उदासी का कोना / पुरुषोत्तम अग्रवाल
उमेश शोक-सभा में आ तो गया था, लेकिन बेमन से। उसे कवि का ना कवित्व पसंद था, ना व्यक्तित्व; ना परिवार पसंद था, ना परिधान। उमेश भी साहित्य की दुनिया का नागरिक था; लेकिन स्वर्गीय कवि और उमेश के नागरिकता-कार्डों के रंग जुदा-जुदा थे।
कवि को उमेश ने साहित्य से परिचय के शुरुआती दिनों में पढ़ा था। वे दिन प्रेम से परिचय के भी शुरुआती दिन थे। वे दिन बचपन और किशोरावस्था के मध्यांतर के दिन थे। ऐसे दिनों में पढ़े गये कवियों के साथ पाठकीय सम्बंध सूख जाने के बाद भी, कुछ नमी तो छोड़ ही जाता है। लेकिन, यहाँ आने के पीछे वह नमी नहीं, सामाजिक मजबूरी थी। बाबूजी कहते थे ना, 'किसी के अच्छे-बुरे में नहीं जाओगे तो तुम्हारे यहाँ कौन आएगा? समाज ऐसे घरघुसरेपन से नहीं चलता...'
सच्ची बात। घरघुसरे बने रहे तो तुम्हारे संग्रह के लोकार्पण और तुम्हारे जीवन के शोकार्पण में कौन आएगा?
शोक-सभा वैसी ही थी, जैसी होती है। क्षति भाषण देने वालों के लिए भी अपूरणीय थी, लेने वालों के लिए भी। हालाँकि उपस्थितों की संख्या से लग रहा था कि कुछ ही दिन बाद खुद साहित्य की शोक-सभा होने वाली है। कवि का कवित्व और व्यक्तित्व वैसे ही अद्वितीय था, जैसे पिछले दिनों स्वर्गीय हुए लेखक का था; जैसे अगले दिनों स्वर्गीय होने वाले आलोचक का होने वाला था। जैसे कुछ बरस बाद खुद उमेश का होने वाला था।
'बशर्ते कोई अकादमी या लेखक संघ या हिन्दी विभाग अपन को शोक-सभा लायक माने...'
उमेश शोक-मग्न मुद्रा अपनाने के बहाने, कलाई माथे के पास लाकर दो-तीन बार घड़ी देख चुका था। यह अनुभवसिद्ध निष्कर्ष था कि एक घंटा शोक-मग्न रहने के बाद सभा से पलायन कर जाएँ तो आपकी लोक-प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। इससे कम समय में चल देना लोकाचार का उल्लंघन है।
भाषणों से ऊबी घड़ी की सुइयाँ भी सुस्त ढंग से घिसट रहीं थीं। उस वक्त तो एक-एक पल एक-एक युग जैसा लगने लगा जब एक भाषणकर्ता ने कवि की निहायत छद्म-आध्यात्मिक कविताएँ ताबड़तोड़ उद्धृत करना शुरु कर दिया। भाषणकर्ता उन कविताओं में मनुष्य की आध्यात्मिक प्यास बुझाने वाली रस-धार देख रहा था; उमेश की चेतना ऊब के रेगिस्तान में भटक रही थी...
