उमाशंकर की कहानी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :फरवरी 2017
बिहार के औराही हिंगाना में उमाशंकर का जन्म हुआ और एक टूरिंग टॉकिज में उसने पहली बार एक फिल्म देखी। जमीन पर बैठा वह परदे पर प्रस्तुत दुनिया में खोया हुआ था कि एक बिच्छू ने उसे काटा, इत्तेफाक से उसकी चीख ही मध्यांतर हुआ था और बिच्छु कुचल दिया गया। लेकिन ‘सनीमा’ का जहर उसकी रगों में हमेशा के लिए समा चुका था। घर पर हुई पिटाई उसे दर्द ही महसूस नहीं हुआ क्योंकि वह एक रहस्यमयी तरंग पर सवार था। चलती फिरती बोलती गाती हुई छायाएं उसके सोच पर सवार थी। पिटाई के दरमियान फिल्म के एक हास्य दृष्य की स्मृति के कारण वह ठहाका लगाकर हंस पड़ा और इस ढिठाई के कारण पिटाई और जोर से जारी रखी गई। उसके आंसू बहने तथा दर्द से चीखने पर ही बंद हुई। यह देहाती दंड विधन है कि पिटने वाले की चीख कोस दो कोस तक सुनाई पड़नी चाहिए और वृक्षों पर बैठे हुए परिंदे डरकर उड़ जाने चाहिए।
इस कांड में पुरुष भूमिका समाप्त होने पर मां ने चूना और हल्दी का लेप जख्मों पर लगाया और मुंह से फूंकती रही कि गर्म लेप से जलन होती ही होगी। माताओं के जीवन में फूंकना उसके जीवन राग का हिस्सा है, कभी चूल्हे में फूंक मारती है, कभी जलन से बचने के लिए। ऐसा करते-करते वे स्वयं में फूंकनी बन रह जाती है और चूल्हे चक्की की जलन उन्हें नहीं होती। उसी दौर में एक रूढ़िवादी और विचारहीन सरकार ने पोस्टर जारी किया ‘बेटियां नहीं बचाओगे तो रोटियां कौन बनाएगा।’ नारी का इससे अधिक क्या अपमान हो सकता है कि वह महज रोटियां बनाती रहे या बच्चे जनती रहे।
बहरहाल बालक उमाशंकर ने टूरिंग टॉकीज के ऑपरेटर की खूब खिदमत की क्योंकि उसके अज्ञान की यह हद थी कि वह मशीन ऑपरेटर को ही फिल्मकार समझ बैठा। ऑपरेटर रोजीरोटी की खातिर ही मशीन चलाता है और अपने काम के दोहराव के कारण उससे ऊबा हुआ होकर नफरत भी करने लगता है।
ऑपरेटर ही उमा को ज्ञात हुआ कि एक सेकंड में चौबीस फ्रेम चलती हैं। उसने एक कटी हुई फ्रेम उमा को भेंट स्वरूप दी और उमा ने उसे ताबीज में लगा दिया। एक बार उसका ज्वर कई दिनों तक नहीं उतरा तो मां ने किसी बाबा से ताबीज लिया था। अब उस ताबीज में रहस्यमय मंत्रा के साथ फिल्म की फ्रेम भी जुड़ गई और वह उमा का जीवन मंत्र हो गया। उन दिनों उस पर संख्या चौबीस का जुनून सवार था। यहां तक कि सब्जी खरीदते समय उसने चौबीस लौकी खरीद ली और दंड स्वरूप उसे कई दिन तक लौकी ही खानी पड़ी। लौकी से नपफरत के कारण यह शाकाहारी मांस मछली खाने लगा। परिणामस्वरूप वह इतनी बार दंडित हुआ कि उसका बचपन जख्मों से भर गया जिनकी टीस उसे आजीवन होती रही। आकाश में बादल छाते ही टूट कर जुड़ी हड्डियों में दर्द की लहर जाग जाती है। सावनी के पौधे घटा छाते ही फूल खिल उठते हैं। अब कोई बताए कि जमीन में जडे़ हो जिस पौधे की, आकाश में बादल छाते ही क्यों उसमें फूल लहलहाने लगते हैं। शयाद यह प्यास का रिश्ता है। ‘‘सूखे गले को तर कर लेने मात्र से प्यास बुझती नहीं।’’
स्नातक होने के बाद उमाशंकर ने परिवार को बगैर बताए ही पूना फिल्म संस्थान में दाखिले का परचा भेज दिया था। वह स्वयं भी अपने चुने जाने पर आश्चर्यचकित था। संभवतः सत्रुधन सिन्हा के बाद वह दूसरा बिहारी था। जिसे यह गर्व प्राप्त हुआ लेकिन शीघ्र ही यह जानकारी भी मिली कि बोधगया की सुमन दुबे को भी दाखिला मिला था। यह उन कस्बों की अप्रकाशित अखबार की सुर्खियां थी। ग्रामीण क्षेत्र की बोलियां होती हैं, उनकी जबान लंबी और कान हमेशा खड़े होते हैं। महानगरों के पास सामूहिक संवाद की यह सहुलियत नहीं होती। वहां तो ताउम्र पड़ोसी भी एक दूसरे से अनजान बने रहते हैं। महानगरों में सभी अपने-अपने अजनबियों के बीच उम्र गुजार देते हैं। और हाउसिंग कालोनियों में गेट के पास लगे नोटिस बोर्ड पर किसी पड़ोसी के गुजर जाने की खबर पर भी उड़ती नजर ही डाली जाती है।
दोनों ही परिवारों में सारा दोष दिया गया शैलेंद्र की फणीश्वरनाथ रेणु की कथा पर आधरित फिल्म ‘तीसरी कसम’ को। अगर ऐसा ही था तो उमा गाड़ीवान हीरामन बन जाता और सुमन हीराबाई। सुमन की मां को यह चिंता थी कि पटना से पूना सीधे रेलगाड़ी जाती है या गाड़ी कहीं बदलनी होती है। इस गाड़ी बदलने में ही कई बार सामान छूट जाता है और कोई यह सामान लौटाता भी नहीं। सुमन का परिवार तो जिद पर अड़ गया कि बिटिया को पूना नहीं भेजेंगे। अब उसे पूना में सनीमा नहीं वरन अपनी मां से घर गृहस्थी चलाना सीखना चाहिए। उसके पिता तो सजातीय वर की तलाश भी प्रारंभ कर चुके थे लेकिन उन दिनों बिहार में दहेज की रेटलिस्ट जारी हो चुकी थी और आई.ए.एस अफसर के लिए डॉक्टर और इंजिनियर से अधिक दहेज मांगा जाता था। सुमन के दहेज की चिंता थी, लेकिन वह सरकारी अनुदान पर शिक्षा लेने जा रही थी, अतः सारा विरोध ऊपरी मन से किया जा रहा था। इस तरह दहेज की कुप्रथा के भय ने ही सुमन के लिए पूना फिफल्म संस्थान जाना संभव किया। कभी-कभी कुरीतियों से भी लाभ मिलता है। औराही ग्राम से उमा पटना के लिए बस पर सवार हुआ। सारे रास्ते जहां भी मुसाफिर दिख जाता, बस रुक जाती थी। अतः इस तरह के कई अनधिकिर्त स्टॉप पर रूकते रूकते बस इतनी देर से पहुंची कि उमाशंकर को दौड़ कर चलती ट्रेन में सवार होना पड़ा। महिलाओं की चीख से उसे भान हुआ कि वह महिलाओं के कंपार्टमेंट में आ गया है। सुमन ने चैन खींचने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उमा ने उसका हाथ पकड़ लिया, सुमन ने उस शोहदे के गाल पर थप्पड़ मार दिया। उसने कहा कि चलती टेªन में सवार होने की बदहवासी में उससे चूक हो गई है और उसका पूना पहुंचना आवश्यक है। सुमन ने उसके खुले हुए बैग से गिरा पूना फिल्म संस्थान का फॉर्म देखा और अन्य महिलाओं को दिलासा दिया कि अगले स्टेशन पर यह दूसरे डब्बे में चला जाएगा महिलाएं उसे दंडित करना चाहती थी लेकिन सुमन के बीच बचाव से वह पिटने से बच गया। सुमन पर भी महिलाओं को क्रोध आ गया कि थप्पड़ मारने वाली पूना संस्थान का नाम सुनते ही उसकी हिमायती हो गई।
