उनतीसवीं पुतली / सिंहासन बत्तीसी
उनतीसवीं पुतली मानवती ने कहना आरम्भ किया:
एक दिन राजा विक्रमादित्य ने सपना देखा कि एक सोने का महल है, जिसमें तरह-तरह के रत्न जड़े हैं, कई तरह के पकवान और सुगंधियां हैं, फुलवाड़ी खिली हुई है, दीवारों पर चित्र बने हैं, अंदर नाच और गाना हो रहा है और एक तपस्वी बैठा हुआ है। अगले दिन राजा ने अपने वीरों को बुलाया और अपना सपना बताकर कहा कि मुझे वहां ले चलो, जहां ये सब चीजें हों। वीरों ने राजा को वहीं पहुंचा दिया।
राजा को देखकर नाच-गान बंद हो गया। तपस्वी बड़ा गुस्सा हुआ।
विक्रमादित्य ने कहा; महाराज! आपके क्रोध की आग की कौन सह सकता है? मुझे क्षमा करें।
तपस्वी प्रसन्न हो गया और बोला: जो जी में आये, सो मांगो।
राजा ने कहा: योगिराज! मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं है। यह महल मुझे दे दीजिये। योगी वचन दे चुका था। उसने महल राजा को दे दिया।
महल दे तो दिया, पर वह स्वयं बड़ा दुखी होकर इधर-उधर भटकने लगा। अपना दुख उसने एक दूसरे योगी को बताया।
उसने कहा: राजा विक्रमादित्य बड़ा दानी है। तुम उसे पास जाओ और महल को मांग लो। वह दे देगा।
तपस्वी ने ऐसा ही किया। राजा विक्रमादित्य ने मांगते ही महल उसे दे दिया।
पुतली बोली: राजन्! हो तुम इतने दानी तो सिंहासन पर बैठो?
अगले दिन तीसवीं पुतली की बारी थी। सो उसने राजा को रोककर यह कहानी सुनाई...