उन्नीसवाँ प्रकरण / विश्वप्रपंच / एर्न्स्ट हेक्केल / रामचंद्र शुक्ल

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उन्नीसवाँ प्रकरण -तत्त्वाद्वैतदृष्टि से धर्म या कर्माकर्मव्यवस्था1



जीवन के व्यवहार में प्रत्येक मनुष्य के कुछ कर्तव्य होते हैं जो तभी पूरे हो सकते हंथ जब कि वे उसके जगत्सम्बन्धी सिद्धांत के अनुकूल हों। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी कर्माकर्म व्यवस्था उस अद्वैत भाव के अनुकूल होनी चाहिए जो प्राकृतिक नियमों के समुन्नत ज्ञान द्वारा हमें प्राप्त हुआ है। जिस प्रकार हम इस अनन्त विश्व को एक अखिल अद्वितीय सत्ता या समष्टि मानते हैं उसी प्रकार मनुष्य के आध्यात्मिक या धार्मिक जीवन को भी उसी विश्व विधान का एक अंग मानते हैं। आध्यात्मिक और भौतिक दो अलग अलग जगत् नहीं हैं।

पर अधिकांश दार्शनिकों और धर्ममीमांसकों का मत इसके विरुद्ध है। जैसे कांट ने कहा है वैसे ही वे भी कहते हैं कि धार्मिक और आध्यात्मिक जगत् भौतिक जगत् से सर्वथा अलग और स्वतन्त्र है अत: मनुष्य की सद्सद्विवेक बुद्धि भी उस ज्ञान से सर्वथा स्वतन्त्र है जो विज्ञान द्वारा जगत् के सम्बन्ध में हमें प्राप्त होता है। सद्सद्विवेक बुद्धि अपने मत के विश्वास पर अवलम्बित होती है। कांट के कथन के अनुसार सद्सद्विवेक का आभास केवल व्यवसायत्मिका बुद्धि को होता है, शुद्ध बुद्धि को नहीं जिससे भौतिक या दृश्य जगत् का बोध होता है, जिससे चिन्तन, तर्क और अनुमान आदि किए जाते हैं। ज्ञान की यह द्वैधा भावना। कांट के दर्शन का बड़ा भारी दोष है। इससे अनेक प्रकार के भ्रम फैले हैं। पहले तो कांट ने 'शुद्ध बुद्धि' का एक अपूर्व और विशाल भवन खड़ा करके अच्छी तरह सिद्ध कर दिया कि उसमें ईश्वर अर्थात पुरुषविशेष तथा स्वतन्त्र और अमर आत्मा के लिए कोई

1 धर्म से अभिप्राय आचरण पर शासन रखनेवाले नियमों से है, मत या मजहब से नहीं। मनु ने धर्म के दस मूल लक्षण बतलाए हैं-

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्ड्ड

इस लक्षण में स्वार्थ (धृति, शौच दम) और परार्थ (क्षमा, अक्रोध, सत्य) दोनों आ गए हैं।


स्थान नहीं है, उसकी सत्ता का कोई प्रमाण नहीं है। पीछे उसने भी प्रमाणहीन कल्पना का सहारा लिया और 'व्यवसायत्मिका बुद्धि' का एक दूसरा हवाई महल खड़ा करके उसमें इन कल्पित वस्तुओं के लिए जगह की।

विश्वास के आधार पर स्थित इस भवन में उसने 'कर्माकर्म की व्यवस्था' प्रतिष्ठित की। इस व्यवस्था के अनुसार सदसत्सम्बन्धी व्यापक नियम सर्वथा स्वतन्त्र और स्वत:प्रमाण हैं, वे और किसी वस्तु की प्रामाणिकता पर निर्भर नहीं। भौतिक या दृश्य जगत् में जो नियम दिखाई पड़ते हैं उनके द्वारा उनका समाधान नहीं हो सकता। वे चिन्मय जगत् के अन्तर्गत हैं। वे आत्मानुभूति के नियमों में दाखिल हैं अर्थात किसी कर्म के उपस्थित होने पर आत्मा उसके भले या बुरे होने के सम्बन्ध में अपनी स्थिति का आप जो बोध करती है वह सदा एक ही प्रकार का होता है। इसी आदेश पर चलना धर्म या सदाचार है। कांट का सिद्धांत यदि ठीक मानें तो संसार के सब मनुष्यों में एक ही प्रकार की कर्तव्यबुद्धि होनी चाहिए। पर ईधर जो पृथ्वी पर की भिन्न भिन्न जातियों का अनुसंधान किया गया है उससे यह बात पाई नहीं जाती। अनुसंधान से यही पाया जाता है कि भिन्न भिन्न जातियों में, विशेषत: असभ्य जातियों में, कर्तव्य की भावनाएँ भिन्न भिन्न हैं। वे कर्म और रीतिरिवाज जिन्हें हम घोर पाप और अपराध समझते हैं, कुछ जातियों द्वारा कुछ अवस्थाओं में धर्म और कर्तव्य माने जाते हैं।

