उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी / आशुतोष
तुम तो माटी के माधो हो, हम तोहें अइसहीं परेम करते हैं, यही लिए हम तोहें हमेशा अपने चुनरी में बांध कर रखेंगे, जब हम नहीं रहेंगे तब यह चुनरी गाँव के बरम बाबा के थान पर बंधी रहेगी, तुम्हरा मन जब कहीं न लगे आ जाना वहीं और देख लेना उस चुनरी को और मैं... सबसे बचा कर थोड़ा-सा तुम्हें रखूँगी, अपने मन में भी।
यह कहते हुए सुगंधा का गला भर आया। सुगंधा जब भी बोलती थी तो उसकी आवाज के साथ के जुगलबंदी करती हुई उसकी आँखों की पुतलियाँ नाचती रहती थीं, पर बाल्मीकि ने देखा कि उस दिन ऐसा नहीं था। उस दिन पुतलियाँ बड़ी मुश्किल से हौले-हौले बस हिल पा रही थीं। आँखों में पानी कुछ ज़्यादा था और पानी में नाचना तो दूर कोई ठीक से चल भी कहाँ पाता है।
सुगंधा अपनी बात कह कर तेजी से गन्ने के खेत से निकल गई. बाल्मीकि ने महसूस किया कि कहीं कुछ छूटा जा रहा है। पर वह कुछ कह नहीं पाया। जाती हुई सुगंधा को रोकने के असफल प्रयास में उसके गले से एक भकुआई-सी आवाज निकली... 'बहिनी साहेब'। बीच में थोड़ा-सा खाली समय गुजार कर बाल्मीकि ने एक कोशिश और की "सुनिए बहिनी साहेब..."।
लेकिन वह बिना सुने चली गई. या फिर सुना भी हो तो भी चली गई.
ये कोई प्रेम कहानी नहीं है इसके बावजूद यह बताना ज़रूरी है कि ये बरगद पाठशाला में खिला सबसे नवोदित और वर्जित प्रेम कुसुम था। नवोदित इसलिए कि अभी इसकी खबर सिर्फ़ तीन को थी। एक थी सुगंधा, दूसरा बाल्मीकि और तीसरा था वह गन्ने का खेत जिसमें उस दिन सुगंधा ने ऐसा-ऐसा कहा था और वर्जित इसलिए कि बाल्मीकि उस इलाके के सबसे निरीह सबसे निकृष्ट व्यक्ति मँगरू डोम का बेटा था। डोम का क्या प्यार और क्या नफरत, उनका पूरा जीवन ही वर्जित होता है।
बाल्मीकि भौंचक था। वह सोच भी नहीं पा रहा था कि अभी उससे सुगंधा क्या कह कर चली गई है। वैसे तो वह उस कहे का मतलब कुछ-कुछ समझ रहा था। दिल उन बातों को लेकर एक निष्कर्ष पर पहुँचना चाह भी रहा था तो दिमाग उसे खारिज कर दे रहा था। बाल्मीकि का दिल इस तरह लगातार खारिज किए जाने से नाराज होकर ढाक तासे की तरह जोर-जोर से बज रहा था... तिड़बिक... तिड़बिक... धड़ाम... धड़ाम।
वह आजाद भारत के एक गाँव का समय था। अगर इंदिरा गांधी की हत्या नहीं हुई होती तो बाल्मीकि यह भी नहीं जान पाता कि वह एक देश में रहता है और उस देश का नाम भारत है। वरना वह अपने गाँव और बहुत हुआ तो ब्लॉक को ही पूरी दुनिया समझता था। इससे पहले बाल्मीकि छोटनपुरा के बड़का साहेब को हवा में गोली चलाते देखा था। वे हवेली के हर कार्यक्रम में नात रिश्तेदारों के सामने अपनी दुनाली से हवाई फायर करते थे। इसकी स्मृति बाल्मीकि को तब से है जब से वह अपनी अम्मा या बाऊजी के साथ हवेली में बाँस की टोकरी, सूपा लेकर जाता था। बंदूक से निकली एक तड़ाक की आवाज बाल्मीकि को रोमांचित करती थी। पर उसे मरने का ख्याल कभी नहीं आया।
