उपेक्षा और प्रतीक्षा से उत्पन्न प्रश्नचिह्न / राकेश बिहारी
'शीला उत्सुकता से पृष्ठ के बाद पृष्ठ पलटती गई। न जाने कब पुस्तक समाप्त हो गई, पर उस यक्षिणी के यक्ष ने कहीं उसका उल्लेख न किया था। इस उपेक्षा के कारण आहत होकर वह गिरीश के चित्र की ओर देखने लगी। उसका मन हुआ, एकटक देखते हुए गिरीश को झकझोर कर पूछे तुमने मुझे क्यों भुला दिया, मेरी उपेक्षा क्यों की? क्यों? क्यों?'
शेखर जोशी की कहानी 'कविप्रिया' के अंतिम हिस्से में व्यक्त शीला की इस मनोदशा से गुजरते हुए 'कनुप्रिया' के आखिरी अध्याय की ये पंक्तियाँ याद हो आती हैं जिसमें राधा की पीड़ा कुछ यूँ व्यक्त हुई है -
"सुनो मेरे प्यार! / प्रगाढ़ केलिक्षणों में / अपनी अंतरंग सखी को तुमने बाँहों में गूँथा / पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गए प्रभु? / बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता / तुम्हारे इतिहास का / शब्द, शब्द, शब्द... / राधा के बिना सब / रक्त के प्यासे अर्थहीन शब्द!"
प्रश्न शीला का हो या राधा का, यह किसी निरीह स्त्री का एकालाप या उलाहाना भर न होकर समूची व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर प्रश्नांकित करने की कोशिश है जिसकी जड़ों में पितृसत्ता का खाद-पानी न जाने कब से दिया जाता रहा है। वैसे प्रश्न सिर्फ राधा ने ही नहीं पूछे थे, इतिहास और मिथकों के पन्नों में यशोधरा और उर्मिला की कथाएँ भी अपनी उसी प्रश्नाकुलता के साथ अपने हिस्से का जवाब माँगती हैं। इन संदर्भों के बहाने यह पूछा जाना चाहिए कि प्रियाओं (पढ़ें स्त्रियों) के हिस्से सिर्फ उपेक्षा और प्रतीक्षा ही क्यों? क्या वे सिर्फ केलि और अभिसार के लिए ही बनी हैं? आखिर क्या कारण है कि प्रेम, त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति स्त्रियाँ अक्सर इतिहास बदलने और बनाने के समय परिदृश्य से गायब हो जाती हैं या कि गायब कर दी जाती हैं?
किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को सहज ही असहज कर देनेवाले शीला के प्रश्न 'उपेक्षा क्यों?' को युगों से चली आ रही इसी (अ)न्याय व्यवस्था से जोड़ कर देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि राधा और शीला दोनों का यह प्रतिरोध जो लगभग एक-सी शब्दावली और एक-से प्रश्नों के रूप में मुखर होता है कोई खुली और सामाजिक चुनौती न होकर एक मानसिक स्थिति भर है। यह जानते हुए भी कि वह जीवन की पगडंडी के कठिनतम मोड़ पर है, राधा अपने कृष्ण की प्रतीक्षा में अडिग खड़ी है। हकीकत का पता शीला को भी चल गया है। लेकिन वह अपने आँसू को चूल्हे से उठने वाले धुएँ के बहाने से छुपाना चाहती है। और बहाना भी उस आग का जो कब की बुझ चुकी थी। खेल की असलियत को जानते हुए भी खुद को उसी की प्रतीक्षा में खड़ा कर देना जो आपके दुखों का कारण है, की इस युक्ति को क्या कहा जाए, व्यवस्था के साथ हो चुका स्त्री-चरित्रों का अनुकूलन या फिर उनके रचयिताओं की पुरुष-दृष्टि की सीमा? आत्मप्रवंचना या प्रतिरोध की सीमित संभावनाओं का भान?
