उदास क्रान्तिकारी लैटिन अमेरिका / कृष्ण किशोर
दो विशाल पानियों (एटलांटिक और पेसिफ़िक महासागर) के बीच घिरा हुआ विस्तृत भू-भाग जिसे गलत नाम से लैटिन अमेरिका पुकारते हैं - एक अध सोया, अध जागा सा अपनी अशान्त उदासियों से अभी पूरी तरह आज़ाद नहीं हुआ है। सन् 1491 समय का आखिरी आंकड़ा था जब इस महाद्वीप का हज़ारों सालों का इतिहास एकाएक बदल गया था। स्पेनी आक्रान्ताओं ने 1492 में इस धरती पर अपना वज्र पाँव रखा था। यूरोपीय दैत्य की सोना-चाँदी खाने की भूख का शिकार बना दक्षिणी अमेरिका का महाद्वीप पिछले पाँच सौ सालों में अपने 10 हज़ार वर्ष की उपलब्धियाँ पूरी तरह खो कर भी एक नई अस्मिता खोजने की क्रान्तिकारी तलाश में लगा हुआ है। 19वीं सदी के आरम्भ में अपने यूरोपीय आकाओं से मुक्ति के साथ साथ ही यू.एस.ए. का साम्राज्यवादी फौलादी हाथ लैटिन अमेरिका की गर्दन पर आ पड़ा। पन्द्रहवीं सदी से बीसवीं सदी के बीच जो साहित्य इस भू-भाग में रचा गया उस में उन जातियों का लोक जीवन, उन का संघर्ष, स्वपनों का बनना-बिगड़ना, आशाएँ-निराशाएँ, राजनीतिक उथल-पुथल इस तरह दर्ज है कि वहाँ का असली इतिहास साहित्य के माध्यम से ही प्रकट होता है।
लैटिन अमेरिका एक विशाल भू-भाग है जिसमें मैक्सिको, सैन्ट्रल अमेरिका के देश और दक्षिणी अमेरिका का सारा महाद्वीप शामिल है। 1865 के आस-पास फ्रांसीसियों ने इस प्रदेश को लैटिन अमेरिका कहना शुरू किया अपने किसी भौगोलिक-जातीय भ्रम के कारण और वही नाम इस का स्वीकृत हो गया। इन पाँच सौ वर्षों में वहाँ दो ही भाषाएँ स्थापित हुईं - स्पेनिश और पुर्तगाली। ब्राज़ील को छोड़ कर बाकी सारे लैटिन अमेरिका में सिर्फ़ स्पेनिश भाषा ही बोली जाती है। ब्राज़ील में पुर्तगाली। मूल निवासियों की संस्कृति, भाषाएँ और अन्य जीवन पद्धत्तियाँ यूरोप की नई संस्कृति ने नेस्तनाबूद कर दीं। यही बात वहाँ के धर्म और रीति-रिवाज़ों के साथ हुई। 1491 से पहले का लैटिन अमेरिका जिसमें करोड़ों लोग रहते थे, सैंकड़ों भाषाएँ बोली जाती थीं, तरह-तरह से प्रकृति सत्ता पर आधारित धर्मों को माना जाता था, देखते-देखते पूरी तरह बदल गया। सीधे लम्बे बालों वाले, काली आँखों और ताँबई रंग के शरीरों वाले मूल निवासियों का प्रदेश आज गोरे, काले और पीले लोगों का मिश्रण है। ईसाई धर्म उन सभी देशों का मुख्य धर्म है।
अमेरिका के भू-भाग पर लोगों के आने का इतिहास विवादों से भरा हुआ है। अधिकतर माना जाता है कि लगभग बीस-तीस हज़ार या उस से भी अधिक साल पहले ध्रुवों पर विशाल हिमखण्डों ने एक विशाल जल राशि को एक तरह से बांध लिया था। समुद्र तल लगभग तीन सौ फीट नीचे चला गया था। तभी एक तंग भू-भाग जिसे आज कल बेरिंग स्ट्रेट कहते हैं एक पुल की तरह उभर आया था। सिर्फ़ बर्फ़ से ढका यह धरती का टुकड़ा लगभग पचास मील चौड़ा था। साईबेरिया और अलास्का को इस भू-भाग ने एक पुल की तरह जोड़ दिया था। इसी रास्ते से एशिया के कुछ भागों से आखेटक घुमन्तू जन-समूह अमरीकी धरती पर आए। सैंकड़ों या शायद कुछ हज़ार वर्षों तक यह विशाल और विस्तृत यात्रा जारी रही। एशिया के किन देशों से वे लोग वहाँ आएँ होंगे, निश्चित नहीं। लेकिन उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के मूल निवासियों के रंग-रूप, आँखें, बाल, कद-काठ, देखने से कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। भारत की कई जन-जातियों से इन अमेरिकी मूल निवासियों की शक्लो-सूरत बहुत मिलती जुलती है। लेकिन बर्मा, चीन और रूस के हिस्सों में भी इस तरह के लोग मिलते हैं। पंद्रहवी सदी से पहिले उत्तरी अमेरिका महाद्वीप, सेन्ट्रल अमेरिका और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के सभी देशों में लगभग एक ही तरह की जन-जातियों का निवास आश्चर्यचकित कर देता है। दुनिया के किसी और प्रदेश में इतने विशाल क्षेत्र में फैले हुए एक ही तरह के लोगों की उपस्थिति कई तरह से रोमांचकारी है। सभी मूल निवासियों को 'इन्डियन' कह कर कर पुकारने की परम्परा कोलम्बस से शुरू हुई तो आज तक जारी है। जितनी भी खोज इन जन-जातियों के इतिहास को लेकर हुई वह सोलहवीं सदी के बाद ही हुई। तीस हज़ार वर्षों के इतिहास को भूगर्भ-शास्त्री वस्तुओं की आयु के आधार पर कितना परिकल्पित कर सकते है, यह भी हमेशा विवाद का विषय ही रहा है। जो मानव-समूह यहाँ आकर इतने लम्बे समय तक अपने आप को हर तरह से बचाए रख सके, जीवन की कलाओं को उच्च स्तर पर विकसित कर सके, प्रकृति के रहस्यों को समझ सके, आकाश-गंगाओं के नियमों और गतियों-स्वरूपों को समझ सके, विस्तृत जीवन-यापन पद्धत्तियों का अर्थ तन्त्र निरूपित कर सके, खेती बाड़ी के विज्ञान-संगत तरीके विकसित कर सके और विशाल साम्राज्यों की स्थापना कर सके, उन्हें हर तरह के लम्बे संघर्षों से गुज़रना पड़ा होगा। लेकिन वह संघर्ष काल अदेखा और अलिखा है, उसी तरह जैसे दूसरे भू-भागों के संघर्षों का काल अलक्षित है। 