कांट ने बुद्धि के जो दो परस्परविरुद्ध भेद किए उसका खंडन यद्यपि पीछे से लोगों ने किया पर उसे बहुत से लोग अभी तक मानते जाते हैं। बात यह है कि उससे मतवादियों और ख्याली पुलाव पकानेवालों की निराधार कल्पनाओं को बहुत कुछ सहारा मिला है। इसी से यह द्वैधाभाव उन्हें अत्यंत प्रिय है। पर कांट ने 'व्यवसायत्मिका बुद्धि' का जो आडम्बर खड़ा किया था उसे आधुनिक विज्ञान ने छिन्न भिन्न कर दिया है। परमतत्व की अक्षरता के नियम द्वारा जगद्विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि कोई पुरुष विशेष रूप ईश्वर नहीं है। भिन्न भिन्न जंतुओं के मनोव्यापारों के मिलान और अन्त:करण के क्रमागत विकास के निरीक्षण द्वारा जिस आधुनिक मनोविज्ञान की स्थापना हुई, उसने प्रमाणित कर दिया है कि अमर आत्मा कोई वस्तु नहीं। शरीरव्यापार शास्त्र द्वारा 'कर्मसंकल्पवृत्ति' के स्वातन्त्रय का भी खंडन हो गया है। विकास सिद्धांत से यह अच्छी तरह स्थिर हो गया है कि प्रकृति के उन्हीं अविचल या शाश्वत नियमों के अधीन सजीव सृष्टि तथा उसके धर्म आदि सब व्यापार भी हैं जिनके अधीन जड़ सृष्टि है। अस्तु, मनुष्य तथा उसका कोई व्यापार, क्या मानसिक, क्या धर्म और क्या आचारसम्बन्धी, उन नियमों के परे नहीं है।

आधुनिक विज्ञान ने कांट के द्वैधाभाव का खंडन ही नहीं किया है उसके स्थान पर सच्ची कर्तव्याकर्तव्य व्यवस्था भी स्थापित की है। इस व्यवस्था के अनुसार कर्तव्यबुद्धि कल्पना के आधार पर स्थित नहीं है बल्कि 'सामाजिक प्रवृत्ति' पर निर्भर है जो समुदाय में रहनेवाले सब जंतुओं में पाई जाती है। धर्म या सदाचार का सबसे बड़ा उद्देश्य यह है कि स्वार्थ और परार्थ के बीच सामंजस्य स्थापित हो। दोनों के पलड़े इस प्रकार तुले रहें कि व्यवहार में किसी प्रकार की बाधा न पड़े, अपनी भलाई और दूसरे की भलाई दोनों का साधान बराबर होता जाये, दोनों के बीच विरोध न आने पाये। प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर ने विकास सिद्धांत की दृढ़ नींव पर इस प्रकार की तात्त्विक कर्तव्याकर्तव्य व्यवस्था स्थापित की है। 1

मनुष्य समुदाय में रहनेवाला प्राणी है अत: समुदाय में रहनेवाले और दूसरे जंतुओं के समान उसके दो प्रकार के कर्तव्य हैं; एक अपने प्रति और दूसरा उस समाज के प्रति जिसमें वह रहता है। एक का साधन स्वार्थ कहलाता है और दूसरे का परार्थ या परोपकार। मनुष्य के लिए दोनों उचित हैं। यदि मनुष्य को समाज में रहना है तो उसे केवल अपना ही भला न देखना चाहिए, दूसरों का भला भी देखना चाहिए जिनके साथ उसे रहना है। उसे यह समझना चाहिए कि समाज के हित से उसका भी हित है। यदि समाज का कोई भी अनिष्ट होगा तो उस समाज में रहने के कारण वह उस अनिष्ट से बच नहीं सकता। सिद्धांत रूप में तो इसका खंडन कोई नहीं कर सकता पर इसके विरुद्ध व्यवहार लोग बराबर करते हैं।

