उनका अपराध / रंजना जायसवाल
पड़ोस के घर में मची चीख-पुकार से रमा की नींद उचट गयी। लो फिर शुरू हो गया महाभारत... ये गरीबों के लिए बने सरकारी आवास भी विचित्र होते हैं। सबकी दीवारें एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं। रात में एक घर में चम्मच गिरे तो दूसरे घर तक आवाज जाए. दिन में भी कोई अपने घर में आराम से नहीं सो सकता। सड़क पर खेलते बच्चों की आवाजें सीधे सिर में आकर लगती हैं। कभी-कभी तो वह झल्ला जाती है पर करे क्या निजी स्कूल की अध्यापिका होने के नाते कहीं और घर लेने की उसकी हैसियत भी तो नहीं। किसी तरह से गरीब वर्ग के लिए बने हुए इसी सरकारी घर को ले पाई. वह इसी में खुश है कि कम से कम अपना घर तो है पर जब रिश्तेदारों को मुंह बनाता देखती है] तो उसे दुख होता है। सबके पास बड़े भवन और बड़ी गाडियाँ हैं और भी दुनियावी बहुत कुछ। वे अपने को महान सफल और सम्पूर्ण मानते हैं तो ठीक है न। पर उसे तो इन सारी दुनियावी संसाधनों की कोई लालसा नहीं। उसके पास ज़रूरत का सब कुछ है अधिक नहीं तो कम भी नहीं और वह इसी में खुश है। वह शांति और सूकून से अपना अध्ययन-अध्यापन और लेखन का कार्य करती है।
पर पड़ोस से आती आवाजें उसकी शांति और अध्ययन में बाधा डालती हैं। आज फिर पड़ोस की ममता जी को उनका बेटा डांट रहा था। ममता जी की उम्र यही कोई साठ साल की होगी। वे उसी के विद्यालय की अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं। उसी की तरह के आवास में अकेली रहती हैं। कभी-कभार उनका बेटा आता है और बात-बात पर चीखता-चिल्लाता है। उसे बहुत गुस्सा आता है कि वह किस अधिकार से ममता जी पर चिल्लाता है। वह न तो उनके पास रहता है] न उनको अपने पास रखता है ना उनकी देख-भाल करता है। फिर क्यों।
आवाजें तेज होती जा रही थीं] रमा अपने घर से निकलकर उनके घर आ गयी–आज उनके बेटे की खबर लेगी। बेटा ड्राइंगरूम में बैठा हुआ था और उसके सामने अपराधिनी की तरह ममता जी खड़ी थीं। उसे देखकर उन्होने कहा–रमा जी आप बैठिए मैं नहाकर आती हूँ। वह यही तो चाहती थी कि उनके बेटे के साथ अकेले में बात करने का मौका मिल जाए. उसने उससे बातें शुरू की। -तुम अपनी माँ को अपने पास क्यों नहीं रखते। इस उम्र में अकेली रहती हैं। खुद बनाती-खाती हैं। अक्सर बीमार हो जाती हैं कुछ हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा।
वह झल्लाकर बोला–ये अपनी हालत के लिए खुद जिम्मेदार हैं। जो बोया है वही तो काटेंगी। अकेले का जीवन चुना था अकेले रह रही हैं। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। -तुम्हें जन्म दिया है ...माँ हैं तुम्हारी ...इस उम्र में उनकी देखभाल करना तुम्हारा दायित्व है।
सिर्फ जन्म देने से कोई औरत माँ नहीं बन जाती आंटी. बहुत त्याग-तपस्या करनी पड़ती है। माना सात साल की उम्र तक इन्होंने ही पाला पर उसके बाद तो पिता के साथ रहा। तमाम दुख झेला। सौतेली माँ के अत्याचार सहे। कितनी मुश्किल से अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूँ। इन्होंने मेरे लिए किया ही क्या है जो मैं इनके लिए कुछ करूँ। -कच्ची उम्र और बेरोजगारी में बिना पति के किसी सहयोग के सात साल तक बच्चा पालना आसान समझते हो तुम।
इसमें कौन बड़ी बात है मैं भी बेटा पाल रहा हूँ। सब पालते हैं। -तुम पुरूष हो पैंतीस साल के हो। पत्नी का साथ है। अच्छी नौकरी में हो। क्या उनकी और तुम्हारी स्थिति में समानता है। फिर क्यों उनसे तुलना कर रहे हो।
उन्होंने आपको उल्टी-सीधी कहानी सुनाई होगी इसलिए आप उनके पक्ष में बोल रही हैं -मैं सच के पक्ष में बोल रही हूँ। तुम पत्नी के साथ इसी घर में आकर क्यों नहीं रहते।
पिता जी नहीं चाहते ...फिर घर भी तो छोटा है -तो ठीक है इन्हीं को अपने घर ले जाओ.
