उनका दूसरा घर मास्को में हिन्दुस्तान का दूतावास (इन्द्रकुमार गुजराल) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यह संस्मरण अपने आप में ऐतिहासिक महत्व रखता है, चूँकि फ़ैज़ की ज़िन्दगी, उनकी सृजनात्मक यात्रा और उनके जीवन-संघर्ष के विभिन्न पड़ावों की एक विश्वसनीय तस्वीर इसमें मौजूद है। वैसे गुजराल साहब लाहौर के कालेज के दिनों में उनके शिष्य थे, पर बाद में यह रिश्ता पक्की दोस्ती में तब्दील हो गया था। फ़ैज़ की निजी ज़िन्दगी में गुजराल साहब की अच्छी पैठ थी और इसके साथ ही उनकी शायरी से उनका गहरा लगाव भी। —सम्पादक
फ़ैज़ ने एक बार लिखा था :
अब कोई पूछे भी हम से तो क्या शरह (हालात का खुला बयान)
हालात लिखें
दिल ठहरे तो दर्द सुनायें और दर्द थमे तो बात करें
दिसम्बर 1983 ई. में इस्लामाबाद में एक अंतर्राष्ट्रीय कांफ्ऱेस के लिए मुझे भी निमंत्रण-पत्र मिला। पुराने दोस्तों से मिलने की इच्छा और अपना पुराना देश देखने का उत्साहपूर्ण आकर्षण तीन सप्ताह के लिए वहाँ ले गया, लेकिन जाने से प्यास बढ़ी, कम नहीं हुई। लाहौर से मेरा विशेष सम्बन्ध बहुत गहरा था। इसी शहर की गलियों और सड़कों पर जवानी का बड़ा हिस्सा कटा था। वही यूनिवर्सिटी की पुरानी बिल्डिंग, वही मेरे कॉलिज और हॉस्टल, वही रोड पर बनी मेरी ससुराल की कोठी जहां हमारी शादी हुई थी। उस शाम की यादें उमड़ कर कौंध आईं जब बारात में फ़ैज़ और मज़हर अली बाराती थे। यह बात तो फ़ैज़ भी नहीं भूले थे। मेरी पत्नी से मिलते ही पूछा — ‘अपना घर देख आई हो ना ?’
लाहौर में वह ऐतिहासिक ब्रेडला हॉल भी और लाजपत राय भवन भी थे जहां बक़ौल मजाज़ :
फ़ितरत ने सिखाई थी हमको उफताद ( परेशानी, तंगी।) यहां
परवाज़ (उड़ान) यहां गाये थे वफ़ा के गीत यहां छेड़ा था जुनूं का साज़ यहां
और इसी जुनून ने फ़ैज़ से भेंट भी करवाई थी। इस्लामाबाद में कांफ्रेंस समाप्त हुई तो पेशावर से होते हुए लाहौर पहुँचे। फ़ोन पर बात तो पहले ही हो चुकी थी। सूचना मिलते ही फ़ैज़ और एलिस हमारे होटल आ गये। यूं तो निमंत्रण था कि हम दोनों उनके यहां ठहरें। लेकिन उनका घर शहर से बाहर मॉडल टाऊन में था और हम बहुत सारे मित्रों से मिलने के इच्छुक थे। और इससे अधिक इच्छा थी उन गलियों और सड़कों पर घूमने की जो जानी-पहचानी थीं। वैसे भी फ़ैज़ आदतानुसार बाहरी दिखावे से घृणा करते थे। हमारी विवशता के कारण उन्हें उचित लगे।
उन दिनों हिन्दुस्तान की क्रिकेट टीम भी लाहौर में मैच खेलने गई थी। हमारे राजदूत हुमायूं कबीर ने उनके सम्मान में हमारे ही होटल में एक दावत दे रखी थी। ज्यों ही उनको मालूम हुआ कि फ़ैज़ और एलिस मेरे कमरे में हैं तो अपने अमले के साथ आ गए। फ़ैज़ से उनकी भेंट तो न थी लेकिन इस बहाने से उनका परिचय हो गया और हम सभी पार्टी में जा पहुँचे। पार्टी तो परहेज़गारों की थी। हर प्रकार के कबाब तो उपलब्ध थे लेकिन पाकिस्तानी क़ानून शराबबन्दी पर अड़े थे। काफ़ी देर तक फ़ैज़ कोकाकोला किस्म के ड्रिंक्स पर सब्र करते रहे।
