उदास गाछक वसन्त / रूपम झा

Gadya Kosh से
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कवयित्री सम्मेलनमे मुख्य अतिथिक रूपमे किरणके देखि हमरा अचरज भेल। अपने आँखि पर भरोस नहि भऽ रहल छल। चैदह बरखक बाद ओकरा देखि रहल छलहुँ, से देखिते रहलहुँ। ओकरा आँखिमे वैह चमकी छलैक, आकृतिमे आत्मविश्वास-काॅलेजक समय बला।

एहन नहि जे ओकर नजरि हमरा पर नहि पड़लै। पड़ल होयतैक, नहियो पड़ल होयतैक, मुदा हमरा लागल जे ओकर नजरि हमरा पर पड़लैक। मुदा, ओ हमरा नहि टोकलक। नहि चिन्हने होअय।

कवि सम्मेलनक मंच पर आयल छलि, तँ ओकरा सोचक चाही जे हमहूँ भऽ सकैत छी। काॅलेजमे ओ हमरा खौंझाबय, "गे कबूतरी...नो, नो, कवयित्री...लिख कविता...घुपचुप खुअएबही, तँ सुनि लेबौ...मंगनीमे किएक सुनबौ?"

हम कहियै, "से तोरा कविता सुनयबा लेल अपन डायरी के खोलने अछि? जो-जो, किताबक बहु नहितन। किताबेसँ बियाह केने छें ने! ने ओ तोरा छोड़ै छौ आ ने तों ओकरा छोड़ै छें।"

आ किरण आवेशसँ हमरा पजिया लिअए आ फुसफुसा कऽ बाजय, "बेजाय मानि गेलें? गे, पढ़बै नहि तँ टाॅप कोना करबै? आ टाॅप नहि करबै, तँ तोरा नीक लगतौ? चल, हमहीं खुअबै छियौ घुपचुप।"

किरण जतबे गुणवती छलि, ततबे रूपवती सेहो। हम बरोबरि हँसी करियै, "लगैए जे तोहर पढ़ाइ पूरा होमऽसँ पहिने केओ लऽ कऽ भागि ने जाउ।"

"एत्ते सस्ता छियै गे? दरोगाक बेटी छियै। ओहन कड़गर दरोगा जकर नामे सुनि कऽ लफुआ सभ नुका जाइत अछि।"

"आ जँ प्रेमसँ केओ लऽ जाउक, तँ...?"

"चिन्ता नहि कर। एखनि तेहन कोनो बात नहि छै।"

से किरण हमरा नहि चिन्हलकि। नहि चिन्हलकि, तँ नहि चिन्हलकि। हम तँ चिन्हलियै। हम ओकरा लग जा कऽ कहलियै, "हमरा चिन्हलहुँ प्रोफेसर किरण?"

ओ हमर हाथ पकड़ैत बाजलि, "हँ गे शालू। पहिने कने विस्मृति भेल, फेर..."

किरणक स्वर गंभीर छलैक, मुदा क्षणहि लागल जेना एकटा मुस्की उधार लेने होअय आ ओही मुस्कीक संग हमरा पजियबैत बाजलि, "तोरो देह-दशा बदलि गेलौए, तें।"

हमरा मोन भेल जे कहियै-मोन मुदा ओहने अछि।

हमरा अपन मंचीय दायित्व मोन पड़ल आ हम मंच-संचालनमे लागि गेलहुँ। एही क्रममे हमरा दुनूक बीच फोन नम्बरक लेन-देन भेल। किरण उद्घाटनक कनिये काल बाद चलि गेलि।

रातिमे निन्न नहि आबय। किरण हमरा मोनमे घुरिआइत छल। मोन पड़ल, काॅलेजक बादे ओकरा संग ओत्तेकटा घटना भेलै। अखबारमे पढ़ने रही-दरोगा की बेटी। तकर बाद पढ़ि कहाँ सकल रही। मायकें कहने रहियै जे किरणसँ भेंट करऽ चाहै छी, मुदा माय मना कऽ देने रहय। से, किरणसँ गप करबा लेल मोन आतुर भऽ गेल छल। हम मोबाइल हाथमे लेलहुँ। देखैत छी जे ह्वाट्सेप पर किरण किछु लिखने अछि। ओ लिखने छल-मोन रहय जे तोहर कविता सुनी, मुदा ताहि लेल अंत धरि बैसऽ पड़ैत। कोनो दिन तोरा संग बैसि कऽ अपन पहिलुक दिन सभ मोन पाड़ऽ चाहै छी। गुड नाइट। "

