उपेक्षित समुदायों का आत्म इतिहास / विष्णु महापात्र / पृष्ठ-1
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ये उपेक्षित अस्मिताओं के इतिहास उत्तर प्रदेश के विभिन्न अंचलों में फुटपाथों, छोटी दुकानों दलित राजनीति से जुड़ी रैलियों एवं मीटिंगों में ठेलों पर बिकते हुए प्राप्त हुए थे। इन इतिहासों को शिक्षित सामुदायिक इतिहासकारों सक्रिय राजनीतिक बौद्धिकों एवं जाति के साहित्यकारों द्वारा लिखा गया। इस संकलन का उद्देश्य सामाजिक-विमर्श, अस्मिताओं के टकराव, आत्मसम्मान की राजनीति की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रियाँ को सामने लाया गया है। इसका और लक्ष्य शोद्यार्थियों के लिए इन्हें संस्रोत के रूप में भी उपस्थित करना भी है। अपनी रोचक कथात्मक शैली एवं वृत्तांतों के कारण यह संकलन आम पाठकों को पसंद आयगा, ऐसी हमारी आशा है।
यह पुस्तक निचली जातियों द्वारा स्वयं लिखे गए अपने जातीय इतिहास का संकलन है जो मुझे जातीय इतिहास पर शोध के सिलसिले में उत्तर प्रदेश के विभिन्न अंचलों में फुटपाथों, छोटी दुकानों, दलित राजनीति से जुड़ी रैलियों एवं मीटिंगों में ठेलों पर बिकते हुए प्राप्त थे। जब मैं निचली जातियों द्वारा स्वयं लिखे गये प्रत्यय का उपयोग कर रहा हूँ तो साफ करना चाहूँगा कि ये पुस्तिकाएँ उक्त जातियों के शिक्षित समुदायिक इतिहासकारों, सक्रिय राजनीतिक बौद्धिकों एवं उक्त जाति के साहित्यकारों द्वारा लिखे गए हैं।
औपनिवेशिक शासन में खुले नए अवसरों, राष्ट्रवादी एवं समाज सुधारक आंदोलन एवं उनसे अनुप्राणित शिक्षा के प्रसार, आजादी के बाद भारतीय शिक्षा का उभरते एवं विकसित होते जनतान्त्रिक स्वरूप के कारण धीरे-धीरे अनेक अपेक्षित दलित जातियाँ शिक्षा की परिधि में प्रवेश कर आगे बढ़ती गईं। ‘शिक्षित बनने’ एवं ‘संघर्ष करने’ जैसे नारों के साथ दलित जातियों में जो राजनीतिक चेतना विकसित हुई उसके अनेक आधारों में शिक्षा का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यह शिक्षित-सचेत एवं लिखने की शक्ति से युक्त नवमध्यवर्गीय तबका अपनी अस्मिता की गहराती इच्छाओं, आकांक्षाओं को लिखकर अपने को शक्तिमान बनाने में संघर्ष को गति देता रहा है। यही शिक्षित तबका ऐसे लेखनों के पाठक वर्ग के रूप में भी विकसित हुआ है। साथ ही भारतीय समाज के अन्य तबकों के प्रगतिशील जीवन-मूल्यों से जुड़े लोग भी ऐसी पुस्तिकाओं के पाठक के रूप में पिछले दिनों उभर कर सामने आए हैं। दलित एवं उपेक्षित जातियों में उभरे इस शिक्षित मध्य वर्ग के बारे में बामसेफ द्वारा किए गए एक आकड़े से जो तथ्य सामने आता है उसके आधार पर 12 लाख दलित नौकरी शुदा लोग हैं, जिनमें 3,000 डॉक्टर, 15,000 वैज्ञानिक, 7,000 ग्रेजुएट एवं 500 डॉक्टरेट डिग्री धारी सदस्य हैं। हालाँकि यह आँकड़ा पुराना है। आज तो इनकी संख्या में व्यापक बढ़ोत्तरी हुई है। दलितों के मध्य विकसित हुआ इस नव शिक्षित मध्य वर्ग में अस्मिता एवं विकास जनित प्रतिद्वन्द्विता का स्फोट साफ दिखता है। उनकी यही आंतरिक आकांक्षा उन्हें ऐसी दलित लोकप्रिय पुस्तिकाएँ लिखने एवं पढ़ने की दिशा में उन्मुख करती है। यह जानना रोचक है कि इसी के कारण तृण मूल स्तर पर दलितों के मध्य लिखने की आकांक्षा के साथ-साथ पढ़ने की आकांक्षा भी जगी है। फलतः दलितों के मध्य ऐसे लोकप्रिय साहित्य का एक व्यापक पाठक वर्ग भी पिछले दिनों विकसित हुआ है।