मास्को के बाद फ़ैज़ से मेरी भेंट लगभग दो वर्ष बाद हो रही थी। चेहरा कुछ ढला हुआ था, और चाल भी पहले से धीमी (थी)। मैंने एलिस से कारण पूछा। कहने लगीं डॉक्टरों ने दिल के विषय में शंका प्रकट की थी लेकिन अब उनको तसल्ली हो गयी है; और फ़ैज़ आदतानुसार सिगरेट की झड़ी लगा रहे थे। लेकिन यह कोई पहली बार तो था नहीं कि डॉक्टरों ने उनको कुछ संयम की सलाह दी थी। मास्को में भी एक बार डॉक्टरों ने उनको अस्पताल में बंद कर दिया था। यूं तो उनके लिए वहां ठहरना अच्छा था। डॉक्टर ज़ेड० ए० अहमद, हाज़रा बेग़म , पी०सी० जोशी उन दिनों वहीं थे और अस्पताल में उनकी आपस में ख़ूब छनती थी। एक दिन मुझसे फ़ोन पर कहने लगे ‘भाई, जब मिलने आओगे तो हमारी प्यास का ध्यान करते आना’। मैंने कहा ‘ग़ज़ब कर रहे हैं आप, डॉक्टरों ने आपको कड़ाई से मना कर रखा है।’ ‘अरे भाई, तुम भी ख़ूब हो, डॉक्टरों ने मुझे मना किया है, आपको नहीं और यूँ भी डॉक्टर अहमद बुरा मान रहे हैं’। लेकिन ग़ज़ब तो यह हुआ कि उन्हें मृत्यु उस समय आई, जब लगभग एक वर्ष से वे परहेज़गार हो गए थे और जो लोग हाल ही में उनसे लंदन में मिलकर आए थे वे इस बात की गवाही दे रहे थे कि वे अब पहले से अधिक स्वस्थ लग रहे हैं।
अगले दिन शाम को हम दोनों खाने के लिए उनके घर पहुंचे। एलिस ने केवल अपनी दोनों बेटियों और दामादों को बुलाया था सलीमा और मुनीज़ा बहुत पहले भी हमारे पास आ चुकी थीं जब वे बहुत छोटी थीं। अब तो उनके बच्चे बहुत प्यारे लग रहे थे। फ़ैज़ को तो पता था कि मैं हमेशा से ही बोतल से दूर रहता हूं लेकिन फिर भी हिंदुस्तानी ह्निस्की मौजूद थी। ‘अरे।’ मैंने पूछा ये कैसे?’ ‘हम तो सुनते हैं कि क़ानून अब घरों के अंदर भी हिसाब-किताब करने वाले भिजवा देता है। और फिर यह हिंदुस्तानी ह्निस्की यहां कैसे पहुंची।’ ‘अरे सब चलता है मियां। हम और कौन से आदेश मान रहे हैं जो इस पर पाबंद रहें।’ कराची में किसी ने चुटकुला सुनाया था कि अकेले पीना ज़्यादा ख़तरनाक है क्योंकि ज़िया साहब के राज में अब दीवारों की भी आंखें होती हैं। लेकिन बड़ी पार्टी में आसान है। शर्त केवल यह है कि पार्टी के साइज़ की संख्या के अनुसार किसी ख़ास पद के फ़ौजी अफ़सर को भी दावत दे दीजिए। उस दिन बात अधिकतर राजनीतिक विषयों पर ही रही। बदलती हुई परिस्थितियों में हिंद-पाकिस्तान के संबंधों, अफ़ग़ानिस्तान में रूस के प्रवेश का प्रभाव भिन्न-भिन्न लोगों पर अलग-अलग था। वामपंथ उसमें ख़तरा महसूस नहीं करता था। बल्कि उनके दृष्टिकोण में यह सब न होता यदि