उफ़्फ़! ऐसा तो नहीं होना था.../ मनोज श्रीवास्तव
पौ फटते ही आख़िर यह क्या हो गया? किसी को कानो-कान विश्वास नहीं हो रहा था कि राधू जैसा शरीफ़ आदमी इतना घिनौना कृत्य कर सकता है! जब वह पुलिस की जीप में हथकड़ियों वाले हाथ माथे पर टिकाए, सिर ळाुकाए बैठा हुआ था तो उस समय भी कइयों को उस पर दया आ रही थी। लोग तो इस सच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे कि राधू अपनी सौतेली बेटी के साथ इतने समय से व्यभिचार में लिप्त रह सकता है और अपनी जान से प्यारी पत्नी की हत्या कर सकता है।
पर, लोगों को यक़ीन करना पड़ा क्योंकि इस सच का ख़ुलासा ख़ुद लावनी यानी उसकी सौतेली बेटी ने किया था और वह भी सवेरे-सवेरे। बेशक! लावनी को पुलिस का दरवाज़ा मजबूरन खटखटाना पड़ा था। जब माँ ने ही उसके बाप को उसके साथ देख लिया तो उस समय उसे खुद से इतनी घृणा होने लगी कि वह बेतहाशा चींखने-चिल्लाने लगी, कुछ इस तरह कि जैसे उसके साथ पहली बार जोर-जबरदस्ती किया जा रहा हो, बलात्कार किया जा रहा हो। तब, माँ भी उसके साथ बदहवास-सी चींखने लगी थी। ऐसे में राधू दोनों की चींंख को घर में ही ज़ब्त रखने के लिए पहले लपककर उसकी माँ के मुँह को जोर से दबाया, फिर...
पर, उफ़्फ़! अफ़रातफ़री में माँ की गरदन पर उसके दाएं हाथ की जकड़ इतनी सख़्त थी कि उसकी गरदन की रीढ़ टूट गई और उसके मुँह से खून भलभलाकर कर बहने लगा। कुछ क्षण तक वह वहीं दर्द से आँखें निकालकर कराहती रही और जमीन पर लुढ़ककर छटपटाती रही। थोड़ी देर बाद उसकी सारी जिस्मानी हरक़त बंद हो गई। पहले तो लावनी अपनी चींख को होठों में भींचकर उसे चुपचाप देखती रही; लेकिन, जब वह माँ के ठंडे पड़े शरीर को हिला-हिलाकर होश में न ला सकी तो वह शलवार के जारबंद को पकड़कर और अपने अधनंगे शरीर की परवाह किए बिना चींखती हुई बाहर भागी। उसने पड़ोस में जो सबसे पहला दरवाज़ा खुला मिला, उसमें घुस गई और वहाँ लोगों को अपने सौतेले बाप के करतूतों को गला फाड़-फाड़कर बता दिया।
कोई दस मिनट में इस दुर्घटना की चर्चा बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। मोहल्ले में ऐसा कांड पहली बार हुआ था और वह भी राधू के घर जिसके बारे में लोगबाग बुरा ख़्याल लाना तक पाप समळाते थे। राधू--जिसके लिए हर मोहल्लेवाले के दिल में बाइज़्ज़त जगह थी, वह आज इस कदर गिर सकता है!
कम से कम पचास-साठ लोग राधू के घर के आसपास इकट्ठे हो गए। लोग बारी-बारी से घर के अंदर जाकर कमला यानी लावनी की सगी माँ की लाश को देख आने के बाद, बाहर मुँह-हाथ बाँधकर गुमसुम किंकर्त्तव्यविमूढ़-से खड़े हो जाते थे। राधू लाश के सामने बुत बना खड़ा था। लोगों को उससे संबंधित इतनी बातें याद आ रही थीं कि वे उसे घर के भीतर से खीचकर बाहर लाकर उसे उसके किए की सजा देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। आख़िर, वे उसके साथ सख़्ती से कैसे पेश आएं?