'स्वार्थ' और 'परार्थ दोनों पर समान दृष्टि रखना हमारे तत्त्वाद्वैत धर्म का मुख्य तत्व है। आत्मोपकार और परोपकार दोनों इस धर्म के अन्तर्गत हैं। 'दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें', ईसाई धर्म की इस शिक्षा में यह बात स्पष्ट है कि हमारे लिए अपने प्रति भी वैसे ही पवित्र कर्तव्य हैं जैसे दूसरों के प्रति। ये युगपद् धर्म कुटुम्ब और समाज की रक्षा के लिए परम आवश्यक प्राकृतिक नियम हैं। आत्मभाव से व्यक्ति की रक्षा होती है और परार्थभाव से व्यक्तियों से बनी हुई जाति की। प्राणियों के समूहबद्ध होने के लिए उनमें एक प्रकार की सामाजिक प्रवृत्ति सजीव सृष्टि की आदिम अवस्था में ही उत्पन्न हुई। यह वंशपरम्परागत प्रवृत्ति समूह में रहनेवाले छोटे बड़े सब जंतुओं में पाई जातीहै।


1 पाश्चात्य दर्शन में कर्तव्याकर्तव्य शास्त्र के सम्बन्ध में कई प्रकार के सिद्धांत पाए जाते हैं-(इन्टयूशनल थ्योरी) 'विवेकबुद्धिवाद' जो सदसत्य का भेद करनेवाली बुद्धि को स्वभावसिद्ध मानता है, 'प्रेरणावाद' (सेंटिमेन्टल ओर इमोशनल थ्योरी। जो कर्मों के प्रति स्वाभाविक रुचि और घृणा की प्रेरणा को सदसभेद का मूल बतलाता है, सुखवाद (युटिलिटेरियन थ्योरी) जो समाज के लाभालाभ की दृष्टि से, अर्थात किस कर्म से सबसे अधिक लोगों के सबसे अधिक सुख का साधान होता है, कर्माकर्म का निर्णय करता है। प्रथम दो सिध्दान्तों के अनुयायियों में ही कुछ आध्यात्मिक दृष्टि रखनेवाले दार्शनिक हुए हैं जो धर्म और आचार के नियमों को नित्य और स्वतन्त्र मानते हैं। पर प्राय: सब दार्शनिकों ने शब्दों पर ही तर्कवितर्क करके भारी वाग्जाल खड़ा किया है। पर जब से आधिभौतिक शास्त्रों के विविध अंगों की अपूर्व उन्नति होने लगी तब से विचारपद्धति बदल गई। व्यवहार और समाजविकास की दृष्टि से धर्म और आचार इन दोनों की व्याख्या की गई।


विकास परम्परानुसार उत्तरोत्तर उन्नत कोटि के जीवों की उत्पत्ति के साथ साथ यह प्रवृत्ति भी वृद्धि को प्राप्त होती गई। लोक के प्रति जो हमारे धर्म हैं वे इसी मूल प्रवृत्ति के उन्नत या प्रवर्द्धित रूप हैं जो धीरे-धीरे वर्तमान अवस्था को पहुँचे हैं।

सभ्य मनुष्यों के बीच सदाचार सम्बन्धी जो नियम पाए जाते हैं वे बहुत कुछ उनकी उस धारणा के अनुसार होते हैं जो जगत् के विषय में होती है। अत: उन नियमों का सम्बन्ध किसी न किसी मत या मजहब से रहता है।

धर्म का मुख्य तत्व उस सिद्धांत में है जिसे ईसाई लोग भी अपने मत की प्रधान शिक्षा मानते हैं। 'तुम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते हो दूसरे तुम्हारे साथ करें', इस कथन में धर्म का सम्पूर्ण सार है पर यह बात भी समझ रखनी चाहिए कि इस धर्मतत्व की स्थापना ईसा के जन्म से हजारों वर्ष पहले प्राचीन सभ्य देशों में ही हो चुकी थी। सबसे पहले इस तत्व का निरूपण भारत1 और चीन में हुआ। ईसा से 500 वर्ष पहले कनफूची ने जो पुरुषविशेष ईश्वर और अमर आत्मा नहीं मानता था, उपदेश दिया था कि 'हर एक आदमी के साथ वैसा कर जैसा तू चाहता है कि वह तेरे साथ करे, दूसरे के साथ वैसा कभी न कर जैसा कि तू चाहता है कि वह तेरे साथ न करे। तुझे एकमात्र इसी उपदेश की आवश्यकता है।' इसी प्रकार यूनान के कई तत्वज्ञों ने इस सिद्धांत को प्रकट किया था। अरस्तू का कथन है कि 'हमें दूसरों के साथ वैसा ही करना चाहिए जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हमारे साथ करें।' सारांश यह कि ईसाई मत ने इस सिद्धांत को भी अपने और सिध्दान्तों के समान, अपने से पूर्व के मतों से विशेषत: बौद्धमत से लिया है।

