उम्मीदों के पाँव भारी हैं / मृदुला शुक्ला / पृष्ठ-1

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एक जिज्ञासु पाठक की समीक्षा
समीक्षा:मदन मोहन कंडवाल

पुस्तक: उम्मीदों के पाँव भारी हैं
रचनाकार: मृदुला शुक्ला
प्रकाशक: बोधि प्रकाशक समूह नई दिल्‍ली
मूल्‍य: 90 रुपये


उम्मीदों के पाँव भारी हैं

समालोचना का उद्देश्य हिंदी साहित्य में गुण दोष का विवेचन ही समझा जाता रहा है। देववाणी में आचार्य जब भी लक्षण ग्रन्थ रचते थे साथ साथ वह अपनी उत्कृष्ट रचनाओं को उद्धरण के तौर पर रस अलंकार के रूप में दर्शित कर देते थे , और पष्ट रचनाओं को दोषों सा उद्धृत करते थे ; ताकि पाठकगण दोष और निर्दोषता अपनी विस्डम समझ से दिखा सकें। गुण दोष पर वेस्टर्न देशों में नयी किताब तैयार करने का चलन यहाँ नहीं था। मुख्यतया समालोचना निर्णायात्मक या व्याख्यात्मक होती थी। ऐतिहासिक समालोचना और मनोवैज्ञानिक समालोचना या समीक्षा और तुलनात्मक समालोचना भी कई प्रकार रहें हैं समीक्षा / समालोचना के। (हिंदी साहित्य का इतिहास। …पण्डित रामचंद्र शुक्ल लोकभारतीे प्रकाशन अल्लाहाबाद -०१ का पेज ३६०-३६४ का सन्दर्भ लें ) . ………

मृदुला शुक्ला जी द्वारा सृजित इस कविता संग्रह का नाम "उम्मीदों के पाँव भारी हैं" जो सर्वथा उचित है शीर्षक रचना बनने हेतु के अलावा, ………."जरूरी नहीं कि हर बार तुम ही धुरी बनो।" या "औरतों से भी कभी प्रेम किया जाता है?" या "बस एक दिन जियो मेरे जैंसे भी" और "तस्वीर का रूख बदल जायेगा" …………..भी हो सकता था , क्योंकि ये रचनाएं भी काफी सशक्त हैं अपने आप में।

(मेरा उद्देश्य यहाँ पर व्याख्यात्मक समीक्षा करना है और कहीं कहीं सम्यकता के आधार पर तुलनात्मकता भी दर्शित हो सकती है। यह समीक्षा मैं पूर्ण होशोहवाश द्वेष राग के बिना मात्र एक पाठक जो स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा पठन में यकीन करता है, के तौर पर लिख रहा हूँ। प्रकाशक या कवयित्री या इतर व्यक्तिविशेष का प्रभाव या अनुग्रह बिना। लिखने में स्वतन्त्रता, मौलिकता और कन्विंसिंग और जरूरत पड़ने पर लचीलेपन का सम्मान करता हूँ। कोष्ठक में यत्र तत्र लिखे स्व मन के एडिसनल मौलिक भाव भी दिए गएँ हैं, जो अस्तरीय होने के पूरे चांसेस हैं। )

किताब भी होती है एक इमारत सी, जिस पर महज लिख भर जाता है बाहर किसी एक का नाम। …इस किताब के नीवं के ईंट के प्रस्तर अदेखे रह जायेंगे उन सभी को धन्यवाद आज्ञापन के लिए मृदुला जी ने स्वप्राक्कथन से श्रीगणेश किया है नम्रता के साथ बेबाकी से। वो जीवंत ईंटें मृदुला जी के स्वप्रियजनो, स्वप्नवीथियों , अदम्य कुटज सी जीजिविषा, स्नेह्सूत्रों और प्यास की धरोहर को जेंनेक्सट में जारी रखने की लालसा, चुराए बचपनी लम्हों की, किराया सातवें आकाश की दर्शन की और बोधि प्रकाशन के महा शिल्पी माया मृग जी के रूप में यत्र तत्र दृश्य अदृश्य रूपों में वासंती फाग के छींटों सी बिखरी पड़ी हैं।

मृदुला जी को महादेवी शायद पसंद हैं एक कयास बस !!!!!! ( तुमको पीड़ा में ढूँढा , अब तुममे ढूंढूंगी पीड़ा )……. पर उनका रचना संसार …….

