उत्सव प्रेमी भारत का सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 अक्टूबर 2014
हर देश का फिल्मकार अपने देश की सांस्कृतिक परम्पराओं से प्रेरित होता है, इतिहास और लोक संस्कृति से प्रभावित होता है। सारे विश्व का सिनेमा दर्शक की पसंद की धुरी पर घूमता है और दर्शक का सामूहिक अवचेतन अपने देश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा होता है। यह दु:ख की बात है कि भारत में सिनेमा विधा का कोई भी संस्थान देश के इतिहास और संस्कृति को नहीं पढ़ाता। इस शाश्वत सत्य से सार्थक फिल्म बनाने वाला फिल्मकार भी जुड़ा है और व्यावसायिक फॉर्मूले का फूहड़ फिल्मकार भी जुड़ा है। दोनों ही अपनी व्यक्तिगत समझ और रुचियों के अनुरूप व्याख्याएं करते हैं। श्याम बेनेगल महाभारत की कथा को तत्कालीन समाज से जोड़कर "कलयुग' रचते हैं और उसी महाभारत के फूहड़ संस्करण छोटे परदे के लिए बनाए जाते हैं।
सलमान खान का दबंगई सिनेमा भी इसी सांस्कृतिक जमीन से पैदा हुआ है परन्तु उनकी व्याख्या अपनी शैली की है, फराह खान के सिनेमा की जड़ भी हमारी नौटंकी एवं पारसी थियेटर से जुड़ी है। राजकुमार हीरानी इसी सांस्कृतिक विरासत की व्याख्या अपने सौंदर्य एवं कला बोध से करते हैं। केतन मेहता की "भवनी भवई' को भी फूहड़ता से सरोबार किया जा सकता है। कमाल अमरोही की "पाकीज़ा' गुरुदत्त की "प्यासा' की वहीदा से अलग है क्योंकि कमाल साहब लखनऊ के नवाबों से प्रेरित हैं तो गुरुदत्त अल्मोड़ा के अपने गुरू उदय शंकर की पाठशाला से प्रेरित हैं। एक "ठाड़े रहियो बांके यार' या "इन्हीं लोगों ने छीन लीना दुपट्टा मेरा' गाती है तो दूसरी "तूने क्या कही, मैंने क्या सुनी, बात बन ही गई' गाती है।
सारांश यह कि सिनेमाई सार्थकता और फूहड़ता दोनों ही एक ही सांस्कृतिक विरासत से जन्मे हैं परन्तु व्याख्याकारों की रुचियां और सौंदर्यबोध अलग-अलग हैं। सामूहिक अवचेतन अनगिनत व्याख्याओं के लिए खुला आमंत्रण है। नीरद चौधरी अपनी किताब "हिन्दुइज़्म' में कहते हैं कि भारतीय लोगों का जीवन के उत्सव से प्रेम और भोग की हमेशा अतृप्त रहने वाली इच्छा इतनी बलवती है कि उसने पुनर्जन्म अवधारणा को जन्म दिया। हम बार बार यहां भोग करने आना चाहते हैं। भारत के लोगों को नदियां, मेले, तमाशे और उत्सव पसंद हैं। हमारा वैचारिक आधार आनंद है जैसे क्रिश्चिएनिटी का करुणा है और इसी से बने सामूहिक अवचेतन की व्याख्या फिल्मकार करता है। इस शाश्वत आधार के साथ ही समाज में हो रहे परिवर्तन भी अवचेतन को बनाते हैं। समाज के समुद्र पर परिवर्तन की लहरें सतत बहती हैं परन्तु समुद्र के गर्भ में कुछ शाश्वत मूल्य सदैव कायम रहते हैं तथा परिवर्तनशीलता पल पल हो रहे परिवर्तन के बीच के तनाव को साधना सारे कालखंड का अनिवार्य हिस्सा है। उपरोक्त बात को हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि दशकों तक भारतीय सिनेमा में यह विश्वास रहा है कि पात्र जितने आंसू बहाएंगे, उतनी भीड़ जुटेगी परन्तु इकोनॉमी के लिबरेलाइजेशन के बाद मल्टीप्लैक्स कॉर्पोरेट पूंजी निवेश आया तो प्रचारित हुआ कि हास्य फिल्में ज्यादा चलती हैं गोयाकि ठहाका आंसू पर हावी है। दरअसल सत्य यह है कि हास्य गंभीर तथा सभी प्रकार के सिनेमा में सफलता का प्रतिशत सौ वर्षों से समान है। इस काल खंड की प्रचार शक्ति इतनी बलवान है कि वह विपरीत परिस्थितियों से जूझते आम आदमी को यकीन दिला सकता है वह खुशहाल है। इसी प्रचार शक्ति से आज का सिनेमा अभिभूत है। क्या यह प्रचार शक्ति उसी भोग की इच्छा के समान है जिसने पुनर्जन्म अवधारणा को जन्म दिया?
हर काल खंड में सामूहिक अवचेतन में पैठे आनंद भाव से सिनेमा प्रेरित रहा है क्योंकि आंसू - काल खंड में भी अच्छाई की जीत आनंदवादी रही है। दरअसल आंसू और मुस्कान के बीच कहीं भारतीय सिनेमा का अफसाना ठहरा हुआ है और राजकुमार हीरानी उसी वृहत परम्परा की कड़ी हैं जिसने इस बीच में ठहरे सिनेमा को समझा है। हमें यह भी नहीं भूलना है कि शिव के तांडव का एक स्वरूप आनंद तांडव भी है। "जिस देश में गंगा बहती है' के "ओ बसंती पवन पागल' का फिल्मांकन आनंद तांडव अवधारणा का ही उदाहरण है। हमारे सिनेमा की हैप्पी एंडिंग आनंद अवधारणा से ही जन्मी है।
इसी आनंद राग के फिल्मकार राजकपूर ने "जोकर' में आंसू के मध्य से मुस्कान दिखाने का प्रयास किया और एक शॉट तो इस विचार का अक्षरश: अनुवाद है परन्तु फिल्म असफल हो गई क्योंकि उसका असली आधार क्रिश्चिएनिटी की करुणा बन गया है और विदूषक को भारत दार्शनिक नहीं मानता जैसे इंग्लैंड और यूरोप मानते हैं। यह प्रमाण है कि हर फिल्मकार देश की सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा है औ जरा-सा भटकने पर "जोकर' हो जाता है। उत्सव प्रेमी भारत के लिए सिनेमा चौपाल है जहां अनवरत कथा सुनाई जा रही है। सिनेमा के इसी उत्सवी स्वरूप के कारण भारत में यह विधा मर नहीं सकती।