उपेक्षिता माधवी / रामप्रताप त्रिपाठी शास्त्री
पुराणों का रचनाकाल विद्वानों ने 800 वर्ष ईसा पूर्व माना है। सभी पुराण एक ही समय में लिखे गये होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनका लेखन-प्रकार, उद्देश्य और जीवन के प्रति दृष्टिकोण लगभग एक-सा है। यहाँ एक ऐसी कथा प्रस्तुत की जा रही है, जो पौराणिक काल की गुरु-शिष्य परम्परा, तत्कालीन सामाजिक मान्यता और नारी के प्रति राजकीय न्याय का एक पक्ष उजागर करती है।
पुराणों में बहुपति प्रथा की जो कथाएँ मिलती हैं, उनकी नायिकाओं में द्रौपदी ही प्रमुख मानी जाती हैं। किन्तु द्रौपदी के अतिरिक्त भी पुराणों में ऐसी नायिकाएँ मिलती हैं, जो इस प्राचीन प्रथा का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
अपनी अदम्य प्रतिभा, तेजस्विता एवं साधना के धनी विश्वामित्र की गाथा पुराणों में प्रभासमान है। एक बार अपने अनन्य शिष्य ऋषिकुमार गालव पर उन्हें तीव्र अमर्ष हो गया। बात ऐसी कुछ नहीं थी, बहुत साधारण-सी बात थी, किन्तु तेजस्वियों के स्वभाव की धारा कभी सामान्य पथ पर नहीं बहती।
गालव विश्वामित्र के बड़े प्रिय तथा मुँहलगे अन्तेवासी थे। जब उनका अध्ययन सविधि समाप्त हो चुका, तो नियमानुसार गुरु से दीक्षा लेकर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की अनुमति लेने का अवसर उपस्थित हुआ। गालव ने सोचा, यही अवसर है, जब कि गुरु के प्रति मैं अपनी अपार भक्ति एवं श्रद्धा का कुछ परिचय दे सकूँगा। उन्होंने निश्चय किया कि अपनी शक्ति के अनुसार कोई-न-कोई गुरु-दक्षिणा देकर ही आश्रम से विदा लेंगे। किन्तु उनके गुरु विश्वामित्र से गालव की स्थिति छिपी नहीं थी। फलतः गालव के अनेक अनुरोधों एवं दुराग्रहों को क्षमा कर उन्होंने उन्हें गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की ही अनुमति प्रदान की। किन्तु गालव भी अपने निश्चय के प्रति अविचल थे। उनको यह कथमपि स्वीकार नहीं था। गुरु को कोई दक्षिणा दिये बिना ही आश्रम से विदा लेना उन्हें इष्ट नहीं था। वह अपने निश्चय पर डटे रह गये और विश्वामित्र के बहुत कुछ समझाने-बुझाने पर अन्त तक यही कहते रहे, “गुरुदेव! मेरी विद्या तब तक फलवती नहीं हो सकेगी, जब तक मैं आपको कोई दक्षिणा नहीं दे देता।”
विश्वामित्र का सहज क्षात्र तेज गालव के इस दुराग्रह पर उद्दीप्त हो उठा। अकिंचन और युवक ब्राह्मण-पुत्र की यह धृष्टता उन्हें मर्मभेदिनी-सी लगी, जो उन्हें यह आज अपनी दक्षिणा का पात्र समझ रहा है। उन्हें यह स्मरण करने की आवश्यकता नहीं थी कि वह राजा के पुत्र थे। सम्राटोचित वैभव-विलास को पैरों तले ठुकराने वाले को एक भिखारी का बालक दक्षिणा देना चाहता है, यह कैसी विडम्बना है!
