उपसंहार / सपना सिंह

Gadya Kosh से
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कल शाम में आयी डाक सुविज्ञ के चेम्बर में उनके टेबल पर बायीं ओर की टेª में अन्य लिफाफों के साथ रखी थी। सफेद लम्बे लिफाफे पर नजर पड़ते ही... अप्पी। दिमाग में कौधा... हाॅँ, अप्पी का ही खत था ये। उन्होंने उसे बिना खोले ही मेज की दराज में डाल उसे लाॅक कर दिया था... उम्र के इस पड़ाव पर भी अप्पी का पत्र उनमें अतिरिक्त कुछ संचारित तो कर ही देता है... यह अतिरिक्त कुछ पता नहीं रोमांच है ... भय है या फिर कुछ ऐसा जो अब भी अनाम है।

अप्पी के पत्र को पढ़ने के लिए जो इत्मिनान, जो एकांत उन्हें चाहिए ... वह अभी उन्हें मयस्सर नहीं था। हाॅस्पिटल में खासी भीड़-भाड़ थी। इसके अलावा बेटा-बहू ... केाई कर्मचारी, नर्स, कोई भी आ सकता था। स्वयं उनके कई सारे अपवाइंटमेंट थे... शायद दोपहर को फुरसत पायें ... घर जाने के पहले कुछ समय ... पर, वह समय उन्हें नहीं मिला। घर से सुरेखा ... का फोन आ गया ... उन्हें अपनी बहन के यहाँ जाना था ... जो शहर के दूसरे छोर पर रहती है। साढू भाई की तबीयत खराब है ... ऐसे में सुरेखा अकेले जाये ये ठीक नहीं ... सुविज्ञ को साथ जाना था। यूँ भी परिवार में रिश्तेदारियों में सुविज्ञ अपनी भूमिका सचेत ढ़ग से निभाते थे... अगले दिन सुबह ही वह अपने चेम्बर में पहुँच गये थे। अगर इस समय नहीं तो फिर सारा दिन अप्पी का खत अगले दिन के इतंजार में बेपढ़ा ही रह जायेगा। हाॅस्पिटल के नाइट ड्यूटी के कर्मचारी आश्चर्यचकित थे ... ये समय तो डाॅक्टर साहब के वाॅक का होता है।

" मुझे कुछ काम है ... कहकर वह अपने चेम्बर में बंद हो गये थे।

लिफाफा खोलकर खत को सीधा करते आँखो पर चश्मा लगाते ... उनका दिल यूँ बेकाबू हुआ था मानों ... ये खत नहीं स्वयं अप्पी हो ... उनके हाथों में स्पंदित होती हुई.। मिल गई फुरसत ...? हमें पता था दो-चार दिन शायद ये पत्र बेपढ़ा ही दराज में दुबका हो ... खैर ... और बताइये कैसे हैं...? अच्छे! वह तो होने ही हैं। हम अपनी कहते हैं शायद ये मेरा आखिरी खत हो ... आपके लिए ... शायद न भी हो... शायद कुछ समय बीतने के बाद फिर मन होने लगे आपको लिखने का... आपके मामले में मेरे सारे संकल्प पहले भी टूटते रहे हैं। यूँ भी जीवन ने इतना तो बता दिया है... कुछ भी शाश्वत नहीं है... चीजें बदलती हैं, इंसान बदलते हैं इंसान की सोच भी बदलती है।

हाॅँलांकि यथास्थिति में बने रहना ज़्यादा सहूलियत भरा होता ... पर फिर भी एक निर्णय लिया है... सबकुछ छोड़ने का। ईश्वर ने मुझे इसी जन्म में पुर्नजन्म को जीने का मौका दिया है... फिनिक्स की तरह अपनी ही राख से पुर्नजिवन पाया है। पुराना कुछ नहीं बचा। डेस्टिनी ने जो भूमिकायें सौपी थीं उन्हें भी अपना सौ प्रतिशत ही दिया ... अपने हिसाब से। अगर चूकी हॅँू तो यही मान लेती हॅूँ ... मेरी सामथ्र्य ... इतनी ही थी!