1491 के बाद यूरोप के आक्रामक समुद्र यात्रियों ने जो कुछ यहाँ आ कर देखा और लिखा उसी के आधार पर आज लैटिन अमेरिका की उस समय की स्थिति का ज्ञान हमें है। उस के बाद ही वैज्ञानिकों ने वहाँ के प्राचीन समयों तक पहुँचने की कुछ ईमानदार कोशिशें कीं।
कोलम्बस जब 1492 में मध्य अमेरिका के द्वीपों पर पहुँचा तो वहाँ के लोगों को देख कर और अपनी यात्रा के उद्देश्य की भ्रामक पूर्ति के आधार पर कह उठा था कि उसने Indies की धरती खोज ली है। उस की यह भ्रान्ति प्रकृति के एक रहस्यात्मक सत्य का ही आकाश घोष था जैसे। कोलम्बस ने भारत की संस्कृतियों का जायज़ा कुछ यात्रा विवरणों से ही लिया था। लेकिन दक्षिणी अमेरिका की विशाल जन-जातियों और साम्राज्यों के बारे में जो ज्ञान उपलब्ध हुआ है, उस के आधार पर हम संस्कृतियों की ऐसी झलक पाते हैं कि वहाँ और यहाँ के अतीत में अन्तर करना मुश्किल हो जाता है। मुख्य रूप से तीन साम्राज्य और सस्कृतियाँ उस भू-भाग में स्थापित थीं। उनके नाम थे माया (Maya), इन्का (Inca) और एज़्टैक (Aztec)
माया संस्कृति की तथ्यात्मक पुष्टि के अनुसार दूसरी सदी से दसवीं सदी तक यह संस्कृति अपने उत्कर्ष पर रही। वैज्ञानिकों के लिए लम्बी खोज और आश्चर्य का विषय रही यह संस्कृति। जगह-जगह म्यूज़ियमज़ में इन स्थानों में पायी गई वस्तुओं और भवन निर्माण कला की अनुकृतियों की प्रदर्शनी का एक लम्बा सिलसिला चला। भीड़ की भीड़ लोगों की दक्षिण अमेरिका की संस्कृति की झांकियाँ देखने पहुँचती थी। उनके गाँव, घर, कपड़े, बर्तन, मूर्तियाँ, धातुशिल्प इत्यादि को व्याख्यायित करते हुए वैज्ञानिकों ने विस्तृत ग्रन्थ लिखे। धरती, मानव और प्रकृति की एकात्मकता और अखंडता में विश्वास रखने वाली माया सभ्यता विज्ञान कला, धर्म और दर्शन का उसी तरह सगंम थी जैसे पूर्वी संस्कृतियाँ थीं। इतने बड़े भू-भाग में फैली हुई संस्कृति एक ही राज्य के अधीन नहीं थी। एक ही धर्म और संस्कृति को मानने वाले कई राज्य थे। यूकांटन पैनिन्सुला में लगभग बीस छोटे बड़े राज्य थे।
माया लोग समुद्र तल से सिर्फ़ 150 फीट ऊपर घने रेन फारेस्ट में और छोटी ऊँचाई की पहाड़ियों पर खेती बाड़ी करते थे। ऊँचे स्थलों पर कीमती पत्थर और धातुओं से मूर्ति, कला और अन्य कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करते थे। मध्य अमेरिका में गुआतेमाला (Guatemala) इस संस्कृति का केन्द्र था। माया लोगों की अपनी लिपि और भाषा थी। हमारी आज की पुस्तकों की तरह ही खोल कर पढ़ी जाने वाली पांडुलिपियाँ, अंजीर के पत्रों और छालों पर लिखे हुए उन के दस्तावेज़ आज भी उपलब्ध हैं। पत्थरों और लकड़ियों पर खुदी हुई भाषा के नमूने अभी मिलते हैं। ट्रापिकल क्षेत्र की उष्मा में जो वस्तुएं बची रह गईं उन से ही वहाँ का इतिहास और विकास आंकने की कोशिश की जा रही है। पेपर और पलास्टर पर उन के बनाए चित्र, लकड़ी और पत्थर पर महीन खुदाई का काम, साँचों में ढाल कर बनाई गई मूर्तियाँ, धातुओं का कलात्मक प्रयोग, पिरामिडों और अन्य भवनों की विस्तृत श्रृंखला, उन के नगर और गाँव आज के पुरातत्व वैज्ञानिक सुरक्षित करने का प्रयास करते ही रहते हैं। कोपन के स्थान पर एक लम्बी चौड़ी सीढ़ियों के दोनों तरफ बने हुए मूर्तिकला के नमूने लोगों को बहुत आकर्षित करते हैं। बोलियाँ - कूची, काकचिकेल, केकची और माम आज भी उन क्षेत्रों में बोली जाती हैं, हालांकि अब वहाँ के 'इन्डियनज़' की मुख्य भाषा स्पेनिश ही हो गई है। प्राचीन भारतीयों की तरह ही इन माया लोगों ने नक्षत्रों की विद्या और गणित में विशेष उपलब्धि प्राप्त की थी। कई वैज्ञानिक तो यहाँ तक कहते हैं कि ज़ीरो को अंक के रूप में प्रयोग करने वाले सर्वप्रथम लोग माया ही थे। इन्होंने अपने नक्षत्रीय और गणित के ज्ञान पर आधारित अपना एक कैलेन्डर विकसित किया था। हैरानी की बात यह है कि देखते-देखते ही इतनी सुव्यवस्थित ओर विकसित सभ्यता और संस्कृति का अन्त कैसे हो गया। स्पेनी या पुर्तगाली आक्रमणों से इस का कोई सम्बन्ध नहीं है। उन के आने से पहले ही यह संस्कृति रसातल तक पहुँच चुकी थी। अलग-अलग कारण इतिहासकार इस पतन के बताते हैं। Harvard विश्वविद्यालय के डॉ. एस.