उनका नर्क / रूपसिह चंदेल
नाबदान के पास पहुँचकर उनकी काँपती टांगे ठिठक गयीं। गली में दूर तक पानी इकट्ठा हो गया था। बरसात थमे काफ़ी देर हो चुकी थी, लेकिन छत और आंगन का पानी भक-भक की आवाज़ के साथ अभी भी नाबदान की मोरी के रास्ते गली में आ रहा था। उन्होंने हाथ के डंडे से गली में रखी ईंटों को टटोला, जो पानी में छुप चुकी थीं। किसी ईंट से डंडा दो बार टकराया, लेकिन वे ईंटों की स्थिति का सही अनुमान न लगा सकीं। किंकर्तव्यविमूढ़-सी वे खड़ी रहीं, यह सोचती हुई कि कैसे पार कर सकेंगीं उस कीचड़ सने बदबूदार पानी को। टांगें भी आगे बढ़ने से जवाब दे रही थीं। हाथ काँप रहे थे उनकी बूढ़ी आँखों में दयनीयता-सी तैर गयी। कोई उधर दिखाई भी तो नहीं पड़ता जिसकी चिरौरी करके वे उसे गंधैले समुद्र को पार कर लेतीं। आख़िर कब तक खड़ी रहेगीं।"
उत्तरी क्षितिज की ओर बादल चिंघाड़ उठे। उन्होंने आसमान की छाती पर मन्द ज्योति नेत्र टिका दिए। बादलों के समूह अठखेलियाँ-सी कर रहे थे।
'बारिश फिर होगी' सोचकर उन्होंने फिर डंडे से ईंटों की टोह ली। ये ईंटें वहाँ बारहों महीने रखी रहती हैं, गली से गुजरने वालों की सुविधा के लिए। क्योंकि नाबदान का पानी हर मौसम में निर्धारित सीमा को पार कर बदबूदार भभकों के साथ गली में आवारागर्दी करने के लिए निकल आया करता है। यह नाबदान भी उन्हीं का है। उन्होंने कितनी ही बार बेटे से कहा कि वह भलीभाँति नाबदान बनवा दे, लेकिन अब कौन सुनता है उनकी बातें! न बेटा... न पोते...।
अचानक मोटी-मोटी बूंदें कंकड़ की तरह झीनी-पुरानी धोती को भेदती शरीर से टकराईं तो वे हड़बड़ा-सी गयीं। सारा शरीर काँप उठा. वहाँ रुकना व्यर्थ समझ वे पानी में धँस गयीं। घुटनों से ऊपर था पानी। धोती भीग गई। लेकिन वे धीरे-धीरे खभर-खभर आगे बढ़ती रहीं डंडे के सहारे। अन्दर रखी ईंटों से कई बार पैर टकराए। सूखी हड्डियाँ सीत्कार कर उठीं। पड़ोसी मकान की दीवार का सहारा लेकर खड़ी न रह जातीं तो जल-समाधि निश्चित थी।
बारिश फिर शुरू हो चुकी थी। किसी प्रकार पानी पार कर भीगती हुई वे चौपाल तक पहुँची तो शरीर में सैकड़ों सुइयाँ-सी चुभती महसूस हुईं। गीली धोती बदलना आवश्यक था। लेकिन तेज़ी से घर के अन्दर जाने के लिए बढ़ते कदम पुत्रवधू की आवाज़ सुनकर दरवाज़े पर ही ठिठक गए।
"कब की गई हुई हैं... गप-सड़ाके से ही फुरसत नहीं... दोपहर होने को आई... घर के सारे काम... बर्तन तक पड़े हैं... खाना कब बनेगा?"
