उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ का उर्दू गीत-संचयन / राजेन्द्र वर्मा
बीसवीं सदी की शुरुआत में जिस प्रकार हिन्दी कविता नायिका-भेद और राजा-महाराजाओं की स्तुतियों के बंधन तोड़कर चिड़ियों की तरह चहचहाने लगी थी, उसी प्रकार उर्दू कविता भी शमा-परवाने, गुलो-बुलबुल और महबूबो-माशूक़ के जाल से निकलकर नयी भावनाओं को व्यक्त करने लगी। उर्दू कविता के तत्कालीन हस्ताक्षरों में जालंधर के मौलाना अब्दुल असर 'हफ़ीज़' , कश्मीर के ख़ुशी मोहम्मद नाज़िर, मलिहाबाद के जोश मलिहाबादी, टोंक के 'अख्तर' शेरानी, मुंबई की मीरा जी, दिल्ली के अज़मत अल्लाह खान, फ़रीदाबाद के सैयद मुतलवी फ़रीदाबादी जैसे शायरों ने गीतों की रचना की। इनके अलावा 'साग़र' निज़ामी, ख़ुशी मोहम्मद 'नाज़िर' , डॉ. मुहम्मद दीन 'तासीर' , मक़बूल हुसैन अहमद्पुरी, वक़ार अम्बालवी, अख़तरुल ईमान, क़तील शफ़ाई, हफ़ीज़ होशियारपुरी, अब्दुल मजीद भट्टी, पं। इन्द्रजीत शर्मा, विश्वामित्र आदिल आदि ने गीत रचे।
उर्दू के इन गीतों के संचयन का श्रेय हिन्दी के प्रसिद्ध कवि-कथाकार-उपन्यासकार और नाटककार, उपेन्द्र नाथ 'अश्क' को जाता है। 14 दिसम्बर 1910 को जन्मे अश्क जी ने अनेक विधाओं में रचनाएँ कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। 19 जनवरी 1996 को उनका निधन हुआ, लेकिन वे अंतिम क्षणों तक सृजनरत रहे। 23 वर्ष की अवस्था में उनकी पहली पुस्तक आयी, जिसका नाम है-जुदाई की शाम के गीत। हिन्दी साहित्य को उन्होंने चार उपन्यास, दो कहानी-संग्रह, दो काव्य-संग्रह, दो संस्मरण और आठ नाटक-एकांकी-संग्रह दिये। 'तौलिये' उनका विश्वप्रसिद्ध एकांकी है जिसके सैकड़ों मंचन हो चुके हैं। 'मंटो मेरा दुश्मन' उनका चर्चित संस्मरण है। इसमें मंटों और उनके रिश्तों की चर्चा के अलावा हिन्दी-उर्दू साहित्य की दशा और दिशाएँ भी दर्ज़ हैं।
अश्क जी हिन्दी के पहले नाटककार हैं जिन्हें 1965 में संगीत नाटक अकादमी का नाटक पुरस्कार प्रदान किया गया। 1972 में उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा 1996 में इक़बाल एवार्ड से नवाज़ा गया। वे पहले उर्दू में लिखते थे, लेकिन कथासम्राट प्रेमचंद के कहने पर उन्होंने हिन्दी में लिखना शुरू किया। 'अश्क' उपनाम उन्होंने अपने एक दोस्त के निधन पर उसके सम्मान में रखा। कहना न होगा कि दोस्त के निधन पर वे आँसुओं में डूब गये और बाद में 'अश्क' उपनाम रख लिया। अश्क माने आँसू होता ही है।
अश्क जी ने 'उर्दू काव्य की एक नयी धारा' नामक पुस्तक सम्पादित की, जिसमें उन्होंने उर्दू के उन गीतों, नज़्मों और ग़ज़लों को संगृहीत किया जिन पर हिन्दी भाषा का स्पष्ट प्रभाव था। इसे हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद ने 1949 में प्रकाशित किया। इस संग्रह में उर्दू के जिन गीतों का संचयन है, उनका रचनाकाल 1900 से लेकर 1940 तक का माना जाता है। इनमें भारतीय संस्कृति की छटा है, आध्यात्मिक चिंतन, दर्शन और युगबोध का चित्रण है। छन्द की दृष्टि से, इनमें कहीं-कहीं मात्रा गिरी है, अर्थात् गुरु (S) को लघु (I) कर दिया गया है। भाषा की दृष्टि से इनमें तमाम तत्सम शब्द शामिल हैं, जैसे-दानी, ज्ञानी, भिक्षा, धरती, आकाश, संसार, पालनहार, भगवान। भारतीय मिथकों को लेकर गढ़े हुए मुहावरे भी मिलते हैं, जैसे-अर्जुन के बान।
इन गीतों का महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि जब हिन्दी कविता में छायावाद हावी था, तब ये गीत अपने कथ्य में समकालीनता समेट रहे थे। आम आदमी के दुख-दर्द, युद्ध की विभीषिका जैसे विषय इनमें मिलते हैं। बानगी के तौर पर कुछ गीतों के अंश द्रष्टव्य हैं। पहले हफीज़ जालंधरी के गीतों के अंश देखिये जो आध्यात्मिक रंग में रँगा हुआ है और भाषा भी सरल बोलचाल उर्दू की है—
तू ही सबका पालनहार!