जी. मोरले का मत है कि उन लोगों ने लम्बे समय तक अपने प्राकृतिक साधनों और धरती का उपभोग इस तरह किया कि संख्या बढ़ने पर उन्हें अपने शहर और अन्य केन्द्र छोड़ कर इधर-उधर बिखर जाना पड़ा और धीरे-धीरे वह व्यापक व्यापारिक और सांस्कृतिक केन्द्र लुप्त होते चले गये। इस के अतिरिक्त और कारण भी निश्चित रूप से रहे होंगे। लेकिन हमारी रुचि माया लोगों के मायावी उत्थान और पतन में केवल ऐतिहासिक नहीं है। उस धरती के टुकड़े के साथ एक संवेदनात्मक तादात्म्य हमारा इस तरह से बना हुआ है जैसे हम अपने ही अतीत के बारे में और अधिक जानना चाहते हों।
मैक्सिको में Aztecs का साम्राज्य वहाँ की लड़ाकू जन-जातियों ने स्थापित किया था। चौदहवीं सदी के आरम्भ में यह साम्राज्य अपने शिखर पर था। एक विशाल नगर Tenochtitlan जहाँ आजकल मैक्सिको सिटी है, इस साम्राज्य की राजधानी थी। वहाँ एक व्यवस्थित व्यापारिक समाज और विकसित शासन प्रणाली के नमूने उपलब्ध हैं। सब से अधिक प्रामाणिक इतिहास जो 16 वीं सदी में यूरोपियन लोगों ने खोजा और लिखा वह इसी क्षेत्र का है। बड़ी संख्या में प्रकृति की शक्तियों के प्रतिनिधि देवी-देवताओं को यह समाज मानता था। अग्नि, पवन, पानी, धरती, सूर्य, धान्य इत्यादि के विस्तृत देवलोक में इन का विश्वास था। सन् 1520-1521 में स्पेन के Hernan Cartes ने यहाँ के शासक को हरा कर, इस प्रदेश को स्पेन का उपनिवेश बना दिया।
पन्द्रहवीं सदी में सूर्य के पुजारी Inca लोगों ने दक्षिण अमेरिका के विस्तृत भू-भाग पर साम्राज्य स्थापित किया था। यह साम्राज्य चीन के मिंग वंश से, रूस के Ivan the Great के राज्य से, Ottoman साम्राज्य से या यूरोप में उस समय के किसी भी राज्य से बड़ा था। दस हज़ार फुट से भी ऊंची एंडीज़ की पहाड़ियों पर बसा हुआ यह राज्य एक आश्चर्य का विषय रहा है। विस्तृत मार्ग श्रृंखलाओं और पुलों से जुड़े हुए इस प्रदेश में Peru, Equador, Chile, Bolivia और Argentina के देश शामिल थे। जीवन कलाओं के उच्चतम शिखरों तक पहुँचा हुआ यह प्रदेश यूरोपियनों के चालाक तरीकों, बारूद और घोड़ों से अपनी सुरक्षा के लिए तैयार नहीं था। हज़ारों साल तक यहाँ बसने वाले लोगों ने शायद इस तरह के आक्रमण की कल्पना भी नहीं की होगी। सोलहवीं सदी के तीसरे और चौथे दशक तक स्पेनियों ने इस साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था। लगभग एक करोड़ लोगों का यह प्रदेश कुछ ही वर्षों में एक स्पेनी उपनिवेश बन गया था। उस के बाद लगभग तीन सौ वर्षों तक मैक्सिको, मध्य अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका मुख्य रूप से स्पेनियों और पुर्तगालियों द्वारा उपनिवेशित रहा।
लम्बे समय तक लैटिन अमेरिका का कोई ऐसा एकात्मक साहित्य नहीं रहा जिस की स्पष्ट महाद्वीपीय पहचान बन सके। इसका कारण भी शायद यही है कि महाद्वीप की एक समूची संस्कृति को विकसित होने में सदियाँ लग गईं। 1823 तक जब धीरे-धीरे सभी देश अपनी स्पेनी या पुर्तगाली गुलामी से आज़ाद हो गये, तब भी वहाँ विभिन्न नस्लों का आपसी संघर्ष उस एकात्मकता के रास्ते में आता रहा। अफ्रीकी मूल के अश्वेत, यूरोपीय श्वेत और एशियाई तथा वहाँ के मूल निवासी पीले, और गेहुंआ अलग-अलग धारा की तरह साथ साथ अपने हितों की रक्षा में लगे रहे। इसी भावना को ले कर Octavio Paz ने कहा था कि साहित्य लेखकों का समूह मात्र नहीं होता, वह आदान-प्रदान की सांझी व्यवस्था बन कर एक दूसरे को आवश्यक और सृजनात्मक रिक्त स्थान देता है जिस से वे दूसरे को स्पष्ट लक्षित कर सकते हैं और अपने सांझे पाठक पैदा करते हैं। यह सृजन-स्थली यूरोप और अमेरिका में तो मौजूद थी, मगर लैटिन अमेरिका में देर से पैदा हुई। उस का कारण वहाँ के राजनीतिक संघर्षों का कभी ख़त्म न होना भी रहा है। बाहर के हस्तक्षेप कभी समाप्त ही नहीं हुए। विशेष तौर पर यू.एस.ए. अपने हितों के लिए लैटिन अमेरिका की जनवादी संस्कृति को कुचल कर अपनी पूंजीवादी व्यवस्था थोपने पर लगा रहा। कोई भी सरकार लम्बे समय तक जन-तान्त्रिक या समाजवादी व्यवस्था कायम नहीं कर पाई। Cuba के Fidel Castro एक लम्बे समय तक अपने आप को बचाए रख सके। वरना डिक्टेटर या सैनिक शासन ही इस महाद्वीप का भाग्य रहा। अब 2005 में स्पष्ट रूप से वामपक्षी सरकारें दो एक देशों में निर्वाचित हुई हैं। लेकिन जन-मानस बड़े पैमाने पर अमरीकी प्रभुत्व से मुक्ति के लिए हमेशा ही छटपटाता रहता है। धन और हथियार उन्हें मिलते हैं जो केवल अमरीकी प्रचार करते हैं।
