उपवन का 'वक्तव्य' / रामचन्द्र शुक्ल
इस संग्रह में तुकविहीन कविताएँ बहुत सी हैं, पर इनसे हिन्दी पाठक दिन दिन परिचित होते जाते हैं। अब जो कुछ कहना है, इसकी पद योजना के बारे में। हिन्दी के एक चरण में एक वाक्य पूरा करने का नियम सा है। इससे यदि चरण के विस्तार में बड़ा वाक्य रखना चाहें तो बिना तोड़े मरोड़े नहीं रख सकते और यदि छोटा, तो पादपूर्ति के लिए, इच्छा न रहते हुए भी-उसे खींच खाँच कर बढ़ाना पड़ता है। संस्कृत, अंगरेजी, बंगला आदि उन्नत भाषाओं में ऐसा कोई बन्धन नहीं है। 'उपवन' के लेखक महोदय ने भी एक आधा के सिवा अपनी बाकी कविताओं को इस प्रकार के बन्धन में नहीं डाला है। उनका कोई वाक्य दो तीन चरणों तक चला गया है, कोई चरण के अन्त में समाप्त हुआ है, कोई बीच ही में। कोई एक पद्य के किसी किसी स्थान से चलकर दूसरे पद्य के किसी स्थान पर समाप्त हुआ है। पाठकों के सुबीते के लिए विरामचिद्द यथास्थान दिए हुए हैं।
हिन्दी कविता का मार्ग प्रशस्त करने के लिए यह रीति कैसी है, इसका विचार आशा है (विज्ञ) जन करेंगे।
(मई 1913)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
('उपवन' श्री रायकृष्णदास की कविताओं (व्रजभाषा और खडी बोली) का प्रथम संग्रह है। यह संग्रह श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस, जतनबड़, बनारस से प्रकाशित हुआ था-संपादक)