उपाधियाँ या पदवियाँ / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों की पदवियों के विषय में प्रथम ही बहुत कुछ कह चुके हैं और यह भी दिखला चुके हैं कि राय, सिंह, पांडे और तिवारी आदि उपाधियाँ क्योंकर ब्राह्मणों को दी जाने लगीं और कब से। साथ ही, यह भी कहा गया है कि प्रथम राय, सिंह आदि उपाधियाँ दी गईं। जिनकी देखा-देखी ही पांडे, तिवारी आदि पदवियों का आविर्भाव हुआ और फिर उनमें भी रद्दबदल होती रही। अर्थात जो पांडे, तिवारी थे, वे सिंह कहलाने लगे इत्यादि। अब इस जगह इसी बात को दृष्टांतों और प्रसारणों द्वारा, दिखला कर, जिन लोगों की भ्रम मूलक ऐसी धारणा है कि राय, सिंह इत्यादि ब्राह्मणों की उपाधियाँ नहीं हैं, उनके इस भ्रम का संशोधन किया जावेगा। बहुत से कहलाने के लिए पंडित इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की कहीं-कहीं राय, सिंह, प्रभृति उपाधियों को देख कर चकरा जाते हैं और उनका माथा ठनकने लगता है, जिससे बहुत कुछ अनाप-सनाप बक जाते हैं। परंतु यदि उन्हें कभी मिथिला में जाने या वहाँ के ब्राह्मणों के नाम सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता, तो उनको सूझ जाती कि ब्राह्मणों की उपाधियों का ठिकाना नहीं है। मैथिल मूर्द्धन्य महाराजा दरभंगा का नाम ऑनरेबल सर रामेश्वर सिंह जी तथा इनके प्रथम के राजे, महाराजे रुद्र सिंह, महाराज छत्रासिंह तथा महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह इत्यादि कहलाते थे। इनके चचा बाबू तुलापति सिंह थे।
संक्षेप में इतना ही समझ लेना चाहिए कि राघवपुर आदि ग्रामों में जितने धनी श्रोत्रिय हैं वे सभी बाबू और सिंह उपाधिवाले होते हैं। ब्राह्मण के नाम के साथ जिस बाबू शब्द को देख कर लोगों की बुद्धि चक्कर खाने लगती है, वह मिथिला प्रदेश में रसोईदार मैथिल तक के लिए बोला जाता है और उसके नाम के साथ यदि बाबू शब्द न जोड़ा जावे तो बुरा मानता हैं। बनैली के मैथिल राजा करीत्यानन्द सिंह जी प्रसिद्ध ही हैं। यहाँ तक कि काशी प्रांत में जिस ठाकुर शब्द को ब्राह्मण के नाम के साथ देख कर झट फैसला किया जाता है कि ये ब्राह्मण नहीं, किंतु क्षत्रिय है, वहीं ठाकुर शब्द मिथिला के ब्राह्मणों की प्रधान उपाधि है। महाराज दरभंगा के प्रथम पूर्वज महेश ठाकुर थे, जिन्होंने राज्य का उपार्जन किया था। महामहोपाध्याय श्री कृष्णसिंह ठाकुर के नाम के साथ सिंह और ठाकुर दोनों शब्दों का प्रयोग होता है और वे बड़े भारी विद्वान भी हैं। यदि उन शब्दों को अनुचित समझते तो अपने नाम से हटा देते। काव्यप्रदीप नामक संस्कृत साहित्य ग्रन्थ के कर्ता पं. गोविंद ठाकुर प्रसिद्ध ही हैं और मुजफ्फरपुर जिले के अथरी ग्रामवासी मिथिला के गणनीय विद्वान पं. मुक्तिनाथ ठाकुर को कौन नहीं जानता?