पत्नी नहीं चाहती ...उसे आजादी पसंद है। -चलो इतना तो कर सकते हो कि खाना बनवाकर पहुंचा दिया करो। थोड़ी दूर पर ही तो रहते हो।
बेटा छोटा है ...पत्नी इतना खाना कैसे बनाएगी। -माँ के लिए दो रोटियाँ नहीं बना सकती।
नहीं ससुराल पक्ष का कोई न कोई हमेशा मेरे घर रहता है। रिश्तेदारों का आना-जाना भी लगा रहता है। वह बेचारी अकेले कितना काम करेगी। -तभी तो कह रही हूँ इन्हें साथ रखो। कम से कम बच्चा तो देखेंगी।
यह सम्भव नहीं। अपनी प्राइवेसी भी तो कोई चीज है। फिर इन्होंने तो अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्जी से जी ली है। अब हम लोग तो अपने हिसाब से जी. -अपनी मर्जी से-का क्या मतलब है।
मतलब मुझे छोडकर ...अकेले ...आजादी से ...अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए.
बात अभी अधूरी ही थी कि ममता जी बाथरूम से निकलकर ड्राइंगरूम में आ गईं। बेटे की आखिरी बात उन्होंने सुन ली थी। कुर्सी पर बैठते हुए दुखी स्वर में बोलीं-तुम भी अपने पिता की तरह बार-बार मुझी पर दोषारोपण करते हो मैंने तुम्हें नहीं छोड़ा था। तुम्हारे पिता ही तुम्हें धोखे से उठा ले गए थे। फिर दूसरी शादी भी कर ली। कई बच्चे भी पैदा कर लिए. फिर भी वह निर्दोष और मैं दोषी। मैं उस समय कमउम्र कमजोर बेरोजगार अकेली और मजबूर थी ...कुछ न कर सकी। तुम्हारे पास नहीं आ सकती थी वे मेरे साथ कुछ भी कर सकते थे। पर तुम क्यों नहीं आ गए मेरे पास। क्यों नहीं जिद की मेरे पास आने के लिए. सात साल के थे सब कुछ समझने लगे थे] बड़े होकर भी नहीं आए. ...क्यों पिता की बात को मन में बैठा लिया कि मैंने अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए तुम्हें त्याग दिया था। कभी जानने-समझने की कोशिश तो की होती।
ये सब बहाना है आपने अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए ही मुझे छोड़ा था। -यह तुम्हारे पिता की जुबान है...उन्हीं की भाषा है। क्या कभी उनसे भी प्रश्न किया कि तुम्हारे रहते उन्होंने दूरा विवाह क्यों किया वह भी पहली पत्नी को बिना तलाक दिए उनके इस गैरकानूनी कदम का तो तुम समर्थन करते रहे हो। अपनी अवैध दूसरी माँ का तो तुम सम्मान करते हो फिर मुझी से सौतेला व्यवहार क्यों।
इसकी जिम्मेदार आप खुद हैं। उन्होंने मुझे पाला भी तो है। -और मैंने कुछ नहीं किया।
हाँ] कुछ नहीं किया है इसलिए आपका मुझपर कोई हक नहीं।