अगले स्टेशन पर उमाशंकर के साथ सुमन ने भी अपना डब्बा बदला। इस डिब्बे में सारे यात्राी बिहारी थे और अरसे से मुंबई में रोजीरोटी कमा रहे हैं। कुछ ने भैंस पाली और दूध का कारोबार किया। मुंबई की सारी ईमारतों में सुरक्षा कर्मचारियों को रात बारह से सुबह पांच बजे तक चाय पिलाने का कारोबार चल पड़ा। रास बिहारी ने पहले यह काम अकेले ही किया लेकिन कारोबार के चल पड़ते ही उसने कुछ सेवक भी रख लिए और रातोंरात यह कारोबार फैलता ही गया।
एक बिहारी पनवाड़ी सुरेंद्र चौरसिया ने जुहू पर समुद्र निकट ही एक पान की दुकान खोली और कई लोग इतने आदी हुए कि अपने नौकरों को भेजकर उससे पान मंगाने लगे। एक दौर में अभिनेता शशिकपूर को भी उसी दुकान से पान खाने का शौक सवार हुआ। एक एक्साइज अपफसर को संदेह हुआ कि चौरसिया पनवाड़ी अपने कत्थे में अफीम मिलाता है और उसने दबिस भी डाली लेकिन रसायनशाला से रपट आई कि यह कत्था मलाई में बनाया गया है। यह तो स्थापित सत्य है कि दूध में एक तत्व चिंता के सेल्स को सुस्त कर देता है। अनिंद्रा का रोगी अगर थोड़े-थोड़े अंतराल से एक-एक कप दूध का सेवन करे तो चौथे कप तक नींद आ ही जाती है।
यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि नदियों के डेल्टा में बसे बिहार की जमीन अत्यंत उर्वरक है, लेकिन जाने क्यों बिहारी लोग अन्य प्रान्तों में जा बसते हैं। विगत दशकों की आई.ए.एस.सूची में बिहार के छात्रों का प्रतिशत अच्छा खासा रहा है। पंजाब की फसलों को काटने के लिए बिहार से ही लोग बुलाए जाते हैं। किसी अदृश्य जंजीर ने बिहार को जकड़ रखा है। हर देश में गरीबी का बाकायदा उत्पादन होता है लेकिन बिहार में यह कार्य बड़े सुचारू रूप से किया गया है। हद तो यह है कि किसी भी प्रान्त से आए व्यक्ति को मुंबई में बिहारी कहकर ही संबोधित किया जाता है। सुप्रसिद्ध फिल्मकार गीतकार शैलेंद्र के पिता और दादा बिहार में ही जन्मे थे। अतः आश्चर्य नहीं कि फणीश्वरनाथ रेणु की ‘तीसरी कसम’ आधरित फिल्म उन्होंने रची। पटकथा लेखक नवेंद्रु घोष का यह कमाल है कि तीस पृष्ठ की कथा पर उन्होंने लगभग तीन घंटे चलने वाली सर्वकालीन महान फिल्म लिखी। साहित्यिक कृति पर फिल्म पटकथा लिखने का आदर्श बन गई है ‘तीसरी कसम’।
लेटने से उकताया हुआ उमाशंकर एक डब्बे से दूसरे डब्बे में जाने की सहूलियत के कारण कई डब्बों की यात्रा करके लौटा। रास बिहारी ने कहा ‘भइये, ट्रेन में दौड़ लगाने पर भी तुम हम सबसे पहले मुंबई पहुंचने से रहे, काहे को अपने को थका रहे हो।’ उमा को लगा कि बड़ी गहरी बात है यह। कितने ही लोग मंजिल पर पहले पहूंचने का प्रयास वैसा ही करते है जैसा वह डब्बे दर डब्बे चहलकदमी करके लौटा है। उमाशंकर ने महसूस किया कि हर बिहारी अपने बिहार को छोड़कर अन्य सारी बातों को जानता है। इसी कारण उमा ने उन्हें अपने पूना फिल्म संस्थान जाने की बात छुपा ली अन्यथा वे ठेठ बिहारी उसे फिल्म शास्त्रा की भी शिक्षा दे देते। इस रेल के डिब्बे में नन्हा बिहारी भी एक सहयात्री ही था। सफर लंबा था लेकिन साथी मजेदार तथा दिलदार थे। उन्होंने उमा और सुमन को अपने घर से लाए डिब्बे खोलने ही नहीं दिए। उनका कहना था कि पूना के हॉस्टल में ये डिब्बे खोलना और मां के हाथ का बना भोजन करने पर मां से दूर रहने की यंत्राणा का अहसास कम होगा। दरअसल अम्लीकल कार्ड पर भी कमी पूरी तरह कटती नहीं है।
सहयात्रियों ने सामान समेटना शुरू किया क्योंकि गाड़ी मुंबई की ओर तीव्र गति से भाग रही थी। उमा ने खिड़की से देखा तो बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियां रोशन थी और मुंबई हजार आंखों वाले दैत्य की तरह प्रगट हो रहा था। वह भीतर ही सहम गया और उसे लगा कि फिल्मकार बनने की महत्वाकांक्षा उसे सीधे इस दैत्य की बांहों में भेज रही है। पास बैठी सुमन को भी शायद वैसा ही भय लग रहा था और उसने उमा का हाथ पकड़ लिया। हाथों में ऊगे कांटे काटों से उलझ गए और बांह नागफनी की तरह हो गई। तभी रेल धीमी गति से आकर समुद्र के ऊपर बने पुल से गुजरने लगी तो उसकी लय और ध्वनि में भी अंतर आ गया। रेलवे ट्रैक की एक और झोपड़पट्टियों की कतार है और कुछ लोग लोटे लिए एक ओर जा रहे है। क्षण भर के लिए उन्हें भरम हुआ कि वे बिहार की और लौट रहे हैं। एक पुल के नीचे से गुजरती हुई एक बैलगाड़ी ने इस भरम को मजबूत बनाया। सचमुच अनंत भारत के हर क्षण में अनेक शताब्दियां गलबहियां करते महसूस होती है। सूर्य उगने के पहले की आभा से आसमान नहाता सा लगा। कई स्टेशन गुजर रहे थे लेकिन उमा उनके नाम नहीं पढ़ पा रहा था। गाड़ी की गति धीती होने लगी और मुंबई के निकट आने के बावजूद रेलवे कम्पार्टमेंट में बिहार अपने ठेठ देशीपन के साथ मौजूद था।
रास बिहारी ने उन्हें कुछ दिन मुंबई में रहने का निमंत्रण भी दिया, लेकिन कॉलेज में दाखिले का यह अंतिम दिन था। बिहार की बाहों से छूटने का और कोई रास्ता उसे नजर नहीं आया। रेलवे स्टेशन पर चहल-पहल थी और सभी ने एक-दूसरे का सामान उतारने में मदद की। रास बिहारी ने उन दोनों को पूना जाने वाली गाड़ी में सवार किया और अपने पते का मुड़ा हुआ कागज उमाशंकर के हाथ में थमा दिया। उसने दो बड़ा पाव खरीदकर उन्हें दिया। इस विचित्र शहर में कम पैसों से भी भोजन खरीदा जा सकता है और पांच सितारा होटल में पांच हजार का बिल अदा करके भी खाली पेट उठने का एहसास होता है। पूना तक के सफर में किसी भी सहयात्री ने उनसे कोई बात नहीं की। मुंबई के लोग अजनबी लोगों से बात नहीं करते और बिहारी इतना अधिक जानना चाहता है कि वह पेट में पच रहे अन्न तक की खबर रखना चाहता है, शब्द की डोर पकड़कर आपके अवचेतन में पैंठना चाहता है। पास बैठे लोगों की इस कदर अजनबीयत से भी उसका मन खिन्न हो रहा था। उन लोगों की बातों से मालूम पड़ा कि कई लोग रोज पूना से मुंबई आकर किसी दफ्तर में नौकरी करते हैं और रोज अपने घर लौटते हैं गोया कि प्रतिदिन आठ घंटे सफर में और आठ घंटे चाकरी में गुजरते हैं। चार लोगों ने अपने घुटनों पर अपना ब्रीफकेस रखा और ताश के पत्तों से रमी खेलना शुरू कर दिया। उनके चेहरों पर सोलह घंटे की थकान का कोई चिन्ह नहीं दिख रहा था और वे सफर में उतने ही सहज थे जितने सामान्य जीवन में लोग होते हैं। ऊब का चिन्ह कहीं नहीं था। यह जीवटता मुंबई सिखाती है।
