं अधिक क्षेत्र अंधकार का है। जनजातियों और गरीब लोग भी उत्सव मनाते हैं। शोषित व दमित भी उत्सवप्रिय हैं और साधनों के अभाव में वे समूह नृत्य गीत और वृक्ष से निकाली सल्फी पीकर खुश होते हैं। आश्चर्य यह है कि उन्हें कभी नहीं महसूस होता है कि 'जीवन में न जाने क्या है कमी'। जिंदगी उन्हें इस तरह रहस्यवादी और छायावादी होने की इजाजत नहीं देती। इस तरह की हिमायत पर मध्यमवर्ग का एकाधिकार है। गरीब वर्ग तो साधारणतम सुविधाओं को जुटा पाने में ही स्वयं को धन्य मानता है। उसका स्वाभाविक उत्साह कोई भी विपरीत परिस्थितियां तोड़ नहीं पातीं। वह तो इस बात से भी बेखबर है कि जिस आस्था के दम पर वह कठिनाइयों को झेलकर अभाव में भी उत्सव मना सकता है, वह किसी योजना का हिस्सा है। इस योजना को उजागर करने के प्रयास साहित्य और सिनेमा में होते रहते हैं जैसे 'श्री 420' में नायक करता है। गरीब को हमेशा सिखाया जाता है कि रूखी-सूखी खाकर संतुष्ट रहो। क्या यह संभव है कि सुविधा संपन्न श्रेष्ठि वर्ग के लोग अपने वातानुकूलित भवनों में कभी महसूस करें कि 'जीवन में न जाने क्या है कमी'? उस एक असंभव से लगने वाले क्षण में दुनिया बदल जाएगी। हर व्यक्ति उस 'कमी' को शिद्दत से महसूस करे।

'चोरी चोरी' एक प्रेमकथा थी। गरीब नायक और अमीर लड़की इत्तफाक से मिले और प्यार हो गया परंतु उन्हें शंका है। उस अवसर के लिए शैलेंद्र रचित गीत के अंतरे को हम वर्तमान समाज की विसंगतियों को समझने के लिए भी काम में ले सकते हैं - 'जो दिन के उजाले में न मिले, दिल ढूंढ़े ऐसे सपने को, इस रात की जगमग, मैं ढूंढ़ रही हूं अपने को।' आज महत्वाकांक्षी युवा वर्ग दिन के उजाले में न प्राप्त होने वाले को बाजार की जगमग मेंखोज रहा है। फिल्म में मिलन के दृश्य में खो जाने की शंका है। दरअसल मिलन के सारे क्षण अधूरे होते हैं और उनमें कोई 'कमी' सी महसूस होती है परंतु वियोग हमेशा संपूर्ण होता है। दरअसल फिल्मों के अनेक गीतों की आज के संदर्भ में आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में व्याख्या की जा सकती और पंकज राग यह बखूबी कर सकते हैं।