लेकिन सुगंधा की बात, प्रधानमंत्री की मृत्यु और बंदूक के रिश्ते को एक साथ समझने के बाद बाल्मीकि को डर लगने लगा। सुगंधा को सभी बहिनी साहेब कहते थे। बहिनी साहेब बड़का साहेब की बेटी थी। बड़का साहेब के पास बंदूक थी और बंदूक के पास मृत्यु।
वैसे यह पूरा प्रसंग तो थोड़े बाद का है, पर है इसी कहानी का और यह कहानी है छोटनपुरा, बड़गाँव और बरगद स्कूल की।
छोटनपुरा और बड़गाँव नहर के एक ही पटरी पर तबसे बसे हैं जब वह नहर भी नहीं थी। बड़गाँव में छोटी जातियों, छोटी जोत और छोटे-छोटे सपने देखने वाले लोग थे। छोटनपुरा में ऊँची जातियों, बड़े जोत और रात तो रात दिन में भी बड़े-बड़े सपने देखने वाले लोग थे। पता नहीं किन समयों किस व्यक्ति ने उन गाँवों के नाम के साथ यह मजाक कर दिया था। इन दोनों गाँवों में सबसे बड़े आदमी भूतपूर्व जमींदार बड़का साहेब थे।
नहर के जिस पटरी पर ये दोनों गाँव बसे थे उसके उस पार थोड़ी दूर चल कर एक बड़ा पोखरा था। पोखरे के तट पर मुहर्रम, छठ, दशहरा आदि के अवसर पर मेले लगते थे। उसके तीन ओर बड़े-बड़े टीले थे। टीले और कुछ नहीं पोखरा के कलेजे के सत्त थे। टीलों की ऊँचाई में पोखरे ने अपनी आत्मा की माटी मिलाया था। उस इलाके में जो कुछ बड़ा था, ऊँचा था वह किन्हीं न किन्हीं गहराइयों की कीमत पर था। कुछ चीजों और कुछ लोगों को बड़ा बनाने में बहुत सारी चीजें और बहुत सारे लोग बहुत नीचे चले गए थे।
पोखरा के सबसे किनारे वाले हिस्से में खड़े एक बहुत पुराने बरगद के पेड़ के नीचे लगती थी वह ऐतिहासिक प्राथमिक पाठशाला जिसे बरगद स्कूल के नाम से जाना जाता था। वहीं के दो विद्यार्थियों के बीच प्रेम उपजा था।
बरगद स्कूल इस मायने में भी ऐतिहासिक था कि उस इलाके में जो कुछ गिने चुने साक्षर पाए जाते हैं वह सब उसी बरगद से "पास आउट" थे। बरगद की जड़ें कुछ उबड़-खाबड़ ढंग से इधर उधर फैली हुई थीं। पर लंबे समय से उन जड़ों को बैठक के रूप में इस्तेमाल किए जाने के कारण वे प्राकृतिक स्टूलों बदल गई थीं। पूरब वाली जड़ें छोटी गोल और बड़ी गोल की कक्षाएँ हुयीं। उत्तर की तरफ तीसरी की कक्षा, पश्चिम में पहली और दूसरी तथा दक्षिण की जड़ें आधिकारिक रूप से पाँचवीं के लिए आवंटित थीं। पाँचवीं की क्लास चार पाँच साल में एक बार ही बन पाती थी और एक बार बन जाने पर तीन चार साल तक उन्हीं विद्यार्थियों को लेकर चलती रहती थी। उस स्कूल में एक बार में ही एक क्लास पास कर लेना जैसे गुनाह था। इसे विद्या का अपमान माना जाता था। वहाँ नींव मजबूत करने पर ज़्यादा जोर था। इस तरह छोटी गोल से शुरू कर चौथी तक आते-आते पढ़ने वाले बाल बच्चेदार हो जाते थे। ऐसे में मेहनत मजदूरी कर पेट पाला जाय कि पाँचवीं पास की जाय।