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, इस सिद्धांत का महत्त्व हमारा तत्त्वाद्वैत धर्म भी स्वीकार करता है; क्योंकि इसमें स्वार्थ और परार्थ दोनों पर समान दृष्टि रखी गई है। पर ईसाइयों की तथा ओर मतों की पुस्तकों में बहुत से विरुद्ध वाक्य मिलते हैं जिनमें स्वार्थ का एकदम परित्याग करने को कहा गया है और परार्थ ही की ओर लक्ष्य रखा गया है। पर स्वरक्षा के लिए स्वार्थ पर दृष्टि रखना आवश्यक है। आत्मरक्षा पहला धर्म है। ईसाई मत की शिक्षा है कि 'जो तुम्हें एक गाल में चपत मारे उसके लिए दूसरा गाल भी फेर दो, अपने वैरियों से प्रेम करो, जो तुम्हें शाप दें उसे आशीर्वाद दो, जो तुम्हें सतावें उनके कल्याण के लिए प्रार्थना करो' इत्यादि। ये बातें सुनने में तो बहुत अच्छी लगती हैं पर अस्वाभाविक हैं और व्यवहार में नहीं चल सकतीं। यदि कोई दुष्ट धूर्तता करके हमारा आधा माल उठा ले जाये तो क्या हमें यही चाहिए कि हम बाकी आधा भी उसके आगे उठाकर रख दें। यदि व्यापार,


1 शरशय्या पर भीष्म ने जो उपदेश दिए हैं उनमें एक यह भी है कि जो अपने को अच्छा लगे उसे दूसरों के लिए भी अच्छा समझे और जो अपने को अप्रिय हो उसे दूसरों के लिए भी अप्रिय समझे। बौद्ध धर्म में भी यह सिद्धांत कई जगह कहा गया है।


राजनीति आदि में इन उपदेशों का पालन किया जाये तो क्या दशा होगी। अत: यही कहना पड़ता है कि ईसाई आदि मत एकांगदर्शी हैं। उनमें परार्थभाव को तो बढ़ाकर कल्पित आदर्श खड़े किए गए हैं पर स्वार्थ का कुछ भी ध्यान नहीं रखा गया है। यही कारण है कि 'पर उपदेश कुशल' लोगों की बातें मनुष्य समाज के बीच कहीं नहीं पाई जातीं।

दूसरी बात यह है कि ईसाई धर्मपुस्तक में शरीर को एक क्षणभंगुर पिंजरा मात्र समझने के कारण उसकी रक्षा के लिए शौच आदि नियमों का समावेश नहीं है। हिन्दूधर्म में नित्यस्नान आदि के जैसे नियम हैं वैसे ईसाई मत में नहीं। यहाँ तक कि कैथलिक सम्प्रदाय के बहु तेरे मठों में सबसे पवित्र और धार्मिक वह समझा जाता है जो शरीर के मैले कुचैले रहने की परवा नहीं करता, अपने कपड़े धोने धुलाने की चिन्ता नहीं करता, किसी काम के किनारे नहीं फटकता और अनेक प्रकार के व्रत, उपवास तथा स्तुति पाठ आदि में ही सारा समय व्यतीत करता है। जैन आदि कुछ मतों में शौच का इतना अभाव है और व्रत, उपवास आदि के नियम इस हद तक पहुँचाए गए हैं कि आश्चर्य होता है। शौच सम्बन्धी आचार प्रथम धर्म है-

'आचार: प्रथमो धर्म:'।

इसी प्रकार शरीर रक्षा भी प्रधान कर्तव्य है-'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधानम्'।

