उनके साथ रह कर मेरी समझदारी बहुत बढी़ / गिरीश तिवारी गिर्दा

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उनके साथ रह कर मेरी समझदारी बहुत बढी़
लेखक:पूरन चन्द्र तिवारी

मैं इंटर में पढ़ता था और मेरे रूम पार्टनर रमेश जोशी व भाष्करानन्द जोशी एम.ए. में। उनसे बातचीत में मालूम पड़ा कि छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष शमशेर सिंह बिष्ट वर्तमान छात्रसंघ के खिलाफ भूख हड़ताल पर बैठे हैं। छात्र संघ स्टार पेपर मिल से अनुदान लेना चाहता था। जबकि बिष्ट पहाड़ के जंगलों को नष्ट करने वाले स्टार पेपर मिल के घोर विरोधी थे। अगले दिन जब डिग्री कॉलेज गया तो वहाँ इस मुद्दे को लेकर हस्ताक्षर अभियान चल रहा था। ज्यादा हस्ताक्षर बिष्ट जी के पक्ष में आये। मैं इस घटना से बहुत प्रभावित हुआ और धीरे-धीरे संघर्षवाहिनी के हर कार्यक्रम में भाग लेने लगा। पी. सी. तिवारी हमउम्र होने के नाते मार्गदर्शन करते और हर कार्यक्रम की जानकारी देते थे। उत्तराखण्ड में जनांदोलनों की बाढ़ आयी थी। तत्कालीन वन मंत्री द्वारा किये जा रहे दमन से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के बैनर तले यत्र-तत्र चल रहे आंदोलनो में तेजी आई थी। उन्हीं दिनों जागेश्वर में हो रहे वाहिनी के एक सम्मेलन में मेरी गिर्दा से पहली मुलाकात हुई। गहन विचार-विमर्श चल रहा था। बीच-बीच में गिर्दा अपने जनगीतों से ताजगी ले लाते थे। वन मंत्री के दमन के संदर्भ में गिर्दा ने एक गीत गाया, ‘‘कालो किशनिया चैन न्हिनै गयो रे…..बोट की ओट में लखनऊ पुजि गे, वाँ बटि जाँठा बरसे गयो रे।’’ मैं कोशिश कर गिरदा से मिला। उस पहली बातचीत में ही गिरदा ने बहुत प्रेम से सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘भुला, अब तो जल्दी ही व्यवस्था बदलने वाली है।’’ मैं गिर्दा से बहुत प्रभावित हो गया।

उन्हें ज्यादा नजदीक से देखने का मौका क्रांतिकारी नागभूषण पटनायक के जीवन पर आधारित नाटक ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड‘ की तैयारी के दौरान मिला। रामकृष्ण धाम, जो तब वाहिनी से जुड़े छात्र-युवाओं का अड्डा था, में रिहर्सल होती थी। अक्सर देर रात तक रिहर्सल चलती थी। कभी-कभार गिर्दा जागनाथ टॉकीज के निकट स्थित मेरे कमरे में आ जाते। एक दिन गिर्दा और मैं रात लगभग 1.30 बजे रामकृष्ण धाम से मेरे कमरे को आ रहे थे। गिर्दा थोड़ा पीछे थे। लाला बाजार में दो शराबी टकरा गये। उन्होंने मुझे धमकाना शुरू कर दिया। तब तक पीछे से गिर्दा आ गये। उन्होंने प्रेम से उन शराबियों से हाथ मिलाया। उनके कंधे पर हाथ रखा और परिचय पूछा। वे दोनो लाला बाजार के दबंग थे। उन्होंने गिर्दा के पाँव छुये और चले गये। गिर्दा देर तक मुझे व्यवस्था के चरित्र के बारे में समझाते रहे। उनमें सहनशीलता भी बहुत थी। गुस्सा मैंने कभी उनमें देखा ही नहीं। कोई कितने भी गुस्से में क्यों न हो गिर्दा शांत बने रहते थे।