पूना पहुंचकर उमाशंकर और सुमन लॉ कॉलेज रोड पर स्थित पूना फिल्म संस्थान पहुंचे। परिसर में खड़ी लड़कियों से मिलने सुमन गई और उन्होंने उसकी सहायत की। उमाशंकर के हाथ में टीन का ट्रंक देखकर कुछ छात्रों ने उसका उपहास किया। दफ्तर का पता पूछने पर उमाशंकर को जो मार्ग दिखाया, वह सीधे शौचालय जाता है। उमा इस व्यवहार से रुआंसा हो गया। इतने लंबे सफर की थकान के ऊपर यह निर्मम उपहास उसे छलनी कर गया। मन में आया कि अपने गांव लौट जाए। उसी समय एक सांवला सा व्यक्ति उसके पास आया और उसे अपने साथ ले गया। उसने सारी लिखा पढ़ी पूरी कराई और उसे साहस दिया। बाद में उमाशंकर को मालूम पड़ा कि वह व्यक्ति फिल्म आर्काइव्स के शिखर अधिकारी पी.के.नायर थे। इसी संस्थान में छात्र रहे शिवेंद्र सिंह डूंगरपूर ने उनके जीवन पर ‘द सल्युलाईड मैन’ नामक वृत्तचित्र बनाया था जिसे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में सराहा गया और पुरस्कृत किया गया। उमाशंकर को हॉॅस्टल में कमरा आबंटित हुआ और उसका रूम पार्टनर अरुण नाहटा था जिसके पिता और चाचा ने सी ग्रेड सेक्सी फिल्म बनाकर बहुत धन कमाया था और भारी सिफारिश से उसे दाखिला मिला था। नाहटा परिवार अपनी अभद्रता परोसने के व्यापार पर शिक्षा की मोहर लगाना चाहते थे। सामाजिक कुरीतियों के चिथड़े उतारने के नाम पर फिल्म में नारी शरीर प्रदर्शन को जायजा करार दिया जाता है। सरकार को शराब बंदी का मसीहा बनने पर अवैध् शराब बेचने वाले बहुत धन देते हैं। सतही सुधर के टोटके इस्तेमाल करना प्रतिक्रियावादी हुकूमतों का लोकप्रिय काम हमेशा रहा है। बहरहाल उमा ने अपना सामान करीने से लगा दिया और उसने राजकपूर और गुरुदत्त की फिल्म फेयर से काटी हुई तस्वीरें अपनी मेज के सामने टेप से चिपका दी। वह कैंपस घूमने के लिए निकला। उसे कक्षाओं में कल से जाना था। सारे कैंपस का चक्कर लगाकर जब वह अपने कमरे में लौटा तो उसने देखा कि उसका रूम पार्टनर नाहटा राजकपूर और गुरुदत्त की तस्वीरें निकालकर पफाड़ रहा है। उमा ने उसे रोकने की कोशिश की तो उसने उसे धक्का दिया और ठहाका लगाने लगा। उमा ने किसी तरह अपने क्रोध को पीया और अपना सारा सामान अपने ट्रंक में रखा और ट्रंक लेकर बाहर निकल आया। उसने हॉस्टल के अधिकारी श्री सुबोध सक्सेना से शिकायत की और अन्य कमरे में जगह देने का आग्र्रह किया। सक्सेना को उमा से हमदर्दी थी और नाहटा के बदतमीज होने की पूरी जानकरी थी, लेकिन फोटो फाड़ना ऐसा संगीन जुर्म नहीं था कि उसे निष्कासित किया जाता और उधर उमा की जिद थी कि वह किसी बरामदे या नौकरों के कक्ष में रह लेगा, लेकिन नाहटा के साथ नहीं रह सकता। सारे कैंपस में यह बात फैल गई और छात्र चटखारे लेकर इस मजेदार घटना पर बतियाने लगे। हॉस्टल में अंतिम वर्ष के छात्र को प्रीफेक्ट का दर्जा देकर एक बड़ा सिंगल रूम दिया जाता है। वहीं छात्र सत्यमोहन वर्मा ने सक्सेना साहब से निवेदन किया कि वे उमाशंकर को सहर्ष अपना पार्टनर बनाना चाहते हैं। एक अतिरिक्त बैड और टेबल कुर्सी की व्यवस्था कर दी जाए। सत्यमोहन की समझदारी से कैंपस की चाय की प्याली में आया तूफान रुका और उमा को सहारा मिला। सत्यमोहन उसके राजकपूर और गुरुदत्त प्रेम को समझ सकते थे। उन्होंने अपने कलेक्शन से दो तस्वीरें निकाल कर स्वयं उमा के टेबल के सामने टेप से चिपका दी। उन्होंने उमा को संस्था में पढ़ने के तौर तरीके से भी परिचित कराया और कुछ किताबें खरीदने तथा कुछ पुस्तकालय से लेने की बात भी कही। उमाशंकर और सुमन अगले ही दिन कक्षा में गए। प्रोफेसर ने सिनेमा विध पढ़ाते हुए विदेशी फिल्मों के उदाहरण भी दिए और संबंधित दृश्य दिखाए। उमाशंकर सिंह ने सवाल पूछा कि विध की बारीकी समझाते हुए विदेशी फिल्मों को दिखाने के बदले, अगर सत्यजीत रॉय, घटक, मृणाल सेन, शांताराम, महबूब, राजकपूर और गुरुदत्त की फिल्मों के दृश्य दिखाते तो बात सरल हो जाती। प्रोफेसर इस बात पर खफा हो गए कि ये किन फिल्मकारों की बात कर रहे हैं। उमा ने कहा कि ये भारतीय फिल्म विरासत को समुद्ध करने वालों की बात है और सत्यजीत रॉय की फिल्मों ने जितने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते, उतने तो कोई विदेशी फिल्मकार भी नहीं जीत पाया। प्रोफेसर ने उसे शट अप कहा और कक्षा से तूफान की तरह बाहर चले गए। सहपाठियों ने भी उमाशंकर का मखौल उड़ाया। सुमन भी इस युद्ध में कूद पड़ी और उसने कहा कि सभी छात्रों को भारतीय समाज के लिए फिल्में रचना है। उनसे कोई फ़्रेन्च या जर्मन फिल्म बनाने की उम्मीद नहीं रखता।
इसी तरह एक और कक्षा में फिल्म विध की एक महत्वपूर्ण किताब की जटिल भाषा पर सुमन ने कहा कि भारतीय छात्रों की आधी ऊर्जा तो अंग्रेजी भाषा समझने में खर्च हो जाती है। हमारी अपनी भाषा में इन किताबों के अनुवाद क्यों नहीं कराए जाते। प्रोफेसर ने सफाई दी कि इस विध की किताब भी भारतीय भाषा में नहीं है। इस विध का भारतीयकरण नहीं हो सकता। इस पर सुमन ने कहा कि दुनिया में सबसे अधिक संख्या में फिल्में तो भारत ही बनाता है और सबसे अधिक दर्शक संख्या भी भारत में ही हैं, लेकिन विध पर कोई किताब नहीं है। यह अतुल्य भारत में ही संभव है।
एक बार उमाशंकर सिंह ने अपने बिहारी भोलेपन के कारण अपनी जान जोखम में डाल दी। हुआ यूं कि दमोह का एक छात्र गिरिराज की गहरी मित्रता थी सागर की एक छात्र सावित्री से। दोनों ठेठ बुंदेलखंडी जो ठहरे। छात्राओं और छात्रों के हॉस्टल दूर थे, लेकिन मेल मिलाप चलता रहता था। शराब के शौकीन छात्रों का एक ठिया था। परिसर के निकट ही जहां सुरुर में डूबे छात्र अपनी प्रेम कहानियां सुनाते थे। ऐसे ही एक दौर में गिरिराज ने खंडवा के किसी रिश्तेदार कन्या से अपनी प्रेम-कथा सुनाई। किसी विवाह में उनकी भेंट हुई थीं। वे बिछुड़ गए और गिरिराज उसकी याद में एक फिल्मी सैड सांग सुनाते हुए फपफककर रो दिया। कुछ दिन बाद उमा से सावित्री की मुलाकात हुई और उसने पूछा कि आजकल गिरिराज उखड़ा क्यों रहता है। बेचारे उमा ने उसे खंडवा वाली लड़की से उनकी विवाह की बात छेड़ दी। अगली शाम गिरिराज हाथ में 9 इंच का चाकू लिए उमा को खोज रहा था। बड़ी कठिनाई से उमा को हॉस्टल के स्टोर रूम में छुपाया गया।