पाकिस्तानी सरकार अमेरिका की खिलौना न बनती और सोशलिस्ट निज़ाम को तुड़वाने के प्रयास में भागीदार न होती। एक और सोच (समझ) अधिक थी कि इस मौक़े पर पाकिस्तानी प्रोग्रेसिव संगठनों को भारत से संबंध सुधारने के प्रयास करने चाहिए। उन्हीं दिनों फ़ैज़ बैरूत से लौटे थे। वहां के लोगों की बदहाली ने उनके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। उस दौर की नज़्में उस पीड़ा को व्यक्त करती हैं। उस शाम हमने उनसे फ़िलिस्तीनी बच्चे के नाम ‘लोरी’ सुनी।
अभी कुछ महीनों पहले दिल्ली में हम लोगों ने मिलकर फ़ैज़ के सतरवें जन्मदिन का उत्सव मनाया था। फ़ैज़ के दामाद हाशमी साहब कहने लगे कि उसका प्रभाव पाकिस्तान के लोगों पर बहुत गहरा था। ‘महीनों लोग हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक और लिबरल समाज की बातें करते रहे। बहुत से लोगों ने तो उस हिंदुस्तानी टीवी के प्रोग्राम की कैसिट्स भी बना ली थीं। लेकिन हमारे यहां की भी सुनिए, फ़ैज़ तो यहां थे नहीं। यहां भी एक जन्मदिन कमेटी बनायी गयी। समाचार निकलते ही उसके सब सदस्य मेरे साथ गिरफ़्तार कर लिये गये और हमने जन्मदिन पुरानी अनारकली के थाने के गंदे सेल में गुज़ारा।’ और फिर वे बताने लगे कि ‘इसी थाने में एक रोचक घटना हुई। हमारे साथ न जाने क्यों पुलिस वाले एक नौजवान मौलवी को भी पकड़ लाये थे। वह बेचारा परेशानी में बहुत रो रहा था और बार-बार कहता था कि मैं तो जनरल साहब का समर्थक हूं, मुझे पकड़ने में कोई ग़लती हुई है। इसमें से किसी ने कहा कि अरे साहब हम सब भी तो ज़िया साहब के कृपापात्रा और समर्थक थे। लेकिन कल रात कुछ फ़ौजी अफ़सरों ने ज़िया साहब को बाहर कर दिया है। इसलिए उनके सभी समर्थक पकड़े जा रहे हैं।’ बाहर खड़ा संतरी सुन रहा था। वह दौड़ा थानेदार को बताने। थानेदार ने तुरंत किसी को फ़ोन किया। जवाब में डांट पड़ी तो हमारे पास आकर कहने लगा ‘आपका यह मज़ाक हमको तो चौपट ही करने वाला था। खु़दा का शुक्र है कि अफ़सर मेहरबान था।’ यह हमारी अंतिम भेंट थी। अगले दिन हम वापस दिल्ली आ रहे थे। पिछले वर्ष मैंने उनको अंबाला के मुशायरे में भागीदारी करने के लिए लिखा लेकिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा गया इसलिए यहां आने के बजाय अस्पताल में भर्ती हो गये। मज़हर ने उनकी बीमारी की सूचना भेजी और साथ ही वह नज़्म जो उन्होंने मेव अस्पताल में लिखी थी। हमेशा की तरह उसमें दुख भी था और संकल्प भी :
इस वक़्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब, न सूरज, न अंधेरा, न सवेरा
आंखों के दरीचों झरोखों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो, मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आखि़री फेरा