मध्ययुगीन प्रवृत्तियाँ स्पेन और पुर्तगाल में उस समय पूरी तरह मौजूद थीं जब उन्होंने अपनी नयी अमरीकी धरती पर उपनिवेश बनाए। 15वीं सदी की सारी जादुई मान्यताएं वे अपने साथ लाए और दक्षिणी अमेरिका की नई दुनिया पर आरोपित कीं। कोलम्बस ने पंखों वाली जलपरियाँ यहाँ कैरीबियन समुद्र में देखीं तो फरनैन्डिस डी ओबिडो ने उड़ता हुआ बन्दर देखा। वीर गाथाओं वाले बहादुर योद्धा उन्होंने Inca राज्य के सैनिकों में देखने की कल्पना की। इसी स्वानुभूति को वे नई दुनिया के मासूम प्रकृति पर आधारित विश्वासों पर लादना चाहते थे। बाद में चल कर स्पेन और अन्य यूरोपीय देशों से आ कर बसे हुए लोगों ने जब नई अमेरिका के मूल निवासियों की मासूम स्थितियों का वर्णन किया और उपनिवेशिकों के जु़ल्मों की कहानियाँ लिखीं तो उन्हें प्रकाशित नहीं होने दिया गया। कई कृतियों को तो डेढ़ दो सौ साल लग गये प्रकाशित होने की आज्ञा मिलने में। इसलिए जब वे कृतियाँ प्रकाशित हुई तो उन्हें भी नव जागरण के साहित्य में गिनना पड़ा हालांकि वे डेढ़ सदी पहले लिखी हुई रचनाएं थीं। उदाहरण के तौर पर Vol De Caminha के Letters on The Discovery of Brazil सन् 1500 में लिखी गई थी लेकिन प्रकाशित हुई 1817 में। Las Casas की History of the Indies सन् 1566 में लिखी गई लेकिन प्रकाशित हुई 1875 में। Pinada Baseunan की The Happy Captivity सन् 1629 में लिखी गई लेकिन प्रकाशित हुई 1831 में। Inca Garcilaso की Royal Commentaries नई दुनिया में उन्नीसवीं सदी तक प्रसारित नहीं की गई, हालांकि वह उन के जीवन काल में ही सोलहवीं सदी में स्पेन में प्रकाशित हो गई थी। उपनिवेशक शासक वहाँ के असली सामाजिक तथ्यों को बाहर की दुनिया तक पहुँचने नहीं देना चाहते थे। Bartolome De Las Casas का आक्रोश मूल निवासियों के प्रति उपनिवेशिकों के व्यवहार को प्रदर्शित करता है। Casas ने लिखा था :
'बताओ मुझे, किस न्याय संगत अधिकार से तुम यहाँ के मूल निवासियों (Indians) को इस भयावह गुलामी में रख रहे हो? किस अधिकार से तुम ने इन मासूम लोगों के खिलाफ़ ये घृणित युद्ध छेड़ रख रखा है? ये मासूम लोग अपनी धरती पर शान्तिपूर्ण ढंग से रह रहे थे। तुम ने इतने अनगिनत मासूम लोगों का नरसंहार किया है जिस की इतिहास में कोई मिसाल नहीं मिलती। तुम इन्हें इतना शोषित और अशक्त क्यों रखते हो? जितना श्रम तुम इन से करवाते हो, उससे ये अशक्त होकर बीमार पड़ जाते हैं या मर जाते हैं या तुम इन्हें मार देते हो। रोज़ रोज़ सिर्फ़ और ज्यादा और ज्यादा सोना प्राप्त करने के लिए तुम ऐसा कर रहे हो।'
विक्षोभ और विरोध से नयी दुनिया का नया लेखन भरा पड़ा है। इस तरह की आक्रोश भरी कृतियाँ स्पेन और पुर्तगाल में बैठे हुए शासक कैसे प्रकाशित कर सकते थे। लिखने वाले भी उन्हीं की कौम के चन्द मानवीय स्वाभिमानी स्पेनी और पुर्तगाली ही थे। बाद में चल कर ऐसे ही यहाँ आ कर बसे लोगों ने अपने मूल देशों की सरकारों के विरुद्ध लंबी लड़ाईयाँ लड़ीं और इस विशाल भू-भाग को स्वतंत्र कराया। 19वीं सदी के पहले 25 वर्षों तक लगभग सभी प्रदेश स्वतंत्र हो चुके थे। उस के बाद लम्बे समय तक लैटिन अमेरिका विस्तृत राजनीतिक दुर्घटनाओं, जन-क्रान्तियों, स्थानीय झगड़ों, गोरिल्ला युद्धों से संत्रस्त रहा। इस कारण वहाँ एक सांझी संस्कृति पनप नहीं पाई। एक सांझी भाषा, सांझा धर्म और सांझी परम्पराएं बहुत आवश्यक थीं। एक विभाजित और कमज़ोर महाद्वीप ऐसा करने में असमर्थ था और बाहरी ताकतें ऐसा होने नहीं दे रही थीं। इस समस्या को और इन सब स्थितियों की विभीषिका को समझने वाले वेन्जुऐला के एक दूरदर्शी कवि Andres Bello इग्लैंड में बैठ कर अपनी कविताओं में एकता का बिगुल बजा रहे थे। 