उपकृत / जगदीश कश्यप
मूसलाधार बारिश में रामदीन की कोठरी लगातार टपक रही थी। सुन्न कर देने वाली ठण्ड में रामदीन की पत्नी झुनिया भगवान को कोस रही थी और उसके दोनों बच्चे बापू–बापू की आवाज में ठिठुरते हुए डकरा रहे थे।
रामदीन साहब का विश्वसनीय नौकर था, उनके बाप के ज़माने का। "आज के नौकर बड़े हरामज़ादे होते हैं। न काम न धाम, बस तनख़्वाह बढ़ा दो!" --साहब ने यह बात उस वक़्त कही जब रामदीन अंग्रेज़ी शराब की बोतल ले आया और बोरी का छाता सिर पर रखे, ठिठुरता हुआ आगामी हुक़्म का मुंतज़िर था।
"भई नौकर है तो कमाल का" --मेहमान ने कहा–- "देखो, कहीं से भी लाया पर इतनी रात में इस ब्राण्ड की दूसरी बोतल मिलनी मुश्किल थी। पहली बोतल में तो मज़ा आया नही!" यह कहते उन्होंने जेब में हाथ डालकर नोट निकाले और बोले-– "ये लो बाबा दस रुपए। बाल–बच्चों के लिए कुछ ले जाना। बड़ी ठण्ड पड़ रही है और देखो, तुम भीग गए हो, कहीं बीमार न पड़ जाओ।"
बाबा शब्द से रामदीन चौंक गया। अभी तो वह अड़तालिस साल का है। दाढ़ी रखने का यह मतलब नहीं कि आदमी बूढ़ा हो गया। "रामदीन, ले लो रामदीन, हम तुम्हें ख़ुशी से दे रहे हैं।"
इस पर कोठी के मालिक ने गर्वपूर्वक कहा-- "ये हमारा वफ़ादार नौकर है, एक पैसा बख़्शीश का न लेगा।"
मालिक ने कहा-- "अच्छा, रामदीन, रात हो गई है, तुम अब जाओ। आज हम तुमसे बहुत खुश हैं!" --ऐसा कहते ही उन्होंने एक पैग चढ़ा लिया और बुरा–सा मुँह बनाकर काजू की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाया।
यद्यपि रामदीन ठण्ड से बुरी तरह काँप रहा था तथापि वह ख़ुशी–ख़ुशी अपनी कोठरी की तरफ बढ़ रहा था यह बताने के लिए कि आज मालिक उससे बहुत ख़ुश हैं।