आज आपके सामने कई राज खोलने हैं ... सबसे पहले तो ये कनफेस करना चाहती हॅूँ कि अभिनव को मैंने बहुत-बहुत चाहा है... इतना कि उसपर एकदम डिपेन्ड हो गयी थी... अपना आप मिटा डाला था... वैसा ही होना चाहा जैसा वह चाहता रहा ... इतनी निर्भरता कि उसके मूड के अनुसार मेरे बाहर भीतर के मौसम बदलने लगे। होश आया तो समझ आया प्रेम इतना दयनीय नहीं होता ... प्रेम इतना निर्भर भी नहीं होता। आदत, डर, लाचारी जो कुछ भी-भी रहा हो ... मेरा उससे बरी होना ज़रूरी था। ज़रूरी था उन संस्कारों से बरी होना। जिसके तहत मुझे अपने लिए भोजन और छत जुटाने वाले व्यक्ति के प्रति अपनी वफादारी साबित करनी होती थी... भले ये वफादारी मुझे एक पालतू से ज़्यादा का रूतबा नहीं बख्शती। मैं औरत होने के उस सनातन डर से बरी होना चाहती हॅूँ... जो उसे पति, बच्चों के बिना जीना ... कहाँ कैसे की लाचारी में ला खड़ा करता है। अब किसी डर, किसी लाचारी से रिश्ता निभाये जाने का मूड नहीं।

आपसे गुजारिश है, मेरे इस ... जाने का अपने से मत जोड़ना ... ये पहले घट जाना था ... नहीं घटा ... आपने तो सिर्फ़ एक रोशनी दी ... जाड़े की धूप-सी नर्म रोशनी ... जो मेरे भीतर को खोल उसके सारे अंधेरों में बिछ गयी ... इस रोशनी ने मुझे मेरे निर्णय तक पहुँचाया है! खुद चुनना और उस पर चलना, मैं ये स्वाद लेना चाहती हॅूँ। इस स्वाद के लिए अपने को मुक्त करना होता है न। कैफी साहब ने कहा भी है', यह भी एक कैद है, कैदे मोहब्बत से निकल ...' तो यायावरी रास आ रही है ... वादा करती हॅूँ अपने को स्वस्थ रखूॅँगी ... अपने घुटने ... उन्हें संभालना है ..., अपनी आंखों की रोशनी बरकरार रखनी है क्योंकि उस दिन का सपना देखने से अपने आपको अब भी मैं रोक नहीं पाती ... जब बेखौफ आपके साथ ईश्वर की बनायी इस कायनात के जमीन के कुछ टुकड़े पर कदम द-कदम साथ चलूँगी... कुछ धूप, कुछ बारिश, कुछ सर्दी... कुछ गर्मी... हम एक साथ महसूसेंगे इस धरती पर ... अपना वादा याद रखना ... मुकरना मत, जब निभाने का वक्त आये ... अपने कहा था न, अपने स्कूल में मुझे हिन्दी टीचर की नौकरी देंगे... शायद... कभी आ जांऊ मैं अपनी वह नौकरी बजानेे ...

फिलहाल के लिए अलविदा!

पढ़ चुकने के बाद सुविज्ञ ने गहरी सांस ली थी। फोन उठाया ... नम्बर डायल किया ... डज नाट एक्जीस्ट ...् वाट्सेप पर मैसेज किया ... प्लीज काॅल मी ... फोन वापस मेज रखते उनके हाथ कांप गये थे ... अप्पी अपने पत्र का अंत हमेशा प्रसिद्ध कवियों की कविताओं से करती थी ... उसकी नजरें उन्हीं आखिरी लाइनों में अटक गई ...

मैं तुम्हें फिर मिलूंगी

कहाॅँ? किस तरह? नहीं जानती।

पर इतना जानती हॅूँ

कि वक्त जो भी करेगा

यह जन्म मेरे साथ चलेगा

यह जिस्म जब मिटता है

तब सबकुछ खत्म हो जाता है

पर चेतना के धागे,

कायनाती कणों के होते हैं

मैं उन कणों को चुनूंगी

धागों को लपेटूंगी,

और तुम्हें मैं फिर मिलूंगी...

अमृता प्रीतम

समाप्त