एक और बड़ा भारी दोष ईसाई आदि पैगम्बरी, शमई या इबरानी मतों में यह है कि उनमें मनुष्य सारी सृष्टि से अलग किया जाकर एक अतीत पद को पहुँचा दिया गया है। ऐसा जान पड़ता है कि सारी सृष्टि मनुष्य ही के लिए है, उसमें जो कुछ होता है सब मनुष्य ही के हानि-लाभ के लिए। आदमी न होता तो शायद दुनिया भी न होती। इन मतों में मनुष्य की दृष्टि मनुष्य ही तक रह गई है, आगे सृष्टि के उस अपार विस्तार की ओर जरा भी नहीं गई है मनुष्य जिसका एक क्षुद्र से क्षुद्र अंश मात्र है। बाइबिल में मनुष्य ने अपने को 'ईश्वर की प्रतिमूर्ति' कहा है पर सच पूछिए तो ईश्वर को ही उसने अपनी प्रतिमूर्ति समझा है। अपनी प्रधानता के मद में इन मतप्रवर्तकों ने यह न समझा कि कुत्तो, बिल्ली, बन्दर आदि जो सुख-दु:ख का अनुभव करनेवाले और प्रयत्नशील जीव हैं उन्हीं में से एक मनुष्य भी है। अहंकार वंश यदि मनुष्य अपने को अलग समझे और अपने से छोटे जीवों के जी को जी न समझे तो यह उसकी सरासर भूल है। सम्यक् दृष्टि के अभाव से ही ईसाई आदि मतों में अन्य जीवों, गाय, भैंस, कुत्तो, बन्दर इत्यादि के प्रति दया और स्नेह का वैसा भाव थोड़ा बहुत भी नहीं पाया जाता जैसा हिन्दू, बौद्ध आदि धर्मों में कूट कूट कर भरा हुआ है। ईसाई देशों में जाकर देखिए कि पशुओं के प्रति कितनी निष्ठुरता की जाती है, किस निर्दयता से उनके प्राण लिए जाते हैं। ईसाई लोग पशुओं के जी को जी ही नहीं समझते। इस विषय में हमारा तत्त्वाद्वैत धर्म कितना उदार है। डारविन ने अपने विकासवाद द्वारा हमें यह सुझा दिया है कि हमारी उत्पत्ति बनमानुसों से हुई है और सब जीव एक ही प्रकार के मूल अणुजीवों से क्रमश: विकास द्वारा उत्पन्न हुए हैं। अत: यों तो सभी जीव हमारे सम्बन्धी हैं पर स्तनपायी पशु हमारे सगे हैं। आधुनिक शारीरिक या शरीर व्यापार विज्ञान ने हमें यह बतला दिया है कि हममें और उनमें एक ही प्रकार के संवेदन सूत्र हैं, एक ही प्रकार की इन्द्रियाँ हैं और एक ही प्रकार की सुख-दु:ख का अनुभव करने की वृत्ति है। कोई तत्त्वाद्वैतवादी या प्रकृति विज्ञानी पशुओं के प्रति वैसी निष्ठुरता और क्रूरता नहीं कर सकता जैसी ईश्वर के सगे बनकर ईसाई लोग करते हैं। ईसाई मत हमें प्रकृति के प्रेम से दूर रखता है।