वह फिर अपने उसी राग पर आ गया। उनकी बातचीत से रमा समझ गयी थी कि वह ममता जी के अतीत के उस दुखद प्रसंग को हथियार की तरह इस्तेमाल करके उनकी ज़िम्मेदारी उठाने से बचना चाहता है। वह बिलकुल अपने पिता पर गया था। उसके पिता ने भी तो अपनी अवैध दूसरी शादी और उससे उत्पन्न बच्चों को जायज करार देने के लिए ममता जी को महत्त्वाकांक्षी व कठकरेजी करार दे दिया था। कितना विचित्र है यह समाज जहां स्त्री की जायज महत्त्वाकांक्षा भी अपराध बन जाती है जहां अवैध रिश्ते रखने वाला पुरूष सम्मानित है पर संघर्ष करती स्त्री चरित्रहीन। जहां पुरूष की दैहिक ज़रूरत जायज और स्त्री की नाजायज समझी जाती है। जहां बच्चों वाला पिता शान से दूसरी शादी करता है पर बच्चे वाली स्त्री को कोई स्वीकार ही नहीं करना चाहता। करता भी है तो अपनी इस महानता के पैरों तले स्त्री और उसके बच्चे को आजीवन दबाए रखता है। कितनी दोहरी नीति है इस समाज की। ममता जी का बाल विवाह कर दिया गया। किशोर अवस्था में माँ बना दिया गया। सात साल तक बच्चा पलवाकर फिर बच्चे को अगवा करके अपना दूसरा विवाह कर लिया गया। फिर भी समाज उन्हीं से प्रश्न करता रहा दोषारोपण। करता रहा। अब बेटा भी उन्हें ही दोषी कह रहा है। क्या था ममता जी का अपराध बस यही न कि उन्होंने परिस्थितियों से हार नहीं मानी। पढ़ाई पूरी की ...अपने पैरों पर खड़ी हुई. समाज का अकेले दम सामना किया। अगर वे आत्महत्या कर लेती तो शायद यह समाज उनका गुणगान करता। बेटे के मन में भी उनके प्रति सम्मान होता। पर ममता जी कायर नहीं थीं और यही उनका अपराध था। उनकी महत्त्वाकांक्षा भी क्या थी–अधूरी पढ़ाई पूरी करना ताकि अपने पैरों पर खड़ी होकर सम्मान से जी सकें। हद है कि इसी को अपराध बना दिया गया। यदि वे चरित्रहीन होतीं या उनका किसी के साथ अवैध रिश्ता होता तो एक बात समझ में आती। पर मानवीय अधिकार मांगना ही जब अपराध बना दिया जाय] तो इसे ज्यादती ही कहेंगे और इस ज्यादती का शिकार ममता जी आजीवन होती रहीं। रमा लेखिका है इसलिए ममता जी का मूल्यांकन वह तैराक की तरह नहीं कर पाई. वह गोताखोर की तरह उनके अंत: स्थल तक पहुंची थी और वहाँ हाहाकार करती स्त्री को देखकर दंग रह गयी थी।
बरसों बाद बेटा मिला था इसलिए ममता जी मोहग्रस्त हो गयी थीं। पर बेटे को उनसे कोई मोह नहीं था। फिर उसपर पिता का भी दबाव था जो नहीं चाहता था कि ममता जी से वह जा जुड़े। रमा ने कई बार उन्हें समझाया था कि पेड़ से टूट गए पत्ते फिर से डाल पर नहीं लगा करते पर उन्हें अपनी अच्छाई पर अतिरिक्त विश्वास था। उन्हें लगता था कि बेटा उनका अपना रक्त है उन्हें समझेगा पर वे भूल गयी थीं कि उसमें पिता का अंश ज़्यादा है संसकार भी। फिर जिसकी परवरिश ही उनकी खिलाफत से हुई थी वह उनके दुख-दर्द को क्योंकर समझता।
उनका अपराध [कहानी]
मंगल सुधार की ज़रूरत नहीं
