उमराव जान अदा / मिर्ज़ा हादी रुस्वा / पृष्ठ 3

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उमराव जान अदा


सुनिए मिर्जा रुस्वा साहब। आप मुझसे क्या छेड़-छेड़ के पूछते हैं ? मुझ कम-नसीब आपबीती में ऐसा क्या है, जिसके आप आशिक हैं ? एक नाशाद नामुराद के हालात सुन कर, मुझे हरगिज उम्मीद नहीं कि आप खुश होंगे। बाप-दादा का नाम ले के अपनी बड़ाई जताने से फायदा क्या, सच तो यह है कि मुझे याद भी नहीं। हां, इतना जानती हूं कि फैजाबाद में शहर के किनारे किसी मुहल्ले में मेरा घर था। मकान पुख्ता था। आसपास कुछ कच्चे मकान, झोंपड़े और कुछ खपरैलें थीं, रहने वाले जो ऐसे वैसे लोग होंगे। कुछ भिश्ती, कुछ नाई, धोबी, कहार।

मेरे मकान के सिवा एक ऊंचा घर इस मुहल्ले में और भी था। इस मकान के मालिक का नाम दिलावर खां था। मेरे अब्बा बहू बेगम साहबा के मकबरे पर नौकर थे। मालूम नहीं, काहे में नाम था, क्या तनख्वाह थी। इतना याद है कि लोग उनको जमादार कहते थे। दिन भर मैं अपने भाई को खिलाया पिलाया करती थी और वह भी मुझसे इस कदर हिला हुआ था कि दम भर को न छोड़ता था।

अब्बा जब नौकरी पर से आते थे, उस वक्त की खुशी, हम भाई बहनों को, कुछ न पूछिए। मैं कमर से लिपट गई, भाई अब्बा अब्बा करके दौड़ा, दामन से चिपट गया। अब्बा की बाछें मारे खुशी के खिली जाती हैं। मुझे चुमकारा, भैया को गोद में लिया, प्यार करने लगे।

मुझे खूब याद है, अब्बा कभी खाली हाथ घर न आते थे। कभी दो कतारे हाथ में हैं, कभी बताशों या तिल के लड्डुओं का दोना हाथ में है। अब इसके हिस्से लगाए जा रहे हैं भाई बहनों में, किस मजे की लड़ाइयां होती थीं। वह कतारा छीने लिए जाता है। मैं मिठाई का दोना हथियाए लेती हूं। अम्मां सामने खपरैल में बैठी खाना पकी रही हैं।

अब्बा इधर आ के बैठे नहीं कि उधर मेरे तकाजे शुरू। अब्बा अल्ला गुड़िया नहीं लाए ? देखो मेरे पांव की जूती कैसे टूट गई है। तुम को तो खयाल ही नहीं रहता। लो, अभी तक मेरा जेवर सुनार के यहां से बन के नहीं आया। छोटी खाला की लड़की की दूध बड़ाई है, भई, मैं क्या पहन के जाऊंगी ? चाहे कुछ हो ईद के दिन तो, मैं नया जोड़ा पहनूंगी, हां। मैं तो नया जोड़ा पहनूंगी, हां मैं तो नया जोड़ा पहनूंगी।

अम्मां खाना पका चुकीं तो मुझे आवाज दी। मैं गई, रोटी की टोकरी और सालन की पतीली उठा लाई। दस्तरखान बिछा। अम्मां ने खाना निकाला। सब ने सिर जोड़ के खाना खाया, खुदा का शुक्र किया। अब्बा ने इशा की नमाज पढ़ी, सो रहे। सुबह जो तड़के अब्बा उठे, नमाज पढ़ी। उसी वक्त में खड़ाक से उठ बैठी। फिर फरमाइशें शुरू हुईं। आज न भूलना। गुड़िया जरूर लेते आना। अमरूद और सारंगियां भी...