ईसाई आदि वैराग्यप्रधान मतों में सांसारिक जीवन तो कुछ समझा ही नहीं गया है, अत: उनकी शिक्षाओं पर लोग यदि चलें तो फिर वही दशा हो कि 'सकल पदारथ हैं जग माहीं। भाग्यहीन नर पावत नाहीं।' विज्ञान ने जो रेल, तार आदि के सुबीते कर दिए हैं; संगीत, चित्रकारी आदि में जो अपूर्व चमत्कार अविष्कृत हुए हैं, वे सब सभ्य मनुष्य के 'सांसारिक सुख' हैं अत: उनसे सच्चे ईसाइयों को, सच्चे विरक्तों को दूर ही रहना चाहिए। अस्तु, यही कहना पड़ता है कि ईसाई मत सभ्यता का शत्रु है। यहीं तक नहीं, उस पारिवारिक जीवन की भी ईसाई मत उपेक्षा करता है जो समूह में रहनेवाले समस्त उच्च कोटि के प्राणियों का प्रकृत लक्षण है। परलोक की ओर ही लौ लगाए रखने के कारण ईसा ने इस लोक के पारिवारिकर कत्ताव्यों की ओर ध्यान नहीं दिया। अपने माता-पिता के प्रति उनके स्नेह का कोई दृष्टान्त पाया नहीं जाता। स्वयं घरबारी न होने के कारण दाम्पत्य प्रेम की वे निन्दा ही करते रहे। उनके शिष्य पाल ने यहाँ तक कहा कि 'स्त्री का स्पर्श तक करना बुरा है।' यदि इस शिक्षा पर दुनिया चलती तो धर्म अधर्म का आचार ही नष्ट हो जाता। पारिवारिक जीवन ही उन्नति का प्रथम विकास है। पारिवारिक जीवन से सामाजिक जीवन का और सामाजिक जीवन से राजनीतिक या राष्ट्रीय जीवन का विकास होता है। स्त्रियों की उपेक्षा करने से संसार नहीं चल सकता। स्त्री और पुरुष दोनों समाज के अंग हैं, दोनों के मेल से ही अर्थ, धर्म आदि का साधन हो सकता है। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ी स्त्री जाति का महत्त्व स्वीकार किया गया, स्त्री पुरुष की अध्र्दांगिनी कहलायी। स्त्रियों के रूप में गुण आदि द्वारा मनुष्य में सौन्दर्य की भावना का कितना विकास हुआ है और काव्य तथा चित्रकला आदि में कितनी मोहिनी शक्ति आई है। पर स्त्रियों को 'पैर की धूल' समझनेवाली प्राचीन असभ्य जातियों का भाव ईसा में भी भरा था।

ईसा के इस भाव का परिणाम यह हुआ कि पोप द्वारा प्रवर्तित ईसाई मत में उपदेशकों और पादरियों के लिए अविवाहित रहने का कठोर नियम बनाया गया। पर इस कठोर नियम का फल क्या हुआ? व्यभिचार की घोर वृद्धि। पोप के अधीन धर्माचार्य लोग जिस समय नास्तिकों के दंड की व्यवस्था देने बैठते थे उस समय वे व्यभिचारिणी स्त्रियों से घिर कर बैठते थे। पादरियों के व्यभिचार की सीमा इतनी बढ़ी कि प्रजा घबरा गई। अब भी युरोप के उन देशों में जिनमें कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाई बसते हैं, अविवाहित रहने के नियम के विरुद्ध आन्दोलन चला करते हैं।

अब यह देखना चाहिए कि संसार में प्रचलित भिन्न भिन्न मतों या मजहबों के प्रति वर्तमान सभ्य राज्यों का क्या कर्त्तव्य है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अब वह समय आ गया है जब राज्य से किसी मतविशेष से कोई लगाव न रहे। न राज्य अपनी ओर से किसी मत को आश्रय दे, न सतावे। किसी मजहब के प्रचार आदि के लिए राज्य की ओर से कोई प्रयत्न नहीं होना चाहिए। सब मजहबवालों को अपने अपने विश्वास के अनुसार चलने देना चाहिए। हाँ यदि कोई सम्प्रदाय ऐसा है जिसके विधान व्यभिचारमय हैं और जिससे सदाचार को धक्का पहुँचने की सम्भावना है तो उस पर कुछ रोक रखनी चाहिए, बस। दूसरी बात यह है कि सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए जो व्यवस्था हो वह मतमतान्तरों से सर्वथा स्वतन्त्र रहे। विद्यालय में मतामतान्तरों की शिक्षा को स्थान न देना चाहिए। यह बालकों के माता पिता का काम होना चाहिए कि वे उनका विश्वास जिस मत या मजहब पर चाहे जमावें। स्कूलों और काँलेजों को मजहबी झगड़ों से अलग रखना चाहिए। वे शुद्ध ज्ञान के मन्दिर हैं। उनमें मानसिक शक्ति की वृद्धि की ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि उनमें से निकले हुए लोगों को अन्वीक्षण द्वारा सृष्टि के नाना रहस्यों को समझने में सहायता मिले। सर्वसाधारण की शिक्षा के सम्बन्ध में नीचे लिखी बातों का ध्यान यदि रखा जाये तो बहुत अच्छा हो।

1. अब तक शिक्षा का जो क्रम रहा है उसमें मनुष्य की कृतियों का परिचय कराने की ओर ही अधिक प्रवृत्ति रही है। व्याकरण, कानून, धर्मशास्त्र आदि पर अधिक जोर रहा है जिनमें मनुष्यों के बनाए हुए नियम संगृहीत हैं। प्रकृति के अध्ययन की ओर उतना ध्यान नहीं रहा है।