शाखों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न एक महर, न इक रबत, (ताल्लुक़, मेल-जोल) न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया न कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त कड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है
फ़ैज़ की शायरी में जहां दुख की गहराई है, उसके साथ ही हिम्मत और संकल्प हमेशा (हमें) आशा की ओर ले जाते हैं।
लंबी क़ैद और यह डर कि फांसी की सज़ा न हो जाये, इस सोच को कम न कर पाये, बल्कि उनकी शायरी को चार चांद लगाते रहे ‘लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’ यूं तो रावलपिंडी केस से पहले भी सबकी तरह कई बार उन पर भी निराशा का दौर दिखायी देता है। मगर बहुत कम।
ये बज़्म चरागां देती है, इक ताक़ अगर वीरां है तो क्या
और या
शीशों का मसीहा कोई नहीं क्यों आस लगाये बैठे हो
लेकिन उनकी शायरी की ख़ूबसूरती यह थी कि इस दुख और निराशा के पीछे परिवेश के दुख-दर्द की कहानी है जिसे वे ख़ूबसूरती से अपने में आत्मसात कर और भी परिष्कृत कर पेश कर देते हैं। फ़ैज़ की ज़बान, उनकी रूमानियत और क्रांति ने ही हमारी पीढ़ी को उनकी ओर आकर्षित किया था। अब तो बात बहुत पुरानी लगती है। बड़ी लड़ाई (द्वितीय विश्वयुद्ध) पूरे उफान पर थी। कहना कठिन था कि अंत में हिटलर जीतेगा या हारेगा। लेकिन हिंदुस्तान के स्वाधीनता संघर्ष को पूरा विश्वास था कि उसके पूरे होने की घड़ी आ पहुंची है। मैं उस दौर में कॉलेज के आखि़री दिनों में था। लेकिन पढ़ाई से अधिक उलझाव था। वामपंथ की राजनीति के साथ था और इस कारण हमें जेलबंदी हुई थी। हम जैसे लोगों के राजनीतिक स्वप्न स्वतंत्राता के भी अगले पड़ाव के बारे में ही सोचते थे। इसीलिए युगीन सामाजिक-साहित्यिक संबंध और क्रांति के पारस्परिक प्रभावों पर अक्सर बहस रहती थी। उसी दौर में प्रगतिशील लेखकों का आंदोलन भी उभर कर सामने आ रहा था। नये लिखने वालों में फ़ैज़ की (विशिष्ट) शैली के चर्चे चल निकले थे।
अचानक ही हमारे कॉलेज में सूचना आयी कि फ़ैज़ अमृतसर छोड़कर लाहौर हमारे ही कॉलेज में अंग्रेज़ी साहित्य के लेक्चरर होकर आ रहे हैं। आश्चर्य हुआ क्योंकि सिर्फ़ हमारा कॉलेज सरकारी ही नहीं था, बल्कि हमारे प्रिंसिपल अंग्रेज़ थे, लेकिन थे बड़े खुले दिमाग़ के आदमी। स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति थी, शायद इसलिए (ही) फ़ैज़ के चुनाव में उनको कोई परेशानी न थी। किसी सीमा तक अदृश्य परिचय तो था ही, थोड़े ही दिनों में हमारा संबंध शिष्य-गुरु की सीमा पार कर गया और एक लंबी मित्रता की आधारशिला पड़ी।