" प्रात भेने मायकें फोन कयलियै। रातिक बात कहलियै। कहलियै जे किरण असिस्टेंट प्रोफेसर भऽ गेल अछि।

"कोन किरण?" लागल जेना माइयो ओकरा बिसरि गेल होइक।

"वैह। सुधाकर ककाक बेटी. हमर संगी।" हम बजलहुँ।

"ओ किरनियाँ? पुछलही नहि जे ओकर माय आ भाय कतऽ छै?" माय बाजलि।

से, गप नहि भऽ सकल। "

"बड़ नीक लोक छलै ओकर माय। बाबू सेहो। मुदा, बेटीक भाग्य एहन ने भेलै, जे सभ छिन्न-भिन्न भऽ गेलै।"

ओही दिन हमर बेटीक जन्मदिन छलैक। माय कहलक जे अवसर छौ। किरणकें बजा ले। हमहूँ ह्वाट्सेप पर किरणकें नोत दऽ देलियै। मुदा, नहि आयल। लिखने रहय-कने व्यस्त छी। अयबौ कोनो दिन।

दू दिनक बाद हम एकसरिए घरमे बैसल रही तँ किरण मोन पड़ल। मोन भेल जे किरणकें फोन करियै। आ कि तखनहि कालबेल बाजल। एखनि के होयत? ई सोचितहि केबार खोललहुँ तँ देखलहुँ जे किरण सोझाँमे ठाढ़ अछि। हमरा ओ भरि पाँज कऽ पजियबैत भीतर आयल आ घरक चारूकात नजरि दौगबैत बाजल, "ई घर अपन छौ कि किरायाक?"

"अपन।"

"वाह। नीक।" बजैत ओ कोठरी सभ देखैत भानसघरमे गेल आ प्रफुल्लित होइत बाजल, "किचेन तँ खूब नीक छौ। हवादार आ अटैच बालकनी।"

हम गिलासमे पानि भरैत कहलियै, "चल, बैसि कऽ गप करी।" आ हम दुनू गोटे सोफा पर बैसि गेलहुँ। सोफा पर बैसैत ओ बाजल, "हमर मामी कहैत रहै छथिन जे जाहि मौगीके घरबला बेसी मानै छै, तकरा नीक भानसघर बना कऽ दै छै।" आ हँसऽ लागल।

"धुर जो। ई तँ एक तरहें भेलै जे स्त्री खाली भानसे-भात बनबैत रहय।" हम बजलहुँ।

ओ तुरते हमर बात कटलक, "पुरान लोक छथि, पुरान बात बजैत छथि। अच्छा, कह। बच्चा कएटा छौ?"

"एकटा बेटी."

"आ वर?"

हमरा हँसी फुरायल। बजलहुँ, "ओहो एकेटा। आॅफिस गेल छथि।"

दुनू गोटेक ठहक्का छूटल। ठहक्का बन्न होइतहि पुछलकि, "काकी?"

"दिल्ली मे। बेटा लग। ओहिदिन तोरा बारेमे कहलियै, तँ हालचाल पुछैत एहय। तोहर माँक समाचार सेहो।" कने थम्हैत पुछलियै, "कतऽ छथुन माँ?"

"बंगलौर मे। विभाकर लग।" बजैत गंभीर भऽ गेल। अनचोके ओकर गंभीर होयब हमरा कोनादन लागल। हमरा अपन मायक बात मोन पड़ल। माय कहने रहय जे बियाहक तुरते बाद वर छोड़ि देने रहैक आ ताही सोगे सुधाकर कका मरि गेलाह। हम किरणक सिउँथ दिस तकलहुँ। सिन्नुर नहि देखायल। ओ चुप छलि।

हम सेन्टर टेबुलक नीचासँ एकटा साहित्यिक पत्रिका बहार कऽ दैत कहलियै, "ताबत ई देख। चाह बनौने अबैत छी, तखन बतिआयब।"

एतेक सुनितहि ओ काॅलेज जीवनक किरण बनि गेल। बाजल, "तों बड़ काबिल। हम पत्रिका देखी आ तों...तोरा बुझल छौ जे बिन भोजक हम कविता ने सुनै छी आ ने पढ़ै छी।"

"तखन ओहिदिन कवयित्री सम्मेलनक मुख्य अतिथि किएक बनल छलें?"