' जो सोये स्वप्नों के तम में, वे जागेंगे यह सत्य बात।
जो देख चुके जीवन निशीथ वे देखेंगे जीवन प्रभात। ................ की और भी इंगित करता प्रतीत होता है । पूर्ण आशाओं और सजीवता के साथ।

"अकाल का चित्र" में अभावों से घिरा चित्रकार भावों की प्रचुरता से भी लबालब भरा होने के बावज़ूद चित्र के साथ न्याय नहीं कर पाता… यथा।

मगर उसे तो नमी रोपनी थी
आर्ट गैलरी में घूमते अभिजात्य वर्ग की आँखों में
नहीं चाहिए थी उसे एक और औंधी पतीली
खुद के घर के चूल्हे पर
( बाबा नागार्जुन की चूल्हा रहा उदास कविता सी झलक लिए )

"अस्पताल" फेसबुक पर पढ़ी थी कि ………विश्वास की पराकाष्ठा , उम्मीदों के तिलिस्म होते हैं। टूटी कसौटियों खंडित आस्थाओं के शवदाहगृह होते हैं अस्पताल। ..........वास्तविकता सा

"सड़क" पर होता अतिक्रमण का दर्द उभरता है मसलन ................. और रात के सन्नाटों में पसर जाता है सड़कों की छाती पर उपभोग के बाद का निस्तारित कूड़ा करकट ………………………………………………………………………( ब्राह्म मुर्हुत से जिसमे पालतू सूवरों का झुण्ड, लोट गाता है बेसुरा भूख का गीत। मैराथन करती है श्वानों की टोली, गाय बैल खाते प्लास्टिक के बैग )

"बस एक दिन जियो मेरे जैंसे भी " अंतस को झकझोरने वाली यथार्थपूर्ण रचना है , जिसके लिए कवयित्री सचमुच बधाई की पात्र हैं। गृहस्वामिनी को इसका श्रवण कराया तो सवयं का आत्मविश्लेषण करने को मजबूर करती यह रचना वाह वाह निकल जाता है अंतस से चुपचाप अनायास रेफलेक्सीव एक्शन सा। एक बानगी देखिये।

सुनो, कल ना तुम थोड़ा जल्दी उठ जाना /
ज्यादा नहीं बस सुबह पांच बजे.………………
फिर मेड तो है ही मदद के लिए।
फिर तुम मेरी तरह कामचोर
......................
तुम्हारी आलमारी में /
से शुरू होकर वाचमैन कंडक्टर बॉस और आगे भी कल्पनाओं के यथार्थ या यथार्थ की कल्पनाओं की उड़ान का अंतिम कवितांश उद्धृत करने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ मैं यहाँ ………

मेरी छोटी छोटी जिम्मेदारियां तुम्हे भारी तो नहीं लगी ?/
मै नहीं निभा पाउंगी तुम्हारी बड़ी बड़ी जिम्मेदारियां /
ये सब तो सिर्फ आज के लिए था /
मै तो तुमसे प्रेम करती हूँ/
और प्रेम में पात्रता से ज्यादा /
न लिया जाता है /
और ना ही /
दिया जाता है।
( सुभान अल्लाह )

"बस एक वचन" में प्रणय निवेदन बिना सातों फेरों के बिना प्रणय निवेदन के स्वीकारने का माद्दा देखिये तो एक वचन के साथ। …

……सुनों! क्या तुम मेरे लिए/
बदल सकते हो दीवार पर टंगी इस तस्वीर के पात्रों की जगह भर।
समानता का लोकतंत्रीय बराबरी का भागीदारी का एक वचन आजन्म !!! वाह
……………..
………………

लोग नकली चहरे पर चढ़ाते हैं मुल्लमा असलियत का /
मुझे छूकर कहा जाता है अरे ! यह तो असली है।
(बोनसाई )

उड़ो मत ! चाकू हो! चाकू रहो/
ज़रा भी कुंद हुए/
घिसे जाओगे पत्थरों पर चिंगारियां निकलने तक। …
………… की चेतावनी सार्थक है वाह।

" चाँद और रोटियाँ " में साथ साथ चलने की कामना जज्बा कूट कूट कर कर परिलक्षित होता है कविता के आखिरी कुछ उपसंहारित पंक्तियों में। .......