1823 में उन्होंने एक श्रृंखला प्रकाशित करनी आरम्भ की। बाद में Bello 1829 में चिले में आ कर बस गये और जीवन भर लैटिन अमेरीकी सांस्कृतिक एकता के लिए संघर्ष करते रहे। उन्होंने अपनी कविताओं में अपने लोगों को विभाजक प्रवृतियों के लिए बहुत लताड़ा। वे एक तरह से अपनी कौम के Virgil कहे जा सकते हैं। इग्लैंड में औद्योगिक क्रान्ति की नवीनता भी वे देख चुके थे। इसीलिए उन्होंने नये और पुराने मूल्यों की एक संगम संस्कृति का स्पष्ट स्वरूप पेश किया। उन्हीं के काम को आगे चल कर अपने अपने ढंग से अरजेन्टीना के Sarmiento, उरुगे के Rad'o, मैक्सिको के Alfonso Reyes और Octavio Paz ने आगे बढ़ाया।
साहित्य में यूरोप और यू.एस.ए. जिन तत्वों को छोड़ चुका था, लैटिन अमेरिका उन्हें धीरे-धीरे अपना रहा था। रोमान्टिक युग का यूरोप में 1850 के आस पास लगभग अन्त हो चुका था लेकिन लैटिन अमेरिका में पहली चौथाई सदी में इस का प्रभाव शुरू भी नहीं हुआ था। लेकिन समय की अपनी मांग और प्रवृत्ति के अनुरूप सामाजिक चेतना के लिए यह ठीक ही हुआ। 1830 के आस पास लैटिन अमेरिका में जिन लोगों का प्रभाव रहा वे हर क्षेत्र में स्वतंत्रता और क्रान्ति के प्रबल पक्षधर थे। इग्लैंड के Byron, जर्मनी के Goethe, Schiller, फ्रांस के Lamartine और Musset खूब अनूदित हुए, पढ़े गये, गुने गये, उद्धृत किये गये। लैटिन अमेरिका के कवि इस प्रभाव में न केवल लिख रहे थे, वे अपने समाज को बदलने के प्रयास में भी लगे हुए थे। इस नई दुनिया में रोमांटिक कविता और क्रान्ति एक ही विचार के दो पक्ष बन गये थे जैसे यूरोप में बने थे। Herdia और Echeverria जैसे आरम्भिक रोमांटिक कवियों को राजनीतिक मान्यताओं के लिए देश छोड़ कर जाना पड़ा। इस आंदोलन ने लैटिन अमेरिका में एक समाजवादी चेतना का भी विकास किया। यूरोप और अमेरिका में जब यथार्थवाद, प्रतीकवाद इत्यादि पनप रहे थे, तो 1842 में Bello और उनके शिष्यों ने चिले में New-Classicism को चुनौती देते हुए एक नई तरह के समाजवादी रोमांटिक साहित्य को अपनाने की घोषणा की। यह नये यथार्थवाद को एक दूसरे शब्दों में कहने का प्रयास था जो लैटिन अमेरिकी स्थिति के अनुकूल था। इस आंदोलन की महत्वपूर्ण कृति थी Sarmiento द्वारा रचित Facundo (1845)। यह अरजेन्टीना के एक गाको चीफ़ की जीवनी पर आधारित है। साहित्यिक रूप से लैटिन अमेरिका की आत्मा को खोजने के प्रयास शुरू हो गये थे। नये लेखक स्पेनी यथार्थवाद की तरफ एक तरह से वापिस जा रहे थे जो वहाँ 16 वीं सदी से ही मौजूद था वहाँ की सामाजिक स्थितियों के चित्रण में, जिन्हें प्रकाशित नहीं होने दिया गया था। इस परम्परा में दो और महत्वपूर्ण नाम जोड़े जा सकते हैं जिन्होंने रोमांटिक यथार्थवाद के माध्यम से अपने नये समाज को पहचानने की कोशिश की। वे थे पेरू के Ricardo Palma और कोलम्बिया के Tomas Carrasquilla। एक नई और विशिष्ट लैटिन अमरीकी जीवन शैली की अभिव्यक्ति की खोज यहीं से शुरू हुई। लैटिन अमेरिका का वहाँ के साहित्य में अपना स्वरूप उभरना शुरू हुआ जो अभी तक यूरोपीय माडल पर आधारित था। बड़े-बड़े नगरों के विकास ने एक अन्तर्राष्ट्रीयता को जन्म दिया। लैटिन अमेरिका का साहित्य बाहर के देशों में भी जाना जाने लगा। Rub'en Dario इस प्रसार के अग्रणी कहे जा सकते हैं। बहुत बड़े नगर जैसे Mexico City, Havana, Bagota, Santiago, Buenos Aires और Rio De Janeiro और इन से निकलने वाले समाचार पत्रों, पत्रिकाओं का बड़ा हाथ रहा। साथ ही यूरोप और रूस के महान कलाकारों का प्रभाव व्यापक स्तर पर दर्ज होना शुरू हो गया था। मोपासां, जोला, चेखव, गोर्की इत्यादि के प्रभाव में गद्य भी लिखा जाने लगा। बिल्कुल नये ढंग की कहानियाँ Marti और Dario ने लिखीं। पहली महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति लैटिन अमेरिकन साहित्य को तब मिली तब 1961 में होर्हे लुई बोर्हेस (Jorge Luis Borges) को Samuel Beckett के साथ Formentor पुरस्कार दिया गया। लेकिन उस समय तक विश्वस्तर पर भी बहुत कुछ बदल चुका था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेश समाप्त हो रहे थे। अफ्रीका, एशिया, और दक्षिण अमेरिका के देश अपनी शक्तिशाली पहचान बना रहे थे। ऊँची संस्कृति, ऊँचा धर्म, ऊँचा साहित्य अब सिर्फ़ यूरोप के देशों का एकाधिकार नहीं रहा था। नई राजनीतिक और सांस्कृतिक