उठती जवानी में कई आकर्षण एक साथ प्रकट होते हैं और हम लोगों के लिए क्रांति के कई अर्थ थे। उसमें देस से दोस्ती भी थी, सामाजिक संबंधों को बदल देने का संकल्प भी था। नये प्रकार की शायरी से रुचि थी और उस पीढ़ी में हमारे मित्रा साहिर और सरदार जाफ़री जैसे शायर अपनी प्रतिभा दिखा रहे थे। लेकिन उन सब चेहरों और रुझानों में रूमानियत का अंश हावी रहता था। इसीलिए फ़ैज़ की उस समय भी शायरी हमारी उन सभी भावुक बहसों की प्रतिनिधि थी और दिल में उतर जाती थी। हमारा कोई भी सहयोगी या मित्रा ऐसा न होगा जिसको नक़्शे-फ़रियादी याद न हो या दैनिक जीवन में ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’ की बात न करता हो।
फ़ैज़ की प्रसिद्धि का एक कारण उनकी सादा और आम बोलचाल की भाषा ही थी। उस दौर में कॉडवेल की पुस्तक ‘स्टडीज़ इन डाइंग कल्चर’ प्रकाशित हुई। उसकी भूमिका आज भी याद आती है जिसमें उसने कहा था कि शायरी एक रूमान भी है क्योंकि उसका संबंध भाषा और समाज से है, इसलिए उसको अलग नहीं किया जा सकता। यही बात फ़ैज़ ने अपने ढंग से प्रस्तुत कर दी है। उस दौर में जॉन फ्रि़मेन की आत्मकथा छमू ज्मेजंउमदज की भी चर्चा चली और उसने वामपंथ के समर्थकों में एक नकारात्मक क़िस्म की हलचल पैदा कर दी। फ्ऱीमेन किसी दौर में कम्युनिट थे मगर अब कम्युनिज़्म छोड़ चुके थे। शायर भी थे इसलिए उनके बारे में राय भी अलग-अलग थी। लेकिन उनके जीवन की एक घटना बड़ी ख़ूबसूरती से कही गयी है। अपने यूनिवर्सिटी के दिनों में उनकी भेंट एक ख़ूबसूरत लड़की से हुई जिसने उनसे एक दिन पूछा कि कॉलेज छूटने के बाद आप क्या करेंगे?’ ‘शायरी और क्रांति’। लड़की को यह विचार बड़ा ख़ूबसरूत दिखायी दिया लेकिन उसने उचित यही समझा कि उभरते प्रेम को छोड़कर किसी ख़ुशहाल नौजवान (युवक) से शादी कर ली जाये। फ़ैज़ भी तो शायरी और क्रांति (इंक़लाब) को अपना चुके थे लेकिन उनका भाग्य फ्ऱीमेन से बेहतर था। यह सूचना कि फ़ैज़ एक अंग्रेज़ औरत से शादी कर रहे हैं और वह भी इंग्लिस्तान गये बिना, बड़ी आश्चर्यजनक लगी। लेकिन उसमें भी फ़ैज़ की अपनी विशिष्टता थी। एलिस अपनी बहन मिसेज तासीर से मिलने अमृतसर आयी हुई थी कि फ़ैज़ से भेंट हो गयी। हमख़याली ने प्रेम-संबंध को मज़बूत व अटूट कर दिया। जिस दौर में फ़ैज़ लाहौर आये उस समय तासीर श्रीनगर में प्रिंसिपल होकर चले गये, इसलिए शादी वहां रचायी गयी और निकाह स्वर्गीय शेख अबदुल्लाह ने पढ़ाया। बाद के वर्षों में शेख़ साहब उसकी अक्सर चर्चा किया करते थे। शादी में कश्मीर नेशनल फ्रंट के सारे बड़े नेता शामिल हुए थे। सादिक़ साहब और बख़्शी ग़्ाुलाम मुहम्मद के साथ फ़ैज़ की मित्राता उसी समय आरंभ हुई। फ़ैज़ को कुदरत ने बहुत-सी नेमतों से नवाज़ा था। लेकिन एलिस जैसी पत्नी बहुत कम लोगों के भाग्य में होती है। जिस ढंग और बांकपन से फ़ैज़ की पत्नी ने मुश्किलों के दिन काटे हैं, वह उनकी सराहनीय हिम्मत का सबूत है। ब्रिटिश