उनके परिवार को लेकर यह चुप्पी क्यों ? / गिरीश तिवारी गिर्दा
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लेखक:अरुण कुकसाल
गिर्दा को परलोक गए आठ महीने से ऊपर हो गये हैं। नैनीताल समाचार के अलावा कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में उन पर श्रद्धांजलि लेख अभी तक पढ़ने को मिल रहे हैं। कुछ एक पत्रिकाओं में उन पर कवितायें भी छपी हैं। गौर करने वाली बात यह है कि गिर्दा से अपनी नितान्त करीबी घोषित करने वाले लेखकों के लेखों में ’हाय गिर्दा तुम न रहे’ का आलाप एवं भाव ही ज्यादा प्रभावी है, जबकि गिर्दा को व्यक्तिगत रूप से कम जानने वालों ने उनकी रचनाधर्मिता एवं सामाजिक योगदान को अधिक कारगर रूप में जगजाहिर किया है।
गिर्दा से पहले-पहल मिलाने का संयोग मुझे चन्द्रशेखर तिवाड़ी ने दिया। दिन भी याद है 31 दिसम्बर 1985। नैनीताल समाचार के कार्यालयी कक्ष में शाम के वक्त, गिर्दा अपने आफिस से उसी समय लौटे थे। महेश जोशी से भी उसी समय मिलना हुआ। महेश धीर-गम्भीर तो गिर्दा अधजली बीड़ी को सुलगाते-सुलगाते बातों में मशगूल, ऐसा व्यक्ति जो कि पहली ही मुलाकात में तमाम नजदीकी रिश्तेदारी निकाल कर ’तुम तो अपने घर के ही ठहरे’ सा अपनापन का एहसास करा देता है। गिर्दा को पढ़ा-सुना तो बहुत था। साक्षात दीदार हुए तो मन का भ्रम फुस्स सा हो गया। मैने तो सोचा कि जिसकी रचनायें आक्रोश एवं उत्साह से भरी होती हैं, वह तो बड़ा दबंग आदमी होगा। गिर्दा निकला मामूली सा आदमी। पर यह भ्रम भी जल्दी ही टूट गया। बसभीड़ा (अल्मोड़ा) में 3-4 फरवरी 1986 को ’नशा नहीं रोजगार दो आदोलन’ के वार्षिक सम्मेलन में गिर्दा के गीत उसी की जुबानी सुने तो गिर्दा छपाक से मन तो क्या आत्मा में रच-बस गये। लगता समूचे समाज का दर्द एवं फर्ज उनके कंठ से बाहर आने को बेताब है। यही बेताबी जीवन के आखिरी समय तक उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा बनी रही। चन्द्रशेखर के पास तब गिर्दा के कई किस्से थे। उन दिनों इस मामले में मैं (बकौल नन्द किशोर हटवाल ) अपने को उससे कमतर समझने लगता।
गिर्दा तब साल में दो-चार बार लखनऊ आते। हमारे लिए वे दिन परम आनन्द के होते। मित्रों में गिर्दा को अपने साथ रहने, खाने एवं सुलाने की होड़ सी लगी रहती। बाद में हम गृहस्थी वाले हो गये। मित्रों का एक-दूसरे घरों पर आना-जाना लगा रहता। न जाने गिर्दा में ऐसी क्या खूबी थी कि घर पर वे आ जाएँ तो श्रीमती जी के साथ-साथ बच्चे भी उनकी आवभगत में दिल से खुश होकर जुट जाते। मैं देखता घर पर और भी नामी-गिरामी मित्र अक्सर आते रहते पर गिर्दा को ही हमेशा वी.आई.पी. खातिरदारी मिलती।
कुछ साल पहले गिर्दा श्रीनगर आये, आयोजकों ने अच्छे होटल में उनका इन्तजाम किया। मैं मिलने गया तो बोले यार अरुण होटल में सज नहीं आयेगी, फिर परहेज भी करना है। तेरे घर पर रहना ठीक रहेगा। घर पर बीड़ी और घुटगी वर्जित है। परन्तु गिर्दा के लिए सब चलेगा ऐसा ऐलान श्रीमती जी एवं बच्चों ने कर दिया, मैं खुशी के साथ हतप्रभ। ऐसा क्या था गिर्दा में कि उनकी घनघोर कमियों के बावजूद भी वे हर दिल अजीज थे। