उपन्यास / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
आजकल उपन्यास लिखने में बहुत लोगों की धड़क खुल गई है। इनमें यदि थोड़े ऐसे हैं जिन्हें अपनी कल्पना और अनुभव का सहारा है तो बहुत से ऐसे भी हैं जिनका अन्य भाषाओं की विख्यात पुस्तकों ही पर गुजारा है। उपन्यास साहित्य का एक प्रधान अंग है। मनव प्रकृति पर इसका प्रभाव बहुत पड़ता है। अत: अच्छे उपन्यासों से भाषा की बहुत कुछ पूर्ति और समाज का बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।
मनव जीवन के अनेक रूपों का परिचय कराना उपन्यास का काम है। यह उन सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाओं को प्रत्यक्ष करने का यत्न करता है जिनसे मनुष्य का जीवन बनता है और जो इतिहास आदि की पहुँच के बाहर हैं। बहुत लोग उपन्यास का आधार शुद्ध कल्पना बतलाते हैं। पर उत्कृष्ट उपन्यासों का आधार अनुमन शक्ति है, न कि केवल कल्पना। तोता मैना का किस्सा और तिलिस्म ऐयारी की कहानियाँ निस्संदेह कल्पना की क्रीड़ा हैं और असत्य हैं, पर स्वर्णलता, दुर्गेशनन्दिनी, बंगविजेता, जीवन सन्याल्प , बड़ा भाई आदि के ढंग के गृहस्थं और ऐतिहासिक उपन्यास अनुमनमूलक और सत्य हैं, उच्च श्रेणी के उपन्यासों में वर्णित छोटी छोटी घटनाओं पर यदि विचार किया जाय तो जान पड़ेगा कि वे यथार्थ में सृष्टि के असंख्य और अपरिमित व्यापारों से छाँटे हुए नमूने हैं।
संसार में मनुष्य जीवन संबंधी बहुत सी ऐसी ऐसी बातें नित्य होती रहती हैं जिनका इतिहास लेखा नहीं रख सकता पर जो बड़े महत्तव की होती हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन इन्हीं छोटी छोटी घटनाओं का जोड़ है। पर बड़े से बड़े इतिहास और बड़े से बड़े जीवन चरित्र में भी इन घटनाओं का समावेश नहीं हो सकता। जब इन सूक्ष्म घटनाओं के संयोग में कोई उग्र घटना उमड़ पड़ती है तब जाकर इतिहास की दृष्टि उस पर पड़ती है। अपनी असंख्यता और क्षिप्रगति के कारण ऐतिहासिक प्रमाणों की पकड़ में न आनेवाली इन घटनाओं के निदर्शन के निमित्त मनुष्य की अनुमन शक्ति उठ खड़ी होती है जो अनेक व्यापारों के अभ्यास से वैसे ही किसी एक व्यापार का आरोपण कर सकती है। इस शक्ति को रखनेवाले उच्च कोटि के उपन्यास लेखक जिन जिन बातों का उल्लेख अपनी कथाओं में करते हैं वे सब ऐसी बातें होती हैं जो संसार में बराबर होती रहती हैं और समाज की परिचित गति के अन्तर्भूत होती हैं। जबकि इन घटनाओं का आरोप करने में सृष्टि के व्यापारों के निरीक्षण करने की अपेक्षा हुई तब वे बिलकुल कल्पना कैसे कही जा सकती हैं? उनका आधार सत्य पर है, उन्हें असत्य नहीं समझना चाहिए।