"मोहल्ले में ही गई हैं रामलाल के यहाँ... उनकी बहू बीमार है... उसे देखने... आती ही होंगी... तुम नाहक...।" बेटा आगे कुछ और कहना चाह रहा था कि पुत्रवधू ने झिड़क दिया।
"तुम चुप रहो, जी... तुम्हें क्या... एक दिन खाना नहीं मिलेगा तब दिमाग ठिकाने लग जाएगा... बाप-बेटों के।"
वे चौपाल में ही दीवार का सहारा लेकर बैठ गयीं। गीली धोती बदन से चिपक गयी थी। हल्की-हल्की ठिठुरन-सी भी महसूस हो रही थी। लेकिन इस अनुभूति से दूर उनका मन अतीत की अतल गहराइयों में डूब गया था।
जब वे इस घर में ब्याहकर आई थीं तब यह जन-धन से हरा-भरा था। अठारह बरस की थीं वे। अल्हड़ दुनियादारी से अनभिज्ञ। अल्हड़ता उन्हें उस माटी से मिली थी, जहाँ उनके अठारह वर्ष बीते थे। बांदा के एक छोटे से गाँव की थीं वे, जो यमुना की कगार पर बसा है। लेकिन वह अल्हड़ता कुछ ही दिनों में पानी में उठे बुलबुलों की भाँति धीरे-धीरे गायब होती चली गयी थी। उसके स्थान पर घर के प्रति जिम्मेदारियों का अहसास गहन होता चला गया था।
यह अकारण नहीं था। घर में वे अकेली ही थीं। सास-ननद थीं नहीं। पति, तीन देवरों और वृद्ध स्वसुर के मध्य एक मात्र वे ही तो थीं, जिन्हे सबकी सुख-सुविधा का ख्याल रखना था। घर में सब कुछ होते हुए भी वे मुँह बोलने के लिए एक नारी स्वर के लिए तरस-तरस जाती थीं। दिन में जब सभी पुरुष खेतों की ओर मुँह कर लेते, लम्बे-चौड़े घर की ऊँची दीवारें खुली कोठरियाँ उनको काटने को दौड़तीं। वे दिन भर अपने को अनाज कूटने, पछोरने और पीसने में व्यस्त रखतीं, फिर भी प्रतिक्षण घबड़ाहट का साँप अन्दर ऎंठता ही रहता। लेकिन दो वर्षों बाद बेटे जगदीश के रूप में जब आंगन में किलकारियां गूँजने लगीं तब उनके दिन आसान हो गए थे।
वे उस घर की पहली और अन्तिम बहू बनकर रह गई थीं उन दिनों। देवरों की शादियाँ हुई नहीं। जगदीश के पैदा होने के कुछ दिनों बाद श्वसुर चल बसे थे। वे उस घर को स्वर्ग बनाने में जुट गई थीं। लेकिन उनके कर्मनिष्ठ और लगन से सजाए गए उस गृह-कानन को एक दिन वक़्त के झंझावात ने धराशाई कर दिया। जगदीश अभी चार साल का भी न हुआ था कि पति ने आँखें मूंद लीं। आपदाओं के शिलाखण्ड ढहने लगे। ऎसे अवसरों पर प्रकृति का क्रूर रूप भी दर्शनीय होता है। उनकी गीली आँखें अभी सूख भी न पाई थीं कि बादलों की उमड़-घुमड़ से दिल काँप उठा। रात भर ओलावृष्टि होती रही। खलिहान आने को मचलती सूखी बालियाँ ओलों के नीचे समाधिस्थ होकर रह गई थीं।
उनकी आँखें सूख गईं। व्यथा को ह्रदय के कोटरों में दबा वे उदास-व्यथित देवरों को समझाने लगीं। स्वयं टूट कर भी उनको टूटने से बचाने के लिए वे बाह्य रूप से चेहरे पर सामान्यता का लेप चढ़ाए रहतीं। उन्हें जगदीश के भविष्य की चिन्ता थी और अब तो देवरों का ही सहारा था। उनको समझा-बुझाकर बांधकर रखना नितान्त आवश्यक था। वे उन्हें माँ का-सा स्नेह देतीं तो वे श्रद्दावनत हो उनकी बातें सुनते-मानते। उन्हें सन्तोष होता और जगदीश के भविष्य के प्रति आश्वस्ति भी। लेकिन पति की स्मृति से वे अपने को कभी काट न सकीं। दिन भर सामान्य दिखने वाली उनकी आँखें रात के अंधेरे में कितनी ही देर तक बरसती रहतीं।