2. अब जो विद्यालय होंगे उनमें अध्ययन की प्रधान वस्तु होगी प्रकृति। यह जगत् किस प्रकार का है इस बात को अब शिक्षा प्राप्त करके लोग समझेंगे। वे अपने को प्रकृति से अलग करके न देखेंगे बल्कि उसी का एक सर्वोच्च विकास समझेंगे।

3. अब तक संस्कृत, अरबी, लैटिन, यूनानी इत्यादि पुरानी भाषाओं के पठनपाठन में बहुत लोगों का बहुत अधिक समय लगाया जाता था। इन भाषाओं का जानना जरूरी है पर एक हद तक, सो भी सबके लिए नहीं। अब इन भाषाओं के बिना भी ज्ञान की वृद्धि हो सकती है। दर्शन, विज्ञान आदि के नवीन तत्व अब प्रचलित भाषाओं में ही लिखे जाते हैं।

4. अब प्रचलित देशभाषाओं की उन्नति की ओर ही ध्यान होना चाहिए, उनमें नई पुरानी सब बातों का समावेश होना चाहिए।

5. इतिहास की शिक्षा में ऊपरी बातों जैसे, राजवंश परम्परा, युद्ध इत्यादि की ओर उतना ध्यान न होना चाहिए जितना किसी जाति की आभ्यन्तर दशा तथा उसकी सभ्यता और ज्ञान की वृद्धि और ह्रास के क्रम की ओर।

6. विकासशास्त्र की शिक्षा की पूर्णता के लिए यह आवश्यक है कि जगद्विकास विज्ञान की शिक्षा हो। भूगोल के साथ भूगर्भशास्त्र, प्राणिविज्ञान और मानवविज्ञान जिसमें मनुष्यजाति के विकास आदि का विस्तृत वर्णन होता है, की भी शिक्षा अवश्य होनी चाहिए।

7. प्राणिविज्ञान के स्थूल तत्त्वों का ज्ञान प्रत्येक शिक्षित पुरुष को होना चाहिए। वैज्ञानिक शिक्षा द्वारा अन्वीक्षण की शक्ति प्राप्त हो जाने से उनकी ओर चित्ता आप से आप आकर्षित होगा। पीछे शारीरिक अर्थात शरीरव्यापार विज्ञान और अंगविच्छेदशास्त्र का भी कुछ अभ्यास कराना चाहिए।

8. पदार्थविज्ञान और रसायनशास्त्र की शिक्षा भी गणित के साथ साथ अवश्य होनी चाहिए।

9. रेखाओं द्वारा आकृति लेखन (ड्राइंग) और यदि हो सके तो थोड़ी बहुत चित्रकारी का अभ्यास भी प्रत्येक छात्र-छात्रा को होना चाहिए। फूलपत्तो, पशु, पक्षी, समुद्र, मेघ आदि के अपने हाथ से बनाए चित्रों के द्वारा मनोरंजन भी होगा और प्रकृति के अन्वीक्षण की उत्कण्ठा और उसके रहस्यों को समझने की प्रवृत्ति भी उत्पन्न होगी।

10. छात्रों के व्यायाम की ओर भी अधिक ध्यान रखना होगा। कसरत करने और तैरने का अभ्यास सबको रहना चाहिए। पर सबसे अच्छा तो यह होगा कि कम से कम सप्ताह में एक दिन दूर दूर तक भिन्न भिन्न स्थानों में पैदल सैर करने जाया करें। इससे उन्हें प्रकृति के नाना पदार्थों के अन्वीक्षण का अवसर मिलेगा। इस प्रकार के अन्वीक्षण द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होगा वह अधिक स्थायी होगा।

अब तक शिक्षा का उद्देश्य यही समझा जाता रहा है कि छात्रा ऐसे व्यवसायों और ऐसे राजकीय पदों के लिए तैयार हो जायें जो समाज में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं। अब से शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यह होगा कि उनमें स्वतन्त्र विचार करने की और सीखी हुई बातों को स्पष्ट रूप से समझने की शक्ति आये। यदि ऐसे आदर्श राज्य की स्थापना वांछनीय है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को राजकीय सदस्य आदि चुनने का अधिकार हो, तो यह आवश्यक है कि शिक्षा द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि इस प्रकार उन्नत और परिष्कृत कर दी जाय कि वह राज्य का हित अहित समझ सके।