उन्नयक / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
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वे भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के उन्नायकों में गिने जाते थे। उनकी दृष्टि में भारतीय युवा पीढ़ी दुष्प्रभाव के कारण दिग्भ्रमित और पथभ्रष्ट हो रही है। पश्चिमी नृत्य के नंगेपन, भौंडेपन ने उन्हें उद्वेलित कर रखा है। वे युवाओं को ग़लत रास्ते से बचाने का जतन कर रहे हैं। जगह-जगह संस्कार शिविर आयोजित कर रहे हैं। 'संस्कार बचाओ' की पुरजोर कोशिशें होती हैं। भाषण होते हैं। श्रोताओं की भीड़ उमड़ती है।

वे खड़े रहते हैं तो कोई बैठता नहीं।

वे आज अपनी पोती के स्कूल की ओर से टाऊन हॉल में आयोजित सांस्कृतिक संध्या में आमंत्रित थे। यह ढाई घंटे का कार्यक्रम पश्चिमी संगीत पर आधारित था। एक के बाद एक भड़काऊ नृत्य, छात्राओं की पोशाकें, हाव-भाव, क्रिया-कलाप सब तथाकथित भारतीय संस्कृति के धुर विरोधी, गरिमा के प्रतिकूल। मगर वे पूरे कार्यक्रम का लुत्फ उठाते रहे। अन्तिम नृत्य में तो छात्राओं ने न के बराबर कपड़े पहने। लड़कियाँ लड़कों की बाहों में झूल रही थी। लग रहा था जैसी किसी फ़िल्म का आइटम साँग है। उत्तेजक नृत्य ने हॉल में जैसे आग लगा दी। बाहर खड़े लड़के जबरन हॉल में घुस आए. सीटियाँ बजने लगी। हूटिंग होने लगी। फ़िल्मी कोठे का-सा दृश्य क्रिएट हो गया। नृत्य की समाप्ति के देर बाद चाय के समय तक सभी के बीच इसी नृत्य की चर्चा थी।

उन्होंने प्रधानाचार्य से कहा-'अन्तिम नृत्य में आपने लड़कियाँ छाँट कर ली। उनका अंग-अंग बोल रहा था। ऐसे शानदार नृत्य को तो वार्षिक उत्सव में जगह मिलनी चाहिए.'

तारीफ से उल्लसित प्रधानाचार्य ने उन्हें बताया-'सर, इस नृत्य में सारी जान तो आपकी पोती मेघना के कारण ही आई हैं।' सुनते ही उन पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया। उन्हें अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लगा जैसे पाँवों तले की जमीन हिल रही है। खड़े नहीं रह पाएँगे। मैं पहचान ही नहीं पाया। मेरी पोती। तभी उनकी सोच पर विराम लगाते हुए मेघना की आवाज कानों से टकराई-'दादू, मेरा सरप्राइज कैसा लगा?'

उन्हें लगा जैसे किसी ने उन्हें भरी सभा में वस्त्रहीन कर दिया है।

इधर मेघना चहक रही थी। वे सुन और देख कर भी न कुछ सुन रहे थे और न ही देख रहे थे। बस बाहर जाने वाले रास्ते की दिशा में तेजी से चले जा रहे थे कि किसी की नजरों का सामना न करना पड़े।