ऐतिहासिक आख्यानों के वर्णन करने में कविगण इस अनुमन का सहारा लेते हैं। जिन छोटे छोटे अंशों को इतिहास छलाँग मारता हुआ छोड़ जाता है, कवि अपने सत्यमूलक अनुमन के बल पर उनकी एक लड़ी जोड़कर जीवन का एक चित्र पूरा करके खड़ा करता है। धनुषभंग होने पर परशुराम का राम और लक्ष्मण पर क्रोध करना इतिहास की बात है पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच जो जो बातें अवश्य हुईं वह कवि का अनुमन है। कवि ने लक्ष्मण और परशुराम के स्वभाव तथा अवसर की ओर ध्या न देकर अनुमन किया कि उनके बीच ये या इसी तरह की बातें अवश्य हुई होंगी। कैकेयी का कोपभवन में जाना तो इतिहास ने बतलाया पर उसने जो चुटीली बातें राजा दशरथ को कहीं उन्हें भिन्न भिन्न कवियों ने अपने अनुमन के अनुसार जोड़ा है। इन छोटी छोटी बातों के समावेश के कारण कोई ऐतिहासिक काव्य वा आख्यान असत्यमूलक नहीं कहा जा सकता। बिना इन बातों का जोड़ लगाए ऐतिहासिक वृत्त स्वाभाविक मनव व्यापार समझ ही नहीं पड़ते। ऐतिहासिक उपन्यासों के बीच जो पात्र और व्यापार ऊपर से लाए जाते हैं और कल्पित कहे जाते हैं यदि वे उस समय की सामाजिक स्थिति के सर्वथा अनुकूल हों तो उन्हें ठीक मन लेना कोई बड़ी भारी भूल नहीं है। क्योंकि उनके अनुमन करने का साधन तो हमारे पास है पर खंडन करने का एक भी नहीं। यदि कोई अनुभवी लेखक महाराणा प्रतापसिंह वा शिवाजी की असंख्य सेना में से किसी सैनिक को च्युत कर उसका साहस तथा किसी रमणी पर प्रेम तथा उसका गृहस्थं जीवन आदि दिखलावे तो हमें इन बातों को अघटित और असत्य मनने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि हमें तो उस समय का सामाजिक चित्र देखना है, न कि किसी व्यक्ति के विषय में छानबीन करना। इसी प्रकार किसी इतिहास प्रसिद्ध घटना के ऐसे अंगों का वर्णन करना भी उपन्यास लेखक का काम है जिन पर इतिहास ने ध्याकन नहीं दिया। यदि हल्दीघाटी की लड़ाई का दृश्य दिखाने में लिखा जाय कि 'रामसिंह ने भाला मारा, गाजी खाँ की पगड़ी गिरी, राजपूतों को महाराणा ने यह कहकर बढ़ावा दिया, अमुक भील ने पत्थर लुढ़काया', तो इन अनुमानित व्यापारों को उस लड़ाई के अन्तर्गत मनने में कोई बाधा नहीं है। ऐसे ही व्यापार की आंशिक वा साधारण सूचना पाकर उपन्यासकर्ता विशेष उदाहरण का अनुमन भी कर सकता है। जैसे औरंगजेब के लिए हिन्दुओं को सताना और उनके मन्दिर तोड़ना साधारण बात प्रसिद्ध है। अत: यदि उस समय की कहानी लिखते हुए कोई किसी बस्ती में एक विशेष नाम का मन्दिर अनुमन करके उसका तोड़ा जाना दिखलावे तथा किसी अनुमानित व्यक्ति विशेष की पीठ पर काजी के कट्टरपन के कारण कोड़े पड़ने की बात सुनावे तो वह मिथ्या भाषण का दोषी नहीं।
इतिहास कभी उन बहुत से सूक्ष्म व्यापारों के लिए जिनसे जीवन का तार बँध है एक सांकेतिक व्यापार का व्यवहार करके काम चला लेता है पर उपन्यास का सन्तोष इस प्रकार नहीं हो सकता। इतिहास कहीं यह कहकर छुट्टी पा जायगा कि अमुक राजा ने बड़ा अत्याचार किया। अब इस अत्याचार शब्द के अन्तर्गत बहुत से व्यापार आ सकते हैं। इससे उपन्यास इन व्यापारों में से किसी किसी को प्रत्यक्ष करने में लग जायगा।