सेना में शामिल होकर जंग में भाग लेने के कारण वामपंथी कलाकारों और सोचने वाले कुछ और दोस्त यह महसूस करने लग गये थे कि पहली बात नाज़ी बर्बरता को हराने की है और हिटलर की जीत के परिदृश्य में कोई क्रांतिकारी और प्रगतिशील शक्ति उस यथार्थ को अनदेखा नहीं कर सकती। यह सोच फ़ैज़ और मज़हर अली जैसे भावुक लोगों को फ़ौज में ले गयी और फ़ैज़ कॉलेज की नौकरी छोड़कर दिल्ली आये। मैं कॉलेज ख़त्म करके कराची चला गया था। कुछ दिनों के लिए दिल्ली आया। उस दौर में नयी दिल्ली भी कुछ और ही थी। रात को ‘ब्लैक आऊट’ होता था। और इंडिया गेट के उस ओर तो था ही जंगल। फ़ैज़ साहब को घर मिला था लोधी एस्टेट में। रात में उनके साथ खाना तो मैंने मान लिया लेकिन तांगे पर वहां पहुंचते-पहुंचते पसीना निकल गया। अब फ़ैज़ साहब के सामने दो ही रास्ते थे कि या तो मुझे अपनी पुरानी ऑस्टिन गाड़ी में वापस पहुंचायें या रात को ठहरने का प्रबंध करें।
फिर तो पाकिस्तान बन गया। हम लोग ‘देश बाहर’ होकर दिल्ली आ गये। फ़ैज़ वापस लाहौर चले गये। कुछ वर्षों तक संबंध स्थगित हो गये। अब फ़ैज़ के जीवन में एक नया दौर आरंभ हुआ। मियां इफ्तखारूद्दीन ने पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ का उद्घाटन किया। फ़ैज़ और मज़हर अली उसके एडिटर और ज्वाइंट एडिटर नियुक्त हुए। यहां हम लोग यह समाचार सुनकर उनके भाग्य पर नाज करने लगे। यहां तो दिन-रात मकानों की अलॉटमेंट और राशनकार्डों के चक्कर में कटते थे। और वे नये देश में नये मूल्यों के रुझान बना रहे थे। लेकिन न ही उनकी वह स्थिति बहुत दिनों तक रही और न अपनी। अयूब खान का राज आया तो पाकिस्तान टाइम्स और इमरोज़ को सरकार ने दबोच लिया और अब भी वह सरकारी ट्रस्ट की संपत्ति है। कुछ ही दिनों बाद रावलपिंड़ी साज़िश केस का ड्रामा रचाया गया। फ़ैज़ और सज्जाद ज़हीर लंबे समय के लिए जेल में बंद हो गये। थोड़े ही दिनों बाद मियां इफ्तखारूद्दीन की मृत्यु हो गयी।
वे अपने समय में बड़े ठाठ के इनसान थे। ऑक्सफोर्ड में पढ़ते-पढ़ते क्रांतिकारी बन गये। वापस आने के बाद पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहर लाल जी के साथ उनका बिलकुल निकट का संबंध था। मेरे पिता और वे जेल में दो बार इक्ट्ठा हुए थे। उनका संबंध फ़ैज़, महमूद अली, मज़हर अली और हम जैसे वामपंथी लोगों के साथ बहुत गहरा था। फ़ैज़ को उनकी मृत्यु पर बहुत शोक हुआ। और जेल से उन्होंने एक दर्दनाक मर्सिया लिखा :
करो कज जबीं (माथा या ललाट)
पे सरए कफ़न
मेरे क़ातिलों को गुमां न हो
कि ग़रूरे इश्क़ का बाँकपन
परो मर्ग (मौत के बाद)
हमने भुला दिया