उस बरस पाँचवीं में कई सालों के बाद एक साथ बीस विद्यार्थी हो गए थे। जिसमें बहिनी साहेब और बाल्मीकि के साथ अठारह अन्य बच्चे तो फ्रेशर थे बाकी दो पिछले तीन साल से पाँचवीं में ही थे। इनमें से एक उसी स्कूल के भाषा शिक्षक पंडी जी का सुपुत्र सतानिक था और दूसरा था गणित के शिक्षक बाबू साहब का लड़का प्रदीप। इन दोनों के पाँचवीं प्रेम के पीछे ब्लॉक स्तर पर होने वाली पाँचवीं की बोर्ड परीक्षा की बाधा थी। उन दिनों बोर्ड की परीक्षाओं में अभी नकल माफिया का जन्म नहीं हुआ था। इसलिए पास होने के लिए सिर्फ़ प्रतिभा और परिश्रम का ही सहारा था। पर मुश्किल यह थी कि ये दोनों चीजें आनुवांशिक नहीं होती और नहीं इनका वरासत लिखा जा सकता है। सतानिक और प्रदीप के मामले में अपवाद होने की भी गुंजाइश नहीं थी क्योंकि प्रतिभा और परिश्रम के संदर्भ में इन दोनों का पिता पक्ष भी शून्य ही था। अतः इनके प्रकरण में न आनुवांशिकी का सिद्धांत काम करना था और नहीं कोई वरासत होना था।
पाँचवीं के इन विद्यार्थियों में प्रदीप, सतानिक और बहिनी साहेब के अलावा शेष सभी दलित शूद्र थे। जिनकी उम्र चौदह से सोलह के बीच थी। बहिनी साहेब भी इसी के आस पास की रही होंगी। सतानिक और प्रदीप थोड़े बड़े थे। उनका अनुभव भी तो बड़ा था।
बाल्मीकि के पिता मँगरू का तीन चार गाँवों का हलका था। बाँस की टोकरियाँ, सूपा, डगरा, बेना जैसी रोजमर्रा की चीजें बनाना और बेचना उनका काम था। इन चीजों के लिए नगद पैसे की जगह लोग उन्हें चावल, आटा, आलू आदि देते थे। पूर्णतः भूमिहीन डोम जाति गाँवों की सामाजिक संरचना का तल होते हैं क्योंकि इनसे नीचे और कोई जाति नहीं होती। गाँव के पारंपरिक अनुष्ठानों में डोम जाति के लिए कुछ काम निर्धारित थे जैसे लड़के के विवाह में 'डाल' बनाना, लड़की की विदाई के समय मिठाई रखने के लिए 'झपोली' बनाना और मृत्यु के समय 'आग' उठाने का काम उसी डोम को करना पड़ता था। इन सबके लिए डोम नेग माँगते थे अपने मन का, पर लोग देते थे अपने मन का।
बाल्मीकि खूब बाँका सजीला नौजवान था। वह आठ वर्ष की उम्र में स्कूल आया था और सात-आठ साल में पाँचवीं तक पहुँचा था। पढ़ाई में बहुत तेज होने के बावजूद वह स्कूल के शिक्षकों के लिए बिना पैसे को मजदूर था। पंडी जी के घर पशुओं के लिए चारा लाना, लकड़ी काटना, दुआर बहारना और बाबू साहब के यहाँ खेती किसानी के सारे काम उसी के भरोसे थे। काम से छुट्टी पाकर दोपहर बाद वह स्कूल में आता। स्कूल में बाल्मीकि की स्थिति एक हीरो जैसी थी। यद्यपि कि डोम होने के कारण वह किसी को छू नहीं सकता था