वास्तविकताएँ यूरोप पर आधारित विश्व-दृष्टि को छिन्न-भिन्न कर रही थीं। संस्कृति को अब औद्योगिक प्रतियोगिता या वैज्ञानिक तर्क संहिता के मापदण्डों से मुक्त किया जा रहा था। गोरे देशों में भी दूसरी नस्लों के योगदान को पहचाना जा रहा था जो अभी तक अनदेखा ही रहा था। मध्यपूर्व के देशों और अरब के देशों का उदय सिर्फ़ ईसाइयत की प्राथमिकता को भी खंडित कर रहा था। चीन का असाधारण उत्थान दुनिया भर की अभिजात्य या पूंजीवादी अर्थ संस्कृति को प्रश्नित कर चुका था। ऐसे परिवर्तित विश्व वातावरण में दूसरी और तीसरी दुनिया, दूसरे अनुभव, दूसरी विश्व-दृष्टि, अल्पसंख्यकों, अर्ध विकसितों, अर्धशिक्षितों द्वारा योरोप की सयुंक्त उत्तम संस्कृति अपदस्थ की जा रही थी। एक समानान्तर और अधिक सहज संस्कृति उभर रही थी। प्रक्रिया थी उन अभिजात्य और उत्तम समझे जाने वाले जीवन मूल्यों के हास्यास्पद अनुकरण द्वारा उन्हें भौंडे रूप में प्रस्तुत करना और जन-मानस से उन की उत्तमता को खारिज करना। इस से उपनिवेशित समाजों की मौलिकता उभर कर सामने आने लगी और किसी एक जाति का या वर्ग के विशिष्ट होने का एकाधिकार साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र से बड़ी जल्दी लुप्त होने लगा। लैटिन अमेरिका की स्थिति इस सारे परिदृष्य में बहुत विशेष थी। वहाँ लगभग चार सौ सालों से गोरी, काली और एशियाई जातियाँ मिल कर जो इतिहास और साहित्य रच रही थीं, उन्हें बड़े पैमाने पर सामने आने का अवसर मिला जो अभी तक यूरोप के वर्चस्व से आच्छादित था या सामने ही नहीं आने दिया जा रहा था।
एक नई तरह का यथार्थवाद लैटिन अमेरिका के लेखकों को बहुत मुनासिब लगता था। वे सीधे-सीधे वास्तविकताओं के चित्रण को बहुत प्रभावशाली नहीं मानते थे। समय और स्पेस को भी निश्चित और सीमित इकाईयाँ मान कर चलने की पद्धत्ति से घटनाओं और स्थितियों को अपने पूर्ण रूप से उद्घाटित करने को वे असमर्थ समझते थे। किसी अज्ञात तरह से कुछ न कुछ हमेशा उपस्थित रहता है जो सिर्फ़ यथार्थ के औज़ार से पकड़ा नहीं जा सकता। उन्होंने यथार्थ के साथ मिथ और रोमांस को मिलाकर एक जादुई यथार्थ निर्मित किया। सम्पूर्ण वास्तविकताओं का स्वरूप यही होता है जिस में बहुत से कारणों और तर्कों को स्थगित करना ही पड़ता है। बोर्हेस ने अपनी कहानियों में इस तरह के मैजिकल रियलिज़्म का प्रयोग करना शुरू किया था जो बाद के महत्वपूर्ण लेखकों ने विकसित किया। वे मानते थे कि यथार्थ वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिक नियमों की पकड़ में नहीं आ सकता। एक जादुई बुद्धिमता से ही मानवीय पद्धतियों को उजागर किया जा सकता है। ग्रीक दुखान्तकों की महानता के पीछे वे इसी बुद्धिमता की गहनता मानते थे। गैब्रियल गर्सिया मार्केस ने इस कला का भरपूर प्रयोग किया और पाठकों को अविश्वास और शंकाओं की स्थिति से ऊपर रख कर अपनी कहानियों में पूरी-तरह खो जाने का वातावरण पैदा किया।
कहावत है कि लैटिन अमेरिका के आकाश पर दिन अभी नहीं चढ़ा है। बहुत ही तेज़ी से बदलता हुआ प्रदेश एक अनिश्चितता की स्थिति बनाये हुए है। जो आज है वह कल बदल सकता है। राजनीतिक स्थितियाँ अभी तक उन के अपने हाथ में कम दीखती हैं। इस विस्तृत प्रदेश का सही मानस जानने के लिए हमें यहाँ के साहित्य को ही देखना होगा जो बड़ा सीधा, सरल और स्पष्ट रूप से राजनीतिक है। यहाँ का साहित्य अलग-अलग तरह की यात्राओं पर हमारे मन को ले चलता है। इस की साक्षी किसी भी सामाजिक या आर्थिक दस्तावेज से अधिक सत्यपूर्ण और ईमानदार है। लैटिन अमेरिका के साधारण जन खूब परिश्रमी ओर मन को मोह लेने वाले इंसान हैं। 1911-1919 में मैक्सिको की किसान क्रान्ति के नेता एमिलियो जपाटा एक साधारण विद्रोही किसान ही था। एक लम्बे समय तक यहाँ की समस्या गरीबी के संघर्ष से मुक्त होने की रही है। उन्हीं का संघर्ष यहाँ के साहित्य में हर जगह उभर कर आता है। किसी न किसी रूप में सामाजिक विद्रोह ही वहाँ के साहित्य की परम्परा बन चुकी है। उन की कृतियों का हीरो एक फक्कड़ गरीब इंसान ही है। ऐसे पात्र है जो अपनी यातनाओं से आक्रान्त नहीं हैं। उन्हें इस सभ्यता और उस से होने वाले लाभों पर विश्वास नहीं है। Los De Abajo (1916) में मैक्सिको के लेखक मरियानो एज़ुएला ने लिखा था 'यह विद्रोह का एक देर तक सुनाई देने वाला आर्तनाद है जो मैक्सिको में 1910 की किसान क्रान्ति के बाद की स्थिति का वर्णन करता है।' इस किसान क्रान्ति में लगभग दस लाख गरीब लोग मारे गये थे। एक मुट्ठीभर क्रान्तिकारी सिपाहियों की यह गाथा उस समय के अपाहिज समाज की स्थिति को बेनकाब करती है। Jorge Amado के लम्बे उपन्यास भी गरीब किसानों की स्थिति का चित्रण हैं जिन के पास खुशी देने के लिए प्रकृति का सौंदर्य भी नहीं है। उन की राजनीतिक प्रतिबद्धता उन्हें और भी असहाय बनाती है। पूरी तरह सामन्ती और ज़मींदारी एक तरफ़ निहत्थे और गरीब किसान एक तरफ। 