पड़ोस के घर में मची चीख-पुकार से रमा की नींद उचट गयी। लो फिर शुरू हो गया महाभारत... ये गरीबों के लिए बने सरकारी आवास भी विचित्र होते हैं। सबकी दीवारें एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं। रात में एक घर में चम्मच गिरे तो दूसरे घर तक आवाज जाए. दिन में भी कोई अपने घर में आराम से नहीं सो सकता। सड़क पर खेलते बच्चों की आवाजें सीधे सिर में आकर लगती हैं। कभी-कभी तो वह झल्ला जाती है पर करे क्या? निजी स्कूल की अध्यापिका होने के नाते कहीं और घर लेने की उसकी हैसियत भी तो नहीं। किसी तरह से गरीब वर्ग के लिए बने हुए इसी सरकारी घर को ले पाई. वह इसी में खुश है कि कम से कम अपना घर तो है। पर जब रिश्तेदारों को मुंह बनाता देखती है, तो उसे दुख होता है। सबके पास बड़े भवन और बड़ी गाड़ियाँ हैं और भी दुनियावी बहुत कुछ। वे अपने को महान सफल और सम्पूर्ण मानते हैं तो ठीक है न। पर उसे तो इन सारी दुनियावी संसाधनों की कोई लालसा नहीं। उसके पास ज़रूरत का सब कुछ है अधिक नहीं, तो कम भी नहीं और वह इसी में खुश है। वह शांति और सूकून से अपना अध्ययन-अध्यापन और लेखन का कार्य करती है।
पर पड़ोस से आती आवाजें उसकी शांति और अध्ययन में बाधा डालती हैं। आज फिर पड़ोस की ममता जी को उनका बेटा डांट रहा था। ममता जी की उम्र यही कोई साठ साल की होगी। वे उसी के विद्यालय की अवकाश प्राप्त शिक्षिका हैं। उसी की तरह के आवास में अकेली रहती हैं। कभी-कभार उनका बेटा आता है और बात-बात पर चीखता-चिल्लाता है। उसे बहुत गुस्सा आता है कि वह किस अधिकार से ममता जी पर चिल्लाता है। वह न तो उनके पास रहता है, न उनको अपने पास रखता है, ना उनकी देख-भाल करता है, फिर क्यों?
आवाजें तेज होती जा रही थीं। रमा अपने घर से निकलकर उनके घर आ गयी–आज उनके बेटे की खबर लेगी। बेटा ड्राइंगरूम में बैठा हुआ था और उसके सामने अपराधिनी की तरह ममता जी खड़ी थीं। उसे देखकर उन्होंने कहा–रमा जी आप बैठिए, मैं नहाकर आती हूँ।
वह यही तो चाहती थी कि उनके बेटे के साथ अकेले में बात करने का मौका मिल जाए. उसने उससे बातें शुरू की। -तुम अपनी माँ को अपने पास क्यों नहीं रखते? इस उम्र में अकेली रहती हैं। खुद बनाती-खाती हैं। अक्सर बीमार हो जाती हैं। कुछ हो गया तो कौन जिम्मेदार होगा?
वह झल्लाकर बोला–ये अपनी हालत के लिए खुद जिम्मेदार हैं। जो बोया है वही तो काटेंगी। अकेले का जीवन चुना था, अकेले रह रही हैं। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? -तुम्हें जन्म दिया है ...माँ हैं तुम्हारी ...इस उम्र में उनकी देखभाल करना तुम्हारा दायित्व है।
सिर्फ जन्म देने से कोई औरत माँ नहीं बन जाती आंटी. बहुत त्याग-तपस्या करनी पड़ती है। माना सात साल की उम्र तक इन्होंने ही पाला पर उसके बाद तो पिता के साथ रहा। तमाम दुख झेला। सौतेली माँ के अत्याचार सहे। कितनी मुश्किल से अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूँ। इन्होंने मेरे लिए किया ही क्या है जो मैं इनके लिए कुछ करूँ? -कच्ची उम्र और बेरोजगारी में बिना पति के किसी सहयोग के सात साल तक बच्चा पालना आसान समझते हो तुम?