और न ही कोई बच्चा उसे छूता था। पर वह तरह-तरह के करतब जानता था। जिसने उसे बच्चों की नजर में खास बना दिया था। बाल्मीकि तालाब में किसी मछली की तरह तैरता था। जमीन पर साँड़ की तरह धूल उड़ाते हुए दौड़ता था। पेड़ पर लंगूर की तरह चढ़ता और छलाँग लगाता था। लंबी कूद, ऊँची कूद, कबड्डी, खो-खो का अद्वितीय खिलाड़ी था। पर उसे किसी स्पर्धा में शामिल नहीं किया जाता था। दूसरे बच्चों को उसके साथ खेलने में एतराज था। बच्चों में वह एतराज भाव उनके माँ बाप की ओर से संक्रमित हुआ था। उनको यही बताया गया था कि डोम, हरिजनों, दुसाध आदि जातियों से भी निम्नतर जाति है। उनको छूने से यह जन्म क्या परलोक भी बिगड़ जाता है।
पर बाल्मीकि सामाजिक स्तरीकरण के उस रूढ़ परिभाषिकी में भी खुश रहता था। बचपन से माँ की बताई एक बाद उसे हरदम याद रहती थी कि किसी बाल्मीकि ने ही जगत के भगवान राम की कथा लिखी थी। तमाम उपेक्षाओं के बावजूद भी यही एक बात बाल्मीकि को उम्र भर खुश रक्खे रही।
जब कभी वह मस्ती में आता तो स्कूल के बच्चों को चिढ़ाता था कि "तोहार बप्पा-माई जवन रामायण पढ़त हैं, ऊ हमरे लिखल है।" बाल्मीकि की इस बात पर बच्चों को तो कभी-कभी 'राम' और 'रामायण' से भी बदबू आने लगती थी।
एक बार सुगंधा ने इस बात के तस्दीक लिए अपने पिता बड़का बाबू से पूछा था, पर बड़का बाबू ने फिक्क से हँसते हुए कहा कि "ऊ सरवा का लिखी।" सुगंधा को उन्हीं दिनों यकीन हो गया था कि 'बाल्मीकि ने रामायण नहीं लिखा होगा।' पर बाल्मीकि में एक गुण ऐसा था कि उसका लोहा सभी मानते थे। हर शनिवार को स्कूल में अंताक्षरी होता था। इस दिन बाल्मीकि स्कूल में होता ही था। स्कूल के सारे बच्चे एक ओर पर बाल्मीकि अकेले उन्हें हरा देता था। चइता, कहरवा सोहर, पचरा तो जैसे उसके जीभ पर बसते थे। आवाज भी ऐसे जैसे कि सुनने वाले के भीतर तक घर कर जाय।
स्कूल तो कागज पर ही था। प्रत्यक्ष जो कुछ था सिर्फ़ वही बरगद का पेड़ था। उसकी शाखों से लटकी हुई जड़ें स्कूल के खंभे थे। उसका तना स्कूल की दीवार थी। घनी शाखाएँ और पत्ते छत थे। बरगद की डालियों का भी अलग-अलग नाम था। जैसे 'लटकइया डाली' , 'खनवा डाली' , 'झुलुआ डाली' आदि। स्कूल के शरारती बच्चों को मास्टर साब जिस डाली पर लटका कर मारते थे वह लटकइया डाली हुई. जिन डालियों पर बच्चों का खाना टाँगा जाता था, वे खनवा डाली थी। बच्चे दोपहर के खाने के लिए कपड़े के एक टुकड़े में रोटी, प्याज और मिर्च का आचार लाते थे। कपड़े में बंधे खाना को जमीन पर रख नहीं सकते थे। इसलिए रोटियों की उन छोटी-छोटी पोटलियों को बरगद की डालियों पर टाँग दिया जाता था। इसमें भी रोटियों के मालिक की सामाजिक स्थिति का ख्याल रखा जाता था। सबसे ऊपर ब्राह्मण बच्चों का खाना, उसके समानांतर ही थोड़ी दूर पर राजपूत बच्चों का खाना फिर क्रमशः यादव, कुरमी, बढ़ई, लोहार बच्चों का खाना टाँगा जाता था। हरिजन बच्चे या तो खाना लाते नहीं थे अगर लाए तो सबसे नीचे उनका खाना बँधता। इस तरह दस ग्यारह बजते-बजते बरगद पर रोटियों का एक गाँव आबाद हो जाता था और रोटियाँ जातियों में बदल जाती थीं।