शांत होने पर गिरीराज ने बताया की उसकी खंडवा की प्रेम कथा काल्पनिक थी। उसने कई बार दमोह से बंबई यात्र खंडवा स्टेशन पर पकोड़ियां खाई थी। वह तो सावित्री से ही प्रेम करता हैं। कुछ छात्रों का दल सावित्राी को स्पष्टीकरण देने गया, लेकिन उसने उनकी अवहेलना कि कई बार छोटी बातों के दूरगामी परिणाम होते हैं। अनेक वर्ष बाद सावित्राी को कथा फिल्म बनाने का अवसर मिला, लेकिन उसने यह जानते हुए भी कि गिरीराज प्रवीण कैमरामैन है, उसी के प्रमुख सहायक नवरोज को अपनी फिल्म का सिनेमेटोग्राफर लिया और श्रेष्ठ छायांकन पुरस्कार भी नवरोज को मिला। इतना ही नहीं सावित्री ने कालांतर में नवरोज से विवाह भी कर लिया। उस रात मित्रों ने गिरिराज से कहा कि तुम अपनी काल्पनिक प्रेम-कथा में विरह का वर्णन करते हुए फूूटफूट कर रोये क्यों थे। गिरिराज का जवाब था कि काल्पनिक कहानी का विरह भी असली विरह की पीड़ा से कम नहीं होता। बात केवल दूसरे कैमरामैन को लेने पर ही नहीं थमी। बाद मेें गिरिराज रात दिन पीने लगा और उसका कैरियर ही तबाह हो गया। शराब के सुरुर में सुनाया गया एक अफसाना हकीकत में गिरिराज के प्राण लेकर ही खत्म हुआ और अर्थी उठते समय सावित्री का फूटफूट का रोना हृदयद्रावक था। मानव हृदय में उठती सुनामी को समझना ही कठिन है। विचारणीय यह है कि उमाशंकर के सिनेमा में इस अनुभव की तिलतिलाहट हमेशा मौजूद रही। इसके शमन के लिए उसने एक फिल्म भी बनाई जिसमें काल्पनिक प्रेम-कथा और यथार्थ की प्रेम-कथा सामानांतर प्रवाहित होती है और इस फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर असफलता कोई अफसाना नहीं बल्कि एक कड़वी हकीकत थी। यह उमा की हिमाकत थी कि उसने काल्पनिक कथा के नायक की शादी यथार्थ प्रेम-कथा की नायिका से करा दी। दरअसल लीक से हटकर कुछ करने की ललक मनुष्य से भारी मूर्खता करा बैठती है। वह इस तरह के रिश्तों में दर्शन के समावेश का अथक प्रयास करने लगता हैं दर्शन हमारी शरण स्थली है। साधरण सी बातों में दार्शनिकता का हवाला देना हमारा शगल है। इस शगल की जड़ें बहुत गहरी हैं। हजारों वर्ष से हमें यथार्थ जीवन में निहायत ही भौतिकवादी होते हुए भी स्वयं को अध्यात्मवादी साबित करने में ऊर्जा का नाश करते हैं। धर्म व्यवसाय ने यह प्रपंच रचा है। मनुष्य के तर्क और उसकी विचार प्रक्रिया को ही आत्मा कहा जा सकता है, लेकिन इस सरल सीधी सी बात को खूब उलझाकर आत्मा नामक रहस्य गढ़ा है ताकि इस अदृश्य अस्पर्श बात का अफसाना गढ़ा जा सके और आम आदमी को ठगा जा सके। हमने स्वंयभू साधूओं को महिला की साड़ी पहनकर भागते देखा है। उस भगोड़े ने हजार करोड़ का व्यवसाय खड़ा कर दिया और उनके व्यवसाय तकनीक को किसी व्यवसाय प्रबंधन पाठशाला में पढ़ाया नहीं जाता। मृत्यु के निर्मम सत्य को बौना साबित करने के लिए भी अजर-अमर आत्म का सहारा लिया गया है। विचार और ध्वनि ही सचमुच में अजर और अमर है। ध्वनि की तरह खामोशी भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करती है।
छोटे शहरों के मध्यम वर्ग मोहल्लों में प्राय: कुछ अध्पकी प्रेम कहानियों का जन्म होता है और इनका अंत भी हमेशा एक सा होता कि कन्या का विवाह परिवार द्वारा तय किया जाता है तथा प्रेमी अपनी प्रेमिका की बारात को खाना परोसता है, जूठी पत्तले उठाता है। उसकी प्रेमिका विवाह की पेचीदा रस्मों के बीच अवसर निकाल अपने प्रेमी को यह विश्वास दिला देती है कि उसकी आत्मा में उसका प्रेम सदैव विद्यमान रहेगा और यह विवाह तो मात्र उसके शरीर का है। संभवतः इसी तथ्य के कारण यश चोपड़ा की ‘कभी कभी’ में नायिका अपनी सुहागरात को पति की बाहों में समाते हुए भी आत्मा में अपने प्रेमी को अक्षुण्ण रखते हुए उसका लिखा गीत गाती है ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।’ बंगाली छात्राप्रथमेश सगर्व यह कहता था कि वह एक दर्जन भर कन्याओं की आत्मा में अक्षुण्ण है। विफल प्रेम प्रसंग पर उसके विचार उसे डॉक्टरेट दिला सकते थे। हर प्रेम प्रसंग के प्रारंभ में उसे यह भय लगता था कि इस बार की प्रेम कथा का अंत शादी में हुआ तो वह बर्बाद हो जाएगा। विपफल प्रेम के रस्सी पुल पर ही उसका इरादा जीवन बिताने का था। प्रेम में सफलता से भयभीत प्रथमेश ने हॉस्टल का कमरा नहीं लेते हुए लॉ कॉलेज रोड पर एक कमरा किराए पर लिया था। वह पलंग के बदले ढीली रस्सियों वाली खाट पर सोता था। उस खटिया पर बैठना तक किसी को गंवारा नहीं था। प्रथमेश का दावा था कि इस ढीली रस्सियों वाली खाट में सोना उसे उसकी मां की गोद में सोने का आनंद देता है। वह अपने को मां की गोद में ही महफूज समझता था। उमाशंकर ने कहा कि ‘हे मातृ प्रेमी बालक तू पैदा ही क्यों हुआ, उसी गोद या कोख में बरसों सुरक्षित क्यों नहीं रहा।’ प्रथमेश ने उमा को मां की गाली दी और भाग गया। वह बंगाली उच्चारण में देशी गालियों देता था। वह गालियों को हथियार के साथ सुरक्षा कवच की तरह भी इस्तेमाल करता था।
सभी छात्रों को पंद्रह दिन में अभ्यास फिल्म बनने के लिए कहा गया। उस दौर तक डिजिटल टेक्नोलॉजी नहीं आई थी। संस्थान के पास कैमरे थे और सीमित मात्र में रॉ-स्टॉक दिया जाता था। फोटोग्राफी का अभ्यास करने वाले छात्रा को निर्देशन विध अध्ययन करने वाला छात्राअपने साथ जुड़ने की प्रार्थना करता था। हर निर्देशक को अपना यूनिट बनाना होता था। उमाशंकर के साथ काम करने को कोई छात्र तैयार नहीं क्योंकि वह अंग्रजी में स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर पाता था। गिरिराज कांड के बाद उमाशंकर को अघोषित निष्कासन झेलना पड़ रहा था। दी गई अवधि समाप्त होने को थी और उमांशकर के पास न पटकथा थी, ना ही कोई कलाकार था। असफलता और संस्था से निष्कासन के भय ने उसे जड़वत कर दिया था।
