उनके ब्रह्मास्त्रों की तो आज ज्यादा जरूरत है / गिरीश तिवारी गिर्दा
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गिरदा के लिए यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गिरदा अपने समय के एक सम्पूर्ण युग थे। उनके निधन से एक युग का ही अवसान हो गया है। डॉ. शेखर पाठक के साथ ‘हमारी कविता के आँखर’ हो या दुर्गेश पन्त के साथ ‘शिखरों के स्वर’, भारत और नेपाल की संस्कृतियों के मध्य संगम पुरुष कहे जाने वाले झूसिया हों अथवा हरदा सूरदास के रमौल का संग्रह हो, गिरदा ने सदा सुप्त, उपेक्षित लोक चेतना को उद्घाटित कर मानव मात्र का कल्याण करना लक्ष्य निर्धारित किया। ‘नगाड़े खामोश है’, ‘धनुष यज्ञ’, ‘अंधेर नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’ जैसे नाटकों को उन जैसे अनुभवी तथा जन आन्दोलनों की भट्टी में तप कर खरे कंचन बने व्यक्ति ही सफलतापूर्वक मंचित कर सकते थे।
गिरदा का बहुआयामी व्यक्तित्व रहा। समतामूलक समाज के वे हिमायती रहे। गरीब की झोपड़ी उन्हें प्रिय थी। मजदूरों के मध्य रहकर आत्मबल से न हार कर उठो जागो और आगे बढ़ो के मंत्र को उन्होंने जीवन में उजागर किया। गीत एवं नाट्य प्रभाग के एक कलाकार के रूप में गिरदा ने कला के नये शिखर छू लिये। फलतः वे एक लोकगायक, हुड़का वादक, रंगकर्मी और जनकवि की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के आन्दोलन में उनके द्वारा रचित गीत जनगीत बन गये थे।
गिरदा से मेरा परिचय अस्सी के दशक में नैनी (जागेश्वर) में हुआ। तब वे खड़कसिंह खनी, डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट, बिपिन त्रिपाठी के साथ वहाँ आये थे। मैं वहाँ एक अध्यापक था। कुछ वर्ष पूर्व मैं सामूहिक कुमाउनी संग्रह ‘गद्यांजलि’ का सम्पादन कर रहा था और ‘अन्वार’ (कहानी संग्रह), आपणि पन्यार (नाटक संग्रह) जैसे सामूहिक संकलनों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। चूँकि गिरदा कुमाउनी भाषा साहित्य के मर्मज्ञ थे, सो मैंने उनसे राय लेकर ही सम्पादन का श्रीगणेश करना उचित समझा था। मैं उनसे मिलने कैलाखान स्थित उनके आवास पर उपस्थित हो गया। वे अध्ययन में व्यस्त थे। कहने लगे लिखने के लिए पढ़ना अधिक पड़ता है। फिर कुमाउनी तो लिखने से नहीं बोलने से आगे बढ़ेगी। मानक भाषा के रूप में खसपर्जिया को अपनाना पड़ेगा। अन्य तेरह-चौदह बोलियों के शब्दों को भी स्थान देना पड़ेगा। लिखने में भाव व भाषा का सामंजस्य स्थापित करते हुए भाषा प्रवाह अपेक्षित होगा। भाई देवांशु ज्यू, तुम प्रयास करो मगर जन आन्दोलनों से जुड़ा कृतिहार ही युग का दस्तावेज लिख सकता है। फिर भी गिरदा ने गद्यांजलि के लिये ‘लधौलिक रमौली- हरदा सूरदास’ रचना प्रकाशनार्थ दी थी।
गिरदा का असमय अवसान मार्मिक पीड़ा उत्पन्न कर रहा है। मैं जब भी नैनीताल जाता, यदा-कदा गिरदा से मिलने चला जाता। ऐसा ठैरा वैसा ठैरा, कहते-कहते वे गूढ़ रहस्यमय बात को सहजता से समक्ष रख देते थे। कहाँ भूले जा सकते हैं गिरदा के आत्मीयता भरे शब्द और गिरदा। उनकी अंतिम विदाई के करीब डेढ़ माह पूर्व मैं और मेरा पुत्र नवीन (राष्ट्रीय सहारा, नैनीताल) गिरदा की कुशल-क्षेम पूछने उनके आवास पर गये थे। तब वे अपने रुग्ण अंगों को धूप दिखा रहे थे। हेमा जी पास में बैठी थी। अस्वस्थता में भी मुखमंडल पर पीड़ा की कोई रेखायें दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी। सारी बातें सहजता से उनकी श्रीमुख से निकल रही थीं, जिनमें भविष्य के लिये अनेक योजनायें समाहित थीं।
गिरदा से यह सच्चा लगाव ही मानता हूँ कि उनकी अंतिम यात्रा में भी सहभागी रहा। जब शेखर पाठक जी ने यह कह कर उस महामानव की अर्थी को कंधा दिया कि हम सब गाते गाते रोयेंगे और रोते-रोते गायेंगे। उससे पूर्व सुशीला तिवारी चिकित्सालय हल्द्वानी में उन दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में भी मेरी उपस्थिति बनी रही जब उनका ऑपरेशन चल रहा था। घबराहट ने सबको घेर रखा था। दुश्चिन्ता का भार ढोते सभी स्तब्ध थे।
आज उत्तराखंड राजनीति की भेंट चढ़ रहा है। सरकार के अच्छे कार्यों की भी आलोचना की जा रही है। भविष्य के लिये किसी के पास कोई योजना नहीं है। जल, जंगल और जमीन का अनियंत्रित दोहन हो रहा है। महंगाई बढ़ रही है। उत्तराखंड के स्वप्नों के साकार होने के रास्ते बंद दिखाई दे रहे हैं। पूरा देश महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रहा है। सरकार घोटालों के घटाटोप से घिर गई है। कर्णधारों की सीधी संलिप्तता अथवा हीला-हवाली का देश शिकार हो रहा है। माननीयों के लिये चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत चरितार्थ हो रही है। आज गिरदा होते तो आग क्या सीधे ब्रह्मास्त्र ही छोड़ते, तभी शायद पैसे के लिये कुकृत्य में संलग्न इन महामानवों की बुद्धि ठिकाने लग पाती।
नैतीताल समाचार से साभार