रोटियों के समाज की यह वर्ण व्यवस्था बनाई थी पंडी जी ने और इसे लागू करवाते थे बाबू साहब। पंडी जी की बनाई रोटियों की इस वर्ण व्यवस्था से दो जने बाहर थे। एक थी सुगंधा और दूसरा था बाल्मीकि। सुगंधा शिक्षक से लेकर बच्चों तक के लिए 'बहिनी साहेब' थी और बहिनी साहेब का खाना दोपहर में नौकर लेकर आता था। उधर बाल्मीकि के खाने का कोई सवाल नहीं था। उसके घर में किसी तरह दो जून का काम चल जाय वही बहुत था। दोपहर की छुट्टी में जब बच्चे अपनी-अपनी पोटली खोलकर बैठते तो बाल्मीकि उनको डराता कि "अब्बे तोहार खाना छू देब"। बच्चे जानते थे कि अगर खाना छू दिया तो सारा का सारा उसे ही देना पड़ेगा। इसलिए रोटी का एकाध टुकड़ा सभी पहले से ही निकाल कर रख देते। बाल्मीकि सभी से वसूले गए रोटी के टुकड़ों को लेकर पोखरे के तट पर आ जाता और पानी में डुबा-डुबा कर खाता। लेकिन वह कभी बहिनी साहेब के खाने की ओर नहीं जाता था। कई बार बहिनी साहेब ही जिद कर अचार का टुकड़ा या थोड़ी सब्जी दे देती तो बिना कुछ कहे ले लेता। पर खाता नहीं। पोखरे में उगे पुरइन के पत्ते में लपेटकर गमछे में बाँध लेता। एक दिन बहिनी साहेब ने इस बारे में पूछा तो कहा कि " अइसन खाएँगे त मर जाएँगे, आ दिन में मरने पर माई बड़ा रोएगी, यही लिए रख लिए कि रात में खाएँगे। खाने के बाद रात में मर भी जाएँगे त, माई जानि नहीं पाएगी। '
बहिनी साहेब को थोड़ा बुरा लगा "हमार खाना खा के मरेगा काहे?"
"एतना अच्छा कब्बो खाए नाहीं हैं, कहीं कुछ गड़बड़ा गया तब।" यह कहते-कहते बाल्मीकि रुँआसा हो गया और उसी भाव में बोला कि बस "इहे बाति है और कुछ नहीं।"
बाल्मीकि से ऐसा सुनकर बहिनी साहेब का मन कैसा तो हो गया। उसने भी अपना खाना वैसे के वैसे बांध कर रख दिया। बहिनी साहेब को ऐसा करते देख बाल्मीकि ने पूछा "आपो नाहीं खाएँगी का?" बहिनी साहेब ने कनखी से देखा "अइसन खाएँगे त मर जाएँगे, आ दिन में मरने पर कोई एक है जो बड़ा रोएगा, यही लिए रख लिए कि रात में खाएँगे। खाने के बाद रात में मर भी जाएँगे त, वह जानि नहीं पाएगा।" अब बहिनी साहेब से ऐसा सुनकर बाल्मीकि का मन वैसे ही हो गया जैसा कुछ देर पहले बहिनी साहेब का हो गया था।
वह दोपहर का समय था। जब दो लोगों का मन एक ऐसा हो गया था। बहुत दिन से रुकी हुई कोई हवा थी जो चल पड़ी थी।