एकाएक रेत की खुरदुरी जलन के बीच स्मृतियों का सोता फूट पड़ा। स्टैंडिंग-लैंप की हल्की पीली रोशनी के नीचे, उमेश की जिज्ञासु आँखों के सामने बैठी वह इन्हीं कविताओं को पढ़ रही थी। उमेश को छद्म-अध्यात्म नहीं, अपनी बेचैनियाँ सुनाई पड़ रही थीं। लैंप की पीली रोशनी के नीचे बिताईं कृतज्ञता की शामें शोक-सभा से ऊबी शाम को हौले से परे करतीं, उमेश की स्मृति में बहने लगीं। अभी तक बनावटी लग रही काव्य-पंक्तियों में जीवन के सच्चे अनुभव और पंक्तियों के बीच की खाली जगह में स्मृति की व्याप्तियाँ गूंजने लगीं।
उसी ने पढ़वाया था इस तथा अन्य कई कवियों को। उस प्रेम में जितनी दमित कामनाएं थीं, उतनी ही जिज्ञासा भी। उमेश के साथ उसके सम्बंध में जितनी चाहत वर्जित फल चखने की थी, उतनी ही साहित्य, कला, संगीत में साझेदारी करने की। उमेश के बचपन और किशोरावस्था के मध्यांतर के वे दिन ऐसे थे जिनमें उमेश नदी का द्वीप था और वह उसे आकार देने वाली स्रोतस्विनी।
नदी द्वीपों को आकार देती आगे बढ़ जाती है, द्वीप पीछे छूट जाता है।
'नदी नहीं, आगे बढ़ता है नदी का पानी। जो पानी पीछे से आ रहा है, वह भी तो नदी ही है ना? नदी कहाँ बढ़ी आगे? वह तो वहीं है, द्वीप के साथ; उसे सहलाती, उसे आकार देती'। कहती थी वह, ढाढस बँधाती हुई, जब उमेश सम्बंध की परिणति की कल्पना कर घबराता था।
पूरे पंद्रह बरस बड़ी थी वह उमेश से।
वे दिन चालीस बरस पहले थे। नदी भी आगे बढ़ गयी, द्वीप भी। दिशाएं भी बदल गयीं, गंतव्य भी। स्मृतियों की कौंध फीकी पड़ती गयी। जिन लकीरों के बारे में विश्वास था कि अंत तक जस की तस खिंची रहेंगी, वे अंत की ओर बढ़ती यात्रा में धुंधलाती-धुंधलाती अदृश्य-सी होती गयीं। हम कैसी-कैसी कामनाओं, कल्पनाओं का बोझ स्मृति पर डालना आरंभ कर देते हैं कि अंत तक सँभाल कर रखे। क्यों रखे, भई?
कहाँ होगी वह? उसी नगर में? किसी और नगर, देश में? या...
अब शोक-सभा में बैठे रहना असंभव था, एक घंटा पूरा हुआ हो, ना हुआ हो। उमेश यों फुर्ती से उठा कि बाहर निकलेगा और वह मिल जाएगी; या आधा मील चल कर उसके घर पहुँचा जा सकेगा। चालीस साल का फासला सड़क पर चलकर नहीं, केवल यादों में चलकर ही तय होता है ...जानता था, उमेश। इस वक्त बस वह एकांत चाहिए जो स्मृति का अभयारण्य बन सके. बैठूँ कहीं जाकर एकदम अकेला। छू लूँ कृतज्ञता की शामों की, आवेश भरे आलिंगनों की, अप्राप्ति के विषम सुखों की, विफल कामनाओं और निष्फल प्रार्थनाओं की, पंद्रह बरस बड़ी स्त्री से प्रेम पाने-करने के रोमांच और अटपटेपन की स्मृतियों की नदी को—जो फिर से द्वीप को सहलाने, आकार देने चली आई है।
सीढ़ी तक भी नहीं पहुँच पाया था कि टीं...ईं...ईं। यह कोई मैसेज था, सीढ़ी उतरते उमेश का हाथ अपने आप जेब तक पहुँच गया; फोन हाथ में। मैसेज में आश्वासन था, स्मार्ट सब-सिटी में बढ़िया फ्लैट कौड़ियों के मोल दिलाने का। उमेश इस वक्त उदास स्मृतियों के नगर जाना चाहता था, स्मार्ट सिटी की तरफ नहीं। उसने इतनी जोर से डिलीट बटन दबाया जैसे आश्वासन-दाता का गला घोंट रहा हो। फोन जेब में रखा ही था कि टिड़िंग...टिड़िंग...यह फेसबुक पर किसी ने कुछ किया था। उमेश से रहा नहीं गया, आखिर आज दोपहर में ही तो उसने अपनी ताजा कविताएं फेसबुक पर जारी की थीं, पाठकीय प्रतिक्रिया की उपेक्षा कैसे कर दे? लेकिन, यह तो किसी जलकुकड़े की बकवास थी—'क्या मुसीबत है, यार, आदमी सलीके से उदास तक नहीं हो सकता...' फेसबुक से बाहर निकलते उमेश ने सोचा... 'कुछ देर के लिए आभासी संसार से बाहर ही चला जाए'।
'लेकिन अगर उस फेलोशिप एप्लीकेशन के बारे में ईमेल आ गयी तो...?'
टिंग...टिंग...यह आवाज ईमेल की ही सूचना दे रही थी। उमेश से रहा नहीं गया। देखा, एप्लीकेशन के बारे में नहीं, यह तो हिन्दू भारत के लिए तड़पते-तड़पते अमेरिका में जा बसे किसी देशभक्त की ईमेल थी, 'तुम जैसे स्यूडो-सिकुलरों के कारण ही तो भारत देश और सनातन धर्म की यह हालत हो गयी है...'