विश्वामित्र विचलित हो उठे। उनका धैर्य समाप्त हो गया। गालव के इस हठ एवं अभिमान ने उनके विवेक और संयम को झंकृत कर दिया। अपार क्रोध से विकम्पित वाणी में उन्होंने गालव को तर्जित करते हुए कहा।
“दुराग्रही गालव! तुम्हें विश्वामित्र जैसे गुरु को सन्तुष्ट करने के लिए ऐसे आठ सौ श्यामकर्ण अश्व देने होंगे, जो चन्द्रमा के समान श्वेत वर्ण के हैं।” अत्यन्त कठिन शर्त थी यह गालव के लिए। किन्तु विश्वामित्र की यह वज्रवाणी स्वाभिमानी एवं दृढ़ निश्चयी गालव को विचलित नहीं कर सकी। उन्होंने अत्यन्त विनय और सत्कार भरे शब्दों से अपने आचार्य से तात्कालिक क्रोध को शान्त करके इस दुर्लभ दक्षिणा को जुटाने के लिए यथेष्ट समय देने की याचना की, जिसे विश्वामित्र ने भी स्वीकार कर लिया।
तेजस्वी गालव की पक्षिराज गरुड़ से विशेष मैत्री थी। फलतः विश्वामित्र की अमर्षाग्नि से बचाने के लिए गरुड़ ने गालव का बड़ा संग दिया। अपने काम-काज से छुट्टी लेकर वह गालव के संग भूमण्डल भर की प्रदक्षिणा करके ऐसे आठ सौ श्यामकर्ण अश्वों की खोज के लिए निकल पड़े। द्रुतगामी गरुड़ पर बैठकर समूचे भूमण्डल की परिक्रमा कर चुकने पर भी जब गालव को सफलता की कोई आशा नहीं दिखाई पड़ी, तो वह निराश होकर आत्महत्या के लिए उतारू हो गये। किन्तु गरुड़ ने इस समय भी उनका साथ नहीं छोड़ा। अपनी सूझ-बूझ से उनके प्राणों की रक्षा करके उन्होंने गालव को अभीष्ट सिद्धि के लिए गंगा-यमुना के संगमस्थल पर बसे प्रतिष्ठानपुर के स्वामी महाराज ययाति की शरण में चलने की प्रेरणा दी।
महाराज ययाति का उन दिनों धरती के राजाओं में सर्वाधिक सम्मान था। अपने अतिथियों, यज्ञों एवं प्रजा के कल्याणकारी कार्यों के लिए ययाति को कुछ भी अदेय नहीं था। निदान जब उन्हें गरुड़ समेत ऋषिकुमार गालव के आगमन की सूचना दी गयी, तो राजा ने उनका हार्दिक स्वागत-समादर किया। गरुड़ ने अपने आगमन का प्रयोजन बताते हुए कहा :
“राजन्! यह तपोनिधि गालव मेरे अभिन्न मित्र हैं। महर्षि विश्वामित्र के यह प्रिय शिष्य रहे हैं, किन्तु दुर्योगवश गुरु-दक्षिणा के प्रसंग पर गुरु-शिष्य के बीच ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि उसकी शान्ति आपकी कृपा द्वारा ही सम्भव है। इन्हें गुरु-दक्षिणा के लिए यज्ञादि शुभ कार्यों में शुभावह आठ सौ श्यामकर्ण अश्व चाहिए। मेरा अपना विश्वास है कि आपकी कृपा बिना इस धरती पर गालव को ऐसे आठ सौ तो क्या, दो-चार अश्व भी नहीं मिल सकते। मेरी प्रार्थना है कि इस कठिन स्थिति में आप मेरे मित्र गालव की सहायता और रक्षा करें।
“नहुषनन्दन! मेरे मित्र गालव तपस्या की मूर्ति हैं, इनका ब्रह्मतेज अद्वितीय है। यदि आपने इन्हें उबार लिया, तो अपनी अमोघ एवं अपार तपस्या के फल से यह भी कभी आपको अनुगृहीत करेंगे। नरेश्वर! यह आपके लिए एक सुवर्ण संयोग उपस्थित हुआ है, जो गालव के समान परम विद्वान, सदाचारी एवं तेजस्वी याचक उपस्थित हुए हैं।”