पंडी जी पूरे दुनियादार आदमी थे। परिवार में पत्नी और एक बेटा सतानिक था। यही हाल दूसरे शिक्षक बाबू साहब का भी था। पत्नी और एक बेटा प्रदीप के साथ रहते थे। पारिवारिक संरचना के अलावा पंडीजी और बाबू साहब में बाकी बाते भिन्न थी। पंडीजी दरिद्र ब्राह्मण थे तो बाबू साहब टूटी-फूटी जमींदारी के आखिरी वारिस थे। खेती भी ठीक ठाक थी। पंडीजी की जीविका का स्रोत मास्टरी के अलावा आस-पास के गाँवों में फैली हुई जजमानी थी। आस-पास के इलाके में कथा वाचने से लेकर शादी ब्याह, मृत्यु संस्कार आदि अनुष्ठान पंडी जी ही कराते थे।
जब किसी को धमकाना होता था तो वे अपने इसी धंधे का सहारा लेकर कहते "जो बाभन ब्याह कराता है वही पिंड दान भी कराता है।" पंडी जी नौकरी तो मासिक तनख्वाह के लिए ही करते बाकी उनका सारा जोर जजमानी के अपने धंधे पर ही होता। उनके पास सत्यनारायण व्रत कथा से लेकर नारायण बलि तक, विवाह से लेकर बरसी तक के हर अवसर हर प्रसंग और हर बजट की रेडीमेड पूजा पद्धतियाँ हर समय तैयार रहतीं। ब्राह्मण, ठाकुर, घर के पूजा थोड़े बड़े बजट की थी और अन्य जातियों के घर का पूजा बजट उनके आर्थिक स्थिति के अनुसार थे। यदि कभी नितांत दरिद्र व्यक्ति आ जाय तो ज़रूरत के हिसाब से बजट में संशोधन की भी गुंजाइश थी। हरिजनों के घर वे कथा बाचने नहीं जाते थे। ज़रूरत पड़ने पर अपने घर से कथा बाँच कर फूल और अक्षत कागज में लपेट कर बाहर फेंक देते। बाहर बैठा हरिजन यजमान उसे उठा लेता था। बस हो गई पूजा। पंडी जी की एक खास विशेषता यह थी कि वे सारी पूजा पद्धतियाँ, मंत्र, श्लोक आदि संस्कृत में नहीं लोक भाषा में निपटाते थे। पूछने पर कहते कि "संस्कृत देव भाषा है, इ नान्ह जाति सबको इसे सुनाना नहीं चाहिए इसीलिए हम देवताओं की भाषा के मंतर को उलथा कर बताते है।" पर एक बात और थी कि वे जिस यजमान को पकड़ते उसे पूरा का पूरा निचोड़ लेते। यह सब जानते हुए भी लोग उन्हीं के पास आते। क्योंकि न पंडी जी से मुक्ति का रास्ता था और न ही धर्म से मुक्ति का।
पंडी जी का पुत्र सतानिक तीन साल से पाँचवीं में ही था क्योंकि पाँचवीं का बोर्ड उसके लिए अनसुलझा सवाल था। इसलिए पंडी जी धीरे-धीरे उसे अपने यजमानी के धंधे में प्रशिक्षित कर रहे थे। छोटे-मोटे धार्मिक आयोजनों में सतानिक को भेजा जाने लगा था। वैसे सतानिक पंडी जी के दूसरे धंधों में सिद्धि के नजदीक पहुँच चुका था। स्कूल से सरकारी चीजों को चुराने को पिता पुत्र दोनों अपना पैतृक और नैतिक कर्तव्य मानते थे। स्कूल की घंटी को ठाकुर जी की आरती के बहाने पहले ही झोले में रखकर सतानिक उठा लाया था। बच्चों के बैठने के लिए मिले सरकारी जूट के टाट पंडिताइन के गद्दे के नीचे बिछाए जा चुके थे। पी.