इसमें कौन बड़ी बात है मैं भी बेटा पाल रहा हूँ। सब पालते हैं। -तुम पुरूष हो पैंतीस साल के हो। पत्नी का साथ है। अच्छी नौकरी में हो। क्या उनकी और तुम्हारी स्थिति में समानता है? फिर क्यों उनसे तुलना कर रहे हो?
उन्होंने आपको उल्टी-सीधी कहानी सुनाई होगी इसलिए आप उनके पक्ष में बोल रही हैं। -मैं सच के पक्ष में बोल रही हूँ। तुम पत्नी के साथ इसी घर में आकर क्यों नहीं रहते?
पिता जी नहीं चाहते ...फिर घर भी तो छोटा है। -तो ठीक है इन्हीं को अपने घर ले जाओ.
पत्नी नहीं चाहती ...उसे आजादी पसंद है। -चलो इतना तो कर सकते हो कि खाना बनवाकर पहुंचा दिया करो। थोड़ी दूर पर ही तो रहते हो।
बेटा छोटा है ...पत्नी इतना खाना कैसे बनाएगी! -माँ के लिए दो रोटियाँ नहीं बना सकती?
नहीं, ससुराल पक्ष का कोई न कोई हमेशा मेरे घर रहता है। रिश्तेदारों का आना-जाना भी लगा रहता है। वह बेचारी अकेले कितना काम करेगी! -तभी तो कह रही हूँ इन्हें साथ रखो। कम से कम बच्चा तो देखेंगी।
यह सम्भव नहीं। अपनी प्राइवेसी भी तो कोई चीज है।
फिर इन्होंने तो अपनी ज़िन्दगी अपनी मर्जी से जी ली है। अब हम लोग तो अपने हिसाब से जी. -अपनी मर्जी से-का क्या मतलब है?
मतलब मुझे छोडकर ...अकेले ...आजादी से ...अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए.
बात अभी अधूरी ही थी कि ममता जी बाथरूम से निकलकर ड्राइंगरूम में आ गईं। बेटे की आखिरी बात उन्होंने सुन ली थी। कुर्सी पर बैठते हुए दुखी स्वर में बोलीं-तुम भी अपने पिता की तरह बार-बार मुझी पर दोषारोपण करते हो मैंने तुम्हें नहीं छोड़ा था। तुम्हारे पिता ही तुम्हें धोखे से उठा ले गए थे। फिर दूसरी शादी भी कर ली। कई बच्चे भी पैदा कर लिए. फिर भी वह निर्दोष और मैं दोषी। मैं उस समय कमउम्र कमजोर बेरोजगार अकेली और मजबूर थी ...कुछ न कर सकी। तुम्हारे पास नहीं आ सकती थी वे मेरे साथ कुछ भी कर सकते थे। पर तुम क्यों नहीं आ गए मेरे पास? क्यों नहीं जिद की मेरे पास आने के लिए? सात साल के थे सब कुछ समझने लगे थे, बड़े होकर भी नहीं आए.। क्यों पिता की बात को मन में बैठा लिया कि मैंने अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए तुम्हें त्याग दिया था? कभी जानने-समझने की कोशिश तो की होती।
ये सब बहाना है आपने अपनी महत्त्वाकांक्षा के लिए ही मुझे छोड़ा था। -यह तुम्हारे पिता की जुबान है...उन्हीं की भाषा है। क्या कभी उनसे भी प्रश्न किया कि तुम्हारे रहते उन्होंने दूसरा विवाह क्यों किया वह भी पहली पत्नी को बिना तलाक दिए उनके इस गैरकानूनी कदम का तो तुम समर्थन करते रहे हो। अपनी अवैध दूसरी माँ का तो तुम सम्मान करते हो फिर मुझी से सौतेला व्यवहार क्यों?
इसकी जिम्मेदार आप खुद हैं। उन्होंने मुझे पाला भी तो है। -और मैंने कुछ नहीं किया?