उनके साथ रह कर मेरी समझदारी बहुत बढ़ी। मुझे मालूम पड़ा कि गिर्दा एक नाटककार या जनकवि ही नहीं हैं, अपितु एक कुशल राजनीतिज्ञ भी हैं, जो व्यवस्था के चरित्र को बहुत अच्छी तरह जानता है। उनमें मानवीय संवेदना कूट-कूट कर भरी रहती थी। वे अपने साथियों को लेकर हमेशा फिक्रमन्द रहते थे। मै गिर्दा को कभी कभार ही फोन करता था। कभी फोन किया भी तो गिर्दा मतलब की संक्षिप्त बात कर कहते, ‘‘अच्छा और कुछ ? तो भुली रखता हूँ….हाँ!’’ 2003 में जब मैं दिल का दौरे से उबर कर अस्पताल से घर लौटा तो अंदर से टूटन आ रही थी। शमशेर बिष्ट जी ने गिर्दा को मेरा हाल बयाँ किया तो गिर्दा ने तुरंत मुझे फोन कर पूरा विवरण जाना। फिर मुझसे आधे घण्टे तक बातें कीं और कहा कि कल सुबह फिर फोन करूंगा। सुबह 8 बजे फिर उनका फोन आ गया। पूरी जानकारी ली कि रात कैसे गुजरी। फिर आधा घण्टे तक समझाया कि यार भुला, मुझे तो तुमसे बड़ा अटैक पड़ा है। मैं एकदम ठीक हूँ। भुला डिप्रेशन में मत जाना। डिप्रेशन का कोई इलाज नहीं होता है। कहा कि मेरे निजी डॉक्टर जी. पी. शाह से मिल कर ही तुम आगे का इलाज करवाओगे। डॉ. जी. पी. शाह जी मुझे देखने के लिये नैनीताल से अल्मोड़ा आये। उन्होंने मुझे सफर करने की अनुमति दी। गिर्दा ने मुझे सलाह दी कि मैं पी.जी.आई. लखनऊ ही जाऊँ। उससे पूर्व मैं दिल्ली एम्स में इलाज करा रहा था। मेरे स्वास्थ्य के बारे में उन्होने लखनऊ में नवीन जोशी, गोविन्द पन्त ‘राजू’ एवं महेश पाण्डे आदि सभी को अनेक फोन किये। परिणामतः आसानी से मेरा ऑपरेशन हो गया। गिर्दा लगातार उनसे संपर्क बनाये थे। उनकी चिंता तभी दूर हुई जब मैं अस्पताल से घर लौट आया।

जन आंदोलनों को गिर्दा के गीत गति प्रदान करते थे। इन गीतों को सभी आंदोलनकारी आसानी से गा सकते थे। ‘नदी बचाओ आंदोलन’ में गिर्दा ने जनगीत लिखे और लक्ष्मी आश्रम के बच्चों की एक टीम तैयार कर उसे वे गीत सिखाये। पूरी यात्रा में नदी के ये गीत, जिनमें जन्म से लेकर मृत्यु तक नदी के महत्व का चित्रण था, गाये गये। इस पैदल यात्रा में सभी तरह के लोग थे, लक्ष्मी आश्रम के साथी, जन संगठनो के लोग और कुछ स्वयंसेवी संगठन भी। तभी गिर्दा ने गीत भी वैसा ही तैयार किया। आज नदी बचाने के नाम पर एन.जी.ओ. फंडिंग लेते हैं। इसीलिये गिर्दा ने लिखा होगा, ‘‘नदी समंदर लूट रहे हो, सारा पानी चूस रहे हो….. बोल व्यापारी तब क्या होगा, विश्व बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा ?’’

इस पदयात्रा में गिर्दा भी साथ चलना चाहते थे। लेकिन बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव का रास्ता होने से वे नहीं आ सके। मगर डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट से वे बराबर सम्पर्क बनाये रखते थे। बिष्ट जी ने कहा कोसी बाजार से यात्रा सैनार गाँव को जायेगी। दलित बस्ती में दिन का नाश्ता होगा। गिर्दा ने कहा तब तो मैं भी जरूर सैनार आउँगा। उनको बहुत समझाया गया कि खड़ी चढ़ाई है। लेकिन वे माने नहीं। जाते समय उतार था। सैनार गाँव में गिर्दा ने अपने सम्बोधन के बाद नदी का गीत गाना शुरू किया तो पूरी बस्ती इकट्ठा हो गयी। नाश्ते के बाद आधा किमी की एकदम खड़ी चढ़ाई थी। गिर्दा को बहुत परेशानी हुई। बहुत समय लग गया। अल्मोड़ा में रात्रि विश्राम था। हमने गिर्दा से कहा आप बहुत परेशान हो गये। वे बोले, मैं बहुत खुश हूँ। गाँव के सामान्य लोगों के बीच अपने को ला तो पाया।