टी. के लिए मिली लाजिमों के घुँघुरू अब पंडी जी के गायों और भैसों के गले में बजते थे। सरकारी अनुदान की किताबों को सतानिक जहाज बना कर उड़ा चुका था। स्कूल में पढ़ने वालो बच्चों से झंडा दिवस, बाल दिवस, सलामी दिवस के साथ ही ऐसे कई और ज्ञात अज्ञात दिवसों पर दो से लेकर दस रुपये तक वसूलने का कार्य सतानिक ही करता था। पंडी जी का मानना था कि यदि किसी दिन कहीं से कुछ मुफ्त में न मिले तो समझो पूरा दिन अकारथ गया। इसमें एक खास बात यह थी कि ये सारी वसूली पंडी जी बड़ी चतुराई से करते थे, पर स्कूल का हर बच्चा और उनके माता पिता उनकी इस चोरी को जानते और पहचानते थे। सब कुछ जानते हुए भी सभी उनको वाक ओभर दिए रहते। उन निरीह बच्चों और उनके मजबूर अभिभावकों की भोली आस्था को इस बात का यकीन था कि ऊपर बैठा थर्ड अंपायर ज़रूर इसका हिसाब रख रहा होगा। पर धन्य है शिक्षक बु़द्धि इस वाक ओभर को भी अपनी सफलता मानता था। इधर कुछ दिनों से बाबूसाहब के एतराज पर प्रदीप को भी इस वसूली में शामिल किया जाने लगा था। इस कार्य में जमाने के निकम्मा प्रदीप का भी मन लगने लगा था। फिर तो दोनों सुपुत्रों के महान उत्साह ने बरगद स्कूल को अवैध चुंगी में बदल दिया। बेटे को राह पर आते देखकर उत्साहित बाबूसाहब को प्रदीप के उज्ज्वल भविष्य का रास्ता पंडी जी और सतानिक के साथ ही नजर आने लगा सो उन्होंने प्रदीप के जीवन का कॉपीराइट पंडी जी को सौप दिया।
अब प्रदीप सतानिक के साथ कथा बाँचने में सहयोग के लिए जाने लगा। इसमें सतानिक का भाव भी बढ़ा। अब वह असिस्टेंट वाला बाबा जी हो गया था। प्रदीप का काम यह था कि चढ़ावा के पैसों का हिसाब रखना, आरती के पैसे जिसके लिए संदेह यह था कि हजामिनें उसमें से कुछ चुरा लेती हैं; का अपने देखरेख में इकट्ठा करना तथा खाली समय में यजमानों के बीच सतानिक जी महराज के पांडित्य का बखान करना। सत्यनारायण व्रत कथा में प्रदीप रूपी कोण जोड़ने से पंडीजी के कथा वाचने के पारंपरिक धंधे में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। सतानिक जैसे बालब्रह्मचारी और प्रदीप जैसे क्षत्रिय कुँवर की जुगलबंदी से ग्रामीणों के मन में पारंपरिक अनुष्ठानों की महत्ता की नई इबारत लिखा जाने लगा। वे दोनों सिद्ध बाल कुमारों के रूप में प्रसिद्ध होने लगे थे। यह अलग बात है कि दोनों गन्ने, अरहर के खेतों में पता नहीं कितनी बार गाँव की महिलाओं लड़कियों के साथ छेड़खानी करते पकड़े गए थे। इसलिए उन दोनों ने अपना कर्म क्षेत्र गाँव के बाहर ही बनाया।