हाँ, कुछ नहीं किया है इसलिए आपका मुझपर कोई हक नहीं।
वह फिर अपने उसी राग पर आ गया। उनकी बातचीत से रमा समझ गयी थी कि वह ममता जी के अतीत के उस दुखद प्रसंग को हथियार की तरह इस्तेमाल करके उनकी ज़िम्मेदारी उठाने से बचना चाहता है। वह बिलकुल अपने पिता पर गया था। उसके पिता ने भी तो अपनी अवैध दूसरी शादी और उससे उत्पन्न बच्चों को जायज करार देने के लिए ममता जी को महत्त्वाकांक्षी व कठकरेजी करार दे दिया था। कितना विचित्र है यह समाज जहां स्त्री की जायज महत्त्वाकांक्षा भी अपराध बन जाती है जहां अवैध रिश्ते रखने वाला पुरूष सम्मानित है पर संघर्ष करती स्त्री चरित्रहीन। जहां पुरूष की दैहिक ज़रूरत जायज और स्त्री की नाजायज समझी जाती है। जहां बच्चों वाला पिता शान से दूसरी शादी करता है पर बच्चे वाली स्त्री को कोई स्वीकार ही नहीं करना चाहता। करता भी है तो अपनी इस महानता के पैरों तले स्त्री और उसके बच्चे को आजीवन दबाए रखता है। कितनी दोहरी नीति है इस समाज की। ममता जी का बाल विवाह कर दिया गया। किशोर अवस्था में माँ बना दिया गया। सात साल तक बच्चा पलवाकर फिर बच्चे को अगवा करके अपना दूसरा विवाह कर लिया गया। फिर भी समाज उन्हीं से प्रश्न करता रहा दोषारोपण। करता रहा। अब बेटा भी उन्हें ही दोषी कह रहा है। क्या था ममता जी का अपराध? बस यही न कि उन्होंने परिस्थितियों से हार नहीं मानी। पढ़ाई पूरी की ...अपने पैरों पर खड़ी हुई. समाज का अकेले दम सामना किया। अगर वे आत्महत्या कर लेती तो शायद यह समाज उनका गुणगान करता। बेटे के मन में भी उनके प्रति सम्मान होता। पर ममता जी कायर नहीं थीं और यही उनका अपराध था। उनकी महत्त्वाकांक्षा भी क्या थी–अधूरी पढ़ाई पूरी करना, ताकि अपने पैरों पर खड़ी होकर सम्मान से जी सकें। हद है कि इसी को अपराध बना दिया गया। यदि वे चरित्रहीन होतीं या उनका किसी के साथ अवैध रिश्ता होता, तो एक बात समझ में आती। पर मानवीय अधिकार मांगना ही जब अपराध बना दिया जाय, तो इसे ज्यादती ही कहेंगे और इस ज्यादती का शिकार ममता जी आजीवन होती रहीं। रमा लेखिका है इसलिए ममता जी का मूल्यांकन वह तैराक की तरह नहीं कर पाई. वह गोताखोर की तरह उनके अंत: स्थल तक पहुंची थी और वहाँ हाहाकार करती स्त्री को देखकर दंग रह गयी थी।
बरसों बाद बेटा मिला था इसलिए ममता जी मोहग्रस्त हो गयी थीं। पर बेटे को उनसे कोई मोह नहीं था। फिर उसपर पिता का भी दबाव था जो नहीं चाहता था कि ममता जी से वह जा जुड़े। रमा ने कई बार उन्हें समझाया था कि पेड़ से टूट गए पत्ते फिर से डाल पर नहीं लगा करते पर उन्हें अपनी अच्छाई पर अतिरिक्त विश्वास था। उन्हें लगता था कि बेटा उनका अपना रक्त है उन्हें समझेगा पर वे भूल गयी थीं कि उसमें पिता का अंश ज़्यादा है संस्कार भी। फिर जिसकी परवरिश ही उनकी खिलाफत से हुई थी, वह उनके दुख-दर्द को क्योंकर समझता?