तुम चलो ना !
रास्ते के दायीं तरफ
मै चलती हूँ बाएं
फिर भी हम होंगे साथ साथ
समानांतर और शायद अलग अलग भी। (परस्पर पूर्ण विकास की सम्भावनाओं के साथ और स्वतंत्र स्पेस देते हुए )
बस भूल गयी चाँद से पूछना
कैंसी मिट्टी पानी हवा मुफीद होती है
चांदनी की फसल के लिये।
और
मेरी आँखों के नीचे लहराते (आंसूं के खारे ) समंदर ने
ढुलककर अपनी शबनमी बूंदे अब तक सींचा है तुम्हारा रोपा अमावस। (

"चांदनी की फसल" एक भावप्रवण बिम्ब युक्त कविता और काव्यशिल्प दर्शनीय यहाँ )

जाने क्यूँ मन की (उर्वर) जमीन होतें हैं/
ये छोटे शहर/
(तथाकथित क्योंकि इनमे रहने वाले लोग आत्मीय होतें हैं )
इनके भीतर कुछ बदलता नहीं /बाहर लाख बदलती रहे बदलाव की बयार। …………

"छोटे शहर " में मृदुला जी ने मन की बात पकड़ की और छोटे शहरों की संवेदनाशीलता को हूबहू उत्कीर्ण कर दिया है कविता के कैनवास पर अमृता शेरगिल सा या रजा रविवर्मा सा। दर असल "चुप्पियाँ" स्वेच्छा से /ओढ़ा हुआ ताबूत होती हैं (सच में चुप्पी दुशाला नहीं हो सकती। …… एक चुप्पे की डायरी का सच अनायास परिलक्षित होता है यहाँ , जिनका कोई सम्बन्ध नहीं रचनाओं से या कवियों से )

प्रकृति भी जब तोड़ती है /
धरती और आकाश की ग्राह्यता सीमा /
असीमित और व्यापक होते हुए /
इनकी क्षमताएं /
टूटता मौन हमेशा विप्लव दे जाता है
(केदारघाटी सा)

दीया और अँधेरे का मूक अदृश्य प्रेम सम्बन्ध भी कवयित्री अपने सृजनशील मानस से निकलने में सक्षम होती है और प्रचलित विरोधाभासों को नए प्रतिमान सामाजिक सन्दर्भ दे जाती हैं। दिया और बाटी तो सभी ने कहा सभी ने सुना पर दिया और दिया अँधेरा "दिया" में नयी इबारत लिखते प्रतीत होतें हैं। …यथा

शायद दिया और अँधेरा लड़ते हैं आपस में .............
अजी ये सुनी सुनायी बातें हैं.………
दरअसल ,
दोनों के बीच होता है एक गहरा प्रेम /
एक मूक सहमति होती है परस्पर/
दीया चुपचाप पी जाता है /
अँधेरे के हिस्से की स्याही (नीलकंठ सा )/
छोड़कर उसके आँचल में हजारों रंग . ……।
एक रात के लिए दिए को
ढ़ककर तो देखो /
वो बना जाता है पूरे साल आंजने का काजल माँ के कजरौटी से चुराया इसे। ………।
(बचाता है अपशकुनी नज़रों से/
दिए की जीती जागती प्रेम में जलने की निशानी)

एक और प्रतिनिधि रचना की ओर ध्यान दीजिएगा "औरतों से भे कभी प्रेम किया जाता है ?"………

बेचैन रहती हूँ दिन बाहर .............
कैंटीन हैं तुम्हारे केबिन के बगल में /
जीती हूँ तुम्हारे रिश्ते नाते /
अपनों की तरह/
तुम्हारी दुनिया की परिधि में खींच लेती हूँ/
एक नया वृत्त तुम्हे केंद्र मानकर/
(स्वेच्छा से ,,,,जरूरी नहीं कि हर बार तुम्ही बनों धुरी की जोर पकड़ती अर्वाचीन भावना के विरुद्ध )
सब से प्रेम करती हूँ सिवाय खुद के /
कल एक ख्याल आया चलो खुद से भी प्रेम किया जाये /
धत्त ,
औरतों से भी भी कोई प्रेम करता है /
उनसे तो इश्क किया जाता है। ………
(ग़ालिब ये ख्याल दिल को बहलाने के लिए अच्छा है ख्याल नहीं यह औरतों को करना ही होगा, सीखना ही होगा स्वयं से भी प्रेम करना).......