1934 में लिखे गये एक उपन्यास Huasipungo में एक दृश्य है जिसमें मूल निवासी 'इन्डियन' एक परिवार को पीठ पर लाद कर पहाड़ी रास्ते पर चलने की तैयारी करते हैं :
'तीन इन्डियन लोगों ने कमीज़ की बाजुओं से अपने चेहरे के कोहरे को पोंछा और अपने मालिकों को पीठ पर लादने को तैयार हो गये। उन्होंने अपने पोंचो (एक तरह का लम्बा वस्त्र) उतारे, अपनी मैली-कुचैली ढीली ढाली पैंन्टों को जांघों तक ऊपर चढ़ाया, अपनी टोपियाँ उतारीं और अपने पोंचों को अपनी गर्दन पर लपेट लिया। उनके शरीर अब उस सर्दी को झेलने के लिए तैयार थे जो उनके जगह-जगह से फटे हुए कपड़ों से छन कर उन की त्वचा को छू रही थी। उन्होंने अपने कंधे उस परिवार की तरफ़ घुमा दिये जो खच्चरों से उतर कर उन की पीठ पर बैठ गये। और इस तरह ठंडे़ गीले कीचड़ में धंसते हुए वह आगे बढ़ने लगे।'
इस के अतिरिक्त शहरी गरीबी और यातनाओं का पता चलता है - एक काली ब्राज़िलियन औरत कैरोलिन मरिया की डायरी से। वह साओ पालो की झुग्गी-झोपड़ी में रहती थी। यह डायरी कोई साहित्यिक कृति नहीं है, न ही कोई समाजशास्त्रियों के लिए शोध की सामग्री, लेकिन उस ज़िन्दगी की आँखों में चुभती हुई तस्वीर है। बहुत बाद में जाकर 1962 में यह फ्रांस में प्रकाशित हुई थी।
इन स्थितियों के अतिरिक्त एक और लगातार बना रहने वाला संघर्ष था उस समाज में जो तीन महान जातियों के बीच लम्बे समय तक चला। यूरोपियन गोरे, अफ्रीकी काले और वहाँ के मूल निवासी पीले जिन्हें गलती से Red Indian कहा जाता है - तीनों एक दूसरे से स्वयं को बचा कर रखते थे। यूरोपियनों ने आते ही वहाँ के मूल निवासियों के साथ एक असभ्य और जंगली बर्ताव करना शुरू कर दिया। सिर्फ़ शोषण से जातियाँ समाप्त नहीं होतीं। उन्हें अपनी बारूदी शक्ति से गोरों ने उन के निवास क्षेत्र से खदेड़ कर एमेज़न के उन जंगलों में शरण लेने को मजबूर कर दिया जहाँ जीना वैसे भी आसान नहीं है। फिर भी जैसे-तैसे इन इन्डियनों की जातियाँ अपने आप को बचा कर रख सकीं क्योंकि वे बहुत गहनता से एक दूसरे साथ गुथी हुई जातियाँ थीं। शारीरिक और मानसिक रूप से शक्तिशाली जातियाँ बगैर बारूद, बगैर लोहे के हथियारों के अपना अस्तित्व बनाए रख सकीं, यह उन की संस्कृति की ताकत थी और उनका प्रकृति के साथ तादात्म्य जो उन्हें लगभग निहत्था हो कर भी उन सभ्य-जंगली यूरोपियनों के हाथों पूरी तरह ख़त्म होने से बचा सका। उन के पास तीर कमान, छोटे औज़ार और हर तरह काम आने वाला जानवर यामा था। उन की भीतरी ताकत का परिणाम है कि आज मैक्सिको जैसे देश अपने आप को विधिवत 'इंडियन प्रदेश' कह कर पुकारे जाने में गर्व अनुभव करते हैं।
काले लोगों की स्थिति इस से भिन्न रही है। उन्हें खानों में, बागान में और अन्य प्रकार के श्रम के लिए 16वीं सदी में गुलाम बना कर लाया गया था। जहाँ भी सोना था, खेत थे या सड़कें इत्यादि बनाई जाती थीं, उन्हीं के आस पास नगरों में वे अभी तक बसे हुए हैं। उन की ज़रूरत एटलांटिक समुद्र तट के आस पास अधिक थी जहाँ इन्डियनों की संख्या कम थी। इसलिए वे उत्तरी ब्राज़ील में अधिक बसाए गये जो कि उपनिवेशकाल में वहाँ का केन्द्र था। बड़े शहरों में सभी जगह उन को काम मिला। उस के अतिरिक्त वैस्ट इन्डी़ज़ में वे सभी जगह ही अधिक हैं।