जब खान के घर में आग लगी थी तो आग के बंवडर के बीच से उसके दुधमुँहे पोते को बचाने के लिए राधू जान पर खेल गया था। चौधरी चाचा की मौत पर उसके घर को ग़मी के माहौल से उबारने के लिए उसने तन-मन-धन से मदद की थी। वर्माजी के लिए तो वह साक्षात भगवान था क्योंकि जब वह अपने गुर्दों के फेल होने के कारण मौत को दस्तक दे रहे थे तो उसने अपना एक गुर्दा मुफ़्त उन्हें दान कर उन्हें एक नया जीवन दिया था। अभी पिछली रात को शिव-मंदिर में जो हादसा होने जा रहा था, अगर राधू वहाँ नहीं होता तो सैकड़ों निर्दोष श्रद्धालु अग्निदेव की खुराक बन चुके होते। इधर मंदिर के भीड़-भरे प्रांगण में सैकड़ों लोग मंदिर की स्वर्ण जयंती समारोह में व्यस्त थे, उधर सुनसान अहाते में बिजली की शार्ट सर्किट के कारण जो आग लगी थी, वह कुछ ही पलों में पूरे मंदिर के पंडाल को अपने आगोश में लेने जा रही थी। यह तो अच्छा हुआ कि मंदिर की सुरक्षा में दत्तचित्त राधू मुआयना करता वहाँ पहुँच गया और उसने कोई हल्लागुल्ला खड़ा किए बिना लोगों को चुपचाप मंदिर से बाहर निकाल दिया। इस दुर्घटना की ख़बर मंदिर के मठाधीश को तब लगी जबकि राधू की समय रहते सूचना पर दमकल की गाड़ी आग बुळााने में तैनात हो चुकी थी।
कमला के लिए भी राधू किसी फ़रिश्ता से कम नहीं था। जब बिजेंद्र यानी कमला के पति की हार्ट अटैक के कारण मौत हुई थी तो उसके सास-ससुर और देवर ने उसके विरुद्ध कानूनी लड़ाई लड़कर उसे पति की संपत्ति से बेदख़ल कर बाल-बच्चों समेत सड़क पर ला खड़ा किया था। ऐसे गाढ़े समय में बिजेंद्र का दोस्त--राधू ही काम आया। उसने न केवल कमला को खाना-खर्चा के लिए नियमित आर्थिक मदद की बल्कि उसके लिए घर और काम का भी बंदोबस्त किया।
उस वक़्त राधू की उम्र रही होगी कोई तीस साल की। उसका दिल अपने पिता के बिजनेस में इतना लगा हुआ था कि वह शादी-वादी के चक्कर में पड़कर इसकी तरक्की में कोई अड़ंगा नहीं डालना चाहता था। उसके माँ-बाप भी उसकी इच्छा का ख़ूब मान रखते थे। सो, उन्होंने उसके ऊपर शादी के लिए कोई दबाव नहीं डाला। लेकिन, जब उसने अपने दोस्तों के मशविरे पर मंदिर में जाकर कमला से शादी रचा ली तो उनके पैरों तले से जमीन खिसक गई। उनके बेटे ने एक ऐसी विधवा से शादी रचाई थी, जिसकी दस साल की बेटी थी और जो खुद उससे आठ साल बड़ी थी। वे गुस्से में काफ़ूर होकर उसे तरह-तरह की धमकियाँ और ताना देने लगे। कमला को छोड़ने के लिए उस पर अनुचित दबाव डालने लगे। राधू समळा गया कि उसके सनातनी विचारधारा वाले माँ-बाप कमला को कभी अपनी बहू स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए, वह उनके परिवेश से निकलकर इस नए मोहल्ले में बस गया। यहीं एक दवाई की दुकान खोल ली और अपनी पत्नी और सौतेली बेटी की परवरिश करने लगा। उस समय राधू की भलमनसाहत को मोहल्लेवालों ने खूब सराहा था। जिस कमला के अपने भी उसके दुर्दिन में न केवल उससे मुख मोड़ गए थे बल्कि उसके जीने का बचा-खुचा सामान भी छीन ले गए थे...मोहल्ले के कुछ नाज़ायज़ मनचले मर्द भी उसके अकेलेपन का फ़ायदा उठाना चाहते थे, उस कमला के लिए राधू ने क्या नहीं किया? सामाजिक संरक्षण व सम्मान दिया और उसे जीने का एक अच्छा बहाना भी दिया। वरना, हालात से टूटी हुई कमला न जाने क्या कर गुजरती...
जब राधू के घर के बाहर लोगबाग इस ऊहापोह में खड़े थे कि क्या करें और क्या न करें तभी एकबैक घर के अंदर से रोने की चींख उनके दिलों को चीरने लगी। राधू अपने कुकर्मों पर पश्चाताप के आँसू बेतहाशा बहा रहा था। ऐसे में, जो लोग राधू के जघन्य अपराधों की सज़ा देने का मन बना रहे थे, उनका भी दिल पिघलकर मोम हुआ जा रहा था। ज़्यादातर यह सोच रहे थे कि हो-न-हो, ज़्यादा दोषी लावनी ही होगी और उसी ने उसे इस गर्त में ढकेला होगा। वह इस समय है भी खड़ी--उफ़नती जवानी के पड़ाव पर। अलबत्ता, उसकी उम्र और उसके सौतेले बाप की उम्र में कोई ज़्यादा फर्क नहीं है जबकि उसकी माँ उसके तथाकथित बाप से काफ़ी बड़ी है...