अब्बा, सुबह की नमाज पढ़ कर, वजीफा पढ़ते हुए कोठे पर चढ़ जाते। कबूतरों को खोल के दाना देते। एक दो हवा में उड़ाते। इतने में, अम्मां झाड़ू बुहारी से निपट कर खाना तैयार कर लेतीं क्योंकि अब्बा पहर दिन चढ़ने से पहले ही नौकरी पर चले जाते थे। अम्मां सीना पिरोना ले के बैठ जातीं। मैं भैया को ले के कहीं मुहल्ले में निकल गयी या दरवाजे पर जो इमली का दरख्त था, वहीं चली गई। हमजोली लड़कियां लड़के जमा हुए। भैया को बिठा दिया, खुद खेल में लग गई। हाय, क्या दिन थे, किसी बात की फिक्र ही न थी। अच्छे से अच्छा खाती थी और बेहतर से बेहतर पहनती थी।

हमजोली लड़के लड़कियों में तो कोई मुझे अपने से बेहतर नजर न आता था। दिल खुला हुआ न था, निगाहें फटी हुई न थीं। जहां मैं रहती थी, वहां कोई मकान मेरे मकान से ऊंचा न था। सब कोई एक कोठरी या खपरैल में रहते थे। मेरे मकान में आमने सामने दो दालान थे। बड़े दालान के आगे दो खपरैली कोठरियां थीं। सामने दालान के एक बावरचीखाना था, दूसरी तरफ कोने का जीना। कोठे पर एक खपरैल, दो कोठरियां थीं। खाना पकाने के बरतन जरूरत से ज्यादा। दो चार दरियां, चांदनियां भी थीं। ऐसी चीजें मुहल्ले के लोग हमारे घर से मांगने आते थे।

हमारे घर में भिश्ती पानी भरता था। मुहल्ले की औरतें खुद ही कुएं से पानी भर लाती थीं। हमारे अब्बा जब घर से वर्दी पहन कर निकलते तो लोग झुक झुक कर सलामें करते। मेरी अम्मां, डोली पर सवार होकर जाती थीं और पड़ोसिनें पांव-पैदल।

सूरत शक्ल में भी मैं अपनी हमजोलियों से अच्छी थी। हालांकि खूबसूरती में मेरी गिनती नहीं हो सकती, मगर ऐसी भी न थी जैसी अब हूं। खुलती हुई चंपई रंगत थी। नाक नक्शा भी खैर, कुछ ऐसा बुरा न था। माथा किस कदर ऊंचा और आंखें बड़ी बड़ी। बचपन के फूले-फूले गाल थे। नाक अगरचे सुतवां न थी, मगर चपटी और पहियाफिरी भी न थी। डील-डौल भी उम्र के मुताबिक अच्छा ही था, अगररचे अब वैसा नहीं रहा। नाजुकों में मेरा शुमार न तब था, न अब है। इस किता पर पांव में लाल गुलबदन का पायजामा, छोटे छोटे पायलों को, टुइल का नेफा, नेनून की कुर्ती, तनजेब की ओड़नी। हाथों में चांदी की तीन-तीन चूड़ियां, गले में तौक, नाक में सोने की नथनी। और सब लड़कियों की नथनियां चांदी की थीं। कान अभी ताजे-ताजे छिदे थे। इनमें सिर्फ नीले डोरे पड़े थे। सोने की वालियां बनने को गई थीं।

मेरी शादी, मेरी फूफी के लड़के साथ ठहरी हुई थी। मंगनी नौ बरस में ही हो गई थी। अब उधर से शादी का तकाजा था। मेरी फूफी, नवाबगंज में ब्याही हुई थीं। फूफा जमींदार थे। फूफी का घर, हमारे घर से ज्यादा भरा पूरा था। मंगनी होने से पहले, मैं कई मर्तबा अपनी मां के साथ वहां जा चुकी थी। वहां के कारनामे ही और थे। मकान तो कच्चा था, मगर बहुत बड़ा, दरवाजे पर छप्पर पड़े थे। गाय, बैल, भैंसें बंधी थीं। घी, दूध, दही की इफरात थी, अनाज की कसरत। भुट्टों की फसल में, टोकरों भुट्टे चले आते थे। कतारों की फांदियां पड़ी हुई थीं। ऊख के ढेर लगे हुए थे, कोई कहां तक खाए ?

मैंने अपने होने वाले दूल्हा को भी देखा था, बल्कि साथ-साथ खेली भी थी। अब्बा पूरा जहेज का सामान कर चुके थे, कुछ रुपयों की और फिक्र थी। रजब के महीने में शादी मुकर्रर हो गई थी।

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