सिफारिश से मिलनेवाली नौकरी को इंकार कर घर से निकल गए प्रेमी (पुरुष) की उपेक्षा और प्रतिरोध के परिसीमित अवसरों की हकीकत को समझती स्त्री के आत्मप्रवांचनात्मक झूठ के दो सिरों के बीच फैली कहानी 'कविप्रिया' में तीन और पात्र हैं - गिरीश, उसके पिता पंडितजी और मौसी यानी उसकी माँ। उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत कहानी के तीन पात्र किसी न किसी तरह गिरीश की प्रतीक्षा में हैं। लेकिन ये सारी प्रतीक्षाएँ एक सी नहीं। माँ और प्रिया की प्रतीक्षा तो किसी एक बिंदु पर जाकर मिलती-सी भी दिखती है, पर पिता की प्रतीक्षा बिलकुल अलग तरह की है। प्रतीक्षा और प्रतीक्षा के बीच का यह अंतर सिर्फ रिश्तों में अंतर के ही कारण नहीं हैं। कहीं न कहीं लिंग भी इसमें एक महत्वपूर्ण कारक है। शीला और मौसी आपस में अपने दुखों का साझा भले न करती हों, पर जिस तरह दोनों के बीच संबंधों का एक अनकहा सेतु इस कहानी में निर्मित होता दिखता है वह स्त्री-स्त्री के दुखों की सार्वभौमिकता को भी रेखांकित कर जाता है। यह भी गौरतलब है कि शीला और मौसी के बीच कोई घोषित सामाजिक रिश्ता नहीं है, लेकिन वे दोनों एक-दूसरे का मन पढ़ना जानती है। विछोह बेटे का हो कि प्रेमी का, सूनेपन का अहसास लगभग एक-सा ही तो होता है, जहाँ एक-दूसरे को समझने के लिए बहुत कुछ कहने-सुनने की जरूरत नहीं होती। बिना कहे भी मन के भीतरी तहों में उदासी और सूनेपन का बजता यह धुन बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के एक-दूसरे के अंतस की चौहद्दियों को जोड़ देता है। असह्य एकाकीपन की परिसीमा को लाँघकर कहीं दूर भाग जाने की इच्छा के बावजूद यदि शीला हर शाम मौसी की एक आवाज उनके घर खिंची चली आती है तो उसके पीछे निश्चित रूप से दो स्त्रियों के बीच पल रहा वही अदृश्य बहनापा है जिसकी खबर बिना बोले-कहे भी एक दूसरे को कब लग जाती है उन्हें भी पता नहीं होता या कि खूब पता होता है... "गाँव-पड़ोस में और भी तो बाली बेटियाँ हैं, फिर क्यों मौसी ने यह भार शीला पर ही डाल रखा है? कोई रिश्ता-नाता भी नहीं, फिर क्यों हर साँझ अधिकारपूर्ण स्वर में मौसी उसे ही यह आदेश दे जाती है? नहीं! शीला उस भावना से परिचित है, वह जानती है कि मौसी उसे साधारण की सीमा से निकालकर कितना निकट ले आई है, और इस सामीप्य का अनुभव कर शीला गदगद हो जाती है। कभी-कभी जब भावना के आवेग में मौसी शीला को निकट खींचकर कहीं दूर भविष्य की ओर देखती हुई अपना स्नेहपूर्ण हाथ उसके सिर पर फेरती हैं, तो शीला को लगता है, जैसे मौसी उसकी प्रत्येक भावना से परिचित है।"
गिरीश पंडितजी और मौसी दोनों का ही बेटा है। लेकिन शीला जिस तरह मौसी के अंतरंग में बिना कुछ कहे शामिल होकर उनसे एक अनाम रिश्ते में बंध जाती है, वैसा पंडितजी के साथ संभव नहीं। वह पंडितजी से बहुत कुछ पूछना चाहती है पर कुछ नहीं पूछ पाती। उसके मन में पंडितजी के पितृहृदय (पुरुषहृदय) को लेकर बहुत सारे प्रश्न हैं। लेकिन उसकी सारी आकुलताएँ संयम, आचार-विचार और नियमों की ऊँची दीवार को लाँघने का साहस नहीं कर पातीं या यूँ कहें कि उसकी सारी अकुलाहटें चाहे-अनचाहे व्यवस्था द्वारा लाद दी गई ऊँची चाहारदीवारियों के आगे बौनी होकर रह जाती हैं। पंडित जी से कुछ पूछने की बात तो दूर वह बाहर के कमरे में जाकर उनकी और हरी की बात भी नहीं सुन सकती। अपने बीच उपस्थित दीवारों के व्यवधानों के विरुद्ध वह दीवार में व्याप्त एक छिद्र का सहारा लेती है। कहने की जरूरत नहीं कि पंडितजी और शीला के बीच फैले इस अलंघ्य भूगोल के मूल में उम्र और रिश्ते से ज्यादा लिंग की भूमिका है।