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट जी ने लिखा है कि ये गिर्दा ही था, जो सुन्दरलाल बहुगुणा जी के सामने भी शराब पी सकता था। इसी प्रसंग में गिर्दा के ही बूते की बात थी कि डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट से वे शराब का पव्वा दुकान से मँगा सकते थे। सचमुच गिर्दा तुम तो जीते जी महान थे, वरना लोगों को तो महान बनने के लिए मरना पड़ता है। कहीं पढ़ी यह बात मुझे गिर्दा पर सही लगती कि अति सज्जन व्यक्तियों के दुर्गुण भी उनके गुणों में बदल कर उनके व्यक्तित्व को और शोभायमान बनाते हैं। नैनीताल में जब कभी बच्चों के साथ आना हुआ तो उनकी पहली फरमाइश होती गिर्दा से जरूर मिलना है। उनके लिए नैनीताल घूमने से ज्यादा आनन्दायक गिर्दा के साथ रहने का अहसास था। अब तो नैनीताल की पहचान यह भी है कि उसमें गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ जैसा शख्स रहता था।
गिर्दा जीवन भर संघर्षशील रहे। आखिर के दस साल गिरते स्वास्थ्य ने उन्हें बहुत परेशान किया। परन्तु अपनी परेशानियों से ज्यादा सामाजिक सरोकारों से जुड़े मित्रों की आपसी टकराहट उन्हें व्यथित करती। वे अक्सर कहते हम लड़ाई को कहाँ से कहाँ ले आये। समाज की बेहतरी के लिए हमें एकजुट होकर आपसी ताकत बनना था और हम ही आपस में सिर फुटव्वल कर रहे हैं। गिर्दा इस सबके बावजूद भविष्य के प्रति बहुत आशावान थे। आने वाली पीढ़ी पर उन्हें पूरा भरोसा था कि वे हमारी पीढ़ी से ज्यादा समझदारी से समाज के सामूहिक हितों के लिए कार्य कर सकेगी।
गिर्दा वर्ष 2007 में विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड के पाठ्य पुस्तक लेखन कार्यशाला के शुरूआती दौर में बीमारी के कारण खुद न आ सके तो उन्होने ‘कैसा हो स्कूल हमारा‘ जैसी अद्भुत रचना लिखकर भेजी। आनन्द तो तब आया जब इसी पाठ्य पुस्तक लेखन के दौरान कुछ समय बाद सैकड़ों शिक्षकों के बीच झूम-झूम कर उन्होंने इसी कविता को गाया था। तब से पूरी तीन महीने की इस कार्यशाला में लगभग हर शाम इस कविता को हम लोग सामूहिक रूप मे गाते थे। ’विद्यालय बने आनन्दालय’ पुस्तिका में सर्वप्रथम प्रकाशित यह कविता आज देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित शैक्षिक पत्रिकाओं एवं प्रशिक्षण साहित्य में प्रमुखता से विराजमान हुयी है। यह खुशी की बात है कि इस कविता को विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड का कुल गीत बनाने की ओर गहनता से विचार किया जा रहा है। ’स्कूल कैसा हो’ पर विचार के लिए तमाम शिक्षाविद् वर्षो से न जाने कितनी गोष्ठियों एवं सेमिनारों के आयोजन में जूझते रहते हैं और गिर्दा ने एक रफ कागज में झटके से ऐसा शैक्षिक संदेश लिखा कि वह सबके लिए प्रेरणादायी बन गया है। ऐसा था गिर्दा हमारा। इसी क्रम में वर्ष 2009 के दौरान भीमताल में हुए पाठ्य-पुस्तक लेखन कार्य में उनका लोक संस्कृति पर व्याख्यान शिक्षा से जुड़े व्यक्तियों के लिए एक यादगार सम्पत्ति है। तब उन्होंने कहा था कि आज की शिक्षा व्यक्ति को समझदार बनाने के बजाय चालाक बना रही है। तभी उच्च शिक्षित व्यक्ति सामान्यतः समाज की बेहतरी के बजाय अपने हितों को सुरक्षित एवं बढ़ाने के लिये ही कार्य करना चाहता है।
गिर्दा को हम सबने बहुत प्यार एवं सम्मान दिया, पर उसकी आर्थिकी को मजबूत करने के लिए कोई मजबूत विकल्प नहीं दे पाये हम, जिसके वे पूरे हकदार भी थे। हम सबकी उनसे बहुत अपेक्षाएँ हर समय रहती पर वो अपना घर कैसे चलाते हैं, को हम सब जानते हुए भी अनजान बने रहे। उस छोर पर गिर्दा बिल्कुल अकेले थे। विडम्बना यह भी है कि उनके चारों ओर हमेशा सामथ्र्यवान लोगों का मजबूत घेरा था। गिर्दा के जाने के बाद उनके परिवार के लिए अभिभावक के रूप में हम क्या कर पायेंगे, इस पर तो अभी सभी तरफ से चुप्पी ही है।
नैतीताल समाचार से साभार