इस जगह इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि जो मैथिल मिथिला छोड़ कर बहुत दूर पूर्व या पश्चिम में जा बसा है, परंतु मिथिला के ब्राह्मणों के साथ उसका विवाह सम्बन्ध अथवा आना-जाना लगा हुआ है। क्या वह अपने मिथिलावासी मैथिल ब्राह्मणों के इन सिंह और ठाकुर आदि रूप उपाधियों का परित्याग कर देगा? अथवा उनके प्रयोग करने से ब्राह्मण न समझा जावेगा? क्योंकि उस देश में उपाधियाँ ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि के ही नाम के साथ बोली जाती है। क्या आपने देखा है जिस मैथिल की पदवी मिथिला में ठाकुर हैं, वह अन्य देशों में जा कर अपने नाम के अन्त में ठाकुर न कह कर कुछ और कहता है? सारांश यह है कि कोई कहीं भी रहे, परंतु अपने प्राचीन संबंधियों के विचारों, आचारों और व्यवहारों को नहीं छोड़ता, चाहे वह किसी भी देश का कोई भी ब्राह्मणादि हो। बस यही दशा इन जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मणों की भी समझ लीजिए। क्योंकि मिथिला में ये लोग भी बहुतेरे मैथिलों की तरह ठाकुर कहलाते हैं, जैसे श्री अनूपलाल ठाकुर और श्री अयोध्याप्रसाद ठाकुर मुखतार आदि। प्राय: दिघवैत और दूसरे भी ठाकुर ही कहलाते हैं। इसीलिए वहाँ से हट कर यदि शाहबादादि प्रांतों में चले आए हैं तो वहाँ भी ठाकुर ही कहलाते हैं। और काशी के आस-पास के बड़े-बड़े जमींदार, बाबुआन तथा महाराज द्विजराज श्री काशिराज प्रभृति सभी का सम्बन्ध मिथिला में बहुत दिनों से बराबर पाया जाता है और वहाँ यह ठाकुर शब्द, जैसा कि कह चुके हैं कि बड़ी प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए उसी सम्बन्ध से अन्यत्र भी जहाँ-तहाँ उसका प्रचार होता गया। इसलिए उससे कोई हानि नहीं हैं और न दूसरी कल्पना की जा सकती है।
यदि क्षत्रियादि भी अन्य देशों में ठाकुर कहलाते हैं तो कहलावें, उससे इन ब्राह्मणों की हानि क्या है? वे लोग भी जमींदार है, इसलिए जमींदार के अर्थ में ठाकुर कहलाते हैं। परंतु भूमिहारादि ब्राह्मणों में ठाकुर शब्द ब्राह्मण और पूज्य, बुद्धि से ही प्रयुक्त होता है, जैसा कि मिथिला में दिखला चुके हैं। चाहे ये लोग भी जमींदार हो यह दूसरी बात है। यदि ऐसा न माना जावे तो दूसरे देशों में अहीर, कुर्मी आदि भी ठाकुर कहलाते हैं तो फिर क्षत्रियों के भी ठाकुर शब्द में गड़बड़ मच जावेगी और मैथिलों का तो कहना ही क्या है? नाऊ लोग भी तो सभी देशों में ठाकुर बोले जाते हैं। तो, क्या इससे क्षत्रिय भी किसी देश में ठाकुर न बोले जावें? इसलिए यह ठाकुर शब्द किसी एक जाति के लिए कहीं भी निश्चित नहीं है, किंतु जिस जाति में जहाँ जैसा प्रचार है, एवं उसके अनुसार ही अन्यत्र भी प्रचार है, तो जैसा एक जगह समझा जाता है वैसा ही दूसरी जगह भी समझा जाता है और जावेगा। चाहे वहाँ दूसरी जातियाँ भी उसी शब्द से क्यों न बोली जाती हो। इस पूर्वोक्त सिद्धांत के स्थिर हो जाने से पूर्वोक्त आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में जो फिशर साहब ने लिखा है कि :
"An indeed often speak of themselves as Bhumihar Thakurs. The word Thakur, however, is in Azamgarh Rarely used as the name of a caste equivalent to Kshatri or Rajputs." ऐसा ही और भी कहीं-कहीं लिखा है।