कमाल कर दिया आपने आदरणीय मृदुला जी !

"निः संदेह धृतराष्ट्र होना आसान है गांधारी होने से" वर्तमान राजनैतिक परिपेक्षों में और महाभारतीय मिथक या वास्तविक सन्दर्भों में भी गांधारी का आँखों पर पट्टी बांधने का निरनय स्वेच्छा पूर्ण था मजबूरी नहीं। वह त्याग था पति के लिए। मिथक को कविता में पेशकरना भी कला है सचमुच।

"एक थी खाप ".... एक सी खाप एक सा निर्णय सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग में दर्शाता है कि चाहे हो तारामती या सीता उर्मिला अहिल्या या हो द्रौपदी और या हो यशोधरा और अध्यतन समकालीन नारियां जो बेवजह प्रताड़ित की गयी भंवरी देवी फूलन देवी और कई आरुषियां भया अभया या निर्भया सी.……। खाप का चरित्र अपरिवर्तनीय रहा है ब्रह्माण्ड के सतत परिवर्तनशीलता के चिर नियम को धत्ता बटाटा हुआ थम्स अप्प के स्थूल अंगूठे सा पितृसत्ता हो कारण शायद और आंशिकरूपेण स्वार्थ मद वश मातृत्व भी।

शहर के हुज़ूम में कंक्रीटी जंगल में गम हुए "फागुन" को , फागुन के मौसम में ढूंढकर उसकी कलाई पकड़कर बैठना भी एक दर्द है गायब होते वृक्ष बंधुओं के प्रति, जिसका कतई भी आभास नहीं हाड मांस के देवताओं को ।

अगली प्रतिनिधि कविता शायद् तथाकथित संगीत साहित्य कला विहीन उपाधियों से विभूषित, "हाउस वाइफ "है जो डंके की चोट पर अपनी साहित्य संगीत कलाविहीन का तगमा लेबल फेंक देना जानती है और हर सफलता के पीछे ईंट की पत्थर बनी नारी का हाथ है के जुमले को सच करती दिखती है। कहती हैं वह.

………
हमारी नालियो में बहते संगीत को सुनना कभी /
हम अपने सातों सुर धो डालते हैं /
तुम्हारे पोतड़ों के साथ।
हमारी रोटियों को कभी ध्यान से देखा है ? /
इंद्रधनुषी होती हैं वो/
गूंथ डालते हैं हम सारे रंगों के सपने उस आटे में।
हमारी कलम जब कागजों से मिलती है/
तो रचती हैं महाकाव्य/
(वो भी ना भूतो ना भविष्यति वाला या अहम् ब्रहास्मि वाला )
ना कहा जाने वाला /
न सूना जाने वाला / और ना ही गाया जाने वाला/
महरी /
धोबी /
किराने और दूध वाले के हिसाब।
गायेगा सुनेगा कहेगा कौन? (गौरेय्या या फाख्ता )
सब गाने सुनाने कहने वालों को फुरसत मिले ना तब तो !
और वो तो गायेगा सुनेगा कहेगा नहीं; गुनेगा ओफ्फो दिवास्वप्न सच होने सा।
उसे मति हरण जुआ मस्ती क्रिकेटवा से फुर्सत मिलेगी; तब तो ना !)

"इतनी चौकन्नी" फिर भी बहेलित रचना के बाद "कवयित्री " भी अच्छी बन पडी है वही हाउस वाइफ के भावों को आगे बढ़ाते हुए ………

हम तो सार्व भौमिक सृजक हैं /
कविता तो हमारी /
कोझ में पलती है /
आँचल से झरती है/
गोद में हंसती है /
और आँख से बहती है/
हमारा मन तो/
युगों से/
गा कर ही/
सियाह को/
सफ़ेद करता रहा/
और आज चाँद सफ़ेद कागजों को/
सियाह कर/
क्या मैँ कवयित्री बन गयी ?/
तुमही कहो ना ?