यहाँ पर यह भी समझ रखना चाहिए कि ऐतिहासिक उपन्यासकर्ताओं के इस अधिकार की भी सीमा है। यह उन्हीं छोटी छोटी घटनाओं को ऊपर से ला सकता है जो किसी ऐतिहासिक घटना के अन्तर्गत अनुमन की जा सकें, अथवा संसार की गति और समाज की तत्कालीन अवस्था का अंग समझी जा सकें। न वह किसी विख्यात घटना में उलटफेर कर सकता है और न ऐसी बातों को ठूँस सकता है जिनका अनुमन उस समय की अवस्था को देखते नहीं हो सकता। इन ऊपर लिखी बातों पर विचार करने ही से यह विदित हो गया होगा कि ऐतिहासिक उपन्यास लिखने के लिए इतिहास के पूरे ज्ञान के साथ ही साथ परम्परागत रहन सहन, बोलचाल की आलोचना शक्ति आदि भी खूब होनी चाहिए।
सामाजिक उपन्यास जिन जिन चरित्रों को सामने लाते हैं वे या तो ऐसे हैं जो सामाजिक व्यापारों के औसत हैं अथवा जिनका होना मनव प्रवृत्ति की चरमसीमा पर सम्भव है। कहीं पर ये उपन्यास यह दिखलाते हैं कि समाज कैसा है और कहीं पर यह दिखलाते हैं कि समाज को कैसा होना चाहिए। ये कहीं तो उन असंख्य व्यापारों में से जिनसे हम घिरे हैं कुछ एक को ऐसे स्थान पर लाकर अड़ा देते हैं जहाँ से हम उनका यथार्थ रूप और सृष्टि के बीच उनका संबंध दृष्टि गड़ा कर देख सकते हैं और कहीं उन सम्भावनाओं की सूचना देते हैं जिनसे यह मनुष्यजीवन, देवजीवन और यह धराधाम स्वर्गधाम हो सकता है। सतोगुण की जो मुग्धकारिणी छाया ये प्रतिभासम्पन्न लेखक एक बार डाल देते हैं वह पाठक के हृदय पर से जीवन भर नहीं हिलती, मनव अन्त:करण के सौन्दर्य की जो झलक ये एक बार दिखा देते हैं वह कभी नहीं भूलती। कथा के मिस से मनुष्यजीवन के बीच भले और बुरे कर्मों की स्थिति दिखाकर जितना ये लेखक ऑंख खोल सकते हैं उतना अहंकार से भरे हुए नीति के कोरे उपदेश देनेवाले नहीं। चाणक्य, स्माइल्स आदि नीति छाँटने वाले रूखे लेखक जन साधारण से अपने को श्रेष्ठ समझ जिस ढंग से आदेश चलाते हैं वह मनुष्य की आत्माभिमन वृत्ति को अखर सकता है। ये लोग सदाचार का स्वाभाविक सौन्दर्य नहीं दिखला सकते जिनकी ओर मनुष्य मोहित होकर आपसे आप ढल पड़ता है। अस्तु, चाणक्यनीति और स्माइल्स के 'कैरक्टर' आदि की अपेक्षा उत्तम श्रेणी के उपन्यासों का पढ़ना आचरण पर कहीं बढ़कर प्रभाव डालता है।
बड़े लोगों के जो जीवनचरित्र लिखे जाते हैं वे भी मनवजीवन के पूरे और सच्चे चित्र नहीं। उनमें भी बहुत सी सूक्ष्म घटनाएँ तो असामर्थ्य के कारण छूट जाती हैं और बहुत सी स्थूल घटनाएँ किसी विशेष अभिप्राय से छिपा दी जाती हैं। उनमें मनुष्य के अन्त:करण की वृत्तियाँ साफ साफ नहीं झलकाई जातीं। बाग्वेल आदि अंग्रेजी लेखकों ने अपने चरित्र नायकों की बहुत छोटी छोटी बातें भी दर्ज की हैं पर वे जोड़ सी मालूम होती हैं, उनमें औपन्यासिक पूर्णता नहीं आई। बादशाहों तथा वैभवशाली पुरुषों के जो चरित्र लिखे जाते हैं वे तो और भी कृत्रिम होते हैं। किसी महाराज ने अपनी गाड़ी पर से उतर अस्पताल में जा किसी रोगी से दो बातें पूछ लीं तो उनकी दया और करुणा का कहीं ठिकाना नहीं। क्या इन बातों से मनव अन्त:करण की सच्ची परख हो सकती है? वड्र्सवर्थ, थैकरे, डिकेंस और जार्ज इलियट आदि बड़े बड़े अंग्रेजी कवि और उपन्यास लेखक तथा लेखिकाओं ने दीन से दीन और तुच्छ से तुच्छ लोगों की झोंपड़ियों में जीवन के ऊँचे से ऊँचे आदर्श दिखलाए हैं।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, जुलाई 1910)
[चिन्तामणि भाग-3]