"मुख्य अतिथि बनऽ लेल कवि वा कवयित्री होयब ज़रूरी थोड़े होइ छै आइकाल्हि। कवयित्री सम्मेलन रहै, कोनो महिलेक ज़रूरत रहै। हमरा नेहोरा कयलक, तँ मानि गेलियै। आ नहि रहितहुँ तँ तों कोना भेटितें?" बाजि कऽ ओ उठल आ बाजल, "चल संगहि चाह बनाबी."

चाहक चुस्की लैत पुछलियै, "एतऽ एसगरे रहैत छें?"

"तँ आर के रहत?"

हम पुछलियै, "बेजाय नहि मान तँ एकटा बात पुछियौ?"

"पूछ ने।"

"हम तँ मात्र अखबारमे पढ़ने रही जे। बात नहि बूझि सकलियै जे।" कने थम्हि कऽ हम बजलहुँ, "हम तोहर संघर्ष-यात्रा बूझऽ चाहैत छी।"

"जकर जीवनक बाट पर पाथरे-पाथर होइक, ओकरा बारेमे बूझि कऽ की करबें?"

"तैयो..."

"हमरा जीवनमे हमर मामाक महत्त्वपूर्ण भूमिका छनि। नीको लेल आ बेजाइयो लेल।" ओ बाजऽ लागलि, "सभकें बूझल रहै जे हमर बाबू कतेक कड़गर लोक रहथिन। ईमानदार आ बहादुर सेहो। मामा बाबूकें कहथिन जे एतऽसँ बदली करा लिअऽ। ई अपराधीक जगह छै। तँ बाबू कहथिन जे कतऽ नहि छै अपराधी? जँ अपराधीसँ डेरायत तँ पुलिसक नोकरी किएक करत? बाबू मामाक बात नहि मानलखिन। किछु दिनक बाद बाबूके पता लागलनि जे कुसियारसँ लदायल ट्रकमे हथियार जा रहल छैक। बाबू ओकरा 'रेड' कयलखिन। ओ सभ बहुत प्रलोभन देलकनि, मुदा ओ नहि मानलखिन। अपराधी सभके सजाय भेलैक। आ तकरे खाहिंससँ ओकरे लोक सभ हमरा 'टारगेट' कयलक आ..."

बजैत-बजैत किरण हकमऽ लागलि। हमरो सुनबाक हिम्मति नहि भेल। हमरा मोन पड़ल अखबारक हेडलाइन-नवम कक्षाक लड़कीक संग सामूहिक बलात्कार आ हत्याक प्रयास। लागल जेना किरण पाथर भऽ गेल होअए. हम छुलियै तँ साकांक्ष भेल। बाजऽ लागल, "अथक प्रयासक बादो बाबू बलात्कारीके पकड़ि नहि सकलाह। आ, सभ किछु हेरा कऽ पुर्णियाँ बदली करौलनि। बाबू बीमार रहऽ लगलाह। ब्लड प्रेशर, डायबिटीज आ हर्टक रोगी भऽ गेलाह। हमरो पढ़ाइ डिस्टर्ब होमऽ लागल। हमरा बुझाय जे सभक मुँह आ आँखि प्रहार करैत अछि हमरा पर। तकर बाद हमर माय-बाबू जीक एकेटा चिन्ता रहि गेलियनि-हम। एकेटा चिन्ता जे एहि दागलसँ के बियाह करत?"

किरण हमरा दिस घुरैत अपन पीठ उघारैत बाजल, "देख ले हमर चेन्ह।"

हम देखलहुँ जे पीठ पर चक्कूक बड़का चीराक चेन्ह छलैक। किरण जाँघ उघारि कऽ देखयबाक प्रयास करैत बाजल, "देख, एतऽ ओहूसँ नमहर छै।"

हम देख नहि सकलहुँ।

"मुदा, हमर वैह प्रोफेसर मामा हमर माय-बाबूक चिन्ता दूर कयलनि आ हमर बियाह तय कयलनि।" किरण फेर बाजलि, " बियाह भेल। लड़का हैदराबादमे नोकरी करैत छल। ओतहि बैसि गेल छल ओ सभ। गाम छोड़िए देने छल। बियाह दिल्लीमे भेल। बियाहक बाद बाबू सभ एम्हर आ हम हैदराबाद। मोने-मोन लड़काक प्रति नतमस्तक रही जे हमरा सनक लड़कीके स्वीकारलक। मुदा...