जब हम लोगों ने यहां उस शेर को सुना तो हिंदुस्तान की राजनीति एक नया मोड़ ले रही थी। कांग्रेस दो हिस्सों में बंट रही थी। जिस दिन इंदिरा जी को कांग्रेस से निकाल दिया गया तो मैंने उनको यही शेर लिखकर भेज दिया। उनको बहुत भाया। वैसे तो वे शेर याद करने में सिद्धहस्त न थीं। फिर भी कई बार कह देती थीं ‘क्या था वो फ़ैज़ का शेर।’
फ़ैज़ का संबंध पंडित जी और इंदिरा जी से बहुत निकट का था। 1955 ई. में जब फ़ैज़ दिल्ली आये तो पंडित जी ने पूरी शाम उनके साथ बितायी। 1971 ई. के बाद पाकिस्तान में स्थिति ने पलटा खाया। भुट्टो के दौर मैं फ़ैज़ नेशनल आर्ट्स कौंसिल के डायरेक्टर बने तो दिल्ली आये। मैं उन दिनों इंफ़ार्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर था। कहने लगे ‘दो काम करो एक तो शीला भाटिया का प्रसिद्ध आपेरा ‘हीर रांझा’ और दूसरे अपने भाई सतीश गुजराल की तस्वीरों की प्रदर्शनी पाकिस्तान भिजवाओ। मैंने कहा कि सिद्धांततः तो आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन हमारी भी एक शर्त है कि आप दिल्ली टीवी. पर अपना पूरा प्रोग्राम प्रस्तुत कर दें। फ़ैज़ साहब ने तो अपनी बात पूरी कर दी लेकिन न ही शीला भाटिया का ऑपेरा और न ही सतीश गुजराल पाकिस्तान जा पाये। अभी संबंध ही कुछ ऐसे थे और उन दिनों भुट्टो के तौर-तरीक़े बदल रहे थे। फ़ैज़ इससे निराश हो रहे थे लेकिन कोशिश में थे कि भुट्टो और उनके साथी सामने आने वाले दिनों को देखें। फ़ैज़ उन लोगों में थे जो महसूस करते थे कि भुट्टो अपनी ग़लतियों से सिर्फ़ फ़ौजी राज ही का पथ निर्मित कर रहे हैं। लेकिन ये होकर ही रहा। हमारे यहां भी इतिहास एक पन्ना उलट कर इमरजेंसी ले आया। फ़ैज़ ने सोचा कि शायद इमरजेंसी केवल वामपंथ को तोड़ने के लिए लायी गयी है लेकिन वे शीघ्र ही इसके तेवर समझने लगे। जब हम मिले, फ़ैज़ ने कहा यह तुमने ख़ूब किया। पाकिस्तान को लोकतांत्रिक रास्ते पर लाने के बजाय तुम लोग ही ढलक गये।
जनरल ज़िया का दौर आया तो फिर से दिल में घुटन और बुद्धिजीवियों की पकड़-धकड़ शुरू हो गई। फ़ैज़ तो किसी तरह निकलकर मास्को आ गए, लेकिन एलिस और बच्चों को बहुत देर तक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। तब तक इमरजेंसी के दौर ने मुझे भी मास्को धकेल दिया था। फ़ैज़ जब मिले तो उन्होंने कहा: ‘सितम सिखलाएगा राहे वफ़ा ऐसा नहीं होता’ और उनकी नज़्म ‘मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर’ तो, बस, दिल में ही उतर गई। हमको तो उनके देशनिकाले का बहुत लाभ हुआ। हिन्दुस्तान का दूतावास उनका दूसरा घर था और वे शाम को हमारे यहाँ आ जाया करते थे। एक दिन पुरानी बातें होने लगीं। ‘बिस्मिल’ की नज़्म ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ जिसने ‘स्वाधीनता संघर्ष में क्रांतिकारियों की क़तार को गर्मा दिया था। तब फ़ैज़ ने बताया कि इस भूमि पर उन्होंने भी एक नज़्म कही है :