( ये औरते भीं कमाल करती है शैलजा की रचनाओं का ध्यान भी बरबस खिंच आता है यहाँ।)

"मलाला" का कोई मलाल नहीं।। आखिर सत्य जीता। वो सूरज बन गयी चमक रही अभी भी इस धरा पर.……। उम्दा रचना यह फेसबुक पर सूदूर सीमान्त प्रदेशों में पढ़ी थी समसामयिक रचना थी एक और रचना एक नहीं मलाला सी।

"उम्मीदों के पावँ भारी हैं " शीर्षक रचना की एक एक शब्दसीपी में कमाल का मोती सुप्त है जागने को उत्सुक तत्पर। पूरी की पूरी कविता पठनीय और सारगर्भित / समासित है। इसका उद्धरण नहीं कर रहा क्योंकि यह समापन की कविता होनी चाहिए इस समीक्षा की। "नदी" और "नीलकंठ" को फेसबुक पर पहले ही बहुत सी दाद मिली है। और सचमुच।

……… कठिन है नदी होना /
बहुत कठिन है समझना/
नदी का होना .......

"पहला प्रेम" एक और कविता है जो प्रेम के सच्चे अर्थों भाईचारे स्नेह आत्मीयता सर्व प्राणी समभावता और परोपकार के लिए झहूठ बोलना सीखना भी है, मासूम हो या परिपक्व झूठ। जान तो बचती है किसी की.…… सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ना ब्रूयात सत्यं अप्रियम (अप्रियम, सत्यम या मेंनटास सा या बेसहारा करने वाला)। "प्यास का इतिहास" , "पुरानी हवेलियां " और "रजाई" के बाद आती है " रिश्ते " यहाँ रिश्ते रिसते नहीं बल्कि महीन आत्मीय रिश्तों की कल्पना साकार होती है मसलन। …………

लेकिन तब भी तुम जीते /
रेशमी (संदली) ,
गुलाबी धागों से बुना /
महकता खूबसूरत/
महीन,
जहीन मेरा रिश्ता /
और मैं /
बेतरतीब ,
अध् उघड़ा मोटे धागों से बुना जिसके पैबंदों से भी मैं ढांप ना पाती अपनी मोहब्बत/
और तुम्हारी …।

(अभावों में भी भावों की तरजीहता नफासत जहीनता! हे प्रेम तुम सबके क्यों ना हुए !!!!!)

‘सड़क’ से चलकर ‘सभ्यताओं में सोपान नहीं होते’ से ‘सरहदों’ के ‘सपने’ दिखाती हुयी “स्कूल बैग” को पकड़ लेती है कवयित्री “ताकि सनद रहे”। सच में स्कूल बैग पल पल भारी होते स्कूल बैग और बचपन के छीने जाने की व्यथा को बखूबी व्यक्त करती है। ( जैंसे विद्या बालन हाउस फ्लाई को पकड़ सलाह देती है उसे गन्दगी से भोजन पर ना जा बैठने के लिए ) कुछ वैंसा ही यहाँ भी दीखता है। प्रारंभिक कक्षाओं में सूदूर अंचलों में मिड डे मील स्कीम में नमक तेल का हिसाब करने में सारा दिन बिताते शिक्षकगण पाठन की और बहुत कम ध्यान दे पातें हैं। हर कोई आने जाने वाला भी स्कूल इंस्पेक्शन में मिड डे मील जरूर पूछेगा चाहे गणित विज्ञानं भाषा सीखे या नहीं बालक का पेट भरा होना चाहिए बालिका तो आ जाये स्कूल वही काफी है, शिक्षकों को वेतन काटकर छुट्टियां लेनी पड़ती है।

और सनद रहे

तुम कह सकते हो अपनी बात /
अगर शर्त न रखो /
सुने जाने की/

ये बात दीगर है !/
तुम बढ़ाते जाओ /
अपनी आवाज़/
ध्वनि की अधिकतम तीव्रता तक/
बस सुने जाने की शर्त न शामिल हो/
कहे जाने में /