इसका अर्थ यह है कि 'वास्तव में भूमिहार लोग अपने को बहुधा भूमिहार ठाकुर कहा करते हैं। यह ठाकुर शब्द आजमगढ़ में कभी-कभी उस जाति के लिए बोला जाता है, जो क्षत्रिय या राजपूतों के बराबर हो।'
इसका यथोचित खण्डन हो गया। और भी समझना चाहिए कि जब नाई या कुर्मी लोग भी अकसर सभी जगह ठाकुर ही बोले जाते हैं, तो वहाँ क्षत्रिय के ही लिए ठाकुर शब्द कैसे हो सकता है? और जब भूमिहार ब्राह्मण अपने को केवल ठाकुर न कह कर नाम के आगे जोड़ते हैं, जैसा कि साहब बहादुर भी केवल ठाकुर न कह कर 'भूमिहार ठाकुर' लिखते हैं। और जैसा कि पूर्व में महेश ठाकुर या गोविंद ठाकुर आदि कह चुके हैं। या जैसा कि नाऊठाकुर इत्यादि। तो फिर नहीं मालूम कि किस प्रकार से उन्होंने केवल ठाकुर के बराबर ही किसी नाम के आगे जुटे हुए ठाकुर शब्द का अर्थ लगाया? इसलिए यह सब कथन इस बात को सिद्ध कर रहा है कि उन लोगों को इसका तत्व विदित नहीं था। हाँ, यदि इस ठाकुर शब्द पर इतना आक्रमण है, तो हम इन जमींदार, भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों से यह अनुरोध करेंगे कि कम-से-कम काशी के प्रांत में वे इस शब्द का प्रयोग न करें। क्योंकि संसार में 'तुष्यतु दुर्जन:' अर्थात 'यदि दुर्जन लोग तुष्ट हो जावे तो हम इसे स्वीकार भी कर लेंगे' यह भी तो न्याय है।
अस्तु, इसी प्रकार चौधुरी, खाँ, राय और राउत तथा ईश्वर प्रभृति भी उपाधियाँ मैथिलों में ही पाई जाती है। जिनमें से बहुतों को तो थोड़ा आगे चल कर दिखलावेंगे। तथापि दुलारपुर के तुरंतलाल चौधरी प्रसिद्ध ही है। एवं मिथिला मिहिर का ता. 5-2-16 ई. का अंक देखने से, जिसमें उस वर्ष में होने वाली बेगूसराय की सप्तम मैथिल महासभा का विवरण है, यह स्पष्ट हो जाता है। उसमें लिखा है कि 'तीसरे दिने वैवाहिक कुरीति पर बाबू बबुआ खाँ बहुत उत्तम व्याख्यान देलन्हि' तथा उसी में बीरसायर निवासी पं. जीवनाथ राय व्याकरण तीर्थ, गुणपतिसिंह, चनौर के बाबू यदुनन्दनसिंह झा, बनैली-रामनगर के कुमार सूर्यानन्द सिंह इत्यादि नाम आए हैं, जो सभी मैथिलों के ही हैं। किसी ने सभा में चंदा दिया और किसी ने कुछ दिया। इसलिए पूर्वोक्त डॉ. विल्सन ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ के द्वितीय भाग के 193 और 194 पृष्ठों में स्पष्ट ही लिख दिया है कि भूमिहार ब्राह्मण भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि इनकी और उनकी पदवियाँ एक-सी है। जैसा कि :
"There are certainly fewer distinction recognized among the Mathilas than among any other of the great division of Brahmans in India". Those mentioned to me in Bombay, Calcutta and Benares and the following - "(1) the Ojhas, Ujhas or Jhas, (2) The Thakuras, (3) The Misras, (4) The Puras, (5) The Shrotriyas, (6) The Bhumihars; these are land holders and cultivators. Mr. Celebrooke says no more than three surnames are in use in that district, Thakura, Misra, Jha each appropriate in any family Besides these there are the Chawdhari, Raya, Parihasta, Khan and Kunara."