कभी-कभी जगदीश जाग कर पूछता, "अम्मा तुम लो लही हो।" वे तत्क्षण आँचल से आँसू पोंछ डालतीं और लोरियाँ सुनाकर सुलाने में व्यस्त हो जातीं।
जिस जगदीश को पालने-पोसने में उन्हें कितने ही कष्टों का सामना करना पड़ा, आज वही उनके लिए पत्नी के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है। उन्होंने एक दीर्घ निश्वास छोड़ी और पैर पर चढ़ रहे चीटें को हाथ से दूर झटका दिया।
उस वर्ष ओलों से फसल नष्ट हुई तो कोठरियों-बखरियों में भरा पुराना अनाज काम आ गया। लेकिन उसके बाद एक के बाद एक तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। अकाल पड़ गया। गाँव के अनेकों घरों की भाँति उनका घर भी दाने-दाने के लिए तरसने लगा। देवर एक-एक मुट्ठी चना अंगौछे में बांधकर सुबह काम करने जाते और दिन भर उसी के बल पर खटते रहते। वे दिन भर निराहार रहतीं, लेकिन जैसे-तैसे जगदीश का पेट भरतीं।
और एक दिन ऎसा भी आया जब घर में दाना नहीं बचा। कहीं से कुछ पाने की भी आशा न थी। जेवर और पुरानी पूंजी पहले ही बनिए के यहाँ जा चुकी थीं। तब भी वे हिम्मत नहीं हारीं और गाँव छोड़कर शहर जाने को तत्पर देवरों को पुरखों की ड्योढ़ी खेत-खलिहान का वास्ता देकर रोकने में सफल रहीं थीं। उन दिनों महुओं को उबालकर वे सबकी क्षुधा शांत करने का प्रयत्न करती रही थीं।
तभी एक घटना घटी थी। ज़मींदार का लगान वसूली अभियान ज़ोरों पर था। सूखे का कुछ भी प्रभाव उन लोगों पर नहीं पड़ा था। ज़मींदार के नुमाइंदे निर्ममतापूर्वक लोगों को तबाह करने में व्यस्त थे। हर दिन ज़मींदार के सिपाहियों द्वारा किसी न किसी पर कोड़े बरसाए जाने, पेड़ों पर उल्टा लटकाए जाने और बैलों से घिसिटाए जाने के समाचार उन्हें मिलते। कितने ही किसानों को ज़मींदार ने खेतों से बेदखल कर दिया था। उस घर पर भी किसी न किसी दिन उसका कहर बरपा जरूर होगा, यह बात वे जानती थीं। उनके कहने पर देवर रात-दिन इधर-उधर रहने लगे थे, जिससे बेइज़्ज़ती से बच सकें। लेकिन वे ड्योढ़ी पर ही जमीं रही थीं ज़मींदार के सिपाहियों से मोर्चा लेने के लिए।
और एक दिन वह दिन भी आ गया। कारिंदा पंडित ब्रजभान चार सिपाहियों के साथ आ धमका। देवरों को अनुपस्थित पा सिपाहियों से बोला, "उखाड़ ले चलो ड्योढ़ी... देखें, कब तक तीनों मरदूद हाज़िर नहीं होते।"
सिपाही आगे बढ़े तो सिर पर घूंघट निकाल बोली थीं वह, "मैं ख़बरदार किए देती हूँ... ड्योढ़ी पर हाथ न लगाया जाय।"
"अबे मुँह क्या देखने लगे... उखाड़ते क्यों नहीं।" कारिंदा चीख़ा था।
"पंडित जी यह ठाकुर जगमोहन सिंह के हाथों लगायी ड्योढ़ी है... इस गौतम खानदान की इज़्ज़त... इतनी आसानी से न जाने दूंगी।" आगे बढ़कर कुछ ऊँचे स्वर में वे बोलीं।
सिपाही ठिठक गए। पंडित ब्रजभान भी सकते में आ गया कुछ संतुलित स्वर में बोला, "फिर अदा कर दो न लगान ठकुरानी। बेइज़्ज़ती से भी बचोगी और ज़मीन की बेदख़ली से भी."