तू ने यह संसार बनाया, इतना सारा खेल रचाया।
मोती-हीरे सोना-रूपा, तेरी दौलत तेरी माया॥
दिन के रुख पर तेरा परतव, रात के सिर पर तेरा साया।
फूलों से धरती को ढाँचा, तारों से आकाश सजाया॥
आग, हवा, मिटटी औ' पानी, सब में जांदारों को पाया।
तू ही पालनहार है सबका, सब तेरे बालक हैं खुदाया॥
तू सबसे रखता है प्यार!
तू ही सबका पालनहार!
हर हक़ ने यह बात है मानी, कोई नहीं है तेरा सानी।
दुनिया फ़ानी है तू बाक़ी, तू बाक़ी है दुनिया फ़ानी॥
तेरे नाम से हो जाती है, पैदा मुश्किल में आसानी॥
दान भी तेरा, देन भी तेरा, तू ही दाता, तू ही दानी।
तेरे भरोसे पर जीते हैं, क्या ज्ञानी औ' क्या अज्ञानी॥
क्या मुफ़लिस औ' क्या ज़रदार!
तू ही सबका पालनहार!
अब जोश मलिहाबादी का एक गीत, जिसमें युगबोध है ही, भगवान से संवाद कर उसे ललकारा भी गया है—
क्या सोता है भगवान!
धरती हाले-डोले,
झटके औ' हिचकोले,
पत्थर हो गये पोले,
क्योंकर न उड़े औसान!
क्या सोता है भगवान्!
गिरती दीवारों ने,
जलते अंगारों ने,
चलती तलवारों ने,
कर डाला है हलकान!
क्या सोता है भगवान!
जो नगरी थी आबाद,
लाज भरी औ' आज़ाद,
हर दिल था जिसमें शाद,
वह नगरी है वीरान!
क्या सोता है भगवान्!
घुस आया घर में चोर,
कब होवेगी अब भोर,
ऐसा हो पवन का ज़ोर,
जैसे अर्जुन के बान!
क्या सोता है भगवान!
-जोश मलिहाबादी
इसी क्रम में क़तील शिफ़ाई के गीत के दो बन्द देखिए, जिनमें समाज की दुर्दशा देख गीतकार ईश्वर से कह उठता है—
दान तेरे सब झूटे,
दानी, दान तेरे सब झूटे!
भिक्षा माँगे भूखी धरती,
मरती क्या ना करती!
तब सींचा है बाग़ को तूने,
सूखे जब गुल-बूटे!
दानी, दान तेरे सब झूटे!
तू माया का जाल बिछाए,
भूकों को उलझाए,
तू इतना अहसान जताए,
बिजली उन पर टूटे!
दानी, दान तेरे सब झूटे!
अख़तर शेरानी प्रेम को गीत का विषय बनाते हैं। वे प्रेमियों से कहते हैं कि वे प्रेम करें, लेकिन वियोग सहने के लिए तैयार रहें, क्योंकि परदेसी की जो प्रीति है, वह झूठी है और परदेसी से दिल लगाना वैसे ही है जैसे बहते पानी में नहाना—
परदेसी की प्रीत है झूठी,
झूठी परदेसी की प्रीत।
हारे हुए की जीत है झूठी।
दुनिया की यह रीत है झूठी।
परदेसी की प्रीत है झूठी,
झूठी परदेसी की प्रीत।
परदेसी से दिल का लगाना,
बहते पानी में है नहाना,
कोई नहीं नदिया का ठिकाना,
रमते जोगी किसके मीत?
परदेसी की प्रीत है झूठी,
झूठी परदेसी की प्रीत।
उड़ती चिड़िया गाती जाए,
मीठा गीत मिठास बहाए,
यूं परदेसी मन को लुभाए,
उड़ गयी चिड़िया, उड़ गया गीत!
परदेसी की प्रीत है झूठी,
झूठी परदेसी की प्रीत॥