उम्मीद / बलराम अग्रवाल

Gadya Kosh से
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रिक्शेवाले को पैसे चुकाकर मैंने ससुराल की देहरी पर पाँव रखा ही था कि रमा की मम्मी और बाबूजी मेरी अगवानी के लिए सामनेवाले कमरे से निकलकर आँगन तक आ पहुँचे।

“नमस्ते माँजी, नमस्ते बाबूजी!” मैंने अभिवादन किया।

“जीते रहो।” बाबूजी ने मेरे अभिवादन पर अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। माँजी ने झपटकर मेरे हाथ से ब्रीफकेस ले लिया और उसी सामनेवाले कमरे के किसी कोने में उसे रख आईं।

“मैं कहूँ थी न—पन्द्रह पैसे की एक चिट्ठी पर ही दौड़े चले आवेंगे!” ड्राइंग-रूम बना रखे उस दूसरे कमरे में हम पहुँचे ही थे कि वह बाबूजी के सामने आकर बोलीं,“दुश्मन को भी भगवान ऐसा दामाद दे।”

“भले ही उसको कोई बेटी न दे।” बाबूजी ने स्वभावानुसार ही चुटकी ली तो मैं भी मुस्कराए बिना न रह सका।

“तुम्हें पाकर हम निपूते नहीं रहे बेटा।” उनकी चुटकी से अप्रभावित वह भावुकतापूर्वक मेरी ओर घूमीं,“चिट्ठी पाते ही चले आकर तुमने हमारी उम्मीद कायम रखने का उपकार किया है।”

चिट्ठी पाते ही चले आने के उनके पुनर्कथन ने मुझे झकझोर-सा दिया। घर से मेरे चलने तक तो इनकी कोई चिट्ठी वहाँ पहुँची नहीं थी! मिट्टी के तेल की बिक्री का परमिट प्राप्त करने के लिए कुछ रकम मुझे सरकारी खजाने में बन्धक जमा करानी थी। समय की कमी के कारण रमा ने राय दी थी कि फिलहाल ये रुपए मैं बाबूजी से उधार ले आऊँ। अब, ऐसे माहौल में, इनकी किसी चिट्ठी के न पहुँचने और रुपयों के लिए आने के अपने उद्देश्य को तो जाहिर नहीं ही किया जा सकता था।

“दरअसल, आप लोग कई दिनों से लगातार रमा के सपनों में आ रहे थे।” मैं बोला, “तभी से वह लगातार आप लोगों की खोज-खबर ले आने के लिए जिद कर रही थी। अब…।” कहते हुए मैं बाबूजी से मुखातिब हो गया,“…आप तो जानते ही हैं दुकानदारी का हाल। कल इत्तफाक से ऐसा हुआ कि मिट्टी…” अनायास ही जिह्वा पर आ रहे अपने आने के उद्देश्य को थूक के साथ निगलते हुए मैंने कहा,“सॉरी, चिट्ठी पहुँच गई आपकी। बस मैं चला आया।”