वे मुड़कर घर के अन्दर गईं और एक पोटली में बंधे चांदी के रुपए-सिक्के कारिन्दे के सामने उछालते हुए बोलीं , "गिनकर ले लो जितने लगान के लिए चाहिए।"
पडित ब्रजभान और सिपाहियों की आँखें फटी की फटी रह गई थीं। ऎसी रही हैं वे। हजार कष्ट सहकर भी घोर संकट के क्षणॊं के लिए धन बचाकर रखना वे गृहस्थी का भार संभालते ही सीख गई थीं। उस दिन के बाद सारे गाँव में चन्दन बहू के गुणगान गाए जाने लगे थे। लेकिन वे गाँववालों के गुणगान से असंपृक्त ही रही थीं। अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त।
आगे के वर्ष सामान्य होते गये थे। फसलें ठीक होने लगी थीं। अभाव कम होते गए थे।
जगदीश बड़ा होता गया था। उसे वे पढ़ाना चाहती थीं, लेकिन पाँचवीं से आगे वह पढ़ न सका। चाचाओं के साथ खेती सम्भालने लगा। चाचाओं का वह प्यारा भी बहुत था।
वर्ष गुजरते गए। दो छोटे देवर भी एक वर्ष के अन्दर ही काल के कराल गाल में विलीन हो गए। शेष बचे बड़े देवर कमल सिंह। कमल सिंह ने अपनी इच्छा से जगदीश की शादी की इस आशा से कि जीवन भर कष्टों से जूझने वाली उनकी भौजाई को अब इस उम्र में कुछ सुख मिल सकेगा। पुत्रवधू के हाथों की सिकी उन्हें भी मिल सकेगी। भौजाई के हाथों की सिकी तो वे कब से खाते आ रहे थे। लेकिन कहाँ पूरी हो सकी उनकी यह इच्छा! वे भी एक दिन उन्हें छोड़कर चले गए।
अतीत के अंधेरे आकाश में ज़िन्दगी का इतिहास सदैव रोमांचक प्रतीत होता है। देवर की भाँति पुत्रवधू से सुख की कामना उन्होंने भी की थी। लेकिन कामना करने से ही अभीप्सित नहीं मिल जाया करता। उन्होंने कभी जिस बात की कल्पना भी न की थी वह सब जगदीश के पचीस वर्षीय वैवाहिक जीवन में देखने-सुनने और सहने को मिला। वे किसे दोष दें... प्रारब्ध को, स्वयं को या जगदीश को... कभी समझ नहीं सकीं।
बैठे-बैठे उनकी आँखें झपक गईं कि पुत्रवधू की कर्कश आवाज़ ने उन्हें अचकचा दिया। झुर्रियों-भरे चेहरे पर टिकी आँखें कसाई के सामने बंधी गाय की भाँति पुत्रवधू के चेहरे पर टिक गईं।
"यहाँ बैठे ऊंघ रही है... वहाँ बर्तन पड़े गंधा रहे हैं... घर की बिल्कुल चिन्ता ही नहीं रही...।" पुत्रवधू ड्योढ़ी पर खड़ी बड़बड़ा रही थी।
उनके मन में आया कि कह दें, 'वह किस घर की चिन्ता की बात कर रही है... आज घर जिस स्थिति में है वह किसकी बदौलत...।" लेकिन वह चुप ही रहीं। जानती हैं एक वाक्य बोलने का अर्थ होगा सौ वाक्य सुनना। बहू बड़बड़ाकर चली गई।
"हे राम... अभी और कितने दिन यह नर्क भोगना पड़ेगा।" टांगों पर हाथ रख कर वे उठीं और रसोई के बाहर फैले बर्तनों के पास जमीन पर हाथ टिकाकर पीढ़े पर बैठ गईं। बदन में असह्य पीड़ा हो रही थीं। हाथ काँप रहे थे अभी भी। फिर भी उन्होंनें मंजना उठा लिया।
बारिश और तेज़ हो गई थी। भूरा-मटमैला आकाश कुछ और नीचे झुक आया था। उन्होंने एक दृष्टि आकाश की ओर डाली, फिर कड़ाही पर मंजना घुमाने लगीं।