सुमन अपनी अभ्यास फिल्म बनाने में इस कदर डूबी थी कि उसे उमा का ख्याल तक नहीं रहा। हताश सा उमाशंकर विजडम ट्री के नीचे बैठा अपनी हताशा में गहरे डूबता जा रहा था। वृक्ष पर बैठे पक्षी की बीट उसके कंधे पर गिरी। वह क्रोध् में पागल सा हो गया। और उसने एक पत्थर उठाकर वृक्ष पर मारा, पंछी उड़ने लगे, कुछ पत्ते भी नीचे गिरे और उमा के मन में एक स्मृति कौंधी। उसे याद आया कि बोधगया में महात्मा बुद्ध ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में एक वृक्ष के नीचे बैठते थे। उस वृक्ष को अक्षुण्ण रखा गया है। उसने पूना के विजडम ट्री के कुछ शॉट्स स्वंय ही लिए क्योंकि कोई कैमरामैन उसके साथ काम नहीं करना चाहता था। स्वाभाविक प्रकाश में ही उसने विजडम ट्री के अनेक शॉट्स लिए। उस समय तक सुमन अपनी फिल्म पूरी कर चुकी थी और उसने अपनी टीम से अनुरोध् किया कि उमा के लिए काम करे। किसी तरह साधन जुटाकर उमा और सुमन बोधगया गए और उस प्रसिद्ध वृक्ष के शॉट्स लिए। रेड-क्रॉस संस्था के हेलीकॉप्टर का उपयोग करके भी उमा ने शॉट्स लिए। संपादन कक्ष में उमा और सुमन ने पूना संस्थान के विजडम ट्री और बोधगया के वृक्ष के शॉट्स जोड़कर ‘दो वृक्षों की कथा’ नामक फिल्म पूरी की। कुछ दिन बाद संस्थान के ऑडिटोरियम में सभी छात्रों और शिक्षकों की मौजूदगी में छात्रों की दो अभ्यास फिल्में दिखाई गई जो उच्च गुणवत्ता की फिल्में थी। ऑडिटोरियम में प्राचार्य ने इन फिल्मों की प्रशंसा की। उमा को अब अपनी असफलता का विश्वास हो गया। घोषणा हुई कि इन फिल्मों को दूसरे और तीसरे क्रम पर पुरस्कृत किया जाएगा और प्रथम आने वाली फिल्म अब दिखाई जाएगी। ऑडिटोरियम में अंधकार किया गया और उमाशंकर की ‘दो वृक्षों की कथा’ दिखाई गई जिसमें कोई संवाद नहीं था, लेकिन पार्श्व संगीत था और परिंदे दोनों वृक्षों को जोड़ रहे थे। फिल्म समाप्त होने पर सन्नाटा छाया था। नायर साहब ने उठकर तालियां बजाई और पूरे ऑडिटोरियम में सबने खड़े होकर तालियां पीटी। उमाशंकर की आंखों से आंसू बहने लगे जिन्हें सुमन ने अपने रुमाल से पोछा। सभी छात्रों ने बधई दी। नाहटा ने अपने चमचो से कहा कि ‘क्या वाहियात फिल्म है, दरख्तों के गिर्द तो नायक-नायिका रोमांस करते हैं और बिहारी चूतिया की पिफल्म में दरख्त बातें करते हैं।’
सुमन ने अपनी फिल्म का विषय लिया बिहार के एक गरीब वर्ग को जो चूहे मार खाता हैं। सुमन ने इस विषय में निहित मॉराबिडिटी से बचाते हुए अत्यंत कलात्मक फिल्म गढ़ी और उस जाति की गरीबी तथा मानवीय पक्ष को प्रस्तुत किया। इसे दूसरा पुरस्कार दिया गया। इस तरह पूना फिल्म संस्थान में उस वर्ष बिहार का डंका ही बजा। एक विद्यार्थी वर्ग जो उमाशंकर के अंग्रेजी के अल्पज्ञान और उसके वस्त्रा इत्यादि के कारण उसका मखौल उड़ाता था, अब भी उसकी प्रशंसा नहीं करना चाहता था और न ही उन्हें अपना मित्र समझता था। अब उनके मन में दोनों के लिए हिकारत की जगह ईर्ष्या ने ले ली। अपने इस सामाजिक बहिष्कार के कारण सुमन और उमाशंकर एक दूसरे के निकट मित्र बन गए।
नायर साहब इन दोनों को ही पसंद करते थे तथा इन्हें विश्व की चुनिन्दा फिल्में दिखाते थे। नायर ने ही उन्हें समझाया कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय फ्रंस पर हिटलर का अधिकार होने बाद किस तरह उनके विरोध् की फिल्में चोरी छुपे बनाई जाती थी। एक फिल्म में क्रांतिकारी दल के लिए गुप्त रूप से हथियार ले जाने वाले ट्रक में गोश्त से भरे बारदानों के पीछे हथियार छुपाकर ले जाया जा रहा था। विपरीत दिशाओं से आने वाले दो ट्रक पास से गुजरे और एक ट्रक के कारण ट्रक के तारपोलिन में छेद हो गया जिसमें से गोश्त के टुकड़े सड़क पर गिरने लगे और कुत्ते ट्रक के पीछे दौड़ने लगे और इसी कारण पुलिस ने ट्रक रुकवा कर पूरी तलाशी ली और हथियारों का जखीरा पकड़ा गया। एक और इसी तरह की फिल्म में जर्मन सैनिक पेरिस के एक संग्रहालय से पेंटिंग को लेकर बर्लिन की ओर जा रहा था। देश प्रेमियों ने उस ट्रेन को रोका और पेंटिंग्स अपनी कब्जे में ले ली।
युद्ध पूरे यूरोप में हिटलर और नाजी अत्याचार के खिलाफ अनेक फिल्में बनी इसी तरह की एक फिल्म में यहूदी जाति के लोगों को यंत्रणा देने वाले एक कैंप में एक दुष्ट प्रवृत्ति के अफसर ने घोषणा की उसके जन्म दिन के उपलक्ष्य में वह कैदी को आजाद कर देगा जो उसके प्रश्न का सही उत्तर देगा। उसके जर्मन डॉक्टरों की महानता का राग अलापते हुए कहा कि उसकी एक आंख नकली है और जर्मन डॉक्टर का कमाल है कि नकली ऑख पहचान पाना असंभव है। उसने एक बृहद व्यक्ति को बुलाया जो यंत्राणा सहते सहते अधमरा हो चुका था। उस बृहद ने कहा कि जर्मन की बायी आंख पत्थर की है। सही उत्तर कैसे दिया, यह जानने के लिए प्रश्न पूछा गया तो उस बृहद ने कहा कि उस आंख में थोड़ी सी करुणा देखकर ही वह समझ गया कि यह असली आंख नहीं हो सकती।
उमाशंकर ने सुमन से कहा कि इसी शैली में हम अंग्रेजों के अत्याचार की फिल्में बना सकते हैं। सुमन का विचार था कि अंग्रेज कभी नाजी जर्मनवासियों की तरह बर्बर नहीं थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के वीरों को अलग किस्म के कष्ट दिए। बर्बरताओं की तुलना नहीं की जा सकती। नाजी बर्बरता के बारे में तो यह कहा जाता है कि उनके डॉक्टर कैदियों के टेस्टीकल्स निकाल देते थे, ताकि वे कभी संतान को जन्म ही नहीं दे सकें। नायर साहब ने उमाशंकर को समझाया कि संस्थान द्वारा आवंटित छोटे से बजट में इस तरह की फिल्म नहीं बनाई जा सकती। अंग्रेजों की भूमिका के लिए कलाकार भी नहीं मिलेंगे। उसे कुछ और सोचने की सलाह दी गई।