धत्तेरे की...फोन बंद किये बिना उदासी में जाना असंभव है। उमेश अभी इमारत के लॉन तक ही पहुँचा था। यह शाम वैसी नहीं थी जैसी उसे याद आ रही थी। यह बदले वक्त की, बदले मौसम की शाम थी। आज दिन भर ज़रा धूप क्या चमकी, बादलों ने शाम को घेर लिया था। बेमौसम बारिश की मार से फसल मर रही थी; संभ्रांत लोग मौसम के सुहावनेपन पर रीझ कर, सोशल मीडिया पर 'आओ थोड़ा रोमांटिक हो जाएं' के आव्हान कर रहे थे। हद है असंवेदनशीलता की। फोन बंद ही करना होगा, तभी उन शामों तक लौटा जा सकता है जो अगस्त में अगस्त की शाम थीं और अप्रैल में अप्रैल की। लौटना ही है उन शामों की ओर, पाना ही है अपना उदास एकांत।
बाहर आते ही—सामने कावेरी...'हाय...उमेश...' ,
'अरे, कावेरी, इतने दिनों बाद...'।
लिपट गये दोनों। इतनी अच्छी दोस्त...इतनी प्यारी स्त्री।
'कॉफी पियें?'
'हाँ, हाँ, क्यों नहीं...' कहते-कहते उमेश को झटका-सा लगा...नहीं, इस वक्त नहीं। इस वक्त वह एकांत जो बरसों से नहीं नसीब हुआ है...वे यादें जो इसरार कर रहीं हैं।
'फिर कभी, कावेरी। कल ही। फोन करता हूँ, अभी कहीं जाना है...'
'ऐज यू विश, बॉस...इंतजार करूंगी...'
कावेरी—कितनी प्यारी, कितनी बिंदास। लेकिन आज तो बस उन मासूस दिनों की यादों का दिन है। कविगण कहते आए हैं 'लरिकाई कौ प्रेम' भुलाए नहीं भूलता...आज इस कविसमय को सिद्ध करने का दिन है। पीली रोशनी के उस नीम-अंधेरे कोने में प्रवेश करने का दिन, उसके स्वर में इन्हीं 'छद्म-आध्यात्मिक' कविताओं को सुनने का दिन...
अपने प्रिय बार के अलावा कहाँ वैसा कोना? चंद कदम की दूरी ही तो है उदासी के नीम-अंधेरे कोने और बैमौसम अंधेरे से सने सड़क के टुकड़े के बीच...
उस कोने तक पहुँचने के पहले ही वह कृपादृष्टि उस पर पड़ी जिसकी प्रतीक्षा बरसों से थी, 'आइये, उमेशजी, आइये... क्या कविताएँ लिखी हैं इधर आपने...अगला लेख आप पर ही लिखना है...'
'विश्वास नहीं हो रहा...' उमेश का मन था उस नीम-अंधेरे कोने की तरफ...दिमाग था, इस कोने में। उस कोने में एक नीची कुर्सी पर स्मृति बैठी थी, इस कोने में ऊँचे बार-स्टूल पर आलोचना विराजमान थी। उस कोने में लरिकाई के प्रेम का शोक-गीत था, इस कोने में शानदार शोक-सभा की संभावना थी।
'मैंने मैसेज करके तारीफ की है, अभी कुछ ही देर पहले तो... मैसेज मिला नहीं क्या?'
'मैसेज?' फोन तो मैंने बंद कर रखा है, कभी नहीं करता...आज इस उदासी के चक्कर में...बाद में देखेंगे उदासी...आलोचक की कृपादृष्टि हो गयी तो अपनी उदासी में और न जाने कितनी उदासियाँ गूँज उठेंगी...बैठा जाए. स्मृति के उदास कोने का क्या? वह तो अपने हाथ है, कभी भी जा बैठेंगे उदासी के कोने में'।
स्मृति का नीम-अंधेरा कोना विस्मरण के अंधेरे में चल दिया है, लरिकाई का प्रेम हमेशा की तरह इंतजार में ठिठक गया है। उमेश ने बार-स्टूल खिसकाया है, फोन ऑन कर लिया है, आलोचक की ओर कृतज्ञ मुस्कान रवाना करते हुए ड्रिंक ऑर्डर कर दिया है।