राधू लगातार विलाप करता जा रहा था। वह कमला की लाश के सिरहाने उकड़ूं बैठकर उसके चेहरे को एकटक देखते हुए इस कदर रो रहा था कि उसे यह भी ध्यान नहीं था कि वह रोते हुए लाश के चेहरे पर ढेरों लार और आँसू टपकाए जा रहा है। उसकी इस हालत को देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो रहे थे। उनके पैरों के नीचे की जमीन काँपती-सी लग रही थी...ऐसा लग रहा था कि जैसे सभी भोर में कोई दुःस्वप्न देख रहे हों...
ऐसे ही हृदय-विदारक माहौल में सभी का ध्यान अचानक भंग हुआ। पहले, बाहर एक धड़धड़ाती जीप के रुकने की आवाज़; फिर, पुलिस के जूतों की खट-खट..्कोई चार पुलिसवालों के साथ-साथ लावनी भी आँगन में आई। अग़र लावनी साथ में नहीं होती तो सभी हैरत में डूब जाते कि आख़िर, इस दुर्घटना के बारे में पुलिस को इत्तला किसने किया? पर, यह लावनी थी जिसने सबसे पहले पूरे मोहल्ले में राधू के करतूतों ढिंढोरा पीटा; फिर, बाहर ही बाहर थाने निकल गई...
पुलिस को देखते ही राधू के आँसू रुक गए और रोना बंद हो गया। तब जैसे ही लावनी ने ऊँगली से राधू की ओर इशारा किया, एक पुलिसवाले ने अपनी बेंत उसकी पीठ पर घुमाई। उसका तो मुँह ही सूख गया। इसके पहले कि पुलिसवाला उसे जबरन घसीटकर जीप में बैठाता, वह खुद ही खड़ा होकर जीप की ओर बढ़ गया। एक दूसरे पुलिसवाले ने उसके हाथ में हथकड़ी डाल दी। शायद, वह पुलिस इंस्पेक्टर था जिसने जाते-जाते दो अन्य कांस्टेबलों को हिदायत दी : "लाश को सील करके सदर अस्पताल पहुँचाओ। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट हाथों-हाथ लेकर तुरंत थाने पहुँचो, मैं अस्पताल के सुपरिटेंडेंट को अभी फोन करने जा रहा हूँ। मामला बड़ा संगीन है, पहले बलात्कार; फिर हत्या..."
लोगबाग सुबह की किरणों के फूटते ही अपने मोहल्ले में और वह भी राधू के घर पर ऐसी नाटकीय घटना को देखने को तैयार नहीं थे।
कुछ पल के लिए इंस्पेक्टर ठहर गया। उसने लोगों से पूछा : "इस वारदात के चश्मदीद गवाह कौन-कौन हैं?"
पल भर की चुप्पी के बाद जब उसने यही सवाल दोबारा किया तो भीड़ के एक कोने से आवाज़ आई : "सा'बजी! उस वक़्त
इस लावनी के सिवाय यहाँ कोई नहीं था। मोहल्लेवाले तो रजाइयों में दुबके हुए थे..."
तब इंस्पेक्टर ने लावनी की ओर घूरकर देखा : "तूँ चल मेरे साथ थाने।"
जीप घर्र-र्र-र्र-र के साथ चली गई। उस दिन कोई दस बजे तक राधू के घर को सील कर दिया गया।
लावनी को फिर मोहल्ले में नहीं देखा गया। मोहल्लेवालों ने भी उसके बारे में कुछ जानने की कभी जुर्रत नहीं की। राधू को क्या सजा दी गई--इस बात की भी किसी को जानकारी नहीं है। पर, यह बताया जाता है कि राधू और लावनी को थाने तो ले जाया गया; लेकिन, उन्हें बाहर आते नहीं देखा गया। शायद, उन्हें थाने में ही खपा दिया गया। हाँ, मोहल्लेवाले कमला की अंत्येष्टि विधि-विधान से करना चाहते थे। सो, जब उनमें से कुछ उसकी लाश लेने सदर अस्पताल गए तो सुपरिटेंडेंट ने साफ इन्कार कर दिया कि उस दिन किसी भी लाश को पोस्टमार्टम के लिए नहीं लाया गया।