उपभोक्तावाद की खलनायकी / जयप्रकाश चौकसे
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प्रकाशन तिथि : 28 दिसम्बर 2012
आदित्य चोपड़ा सोनम कपूर और आयुष्मान खुराना ('विकी डोनर' फेम) के साथ एक फिल्म बना रहे हैं, जिसे 'दो दुनी चार' और 'इशकजादे' जैसी फिल्मों के लिए मशहूर हबीब फैजल ने लिखा है। दिल्ली में रहने वाले पात्रों की इस प्रेम-कथा की विशेषता यह है कि इसके पात्रों पर बाजार की ताकत से रचे उपभोक्तावाद का गहरा असर पड़ता है और उनके जीवन तथा तमाम रिश्तों में सारे उतार-चढ़ाव उपभोक्तावाद के कारण आते हैं। अरसे पहले संभवत: राजेंद्र यादव की एक कथा में प्रेम त्रिकोन का तीसरा कोण उनकी आर्थिक मजबूरी है। दरअसल पैसा रिश्तों पर असर डालता है। महान राजिंदर सिंह बेदी के उपन्यास 'एक चादर मैली सी' ने इसी तथ्य को रेखांकित किया था। प्रेम त्रिकोण भारतीय मसाला फिल्म में उतना ही महत्वपूर्ण रहा है, जितना एक्शन फिल्म या बदले की भावना से प्रेरित कहानियां। अधिकांश प्रेम त्रिकोण लिजलिजी भावुकता से ओतप्रोत होते हैं और भावुकता की यह चाशनी इतनी गाढ़ी होती है, लगभग संतृप्त घोल के बराबर कि प्रेम की तितली के पंख उसमें ऐसे उलझते हैं कि उड़ान ही भूल जाते हैं और चाशनी के कारण वह अपना रंग भी खो देती है।
प्राय: प्रेम त्रिकोण की कहानियों में मित्रता भी डाल दी जाती है, जिसकी खातिर एक पात्र त्याग करता है तो दूसरा उससे बड़ा त्याग करता है तथा यह 'त्यागमयी' कहानी यथार्थ से कोसों दूर चली जाती है। त्याग के इस खेल में बेचारी नायिका फुटबॉल की तरह एक पाले से दूसरे पाले में उछाल दी जाती है। प्रेम त्रिकोण में एक पात्र को मारकर दो लोगों के प्रेम की रक्षा की जाती है। उसको जीवित रहने देकर प्रेम-कथा का समापन क्यों नहीं किया जाता? मृत्यु फुलस्टॉप कैसे हो सकती है? वह तो जीवन में अर्धविराम से अधिक कुछ नहीं है।
अब इस नई फिल्म में हम आशा करते हैं कि हबीब फैजल ने उपभोक्तावाद को आर्थिक गब्बर की तरह प्रस्तुत किया होगा। यह अत्यंत विकराल खलनायक हो सकता है। हबीब फैजल की 'दो दुनी चार' में मध्यम वर्ग के परिवार में पैसे की कमी है और जीवन-मूल्य छोड़कर पैसा कमाने के द्वंद्व को खूब भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया था। इस कहानी में भी हबीब के कारण बहुत संभावनाएं नजर आ रही हैं।
उपभोक्तावाद एक भयावह नशा है और मध्यम वर्ग में ऐसी महत्वाकांक्षाएं जगा रहा है, जो उन्हें गुमराह कर सकती हैं। यह नशा अपराध प्रवृत्ति को इतनी खूबी से बुनता है कि दलदल में धंसने के बाद ही इसका अहसास होता है। आप पहले लक्जरी वस्तुओं का इस्तेमाल करके खुश होते हैं और आपको पता ही नहीं चलता, कब वस्तुएं आपको भोगने लगती हैं। धीरे-धीरे वस्तु विचार की शिराओं से होते हुए अवचेतन में प्रवेश कर जाती है।
दरअसल इसी भयावह नशे के कारण आज का मध्यम वर्ग कुछ वर्ष पहले के मध्यम वर्ग से अलग है। दरअसल उदारवाद की कोख से जन्मे नए मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षाएं नवधनाढ्य की तरह ही हैं, परंतु पुराना मध्यम वर्ग अपने को प्राप्त थोड़ी-सी सुविधाओं पर भी शर्मिंदा था कि गरीबों, किसानों, मजदूरों को यह उपलब्ध नहीं। नए मध्यम वर्ग में ऐसी कोई शर्म नहीं है। राजनेता बड़े गर्व से जिस मध्यम वर्ग की बढ़ती आय और संख्या के आधार पर चुनाव की वैतरणी पार कर रहे हैं, वे नहीं जानते कि परोक्ष रूप से उपभोक्तावाद को ही बढ़ावा दे रहे हैं। शराबबंदी करने वाले नहीं जानते कि उपभोगवाद के रूप में वह एक नए गहरे और ज्यादा विनाश करने वाले नशे को बढ़ावा दे रहे हैं। अजीब बात यह है कि भारतीयता को नारे की तरह इस्तेमाल करने वाले लोग ही तथाकथित आध्यात्मिक देश में वस्तु को पूजनीय बना रहे हैं।
नीली रोशनियों की बांहों में नववधू-सा मुस्कराता बाजार इस समय अपने शिखर पर है और अनेक प्रतिभाशाली लोग इसकी चाकरी कर रहे हैं। देश की ऊर्जा के इस दीमक के खिलाफ कोई सांस्कृतिक पेस्ट कंट्रोल कहीं नजर नहीं आता। संभवत: नेपोलियन के कालखंड में मध्यम वर्ग उभरा था और फ्रांस की क्रांति में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका थी और उसी क्रांति ने मजबूत की स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के साथ धर्मनिरपेक्षता की अवधारा औेर दुनिया की सभी गणतंत्र व्यवस्थाओं ने इसे अपना आधार और लक्ष्य बनाया।
आजादी के समय भारत में भी अमीरों को और अमीर बनने का मौका दिया, ताकि उनसे कर प्राप्त करके गरीब वर्ग को शिक्षा के अवसर दिए जाएं। परंतु ऐसा हुआ नहीं। गरीब तक कभी वे सुविधाएं पहुंची ही नहीं, क्योंकि व्यवस्था में छोटे कल-पुर्जे मध्यम वर्ग के थे और उसने अपनी कड़क कॉलर को अपनी गर्दन मान लिया तथा भ्रष्ट नेता और अफसर के साथ लूट में शामिल हो गया। बीच के वर्षों में मध्यम वर्ग में अनेक कुंठाओं का जन्म हुआ और आर्थिक उदारवाद ने एक नए मध्यम वर्ग को जन्म दिया। इस नए वर्ग के सपने और महत्वाकांक्षाएं गुजश्ता दौर के वर्ग की कुंठाओं और दमित इच्छाओं से ज्यादा भयावह हैं। इस पूरे खेल में सबसे अधिक हानि हुई गरीब मेहनतकश की, चाहे वह गांव में घिस रहा हो या शहर में खप रहा हो। आज मध्यम वर्ग ने ही स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और धर्मनिरपेक्षता का दामन छोड़ दिया है। बहरहाल आदित्य चोपड़ा और हबीब फैजल को बधाई। नए खलनायक की प्रतीक्षा नए नायक से अधिक है।