उदास जोकर की आनंदमयी बॉबी / जयप्रकाश चौकसे

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उदास जोकर की आनंदमयी बॉबी
प्रकाशन तिथि : 29 अक्तूबर 2013


राज कपूर की ऋषि कपूर, डिंपल कपाडिय़ा और प्रेमनाथ अभिनीत 'बॉबी' के प्रदर्शन को चालीस वर्ष हो चुके हैं और नायक-नायिका के बच्चे भी सितारे हो चुके हैं। ऋषि कपूर 'बॉबी' के तीन वर्ष पूर्व 'मेरा नाम जोकर' में कमसिन नायक की भूमिका के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके थे और आज भी चरित्र भूमिकाओं में सक्रिय हैं। 1973 में ही सलीम-जावेद की 'जंजीर' का प्रदर्शन भी हुआ था परंतु उसके चार वर्ष पूर्व से ही अमिताभ बच्चन प्रयास कर रहे थे। इतने वर्षों बाद आज भी अमिताभ बच्चन एवं ऋषि कपूर सक्रिय हैं तथा कभी-कभी डिंपल भी नजर आ जाती हैं।

'बॉबी' और 'जंजीर' दोनों ही सिनेमा के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। 'बॉबी' पहली फिल्म भी जिसमें युवा प्रेमियों की भूमिकाएं युवा कलाकारों ने की थी। शशि कपूर, राजेंद्र कुमार आदि अनेक कलाकारों ने कॉलेज छात्रों की भूमिकाएं उस वय में की जब उन्हें अनुभवी प्राध्यापक होना चाहिए था। 'जंजीर' इसलिए महत्वपूर्ण है कि आक्रोश की मुद्रा में नायक पहली बार प्रस्तुत हुआ था और सलीम-जावेद ने पटकथा लेखन में एक नया दौर प्रारंभ किया था। अमिताभ ने अभूतपूर्व भावना की तीव्रता से अपनी भूमिका निभाई थी। इन दोनों फिल्मों की व्यावसायिक सफलता ने सिनेमा को दो धाराओं में बांट दिया - प्रेम-कथा और आक्रोश-व्यथा। परंतु यह आक्रोश सामाजिक अन्याय को लेकर नहीं था, वरन् व्यक्तिगत बदले की कहानी थी। जाने कैसे इसे सामाजिक आक्रोश की तरह प्रचारित कर दिया गया। संभवत: उन्हीं दिनों चल रहे जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के कारण ऐसा हुआ। सामूहिक अवचेतन अजब गजब रिश्ते जोड़ता है, क्योंकि उन दिनों अमिताभ बच्चन भारतीय राजनीति के प्रथम परिवार से बहुत गहरे जुड़े थे और आंदोलन उसी परिवार के खिलाफ था।

यह भी गौरतलब है कि राजकपूर की ख्याति उनकी सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों के लिए थी परंतु 'बॉबी' एक विशुद्ध युवा प्रेम-कथा थी जिसमें किसी प्रकार का संदेश नहीं था। यहां तक कि इसे अमीर-गरीब की प्रेमकथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि लड़की का पिता भी अमीर मछुआरा है। स्पष्ट है कि 'जंजीर' पर सामाजिक प्रतिबद्धता लाद दी गई थी और राजकपूर प्रतिबद्धता से पलायन कर रहे थे। अठारह दिसंबर 1970 को 'मेरा नाम जोकर' असफल हुई और एक वर्ष बाद राजकपूर की 'कल, आज और कल' भी विफल रही थी तथा उनके नजदीकी शंकर तक यह कहने लगे थे कि राजकपूर सो गया है। उनके जीवन में यह कष्ट का समय था। दो फिल्में असफल रहीं। माता-पिता की मृत्यु हो गई। प्रिय साथी शैलेंद्र और जयकिशन नहीं रहे। जब नरगिस से अलगाव हुआ और 'जागते रहो' नहीं चली। तब भी कष्ट का समय था परंतु माता-पिता का आशीर्वाद और सृजन सहयोगी साथ थे। अत: सफल फिल्म 'जिस देश में गंगा' उन्होंने गढ़ी। यह बात अलग है कि नरगिस के जाते ही उनकी नायिकाओं का झुकाव शरीर प्रदर्शन की ओर हो चुका था। बहरहाल संकट पहले से कहीं अधिक गहरा था और अस्तित्व ही संकट में था।

राजकपूर प्राय: आर्ची कॉमिक्स पढ़ते थे। संकट के गहराते अंधेरों में पन्ने पलटते हुए उन्हें आर्ची कॉमिक्स में एक संवाद पढऩे को मिला 'यू आर टू यंग टू फॉल इन लव' - ये उम्र नहीं है प्यार की। इस संवाद के पढ़ते ही उनके दिमाग में बिजली सी कौंध गई - कमसिन उम्र की प्रेम-कथा, उस जादुई वय की ताजगी लिए। बस वे पटकथा में जुट गए। नायक तो घर में ही था और मुन्नी धवन की सिफारिश पर उन्होंने डिम्पल कपाडिय़ा का स्क्रीन टेस्ट लिया और उसकी अनगढ़ता में छुपे हीरे को परख लिया। उसकी ट्रेनिंग शुरू हुई। लक्ष्मी-प्यारे के साथ संगीत की बैठकें शुरू हुईं और उन्हें 'तीसरी कसम' की शूटिंग के समय सागर में विट्ठलभाई पटेल के घर सुना लोक संगीत याद आया जो कुछ परिवर्तन के साथ 'झूठ बोले कव्वा काटे' के रूप में बना परंतु विट्ठलभाई का राजकपूर के आग्रह और मार्गदर्शन से बना थीम गीत 'वह कहते हैं नादां हो, यह उम्र नहीं है प्यार की, वे क्या जानें कली खिल चुकी बहार की' को नहीं बनाया गया। औघड़ राजकपूर की सृजन प्रक्रिया ही कुछ ऐसी थी कि जहां से कहानी शुरू की जा सकती थी, वहां से नहीं करते थे। गौरतलब यह है कि उन गहरे संकट के दिनों में मनोरंजन और आनंद देने वाली फिल्म एक 'जोकर' ही रच सकता था क्योंकि वह आंसू के मध्य से मुस्कान देख सकता है।