अपने प्रिय की प्रतीक्षा में रीतती-बीतती स्त्री की मनोदशा के समानांतर यह कहानी दो और महत्वपूर्ण मुद्दों पर हमारा ध्यान खींचती है। पहला बेरोजगारी की समस्या और दूसरा अन्य व्यावसायिक अनुशासनों के बीच कला की उपेक्षणीय और दीन-हीन स्थिति। क्लर्क से कलक्टर बनने तक की दौड़ में शामिल युवाओं के बीच कैरियर को लेकर एक ऐसी भेड़ चाल है कि कोई अपनी अभिरुचि और मेधा के अनुरूप कैरियर चुनने का सपना देखने की भी नहीं सोच सकता। सब एक निष्फल और निष्प्रयोजन अंधी दौड़ में शामिल हैं। नौकरी और सिर्फ नौकरी की लगभग अनिवार्य मजबूरियाँ जहाँ एक तरफ येन केन प्रकारेण पैरवी-सिफारिश के बल बूते कुछ भी हासिल करने के जुगाड़ में लगी हैं वहीं कला की दूसरी विधाएँ उपेक्षित होकर हाशिए पर जीने को विवश हैं।
कला को लेकर उपेक्षा और गर्व के परस्पर भाव को भी यह कहानी एक स्तर पर लैंगिक विमर्श से जोड़कर देखती है। तभी तो गिरीश के काव्य संग्रह पर उपेक्षापूर्ण दृष्टि डालते हुए जहाँ पंडितजी उसकी सामाजिक स्थिति तय करते हुए उसे 'आवारा' के नकारात्मक विशेषण से नवाजते हैं वहीं सुशीला अपने प्रिय के कविरूप पर गर्व से भर उठती है - "उसका गिरीश कवि है, यह सोचकर उसे गर्व, आनंद और रोमांच की अनुभूति होने लगी। धड़कते हृदय से उसने पुस्तक खोली। मस्तिष्क में एक विचार आया, कहीं कुछ लिख न दिया हो, और लज्जा से उसकी कनपटियाँ आरक्त हो गईं" लेकिन हाय रे भाग्य! शीला एक के बाद एक पुस्तक के सारे पृष्ठ पलट गई और खुद का कोई उल्लेख न पाकर खुद को उपेक्षित और आहत महसूस करने लगी। यहीं आकर वह गिरीश को झकझोर कर पूछना चाहती है कि उसने उसे भुला क्यों दिया?
इस टिप्पणी के आरंभ में मैंने शीला की तुलना कानुप्रिया की राधा से करते हुए दोनों की नियति और मनःस्थिति के साम्य को रेखांकित करते हुए कहा है कि ये दोनों स्त्रियाँ कहीं न कहीं प्रतिरोध की परिसीमित संभावनाओं को स्वीकारते हुए एक हद तक आत्मप्रवंचना की भी शिकार है। लेकिन इनके उलट अब मुझे रसप्रिया (फणीश्वरनाथ रेणु) की मोहना की माँ का अपनी अस्मिता को बचाए रखने के संकल्प से दमकता चेहरा याद आ रहा है - "झूठा बेईमान!" मोहना की माँ आँसू पोंछकर बोली, "ऐसे लोगों की संगत कभी मत करना।" उल्लेखनीय है कि मोहना की माँ (रसप्रिया) और शीला (कविप्रिया) दोनों की आँखों में आँसू हैं, लेकिन एक जहाँ अपने आँसू को पोंछकर अपनी अस्मिता के हक में निर्णय लेती है वहीं दूसरी बुझ चुके चूल्हे की आग के बहाने अपने आँसू छिपाकर खुद को एक आत्मप्रवंचना की स्थिति में ले जाती है। आँसू और आँसू का यह अंतर यथार्थ की पुनर्रचना को एक बड़े फलक पर देखे जाने की माँग करता है। इसलिए कविप्रिया पर बात करते हुए रसप्रिया को भी जरूर याद किया जाना चाहिए।
(संदर्भ : शेखर जोशी की कहानी ' कविप्रिया ')