इसका भाव यह है कि भारतवर्ष में जितने ब्राह्मणों के अन्य भेद हैं उनमें जितने छोटे-छोटे दल हैं उनकी अपेक्षा मैथिल ब्राह्मणों में छोटे-छोटे दल कम पाए जाते हैं। मैथिलों के जिन छोटे-छोटे दलों का वर्णन मुझसे बंबई, कलकत्ता या बनारस में किया गया है, वे ये हैं:- (1) ओझा, ऊझा अथवा झा, (2) ठाकुर, (3) मिश्र, (4) पूर, (5) श्रोत्रिय, (6) भूमिहार, जो कि जमींदार और खेती करनेवाले हैं। मिस्टर कोलब्रुक ने लिखा है कि मिथिला प्रांत में तीन पदवियाँ ब्राह्मणों में विशेष रूप से प्रचलित हैं - (1) ठाकुर, (2) मिश्र, (3) झा, जिनमें से प्रत्येक प्रतिवंश में बोली जा सकती है। इन तीनों के अतिरिक्त चौधरी, राय, परिहस्त, खाँ और कुँवर ये पदवियाँ भी प्रचलित है। दरभंगा, वनगाँव के मैथिल ब्राह्मण खाँ कहलाते हैं।
पूर्व मिथिला का अन्त और पश्चिम में पंजाब इन्हीं के मध्य में ही ये अयाचक दलवाले ब्राह्मण पाए जाते हैं, अत: वहाँ भी राय, सिंह, चौधरी और राउत आदि सभी पदवियाँ हैं। राउत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश हैं, क्योंकि प्राकृत भाषा में आर्यपुत्र को अज्जउत कहा करते हैं। अत: जिनके पूर्व पुरुष प्रथम राजा थे, वे ब्राह्मण लोग राजपुत्र कहलाते-कहलाते, आज राज शब्द का 'रा' हो कर और पुत्र का 'उत', वे ही सब लोग राउत कहलाने लगे। ये सभी उपाधियाँ संपूर्ण प्रदेश घूमने से जो चाहे वह मालूम कर सकता है। इनमें से दृष्टांत के लिए यदि आप प्रयाग से अक्टूबर,नवंबर 1910 ई. का मुद्रित 'श्री कान्यकुब्ज' पत्र देखें तो उसके 22वें पृष्ठ में पं. रघुनन्दन सिंह दीक्षित का नाम एवं 38वें-39वें पृष्ठों में पं. अयोध्या सिंह तिवारी पं. बिहारी सिंह तिवारी, पं. जीवन सिंह तिवारी और पं. पुलंदर सिंह का नाम पावेंगे और फतहपुर जिला, तहसील खजुहा, गाँव बरारी में चौधरी कोकलसिंह प्रभृति कान्यकुब्जों को पावेंगे। कान्यकुब्जों के सभी पत्रों को देखें तो प्रभृति भी आपको मिल जावेंगे। घूमने की भी आवश्यकता न होगी। विशेष कहाँ तक लिखा जावे। कान्यकुब्ज कुल कौमुदी के 144वें पृष्ठ में लिखा है कि 'जो ब्राह्मण कान्यकुब्जों में 20 विश्वेवाले अर्थात सबसे श्रेष्ठ हैं, वे महत्तर कहलाते हैं।' यही महत्तर शब्द बिगड़ कर महतो हो गया। उसके 127वें पृष्ठ में लिखा है कि 'रोहन (नाम है) रौतापुर के तिवारी कहलाए। इसी से (रौतापुर के रहने से) राउत भी कहे जाते हैं। शिवानन्द देवकली के दूबे थे, जिन्हें ठाकुर ब्राह्मण भी कहते हैं।' पृष्ठ 64 में लिखा है कि 'कुछ काल पीछे बाज-बाज आस्पदों के बजाय सांकेतिक पद बादशाहों और राजाओं ने भी ब्राह्मणों के कर दिए। जैसे भट्टाचार्य, चौधरी, राउत, ठाकुर और चौकसी।' इसी प्रकार सर्यूपारियों में भी बहुत से मिलेंगे। शाहाबाद जिले में गाँव के गाँव सर्यूपारी सिंह पदवीवाले हैं। यहाँ तक कि बक्सर से पूर्व एक ग्राम 'सिंहनपुरा' कहलाता है, जहाँ के सर्यूपारी सिंह कहलाते हैं। गौड़ों, सास्वतों और सानाढय आदि ब्राह्मणों में तो राय, सिंह की भरमार है। बड़े-बड़े जमींदार सभी सिंह कहलाते हैं और चौधरी भी। गाजीपुर के श्री शिवनाथसिंह सारस्वत ही (महियाल) ब्राह्मण थे, जो प्रथम से ही यहाँ आ कर बस गए। सरस्वती के लेखकों में से पं.अयोध्या सिंह उपाध्याय को लोग जानते ही हैं। वे सनाढ्य ब्राह्मण ही हैं। इसी प्रकार जहाँ ढूँढ़ेंगे वहीं सभी मिल सकते हैं। कान्यकुब्ज दर्पण के 29-32 पृष्ठों में राय, सिंह और साह पदवीवालों के नाम भरे हैं।