उन दिनों बिहार की शिक्षा पर विवाद चल रहा था। शिखर स्थान पाने वाले कुछ छात्र साधरण प्रश्नों का उत्तर भी नहीं दे पा रहे थे। यह प्रकरण सुमन और उमा के लिए निजी तौर पर बहुत दुखदायी था। उन्हें बिहार पर गर्व था। वे यह भी जानते थे कि पूरे देश में ही शिक्षा का बेड़ा गर्क हो चुका है, लेकिन बिहार प्रकरण को ही ज्यादा उछाला जा रहा था जबकि गुजरात से आया एक प्राध्यापक कक्षा में केवल चुटकुले सुनाता था। कालांतर में शिक्षा का सबसे बड़ा घोटाला भाजपा शासित मध्यप्रदेश में हुआ जिसे व्यापम घोटाला कहते हैं, प्राइवेट टूयूशनबाजी का कुटीर उद्योग पूरे राष्ट्र में चल रहा था। कुछ पालक अपने बच्चों को उन स्कूलों में दाखिला दिलाते थे। जिनसे उन्हें नियमित छात्र होने का प्रमाण-पत्र मिल जाता था और छात्र सभी विषयों की प्रायवेट ट्यूशन लेते थे। छोटे बच्चे अपने वजन से अधिक का बस्ता लादे स्कूल जाते थे। उन्हें कुबड़ा बनाया जा रहा था। बौने शासक यही चाहते भी थे। श्रीलाल शुक्ला के ‘राग दरबारी’ में प्रस्तुत शिक्षा संस्थान अब पूरे देश की हकीकत बन चुके थे। फिल्म के लिए तथ्य जुटाते समय उन्हें एक घटना की जानकरी मिली कि किस तरह एक प्रोफेसर ने दूसरे से आग्रह किया कि उसके नजदीकी की परीक्षा कॉपी में अंक बढ़ा दे। प्रोफेसर सुरेश चिटनिस अत्यंत आदर्शवादी थे, लेकिन अपने गहरे मित्रा का आग्रह टाल नहीं पाए। कुछ वर्ष पश्चात प्रोफेसर सुरेश चिटनिस आधी रात अपने मित्र के घर ये बताने आए कि उनके आग्रह पर जिस छात्र के अंक बढ़ाए थे, उसी छात्र ने जाने किस तरह एम.बी.बी.एस किया और एनेस्थीसिया में डिप्लोमा भी हासिल किया। उसी डॉक्टर ने सुरेश चिटनिस के नजदीकी रिश्तेदार को त्राुटिवश आवश्यकता से अधिक एनेस्थेशिया दे दिया और उसकी मृत्यु हो गई। उमाशंकर की इस फिल्म में नालंदा के पुराने वैभव को वर्तमान की शिक्षा से ही विरोधी चीजो का मुकाबला करने वाले शॉट्स भी समाहित किए गए।
उमाशंकर ने अपनी फिल्म नायर साहब को दिखाई तो उन्हें लगा कि संपादन की इतनी गलतियां उमाशंकर ने कैसे कर दी। उन्होंने उमाशंकर के शूट किए शॉट्स देखे और उन्हें पुनः संपादित किया। इस पूरी प्रक्रिया में यह बात उभरकर आई कि उमा की आंखों में कोई समस्या है। विशेषज्ञ ने परीक्षण के बाद निदान दिया कि उमा की दृष्टि धीरे-धीरे क्षीण हो रही है और यह रोग अनुवांशिक है। उमा की गुजश्ता सात पीढ़ियों में यह रोग किसी को रहा होगा और यह उमाशंकर का दुर्भाग्य है कि उसे यह लाइलाज रोग हो गया है। पूना के डॉ.एस.के. बिबड़वाई के आग्रह पर उमाशंकर के चेन्नई के शंकर नेत्र परीक्षण के समय सुमन सभी स्थानों पर उसके साथ गई। सुमन उसे दिलासा देती रही कि चिकित्सा विज्ञान इस रोग पर शोध् कर रहा है और इलाज के आविष्कार की संभावना है, लेकिन उमाशंकर को कोई भ्रम नहीं था। विचलित सुमन रोने लगी तो उमाशंकर ने उसे झिड़क दिया कि यूं टेसूआ बहाने की आवश्यकता नहीं है। उसे सहानुभूति प्रदर्शन में अपनी दृष्टि को हानि नहीं पहुंचाना चाहिए। उमाशंकर ने सुमन को उपन्यास ‘आइलैस इन गेजा’ की याद दिलाई। एक घायल और लाइलाज आंख को समय रहते नहीं निकाला तो स्वस्थ आंख अपनी सहोदर की पीड़ा से द्रवित होकर स्वयं काम करना बंद कर देती है और इस रोग को सिम्पफेथेटिक आप्थेलिमिया कहा जाता है। पूना संस्थान में इस रोग के उजागर होते ही सन्नाटा छा गया। यहां तक कि उमाशंकर का हमेशा मखौल उड़ाने वाले नाहटा तक ने उमाशंकर को प्रस्ताव दिया कि उसके इलाज का खर्च वह उठाने को तैयार है। उमाशंकर के लिए साथियों की यह दया सहना अत्यंत कठिन हो रहा था। नफरत से लड़ा जा सकता है और वह प्रेरणा भी देती है कि संघर्ष किया जाए, लेकिन दया प्रदर्शन मीठी कटार की तरह छाती में चुभती सी लगती है।
उमाशंकर ने अपने परिवार को पत्र द्वारा सारी बातें स्पष्ट कर दी और वहीं बने रहने का आग्रह भी किया। उमाशंकर ने अभिव्यक्ति के लिए सिनेमा का चुनाव किया था। जो ऑडियो विजुअल माध्यम है। अगर उसे कान का कोई रोग हुआ होता तो उसका सिनेमा और जीवन भी मूक फिल्म की तरह होता, लेकिन दृष्टि के जाने के बाद वह कैसे जिएगा, यही चीज उसे कचोटती रहती थी। उसकी स्मृति में ‘आवारा’ का स्वप्न दृश्य कौंध् गया जिस पर समय की धूल ने कोई प्रभाव नहीं डाला है। यह भी अजीबोगरीब बात है कि स्वतंत्रता संग्राम के हमारी ऊर्जा जिन सांस्कृतिक मूल्यों से प्राप्त होती थी, वे ही मूल्य स्वतंत्रता मिलने के बाद पहले दशक में ही काफूूर हो गए। यह संभव है कि महात्मा गांधी का कालखंड भी हमारा स्वप्न ही था और आजादी मिलते ही हम अपने स्वाभाविक टुच्चेपन पर लौट आए। हमारा पूरा इतिहास ही इस तरह के कुछ स्वप्न दृश्यों से उजास पाता रहा है अन्यथा वह अंधेरे की गोद में सोता रहा है। यह बात समझना कठिन है कि हजारों वर्ष पहले रची महान संस्कृति के वारिस होकर भी हम इस कदर बौने क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह महान संस्कृति भी हमारा कोई स्वप्न मात्रा है। हमारे धर्मिक आख्यान तो यह कहते हैं कि हमारा पूरा जीवन ही विष्णु भगवान का सपना मात्र है और भगवान विष्णु समुद्र तल में नागशैया पर लेटे है। आजकल हम रस्सी को ही सांप समझ लेते हैं और उसके द्वारा काटे जाने पर मर भी जाते हैं और पोस्टमार्टम में जहर भी नहीं मिलता। एक रात उमा ने कोई डरावना स्वप्न देखा और वह जाग गया। उसके कपड़े पसीने में तर थे, सांस लेने में परेशानी हो रही थी। वह कमरे से बाहर आया। पूनम की रात के उजास में उसने एक निर्णय लिया। आवश्यकता का जरूरी सामान बैग में डाला और दबें पांव बाहर आया। स्टेशन जाने की लिए उसे वाहन मिल गया। टिकट खिड़की पर उसने सबसे पहली आने वाली ट्रेन के गंतव्य स्थान तक का टिकट लिया और गाड़ी में सवार हो गया।
उमाशंकर ने देखा कि भागती ट्रेन से स्थिर वृक्ष भागते हुए लगते हैं। ठीक इसी तरह कहीं ऐसा तो नहीं कि समय स्थिर खड़ा है और हम ही भाग रहे हैं। उसे इसी आशय की लिखी जावेद अख्तर की नज्म याद आई। बहरहाल इस समय तो वह ही अपने आप से भाग रहा है, अपने शनै- शनै जाती दृष्टि में वह इन दृश्यों को कैद करना चाहता है ताकि अंध्त्व के दिनों में इनकी स्मृति के सहारे जी सके। जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ वह पढ़ चुका था और अब अपने ढंग से भारत खोज यात्र पर निकला है। उसे यह भी याद आया कि नेहरू की किताब लिखने के वर्षों बाद श्याम बेनेगल ने किताब से प्रेरित ‘भारत एक खोज’ में नेहरू के ही एक विचार को सुस्पष्ट रूप से सिनेमा के मुहावरे में प्रस्तुत करने के लिए धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंध युग’ का समावेश अपने वृत्तचित्र में किया गया था जबकि ‘अंध युग’ डिस्कवरी के बहुत बाद लिखा गया था।