अपने मित्र गरुड़ की मर्मस्पर्शिनी वाणी सुनकर राजा ययाति प्रसन्न हुए। किन्तु संयोगात् उस समय उनकी स्थिति वैसी नहीं थी, जैसी कि गरुड़ समझते थे। अनेक राजसूय और अश्वमेध यज्ञों में उन्होंने अपना सम्पूर्ण कोष रिक्त कर दिया था। कुछ क्षण गम्भीर सोच-विचार करने के अनन्तर उन्होंने अपनी त्रैलोक्य-सुन्दरी कन्या माधवी को समर्पित करते हुए गालव से कहा, “ऋषिकुमार, मेरी यह कन्या दिव्य गुणों से अलंकृत है। दैवी वरदान के अनुसार इसके द्वारा हमारे देश में चार महान राजवंशों की प्रतिष्ठा होगी। इसे संग लेकर आप पृथ्वी के अन्य राजाओं के पास जाइए। ऐसी सर्वगुणोपेत एवं सुन्दरी के शुल्क के रूप में राजा लोग अपना राज्य तक दे सकते हैं, फिर आठ सौ श्यामकर्ण अश्वों की तो बात ही क्या है! किन्तु मेरी यह भी प्रार्थना है कि आठ सौ अश्वों की प्राप्ति के बाद आप मेरी कन्या मुझे वापस दे देंगे।”
निदान ययातिपुत्री माधवी को संग लेकर गरुड़ और गालव सर्वप्रथम अयोध्या के राजा हर्यश्व के पास पहुँचे, जो उस समय न केवल अपनी दानशीलता, शूरता, परदुःख-कातरता तथा समृद्धि के कारण धरती भर में प्रसिद्ध थे, वरन् संसार भर से चुने हुए अश्वों को रखने के कारण भी विख्यात थे।
अयोध्यापति ने उनके आगमन का कारण पूछा। ऋषिकुमार गालव ने राजा हर्यश्व से माधवी के कुल, शील एवं गुणों की चर्चा करते हुए जब अपना मन्तव्य प्रकट किया, तो राजा हर्यश्व की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। किन्तु विडम्बना यह थी कि उनके पास वैसे श्यामकर्ण अश्वों की संख्या केवल दो सौ थी। हर्यश्व ने अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए गालव और गरुड़ को यह सुझाव दिया, “आपको मेरे ही समान अन्य राजाओं से भी माधवी के शुल्क के रूप में वैसे श्यामकर्ण अश्वों की प्राप्ति का उपाय करना होगा। मैं अपने दो सौ अश्वों को देकर माधवी से केवल एक पुत्रोत्पत्ति की प्रार्थना करूँगा।”
दूसरा कोई चारा न होने के कारण गालव और गरुड़ ने अयोध्यापति हर्यश्व की बात मान ली और ययातिपुत्री माधवी को अयोध्या में निर्दिष्ट अवधि के लिए छोड़ कर कुछ दिनों के लिए अन्यत्र चले गये। यथासमय राजा हर्यश्व के संयोग से माधवी ने वसुमना नामक सर्वगुणोपेत पुत्र को उत्पन्न किया, जो बाद में चलकर अयोध्या के राजवंश में परम प्रसिद्ध हुआ।
तदनन्तर निश्चित अवधि बीत जाने पर गालव और गरुड़ पुनः अयोध्या वापस आये और माधवी के शुल्क के रूप में प्राप्त उन दो सौ अश्वों को कुछ दिनों के लिए अयोध्या में ही छोड़कर माधवी के संग पुनः वैसे अश्वों की खोज में चल पड़े।
अयोध्या से चलकर गालव और गरुड़ काशिराज दिवोदास के दरबार में पहुँचे, जिनकी कीर्ति-कौमुदी का प्रसार उन दिनों समग्र भूमण्डल में हो रहा था। गालव और गरुड़ के प्रस्ताव करने पर वह भी अपने दो सौ श्यामकर्ण अश्वों को देकर माधवी जैसी सुन्दरी तथा दैवी प्रभायुक्त स्त्री से एक पुत्र प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सके।
नियत समय बीत जाने पर माधवी के संयोग से काशिराज दिवोदास ने प्रतर्दन नामक पुत्र की प्राप्ति की, जो बाद में काशीराज्य का पुनरुद्धारक ही नहीं, प्रत्युत वंशपरम्परागत शत्रुओं का विध्वंसक भी हुआ। इस द्वितीय पुत्रोत्पत्ति के बाद भी सुन्दरी माधवी पुनः ऋषिकुमार गालव के संग किसी अन्य राजा की राजधानी की ओर चल पड़ी।