हाँ, इतनी बात है कि मिथिलादि देशों तथा कन्नौज में राय, सिंह के आगे कहीं-कहीं ठाकुर, दीक्षित तिवारी आदि भी जोड़ देते हैं और कहीं-कहीं नहीं भी। जैसा कि पूर्व दृष्टांतों से विदित हो गया होगा। परंतु उचित है जिसका जो प्राचीन आस्पद (उपाधि) तिवारी आदि हो, उसे अवश्य राय अथवा सिंह आदि शब्दों के आगे जोड़ दे, नहीं तो धर्मशास्त्र सिद्ध शर्मा शब्द को ही उनके आगे लगा दे, अथवा उनको निकाल कर शर्मा शब्द को ही केवल रखे, अथवा पांडे आदि भी जोड़ दे। इसमें मर्जी की बात है।
इसलिए आजकल किसी अयाचक दलवाले ब्राह्मण को अपने नाम के आगे प्राचीन शर्मा या तिवारी, पांडे आदि पद लगाए देख जो कोई बुद्धि के शत्रु यह दलील कर बैठते हैं कि यदि आपकी यह पदवी प्रथम से थी तो आप लोग उसका प्रथम प्रयोग क्यों न करते थे? उनको उन कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों को देख और पूछ कर अपनी अनभिज्ञता का परिचय कर लेना चाहिए। साथ ही, विचारने की बात हैं कि 'शर्मा' उपाधि तो सभी ब्राह्मणों की धर्मशास्त्रों से सिद्ध है जैसा कि मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा है कि :
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3 अ. 2 मनु.
शर्म देवश्च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥ यम.॥
शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्र संयुतम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ विष्णुपु.॥
सबका निचोड़ यह है कि 'ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्त आदि और शूद्र के नामान्त में दास शब्द लगाना चाहिए।' अब हम आप ही से पूछते हैं कि सभी ब्राह्मणों के नाम के आगे इन नवोद्भूत तिवारी, पांडे, सिंह, ठाकुर और भट्टाचार्य प्रभृति उपाधियों के प्रबल प्रवाह ने जब उनका नाम निशान तक आज मिटा दिया है, तो फिर क्या आज उसके नए सिरे से प्रयोग करनेवाले आपके सिद्धांतनुसार अपराधी समझे जावे? अथवा 'शर्मा' उनकी उपाधि ही प्रथम की न समझी जावे? इसलिए ऐसी कुकल्पनाएँ विद्वानों को शोभा नहीं देतीं और मूर्खों को कोई रोक भी नहीं सकता।
इन सभी कथन का निष्कर्ष यही है कि राय, सिंह और चौधरी आदि उपाधियाँ रखने से भूमिहार आदि ब्राह्मणों में त्रुटि नहीं आ गई, जिससे किसी प्रकार इनका पूर्व गौरव घट गया है। क्योंकि ये ब्राह्मण मात्र में प्रचलित उपाधियाँ हैं। हाँ, इतना हम अवश्य कहेंगे कि इन सभी आधुनिक उपाधियों को सभी ब्राह्मण छोड़ कर धर्मशास्त्रादि सिद्ध शर्मा, ऋषि, देव, आचार्य और उपाध्याय रूप उपाधियों का ही अब से प्रयोग करें। क्योंकि अब आधुनिक किसी भी राय, सिंह अथवा पांडे, तिवारी प्रभृति पदवियों में तत्व नहीं रह गया और न उनसे कोई प्रतिष्ठा ही है। बल्कि निरक्षर, निरुद्योग और कर्म धर्म शून्यों में ये अन्ध परम्परा की पदवियाँ अब अत्यन्त अयोग्य प्रतीत होती है।