पूना संस्थान में बिताए हुए दिनों के साथ अपने गांव तथा परिवार की याद भी उसे आई। उसका हाथ अपने ताबीज पर गया जिसमें उसने अपने गांव में आई टूरिंग टॉकिज के ऑपरेटर द्वारा दी गई फिल्म फ़्रेम को संजोये रखा है। उस फिल्म फ़्रेम ने उसका जीवन ही बदल दिया। पूना संस्थान में फिल्म विध का ज्ञान प्राप्त हुआ तो इस अनुवांशिक अंध्त्व की दस्तक ने सब कुछ नष्ट कर दिया। वह अंध्त्व आने के पहले अधिकतम जगहों को देखना चाहता था। अपनी आंखों से लिए गए चित्रों को याद के खाजा में जमा करना चाहता था ताकि बाद में उनकी जुगाली के सहारे जीवन चलता रहे। अब उसकी आंखों में लालच समा गया था, अधिकतम के लिए ऐसी व्यग्रता उसने पहले कभी महसूस नहीं की थी, लेकिन अब देखने की चाह ने उसे दबोच लिया है। यात्रा में यह द्वंद्व हमेशा बना रहता है कि अधिक देखूं या अधिक पढूं और इस द्वंद्व के कारण दोनों ही काम आधे अधुरे से होने लगे। उसने यह भी महसूस किया कि कुरुक्षेत्र में अर्जुन, हैमलेट और देवदास का भीतरी द्वंद्व में उलझे रहना सभी मनुष्य के भीतरी द्वंद्व का प्रतीक होने के कारण हमेशा प्रासंगिक बना रहता है।
उमाशंकर अपनी गंतव्य विहीन यात्रा से अब तंग आ रहा था। और उसके मष्तिस्क में धर्मवीर भारती की पंक्तियां कौंधी ‘भटकोगे बेबात कहीं, लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं।’’ उसने बिहार में अपने पुश्तैनी गांव जाने का विचार किया। वह बिहार के गांव औराही हिंगना पहुंचा जहां उसके दादा-परदादा निवास करते थे। उस ढहते से मकान में उसने अल्पतम सुविधओं के साथ जीने का प्रयास किया। उसका अपना परिवार तो पटना में बस गया था।
एक बार कई दिन तक बरसात हुई और बरसात के बाद खुली धुप में वह बैठ गया। अब भी वह पढ़ सकता था, लेकिन कई बार अक्षर धुन्दले दिखाई देते थे। वह समझ गया था कि पुश्तों से चला आ रहा अंध्त्व कुछ ही दिनों में उसको दबोच लेगा। इत्तेफाक से तलवा हटाने बुलाए मजदूरों को काम करते समय एक टीन का टंªक मिला। उमाशंकर ने उसे खोला तो किसी पूर्वज द्वारा संगीत लिपि में रचनाएं प्राप्त हुई जिनमें कुछ हाथ के लिखे हुए गीत मिले। उमाशंकर को लगा जैसे उसके हाथ का खजाना आ गया है। उसने एक दूकान से एक पुराना हारमोनियम खरीदा और अपनी आंखों से जाती रौशनी के दिनों में हारमोनियम पर वे गीत बजाए। कुछ युवा उनसे संगीत सीखने आने लगे और इस काम में उमा को आनंद आने लगा, साथ ही पैसे भी मिलने लगे। इस गीत संगीत का लोक रंग था और सुरों के सहारे ही वह अपने पूर्वजों से जुड़ भी रहा था। कुछ गीत ऐसे थे जिन्हें गाते समय उसकी आंखों से बरबस आंसू बहने लगते थे। मसलन ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक पल जैसे एक युग-युग बीते मोहे नींद न आई, पूछो न कैसे मैंने रैनबिताई... उसे लगा कि जीवन के इस पड़ाव पर उसे संपूर्ण सार्थकता मिल रही है और धीरे-धीरे आंख से ज्योति चले जाने का भय कम हो गया। उसे ‘जागते रहो’ के लिए शैलेंद्र के गीत की पंक्तियां याद आई ‘किरनपरी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियों के सहारे।’
मुंबई में सुमन को सितारों से समय ही नहीं मिल रहा था और पूना संस्थान में प्रवीणता के लिया गोल्ड मैडल का उद्योग में कोई मोल नहीं था। वह अपनी एक पटकथा निर्माता मनमोहन शेट्टी के दफ्रतर में छोड़ आई थी। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब प्रयोग के प्रति समर्पित शेट्टी साहब ने उसे नए कलाकारों के साथ फिल्म बनाने की इजाजत के साथ आवश्यक धनराशि भी उपलब्ध् कराई। पटकथा मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ से प्रेरित थी। पिफल्म की सराहना और व्यावसायिक सफलता से प्रेरित सुमन ने संत कबीरदास के जीवन पर पटकथा लिखी।
मनमोहन शेटटी फिल्म निर्माण का दायित्व अपनी पुत्रियों पूजा और आरती को सौंपकर एक अभिनव थीम पार्क की योजना में व्यस्त हो गए। एक दिन पिफल्म के एक गीत रचना के समय एक वादक ने उन्हें एक गीत सस्वर गाकर सुनाया और उन ध्वनियों ने उमाशंकर की स्मृति जगा दी क्योंकि यही धुन उमाशंकर गुनगुनाता रहता था। सुमन ने वादक से गीत का स्त्रोत जाना और उसी सूत्रा को पकड़कर उमाशंकर के पास जा पहुंची। उमाशंकर को आती हुई सुमन ऐसी दिखी मानो वह उसकी स्मृति संसार से निकलकर चली आ रही हो। उसने आंखे मलीं और दोबारा देखा, इस बार सुमन की छवि धुंधली सी नजर आई, ज्यों ज्यों सुमन निकट आती गई नजर कमजोर होती चली गई और उसे लगा कि उसने सुमन को शिद्दत से याद किया और इसी ताकत से रचा सुमन का भरम उसे नजदीक आता लगा। वह बुरी तरह से घबरा गया और वहां से भागने लगा। आश्चर्यचकित सुमन उसके पीछे दौड़ी। उमा ने पूरा जोर लगाकर दौड़ना प्रारंभ किया। उसका एक पैर एक पत्थर पर पड़ा और वह गिर पड़ा। सुमन ने उसका सिर अपनी गोद में रखा और उसके माथे पर उमड़ आए गुंबद को चूमा, उमा ने कहा ‘‘तुमने भी मेरे माथे पर थूक दिया’’ और वे एक दूसरे से चिपक गए। उमा और सुमन घर आए। सुमन ने उसके गीत उसे सुनाकर उसे हौसला दिया। उमा और सुमन का रिश्ता परिभाषाओं के परे जाकर भावों का कैलिडियोस्कोप बन चुका था। वह उसे मां की तरह भी लगती थी, दोस्त की तरह भी, पत्नी की तरह भी।
सिलसिला कुछ इस तरह से प्रारंभ हुआ कि उमा जानना चाहता है कि वह कैसी लग रही है। अपना स्वयं का वर्णन कैसे करती सुमन, अतः सुमन ने अपने हाथ से उमा का हाथ लिया और उसे अपने शरीर पर स्पर्श कराया। स्पर्श ने विद्युत सी तरंग को जन्म दिया। उंगलियों ने आंखों का काम किया और अवचेतन में चित्र उभर आए। उसी समय ‘शरीर सुगंध्’ गीत का जन्म हुआ। उमा के फिल्मकार को स्वप्न भंग का दंश एक पल चैन नहीं लेने देता। सुमन ने सुझाया कि वह एक प्रेम कहानी के मोटिफ पर एक ऑपेरा का सृजन करे जिस पर वह मुंबई जाकर फिल्म बनाएगी और पहला ही टाइटल होगा ‘ए फिल्म बाय उमाशंकर।’ उमा टालमटोल करता रहा। सुमन उसको उससे बेहतर जानती थी और उसने अपनी बात को दोहराया नहीं लेकिन उमा सृजन की तरंगों को महसूस करता रहा और फिर एक अलसभोर में उसने हारमोनियम से छेड़छाड़ की और महसूस किया कि यह बेजान मशीन नहीं है बल्कि किसी जीवित बोलते हुए वृक्ष की लकड़ी से बना हुआ है। उसे निदा फाजली का शेर याद आ रहा है ‘हर बरसात चरखे है लकड़ी का दरवाजा, कटकर भी नहीं मरते पेड़ों में दिन रात।’ गलत सुर छेड़ते ही उंगलियों पर 440 वाट का झटका लगता था, लेकिन मन में गूंजती हुई ध्वनि से प्रेरित उंगलियां ऐसे चलती मानो वह नदी में बिना हाथ पैर मारे ही लहरों की गोद पर लेटा हो। बीती रात उसकी उंगलियों ने सुमन के शरीर की वीणा बजाई थी और वहीं धुन से उसकी आत्मा झंकृत थी। उसने ऑपेरा रचना शुरू किया और काम में डूबे रहने पर उसे समय का अनुमान ही नहीं रहा। तरंग टूटी जब सुमन की आवाज उसने सुनी कि भूखे पेट वह इससे अधिक रिकार्ड नहीं कर सकती और ग्रंडिक मशीन पर नया पूल लगाने का समय भी हो गया। उमा और सुमन की धड़कनों से झंकृत ओपेरा होने में लगा समय उनके जीवन का सबसे संतोषप्रद समय रहा। उस छोटे से कस्बे में एक अविवाहित जोड़े का इस तरह रहना समाज को पसंद नहीं था पर जब भी वे उस पर आक्रमण करने जाते, उनके द्वारा उत्पन्न स्वर लहरों का रक्षा कवच उन्हें हताश कर देता। हाथों में लट्ठ, कटार इत्यादि लिए घर को घेरते थे, लेकिन जाने कैसे मधुर स्वर लहरों उन्हें निष्क्रिय कर देती थी। स्वर की मांद में वे महीनों सुरक्षित रहे।
कुछ लक्ष्य विहीन बिगड़े दिल विध्वंसक प्रकृति ने आक्रमण की योजना बनाई, लेकिन उमा के घर के निकट एक अखाड़े में कसरत करने वाले युवा वर्ग ने उनकी रक्षा की। कुछ युवा पहलवान संगीत लहरियों पर अपने दंड बैठक की ताल भी ठोकते थे और उन्हें इसमें खूब आनंद मिलता था। सुमन उमाशंकर का रिकार्डेड ओपेरा लेकर मनमोहन शेट्टी को मिली। उन्होंने एक शाम अपने घर पर अपने मित्र गोविंद निहलानी और प्रकाश झा को बुलाया और अपने घर की ऊपरी मंजिल पर खुले में इसे सुनने का आयोजन किया। तीन घंटे तक लोग मंत्रामुग्ध् सुनते रहे और उनकी तंद्रा तब टूटी तब पड़ोसी की छत से भी तालियों की ध्वनि उन्होंने सुनी। इस रिकॉर्डेड ऑपेरा पटकथा को बनने के पहले ही आवाम का समर्थन मिल चुका था। प्रकाश झा की यह दुविध थी कि उसने मृत्युदंड व गंगाजल इत्यादि पिफल्मों में बिहार को तेजाब की तरह प्रस्तुत किया था। उमा और सुमन का बिहार सुरीला था और उसमें फणीश्वर रेणु ध्वनित हो रहे थे। वह समझ नहीं पा रहा था कि उसका बिहार सत्य है या उमा का सुरीला बिहार सत्य है। हर सृजनकर्ता अपने स्वभाव व पूर्वाग्रह के चश्मे से देखता है, और हर नजरिए में आंशिक सच तो है, लेकिन पूरा यर्थाथ नहीं उभरता। वर्तमान भारत एक नक्कारखाने में बदल चुका है और ऐसे वातावरण में वह इस माधर्य को कैसे ग्रहण करेगा। यह उसकी दुविध थी। हमेशा प्रयोग को बढ़ावा देने वाले मनमोहन शेट्टी के मन में कोई दुविध नहीं थी। उन्हें इसमें न केवल एक सफल फिल्म दिख रही थी वरन देश की मिट्टी की सुगंध् महसूस हो रही थी। मनमोहन शेट्टी ने सुमन से कहा कि फिल्मांकन के समय उमाशंकर की मौजूदगी आवश्यक है। सिने इतिहास में पहली बार निर्देशक की कुर्सी पर एक अंध व्यक्ति बैठा था। केवल ध्वनि के आधर पर कट या ओके बोलता था, कई बार अभिनेता के पदचाप से उसने महसूस कर लिया कि यह बेसुरा हो रहा है। एक बार ऑडियो ट्रैक पर एक अभिनेता की पदचाप से ही उमा ने कट बोल दिया। वह संवाद अदायगी में कलाकार के श्वांस नियंत्रण की गड़बड़ होते ही कट बोल देता है।
प्रारंभ में कलाकारों को यह सब अटपटा और अनुचित लगा। सर्वप्रथम वे एक अंधे द्वारा निर्देशित होना ही पसंद नहीं करते थे, लेकिन मनमोहन शेट्टी की धक के कारण वे अपने विरोध प्रकट नहीं करते थे, लेकिन पहले दौर के संपादित अंश देखकर वे सुमन और उमाशंकर का लोहा मान गए और अब उन्होंने इस फिल्म को बनाने को जीने का अर्थ मान लिया। इसके बाद चीजें सरल होती गई। धीरे-धीरे पूरे उद्योग में इस फिल्म की चर्चा होने लगी और कुछ लोगों को लगा कि मनमोहन शेट्टी जैसे अनुभवी व्यक्ति से भी चूक हो गई। कुछ लोगों ने पूजा और आरती शेट्टी को दोष देना शुरू किया कि भारतीय सिनेमा को नई राह देने का यह दांवा खोखला साबित हो सकता है। जब बातें मनमोहन शेट्टी तक पहूंची तो उन्होंने कहा कि हमारी अधिकांश फिल्म अंधें और मूर्खो द्वारा बनाई लगती है, अतः वे कुछ नया जोखिम नहीं ले रहे हैं। इस बार एक वास्तविक अंधें से फिल्म बनवा रहे हैं। कुछ लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि पहले महीने के परिश्रम और खर्च से पूरी फिल्म का ध्वनिपट्ट रिकॉर्ड किया गया है और उसी रिकॉर्डेड ध्वनिपट्ट पर फिल्म की शूटिंग हो रही है और ध्वनिपट्ट में पार्श्व संगीत भी शामिल था। कुछ लतीफेबाज लोगों ने यह भी कहा कि अंध निर्देशक है, तो लंगड़ा नृत्य निर्देशक होगा तथा गूंगे बहरे दर्शकों के लिए एक ब्रेल फिल्म रची जा रही है। उमाशंकर की यह जिद थी कि फिल्म का प्रीमियर फणीश्वरनाथ रेणु और उमा के जन्म स्थान औराही हिंगना में टूरिंग टाकीज पर किया जाए। पूजा और आरती ने इस अभिनव प्रीमियर का बंदोबस्त ऐसा किया कि भारत के प्रमुख फिल्म समीक्षकों और फिल्म बिरादरी के महत्वपूर्ण लोगों को चार्टर्ड फ्रलाइट से पटना लाया गया और फि र वातानुकूलित बसों से औराही हिंगना लाया गया। इस अभिनव आयोजन को मीडिया ने बहुत उछाला और यह सारे देश में चर्चा का विषय हो गया। पूजा ने चुनिंदा टीवी चैनलों को पिफल्म के अंश भिजवा दिए थे फिल्म के प्रीमियर के बाद ही देश के तीन हजार सिनेमाघरों में फिल्म दिखाई गई।
उमाशंकर के आग्रह पर सुमन ने पूना फिल्म संस्थान के प्रशिक्षकों को भी ग्राम औराही हिंगना में बुलाने की व्यवस्था की थी। उमाशंकर ने जुहू के पनवाड़ी रास बिहारी और उसके साथियों को भी आमंत्रित किया। वर्षों पूर्व उस रेल के डिब्बे में सफर करता हुआ चलायमान बिहार उस प्रीमियर में अपने पूरे बिहारी ठाठ के साथ मौजूद था। उमा और सुमन के परिवार के लोगों ने इस अभिनव आयोजन में चार चांद लगा दिए। औराही हिंगाना में टेंट लगाने वाले टूरिंग टॉकिज के ऑपरेटर की खोज की गई। रास बिहारी के कर्मचारियों ने समारोह स्थल के बाहर पान का ठेला लगाया था। और मुफ्त में पान खिलाए जा रहे थे। शिवेंद्र सिंह डूंगरपूर ने इस अभिनव पर वृत्त चित्रा बनाया। ‘‘सेल्युलाईड मैन’’ की तरह उनका वृत्त चित्र ‘द ब्लाइंड फिमेकर’ भी सर्वत्रा सराहा गया। फिल्म प्रदर्शन के बाद, सुमन ने कार में अपने माता-पिता को बैठाया और उसकी आंख में आंसू आ गए तो उसने विंडशील्ड वाईपर ऑन कर दिया।