विवाह से पूर्व लम्बे समय तक नैनीताल में उनके रूम पार्टनर और घनिष्ठ रहे नेपाली, राजा बाबू की तबियत खराब हुई तो गिर्दा चिन्तित हो गये। खुद उनकी तबियत भी उन दिनों अच्छी नहीं थी। उनका फोन आया, यार पी.सी. शमशेर भी अल्मोड़ा में नहीं है। तू जाकर राजा को देख आ तो। मैं डॉ. दयाकृष्ण काण्डपाल को साथ लेकर पाण्डे खोला गया। वास्तव में राजा बाबू की हालत चिन्ताजनक थी। बिस्तर से उठ नहीं पा रहे थे। हम दोनों किसी तरह उन्हें सड़क तक लाये और फिर ‘108’ से अस्पताल पहुँचाया। गिर्दा बराबर सम्पर्क में थे। मैंने उन्हें ढाँढस बँधाते हुए फोन पर बताया कि राजा बाबू ने खाने के लिये दाल माँगी थी तो बोले यार सच-सच बता, क्या सम्भावनायें हैं ? मैंने कहा ठीक हो जायेंगे। गिर्दा कहने लगे मुझे अब मुश्किल लग रहा है। वही सच निकला। रात में ही अस्पताल से फोन आ गया कि राजा बाबू चल दिये। उसी खराब स्वास्थ्य में गिर्दा अंत्येष्टि के लिये अल्मोड़ा आये। अंत्येष्टि के बाद काण्डपाल जी ने कुछ क्रिया कर्म करने को कहा तो गिर्दा टाल गये। ऐसे रूढ़िवादी कर्मकांड पर उनका विश्वास नहीं था। हालाँकि वे अनावश्यक कट्टरता नहीं दिखाते थे। बहुत पहले, जब चेतना प्रेस से ‘जंगल के दावेदार’ अखबार निकलता था, एक व्यक्ति प्रेस में सन्तोषी माता के सौ पर्चे छपवाने आया। पर्चे में लिखा था कि पर्चे मिलने के बाद जो सौ पर्चे छपवायेगा उसे भारी लाभ होगा। जो नहीं छपवायेगा, उसका अनिष्ट होगा। सारे क्रान्तिकारियों की जमात उस व्यक्ति पर टूट पड़ी। लेकिन गिर्दा ने मैनेजर को बुलाकर कहा, मिश्राजी छापो पर्चा। तुम नहीं छापोगे तो दूसरा प्रेस वाला छापेगा। लेकिन बता अवश्य दो कि यह सब अंधविश्वास है। फिर हम सबसे कहा, देखो यारो व्यवस्था सड़ गयी है। तुम रह रहे हो या नहीं ? आटे में मिलावट है, आटा खा रहे हो कि नहीं ? इस सड़ी व्यवस्था को बदलो।

गैरसैंण राजधानी को लेकर उत्तराखंड लोक वाहिनी की अल्मोड़ा से वाया गरुड़ पैदल यात्रा निकली। गांधी चौक से 2 किमी दूर धार की तूनी तक गिर्दा हमारे साथ रहे। उन्होंने हमें आर्थिक सहयोग भी दिया। मैंने मना किया कि आप तो स्वयं आर्थिक तंगी में रहते हो। बोले, यार भुला मैं समझ लूँगा राजा बाबू का क्रिया कर्म हो गया है। राजा बाबू हमेशा जनान्दोलनों में हिस्सा लेते थे।

21 अगस्त को बिष्ट जी ने बताया कि गिर्दा की तबियत ज्यादा खराब है। राजीव व शेखर उन्हें लेकर सुशीला तिवारी अस्पताल गये हैं। रात में पता चला कि ऑपरेशन सफल हो गया। अगले दिन हमारे अस्पताल पहुँचने तक गिर्दा चल दिये थे……सबको छोड़ कर।

नैतीताल समाचार से साभार