मुदा, पहिले मिलनमे जखने ओ हमरा अपन बाहुपाशमे बान्हलक कि ओकर हाथ हमर पीठक चेन्ह पर गेलै। हमरा लागल जे ओकर हाथ चेन्हक लम्बाइ नापैत अछि। लड़काक हाथ ढ़ील भऽ गेलै। ओ अलग होइत पुछलक-ई चेन्ह केहन?

हमरा तँ बुझल छल जे ओकरा सभ बात कहल गेल छै, तें हमहूँ कहि देलियै। ताहि पर ओ चिचिया उठल-धोखा। धोखा भेल हमरा संग। तखन हमरा बुझायल जे एकरा किछु ने बुझल छै आ हम सभटा साँच कहि देलियै।

राति भरि दुनू गोटें चुपचाप बैसल रहलहुँ। प्रात भेने बात पसरि गेलै। हमर बाबूकें फोन भेलनि। कहल गेलनि जे बेटीके लऽ जाथि, नहि तँ पहुँचा देल जेतनि। हमरा मोन भेल जे विरोध करी। एतेक आसान छै ककरो सिनुरा कऽ छोड़ि देनाइ. मुदा हम विरोध नहि केलियै। जँ ओकरा सभके हमर साँच नहि कहल गेलै, तँ ओकर कौन दोख? दोखी तँ मामा छथि। हम घर घुरऽ लेल तैयार भऽ गेलहुँ। सोचलहुँ, आब ककरो सोंगर पर नहि चलब। अपन पयर मजगूत करब।

हमरा पूर्णियाँ पहुँचऽ सँ कनिये काल पहिने बाबू एहि लोकसँ बिदा भऽ गेलाह। ई बुझल रहय जे फोन भेलाक बाद हर्ट अटैक भेलनि आ अस्पतालमे छथि। मुदा..."

फेर हिंचकऽ लागल किरण। हम ओकरा एक गिलास जल देलियै आ कहलियै, "आब नहि सुनि सकबौ। चल बाल्कनीमे बैसी." मुदा ओ नहि गेल। बाजल, "मामा अपराध बोधसँ पीड़ित रहथि। ओ हमर संघर्षमे संग दऽ अपन अपराध कम कयलनि। हमर ससुर बरोबरि कहय जे हम तलाक दऽ दियै, जाहिसँ ओ बेटाकें दोसर बियाह कऽ सकय। मुदा, से हम ताबत धरि नहि मानलियै, जाबत नेट-जे आर एफ पास नहि केलियै। पछिला बरख ओकरा मुक्त कऽ देलियै।"

"एकबेर फेर चाह भऽ जाय...नहि, आब काॅफी।" वातावरणकें हल्लुक करऽ लेल हम बजलहुँ।

फेर दुनू गोटें संगहि काॅफी बनौलहुँ। ओ बजैत रहल, "बाबूक लहास लग माय हमरा देख कऽ घौना करै आ कहै-घरके खाम्ह खसि गेलौ गे दाइ. तखने हम सोचलहुँ जे घरक खाम्ह हम बनब। एतऽ धरि आबऽमे ई पुरुष जाति कम तंग नहि कयलक, मुदा चोट खयने हमर मोन-देहके आब अपन सुरक्षा करऽ आबि गेलै।"

काॅफीक चुस्की लैत हम वातावरण के हल्लुक करबाक प्रयासमे काॅलेज समयक गप-सप कयलहुँ। तकर बाद किरण फ्रेश लागल।

ओ देबाल घड़ी दिस ताकऽ लागल, तँ कहलियै, "एकटा बात कह तँ?"

"की?"

"की सभ पुरुष एक्के रंगक होइ छै-जेना तों देखलेहें?"

किरण चुप।

"बजैत नहि छें।"

किरण बाजल, "नहि, से एम्हर करीब छओ माससँ हमर मान्यता बदलऽ लागल अछि।"

हम चिहुँकि उठलहुँ। किरण मुस्किआइत हमर हाथ पकड़ि लेलक आ जोरसँ दबा देलक।