गोरे लोगों ने दो अलग समयांशों और स्थितियों में लैटिन अमेरिका पर कब्ज़ा किया। पहली विजय के बाद जो 1442 में ही शुरू हो गई थी, गोरे लोग ख़ासतौर पर वहाँ स्थापित हुए जहाँ पहले से ही महान और विस्तृत इण्डियन सभ्यताएँ स्थापित थीं। वहाँ उन्हें बनी बनाई प्रजाएं मिल सकती थीं। काम करने के लिए हृष्ट-पुष्ट लोग मिल सकते थे। सन् 1600 तक इस प्रदेश में डेढ़ लाख लोग आकर बस गये थे। एन्डीज़ की ऊँची पहाड़ियों पर भी वे कीमती धातुओं के लालच में आकर रहने लगे थे। बैरोक कला के नमूने आज भी उन की उस समय की समृद्धि की निशानियाँ हैं। दूसरी तरफ ब्राज़ील में पुर्तगाली आए। उन्हें 'इन्डियन' लोगों की घनी आबादी का सामना नहीं करना पड़ा। उस क्षेत्र में दूर-दूर बिखरी हुई जन जातियाँ थीं। उसी कारण वहाँ अधिक काले लोग बसे जो गुलाम बना कर लाये गये थे। बाहिया शहर उन का केन्द्र बना। डच लोगों ने जो सोने की खोज में यहाँ आये थे Rio De Janeiro बसाया जो बाद में चल कर यहाँ की राजधानी बना। वेस्ट इन्डीज़ में जमैका आदि द्वीपों में गन्ने और कॉफी के खेतों के लिए काले लोगों की बस्तियाँ बनीं। बिल्कुल अलग 'सोबराडोज़' यानी अमीर लोगों के महली निवास और 'मुकाम्बोज़' यानी काले गुलामों की झुग्गियाँ आज भी उस जमाने की याद दिलाती हैं। एक ही व्यक्ति किस तरह सैंकड़ों हज़ारों का मालिक हो सकता है - मालिक का मतलब काम देने वाला नहीं, बल्कि उन की जी जान का मालिक - उन के परिवारों का मालिक हो सकता है ऐसी मिसालें सिर्फ़ उत्तरी और लैटिन अमेरिका में ही मिल सकती हैं। हालांकि गुलाम प्रथा तो और देशों में भी रही है, जब से सभ्यता का इतिहास शुरू हुआ तभी से। सभ्यता से पहले गुलामी नहीं थी।
दूसरी स्थिति आई जब लैटिन अमेरिका के देश उपनिवेश न रह कर आज़ाद हो गये। तब बड़े पैमाने पर सारे यूरोप से, ख़ासतौर पर इटली, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी से जहाज़ भर-भर कर समुद्र से लोग यहाँ आने लगे। एक तरह से यहाँ भी यू.एस.ए. और कैनेडा का इतिहास ही दोहराया जा रहा था। शुरू में इटली से अधिक लोग आए। शायद इसीलिए फ्रांसीसियों ने इसे लैटिन अमेरिका कहना शुरू किया। नयी आर्थिक सम्पन्नता इन्हीं बाहर से आये हुए लोगों ने पैदा की। धीरे-धीरे शुद्ध श्वेत कम होते गये। रक्त के मिश्रण ने एक नई किस्म की नस्ल पैदा की। गोरे-काले, गोरे-पीले, और काले-पीले रंग के रक्त मिश्रण से इस महाद्वीप को नई पहचान मिली। उत्तरी अमेरिका में भी यह मिश्रण है, लेकिन इतना नहीं। इस मिश्रित रक्त ने सिर्फ़ त्वचा का रंग ही नहीं बदला, बल्कि एक पूरी नई संस्कृति, कला, संगीत, साहित्य को जन्म दिया। अरजेन्टीना को छोड़ कर बाकी सभी देशों में मिश्रित रक्त के लैटिनो अपनी सीटी जैसी आवाज़ों, गीतों, शोर-शराबे से दूर से पहचाने जा सकते हैं। लैटिनो संस्कृति एक समानान्तर संस्कृति है जो यूरोप और अमेरिका की गोरी संस्कृति से कहीं ज्यादा जीवन्त, मानवीय, सरल और निश्छल है। अब गोरे-काले, पीले और मिश्रित लैटिनो एक ही मेज़ पर बैठ कर खाना खा सकते हैं। उनका सांझा साहित्य है जो दुनिया पर अपनी छाप छोड़ चुका है। Jorge Amado (होर्हे अमादो) के उपन्यास का लाखों की संख्या में बिकना आज से पचास साल पहले संभव नहीं था। Gabriel Garcia Marquez (Colombia), Pablo Neruda (Chile), Jorge Luis Borges (Argentina), Horacio Castellanos (El Salvador), Julio Cort'zar (Argentina), Victoria de Stefano (Venezuela), Juan Rulfo (Mexico), Mario Vargas Llosa (Peru) जैसे विश्वविख्यात लेखक वहाँ मौजूद हैं। इतनी बड़ी संख्या में इतने अधिक बड़े लेखक आज शायद और किसी महाद्वीप में नहीं हैं।
नोबेल पुरस्कार की साख अब चाहे जितनी भी कम हो गई हो, फिर भी विश्व का सबसे बड़ा पुरस्कार अब भी वहीं गिना जाता है। लैटिन अमेरिका के सात नोबेल पुरस्कार विजेता अपनी साख में पुरस्कार की वजह से ही बड़े नहीं हुए। सबसे पहले चिले की गेब्रियेला मिस्त्राल (1945) पुरस्कृत हुईं। उसके बाद पुरस्कृत होने वालों में पाब्लो नेरूदा (Pablo Neruda) 1971, गैब्रियल गर्सिया मार्केस (Gabriel Garcia Marques) 1982 तथा आक्तेवियो पाज़ (Octavio Paz) शामिल हैं।
जब से लैटिन अमेरिका वजूद में आया है तभी से जो कुछ भी उस धरती के लोगों ने भोगा है वहाँ के साहित्य के पन्नों में धड़कता है। वहाँ के इण्डियन लोगों की यातना, गोरों के ज़ुल्म, कालों का दैत्याकार दुर्भाग्य, राजनीतिक संघर्ष, लोक जीवन, जन मानस, नई मिश्रित संस्कृति, रोमांस, मिथक, जादुई यथार्थ और उस के साथ ही वहाँ की असफ़लताएँ, निराशाएँ, बाहर के षड्यंत्रों से मुक्ति पाने की छटपटाहट, एक विवशता, विस्तृत पूंजीवादी दबाव की सतह के नीचे अथाह समाजवादी मानस उस प्रदेश की क्रान्तिकारिता को कभी सोने नहीं देता। सिर्फ़ उदास भर करता है।
(मार्च 2006)