सरफ़रोशी के अंदाज़ बदले गए
दावत-ए-क़त्ल पर ‘मक़तल (वह स्थान जहां क़त्ल किया जाए) -ए-शहर में
डाल कर कोई गर्दन में तौक़(ग़ुलामी का चिह्न) आ गया
लाद कर कोई कांधे पर दार (फांसी का तख़्ता) आ गया।
फ़ैज़ क्या बात ये किस आस पर
मुंतजिर हैं कि लाएगा कोई ख़बर
मयकशों पे हुआ मुहतसिब (जो हिसाब किताब रखता है) महूबां
दिल फिग़ारा (ज़ख़्मी दिल) पे क़ातिल को प्यार आ गया
अब तो कई बार शाम को जब शेरो-शायरी की मज़लिस जमती तो पाकिस्तान और बंग्लादेश के राजदूत भी उन मज़लिसों में आते। भारत में मौजूद पाकिस्तान के डॉक्टर हुमायूं ख़ान से भी इसी दौर में भेंट हुई। फ़ैज़ की उर्दू भाषा को एक देन यह भी है कि उन्होंने उसको अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना दिया। रूस में उनके बहुत से प्रसंशक थे जिनको फ़ैज़ की शायरी ने जीवन का एक और ही पक्ष दिखाया है। एक किस्सा और। हमारी हिन्दी भाषा के चोटी के कवि बच्चन जी मास्को आये। शाम को मुशायरा हुआ। बड़ी रात तक बच्चन जी नयी और पुरानी कविताएं सुनाते रहे। फ़ैज़ अपनी बारी भी ख़ूबसूरती (से) निभाते रहे। उस दिन का एक शेर आज भी दिमाग़ में घूमता है:
सहल यूं राहे ज़िंदगी की है / हर क़दम हमने आशिक़ी की है
हमने दिल में सजा लिए गुलशन / जब बहारों ने बेरुख़ी की है
दैर से धो लिये हैं होंठ अपने / लुत्फ़े साक़ी ने जब कमी की है
फ़ैज़ के मास्को के प्रवास के दौरान में ही उनको आलमगीर मैगज़ीन लोटस (Lotus) की एडिटरी सौंपी गयी, इसलिए उनको अधिक अरसे बैरूत में ही रहना पड़ता था। इसी बीच एलिस भी आ गयीं। बैरूत की बर्बादी का फ़ैज़ की शायरी पर गहरा प्रभाव पड़ा :
चांद फिर आज भी नहीं निकला / कितनी हसरत थी उसके आने की।
यह जानना कठिन है कि फ़ैज़ चुपके से मर गये होंगे। निश्चय ही उन्होंने फ़रिश्ते अजल (मृत्यु के दूत) से भी पूछा होगा :
लाओ तो क़त्लनामा मेरा मैं भी देख लूँ
किस-किस की मोहर है सरे महज़र (क़ाग़ज़ पर) लगी हुई
लेकिन बात समाप्त करने से पूर्व एक घटना का उल्लेख अवश्य करना चाहता हूं। फ़ैज़ की शायरी को और सोच को नया मोड़ देने में महमूद जफ़र और रशीद जहां का बहुत हाथ था। दूसरे दौर ने उनको कूए यार (महबूब की ग़ली) से निकालकर सूए दार (फाँसी के तख़्त) का रास्ता समझाया था। मैं अभी मास्को गया ही था कि फ़ैज़ का संदेश मिला ‘रशीद जहां की क़ब्र पर मेरी तरफ़ से भी फूल चढ़ा देना।’ दिसंबर की बर्फ़ीली सर्दी में हम दोनों पति-पत्नी ने उनकी क़ब्र ढूंढ़ निकाली और वहां पहुंचकर फ़ैज़ साहब और रशीद जहां यादगारी (स्मृति) कमेटी की ओर से हमने श्रद्धांजलि के फूल चढ़ाए।
फ़ैज़ शायर तो थे ही, लेकिन एक प्यारे मित्र और ख़ूबसूरत इनसान भी थे। यह रिक्तता कभी पूरी न होगी।
उर्दू से अनुवाद : शहाबुद्दीन