मौन कायरता ही नहीं,/
कुंद हुए हथियारों को डाल देना है/
सीले गोदामों में जंग लगने के लिए/
सनद रहे ! संवाद की डोर का /
कमसे कम एक सिरा तो/
हमेशा ही आपके हाथ में /

एक कविता "सीमा प्रहरी " कलम का हो या खेत का या हो बन्दूक पकड़े या हो वो इंजेक्शन लिए हाथ में फीता लिए। … वो तृप्ति आत्मतृप्ति संतृप्ति की तलाश में हो रेगिस्तान में मेघदूतीका ना भेजने में अक्षम या हो समुद्र के बड़वानल की तरह अंतर्द्वंदों की अग्नि में जलता (और भी सम सामयिक श्रद्धांजलि है पनडुब्बी और इसी जैंसे प्रकरणो में ) या हो अंतस बाधा के ताप से जूझता जंगल में और या हो वो उत्तुंग पहाड़ों पर बर्फ की सिल्ली हवाओं मध्य एक साथ घर का और सीमा का संघर्ष अकेले लड़ते हुए

…उसे जगना ही होगा हमेशा इस आग में क्योंकि इसी आग में पलते हैं /
एक मुल्क की मीठी नींद के सपने/
( जो मुल्क अक्सर कृतज्ञताहींन संवेदनशून्य होता जा रहा है,,,,
एक झकझोरती कविता )

विशेष धन्यवाद मृदुला जी सीमा के हर प्रकार के सिपाही का अंतर्मानस पकड़ने हेतु। सिमटती जमीन और सूरज कथा एक सी पर स्वयंभू पञ्च " स्वम्भू पञ्च " बेहद सशक्त कविता

(अभी अभी ध्यान हुआ है जब पलटा पढ़ा )…
एक दंश है हर सेल्फ स्तयल्ड मनु के लिए। ..........
माना को तुम सयम्भू पञ्च हो /
अनादि परमेश्वर/
हमें साध नहीं है /
पञ्च होने की /
कूको ना तुम पंचम स्वर में/
हमें गाने दो हमारा आदिम अनगढ़ गान।

(वाह एकमत भीड़तंत्र सा पंचम स्वर लक्षणा व्यंजना भरी कूट कूट के पंचम स्वर में ) मृदुला जी बधाई सच्ची।

'तांडव' 'त्रिया चरित्र' 'टूटना' 'तुम्हारा ना होना' 'तुम्हारा साथ' 'टूटना चूड़ियों का' 'तुम तो गोश्त पर ही ज़िंदा हो' 'उदासी' 'वो ढूंढती है अपना स्वर्णयुग' 'उडते पक्षियों का शिकारी' 'उक्ताहटें हावी हैं' 'वो कमरा' 'व्यथित मन' 'वो खुद को साथ नहीं लाती' 'घरनुमा इमारत' और 'ज़िंदगी 'भी पठनीय बन पड़े है। लास्ट बट नोट डी लीस्ट !!!!! तीन कविताओं का जिकर करना चाहूँगा किताब की आत्मा "उम्मीदों के पावँ भारी हैं " शीर्षक कविता को उद्धृत करने से पहले। ये हैं क्रमशः "यादें " तीन भागों में बचपन के अंगूठे में लगी ठेस (चोट) सी या ना सूखने वाली मन के शैवालों सी खतरनाक और या वो हो जाती हैं पुरसूकून होती हैं मिलने की लालसाओं को जगाती; मेढंक मेढंकी, शेर और शेरनी के व्याह का साक्षी (कबीर की साखी सा) इंद्रधनुष सी। दूसरी कविता है :तस्वीर का रूख बदल जायेगा " एक बेहद संजीदा कविता। ................

