उपक्रमणिका / भगवतीचरण वर्मा

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उपक्रमणिका

श्वेतांक ने पूछा-‘और पाप?’

महाप्रभु रत्नांबर मानो एक गहरी निद्रा से चौंक उठे। उन्होंने श्वेतांक की ओर ऐक बार बड़े ध्यान से देखा-‘पाप? बड़ा कठिन प्रश्न है वतस! पर साथ ही बड़ा स्वाभाविक! त्ुाम पूछते हो पाप क्या है’ इसके बाद रत्नांबर ने कुछ देर तक कोलाहल से भरे पाटलिपुत्र की ओर, जिसके गगन चुंबन करने का दम भरनेवाले ऊँचे ऊँचे प्रासाद अरूणिमा के धुंधले प्रकाश में अब भी दिखलाई दे रहे थे, देखा- ‘हाँ , पाप की परिभाषा करने की मैने भी कई बार चेष्टा की है,पर सदा असफल रहा हूँं। पाप क्या है, और उसका निवास कहां है,यह एक बड़ी कठिन समस्या है, जिसको आज तक नहीं सुलझा सका हूँं। अविकल परिश्रम करने के बाद , अनुभव के सागर में उतरानेे के बाद भी जिस सम्स्या को नहीं हल कर सका हूँ, उसे किस प्रकार तुमको समझा दूं?’

रत्नांबर ने रूककर फिर कहा -‘पर श्वेतांक, यदि तुम पाप को जानना ही चाहते हो , तो तुम्हें संसार में ढ़ूँढना पड़ेगा। इसके लिये यदि तैयार हो , तो संभव है, पाप का पता लगा सको। ’

श्वेतांक ने रत्नांबर के सामने मस्तक नमाकर कहा-‘मैं प्रस्तुत हूँ।’

‘और कदाचित् तुम भी पाप को ढूँढना चाहोगे?’ रत्नांबर ने बिशालदेव की ओर देखा।

थ्विशालदेव ने भी रत्नांबर के सामने मस्तक नमाते हुए कहा-‘महाप्रभु का अनुमान उचित है।’

रत्नांबर का मुख प्रसन्नता से चमक उठा ‘इसके पहले कि मैं तुम लोगो को संसार में भटककर अनुभव प्राप्त करने को छोड़ दूं , तुम्हें परिस्थितियों से भिज्ञ करा देना आवश्यक होगा। इस नगर के दो महानुभावों से मैं यथेष्ट परिचित हूं, और इस कार्य को पूरा करने के लिये तुम लोगों को इन दोनो की सहायता की आवश्यकता होगी। एक योगी है और दूसरा भोगी-योगी का नाम है कुमारगिरि , और भोगी का नाम है बीजगुप्त। तुम दोनो के जीवन को इनके जीवन स्त्रोत के साथ साथ ही बहना पडे़गा।’

दोनो शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया-‘स्वीकार है!’

‘विशालदेव! तुम ब्राह्मण हो और तुम्हारी ध्यान तथा आराधना पर अनुरक्ति है-; इसलिये तुम्हें कुमारगिरि का शिष्य बनना उचित होगा। और श्वेतांक! त्ुम क्षत्रिय हो , तुम्हें संसार में अनुरक्ति है इसलिये तुम्हें बीजगुप्त का सेवक होना पड़ेगा।’

दोनो शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया -‘स्वीकार है!’

‘तुम दोनो के मार्ग निर्धारित हो चुके । अब रहा मैं । तुम लोग मेरी चिंता न करो। जीवन में अनुभव की भी उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी उपासना की। तुम अनुभव प्राप्त करो और मैं तपस्या करूंगा। आज से एक वर्ष बाद तुम दोनो मुझसे यहीं पर मिलोगे। और उस समय फिर से हम अपने निर्धारित कार्यक्रम पर चल सकेंगे।

पर एक बात याद रखना। जो बात अध्ययन से नहीं जानी जा सकती है, उसको अनुभव से जानने का प्रयत्न करने के लिए ही मैं तुम दोनो को संसार में भेज रहा हूँ। पर इस अनुभव में तुम स्वयं भी न बह जाओ, इसका ध्यान रखना पड़ेगा। संसार की लहरों की वास्तविक गति में तुम दोनों बहोगें। उस समय यह ध्यान रखना पड़ेगा कि कहीं डूब न जाओ।’

श्वेतांक ने विशालदेव की ओर देखा और विशालदेव ने श्वेतांक की ओर।

रत्नांबर ने कुछ देर तक मौन रहकर फिर कहना आरंभ किया-‘जिन परिस्थितियों में तुम जा रहे हो, उसका पहले से ही परिचय करा दूँ।’

कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है; उसमें विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है। कुमारगिरि युवा है; पर यौवन और विराग में मिलकर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य। विशालदेव! वही कुमारगिरि तुम्हारा गुरू होगा।

‘और श्वेतांक! बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आँखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में भोग विलास नाचा करते हैं ; रत्नजटित मदिरा में ही उसके जीवन का सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगो में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। उसमें सौदर्य है, और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। उसके द्वार पर मातंग झूमा करते हैं; उसके भवन में सौंदर्य के मद से मतवाली नर्तकियों का नृत्य हुआ करता है। ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं,शायद उसने कभी ईश्वर के विषय में सोचा तक नहीं है। और स्वर्ग तथा नर्क की उसे कोई चिंता नहीं है।आमोद और प्रमोद ही उसके जीवन का साधन है तथा लक्ष्य भी है। उसी बीजगुप्त का तुम्हें सेवक बनना पडे़गा। श्वेतांक! स्वीकार है? ’

‘महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है।’ श्वेतांक एक बार कल्पना से परे ऐश्वर्य की थाह लेना चाहता था।

‘और विशालदेव , तुम्हें स्वीकार है?’

‘महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है।’ विशालदेव एक बार यौवन और विराग के मिश्रण से उत्पन्न शक्ति का महत्व जानना चाहता था।

‘तो फिर ऐसा ही हो।’ इतना कहकर रत्नांबर उठ खड़े हुए।

दूसरे दिन कुटी खाली पड़ी थी। गुरू साधना के शुष्क क्षेत्र में और शिष्य अथाह संसार में निकल पड़े थे।

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