इस बार गालव और माधवी पक्षिराज गरुड़ के संग भोजराज उशीनर के यहाँ पहुँचे, जो अपने समय के राजाओं में प्रतिष्ठित थे, भोजराज की अतिशय समृद्धि और अदम्य दानशीलता की उन दिनों पृथ्वी पर बड़ी चर्चा थी। किन्तु संयोगतः उनके पास भी दो सौ श्यामकर्ण अश्व थे। गालव और गरुड़ की प्रार्थना पर राजा उशीनर ने भी त्रैलोक्य-सुन्दरी माधवी के संयोग से एक पुत्र प्राप्त कर अपने उन दुर्लभ अश्वों को उन्हें सौंप दिया। भोजराज का यही तेजस्वी पुत्र बाद में शिवि के नाम से विख्यात हुआ, जिसकी दान-शीलता की अमर कहानी आज भी पुराणों की शोभा है। इस पुत्र की उत्पत्ति के बाद भी माधवी का रूप-यौवन पूर्ववत् बना रहा।
गालव को अपनी गुरु-दक्षिणा के लिए अब दो सौ अश्व ही शेष थे, किन्तु चिन्ता की बात यह थी कि गालव द्वारा विश्वामित्र से प्राप्त की गयी अवधि समाप्ति पर थी और गरुड़ को यह ज्ञात हो चुका था कि धरती पर इन छह सौ श्यामकर्ण अश्वों के सिवा कहीं अन्यत्र एक भी नहीं बचा है।
अब गालव की विश्वामित्र की शरण छोड़कर कोई अन्य गति नहीं थी। अन्ततः गरुड़ की सलाह मानकर छह सौ अश्वों और त्रैलोक्य-सुन्दरी माधवी तथा गरुड़ को संग लेकर वह विश्वामित्र के समीप पहुँचे और शेष दो सौ अश्वों की प्राप्ति में असमर्थता प्रकट करते हुए विनय भरे स्वर में कहा :
“गुरुवर! आपकी आज्ञा से इस भूमण्डल पर प्राप्त छह सौ श्यामकर्ण अश्वों को मैं ले आया हूँ, जिन्हें आप कृपा कर स्वीकार करें। अब इस धरती पर ऐसा एक भी अश्व नहीं बचा है। अतः मेरी प्रार्थना है कि शेष दो सौ अश्वों के शुल्क के रूप में आप दिव्यांगना माधवी को अंगीकार करें।”
गालव की प्रार्थना का अनुमोदन गरुड़ ने भी किया। विश्वामित्र ने अपने प्रिय शिष्य की प्रार्थना स्वीकार कर ली और माधवी के संयोग से अन्य राजाओं की भाँति उन्होंने भी एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति की, जो कालान्तर में अष्टक के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बड़ा होने पर विश्वामित्र की अनुमति से अष्टक ने उनकी राजधानी का सारा कार्य-भार ग्रहण किया और माधवी के शुल्क के रूप में प्राप्त उन छह सौ दुर्लभ श्यामकर्ण अश्वों का भी वही स्वामी हुआ।
इन चारों पुत्रों की उत्पत्ति के बाद माधवी ने गालव को उऋण करा दिया। फिर तो वह अपने पिता राजा ययाति को वापस कर दी गयी, क्योंकि उसके पिता ने केवल आठ सौ श्यामकर्ण अश्वों के शुल्क के लिए ही गालव को प्रदान किया था। अपने पिता के घर वापस पहुँचने पर वह पूर्ववत् समादृत हुई। उसके अनन्त रूप और यौवन में चार पुत्रों की उत्पत्ति के बाद भी कोई कमी नहीं हुई थी।
ययातिपुत्री माधवी के ये चारों पति तथा चारों पुत्र पुराणों की सैकड़ों मोहक कथाओं के सुप्रसिद्ध नायक ही नहीं हैं, भारत के भिन्न-भिन्न प्राचीन राजवंशों के प्रवर्त्तक तथा अमित यशस्वी महापुरुष हैं। अपने इन चारों यशस्वी पुत्रों की उत्पत्ति के बाद जब वह पिता के घर वापस आयी, तो पिता ने उसका स्वयंवर करने का विचार प्रकट किया। किन्तु माधवी ने किसी अन्य पति को वरण करने की अनिच्छा प्रकट कर तपोवन का मार्ग ग्रहण किया।