तीज़ पूजी/
अहोई आठे /
चौथ पूजी/
छठ पूजी……………
पुत्र और भरतार माँगा। ..........
बेटियां मांगे दुआ में धैर्य की प्रतिमूर्ति /
देखना फिर एक दिन /
तसव्वीर का रूख बदल जायेगा।

शब्द शब्द सबद शबद साखी सांझी साक्षी सावित्री अहिल्या पाला गार्गी विद्योतमम् मैत्रेयी द्रौपदी कल्पना सुनीता सायना बन गया है इस कविता में अक्षत सा दूर्वा सा विरवा सा पैयां सा चीड़ सा कदली वृक्ष सा।

और पेन अल्टीमेट कविता " जरूरी नहीं हर बार तुम ही धुरी बनों " एक क्रांतिकारी विचार सा है एक बेहद सजीवन्तता लिए चुनौती सी लिए कविता

मनु के लिए /
उसे अब कामायनी की श्रद्धा (प्रेम) और इडा (बुद्धि) का सम्यक वरण एक ही सहचरी में करना होगा, स्वछंदता त्याजनी होगी, निरंकुश को अंकुश कर विस्तार का मोह त्याग करना होगा , तभी कर पायेगा वो योग का भोग; भोग का योग ,, होगा जड़ चेतन सानंद।

अंत में ये मनोकामना कवयित्री की कि ……

एक जहाँ हो हमारा भी
जहाँ तल्खियां मुस्करा कर गले मिले
रुस्वाइयों को मिल जाएं पंख शोहरतों के
जब टोली जाएँ खुशियां बेहिसाब
तो पलड़े पर रखा जाये थोड़ा सा गम।
सुबहें थोड़ी धुँधली ही सही/ ( अमान्य है हमें, बचपन की सुबहें धुँधली ना हो तो अच्छा )
शामे (बुढ़ापें की ) पुररौशन हों
बूढ़ी इमारतों के पास हो अपनी खुद की आवाज ( अ मस्ट )
जो भटके मुसाफिरों को रास्ते पर लाये
सुनाकर कहानी अपनी बुलंदी के दिनों की। (वाह)
जहाँ हमारी हाँ को हाँ / और ना को ना सुना जाये /
वही समझा भी जाएँ/ ( मौनम स्वीकृतिस्य लक्षणम् को फेंक दिया जाये भाड़ में )
(उन्हें कतरब्योंत ना जाये एक दूसरी कविता याद आ रही यहाँ सिमिलर अर्थों की अंजू जी की भी )
शायद मैं नींद में हूँ /
मगर क्या करून मेरी उम्मीदों के पावँ भारी हैं /
मरे सपने पेट से हैं।

कमाल की कवितायेँ हैं कमाल की कवयित्री हैं। मैंने तो स्वान्तः सुखाय आनंद लिया इन कविताओं के पराग रस का, आप को कितना पसंद आयेगा आप पर ही छोड़ता हूँ। शायद जब तक पूरी कविता ना पढ़ी जाये आधे अधूरे अश्रृंखलीय उद्धरण उतना कविता रस नहीं देंगे मानता हूँ फिर भी लिखा ताकि सनद रहे, और कवयित्री आदरणीय मृदुला जी का श्रम साध्य परिश्रम और बोधि प्रकाशन (मायामृग जी ) आवरण रचनाकार रोहित रूसिया की तिकड़ी और सजीव ईंटे जो पहले ही बता चूका, का संयक्त परिश्रम रंग ले आये और भी चटख फागुन की वासंती अबीर टेसू फाग से रंगी बयार का। हाँ तुलनात्मक समीक्षा नहीं दे रहा समायाभाव और परिश्रम साध्य कार्य होने से, फिर भी कभी अवसर मिला तो संयुक्त तुलनातमक समीक्षा करूंगा अवश्य। अनायास त्रुटियों और सीमित साहित्यिक विसडम हेतु भी क्षमा प्रार्थी।

केयुरानि ना भूषयन्ति पुरुषं या हारा चन्द्रोज्वलाः।
ना स्नानं ना विलेपनं ना कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते।
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं (शब्द्भूषणम ) भूषणम ।

अंततः शिक्षिका मृदुला शुक्ला जी को विज्ञान और कविता का सामंजस्य बिठाने और अद्भुत रचनाओं हेतु ……असीम, अनंत, अशेष, अथाह बधाइयाँ और शुभ कामनाएं भविष्यगामी सृजन संसार हेतु।