एक बार वे दोनों थोड़ी दूर के गाँव में विवाह कार्यक्रम संपन्न कराने गए. इसके लिए सुबह ही निकलना था। दिन भर की पैदल यात्रा के बाद ही शाम तक उस गाँव में पहुँचना हो पाता। प्रदीप और सतानिक दही-चिऊड़ा खाकर सबेरे ही चल दिए. दोपहर तक वे आधे से अधिक दूरी तय कर चुके थे रास्ते में पड़े एक बगीचे में आराम करने का निचित कर घर से लाए चने खाए, पानी पिया और थोड़ी नींद ली। बगीचे में जामुन के पेड़ों में भरपूर फल लगे थे। दोनों जी भरकर जामुन खाए. पेड़ों पर चढ़े उतरे। तरह-तरह का खेल किया और अंततः मन भर गया तो जाने की तैयारी शुरू हुई. तय हुआ कि यही बगीचे के पास वाले पोखरे पर हाथ-मुँह धोकर पैंट शर्ट की जगह धोती कुर्ता पहन ली जाय। पूजा सामग्री भी तैयार करना था। यह सब हुआ भी। पर यह क्या? झोले से शालिग्राम ठाकुर जी गायब। संपुट खुला पड़ा है। अब क्या हो। किसी एक की गलती नहीं थी। क्योकि सतानिक और प्रदीप दोनों कुछ-कुछ देर झोला लिए थे। अब ठाकुर जी कब, कहाँ किसकी गलती से झोला का अंचल छोड़ कर चले गए, इस पर बहस का समय नहीं था। जल्दी से कोई न कोई उपाय खोजना था। क्योंकि ठाकुर जी के बिना पूजा नहीं शुरू हो सकती थी। प्रदीप हलकान हो रहा था, पर सतानिक ने उपाय खोज लिया। शालिग्राम ठाकुर जी के आकार-प्रकार का एक खूब काला पका हुआ जामुन तोड़कर उसे ही शालिग्राम जी के रूप में पेश करते हुए सतानिक ने कहा "दुखी मत हो बालक यह हैं हमारे ठाकुर जी जामुनावतार में।" प्रदीप ने कुछ संशय प्रकट किया। पर सतानिक ने किसी तत्वदर्शी की तरह उसके सारे संशय दूर करते हुए कहा "ये संभव है बच्चा, ठाकुर जी ने इससे पहले भी, कच्छप, वाराह आदि चौबीस अवतार लिए हैं, इसी कड़ी में आज इस भरे पूरे बगीचे में इनका जामुनावतार हुआ है।" प्रदीप ने भाव विह्वल होकर सतानिक के पैर पकड़ लिए "धन्य हैं...! महराज... आप धन्य हैं।"
समय पर यजमान के घर सतानिक ने पूजा शुरू किया। वेदी तैयार थी। शालिग्राम जी के जामुनावतार को धो पोंछ कर आसन दे दिया गया। हल्दी, दूध, अक्षत, जल, रुपया आदि चढ़ाए जा रहे थे। सतानिक मंत्रों का धुआँधार पाठ कर रहा था। पर जामुनमूर्ति ठाकुर जी बहुत देर तक नैवेद्य का इतना प्रहार बर्दाश्त नहीं कर सके. उनके ऊपर का कवच हट गया। सबसे पहले नाऊ ने इसे देखा। उसने हल्ला मचा दिया "ऊ देखव ठाकुर जी गल गए"। यजमान किसी अनिष्ट की आशंका से घबरा गया। घबरा तो प्रदीप भी गया था। पर सतानिक की रगों में इस धंधे का प्राचीन अनुभव प्रवाहमान था। उसने मंत्रों के उसी तुक में स्थिति को सँभाल लिया-
" नित्य अक्षतम् नित्य दुग्ध, दही, पानी,
विहसि रहें ठाकुर जी, लीला को बखानी। "
प्रदीप ने तुरंत ही धीरे से नाऊ को दस रुपये का नोट पकड़ाते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत किया "हमारी रोज-रोज की सेवा से ठाकुर जी प्रसन्न होकर हँस रहे है, वर वधू का जीवन-सुख अपार होगा। तुम्हारा आँगन धन्य हो गया आज।" यजमान ठाकुर जी की साक्षात कृपा देखकर सतानिक महाराज के पैरों पर पड़ गया। चारो तरफ ईश्वर की कृपा एक लहर की तरह दौड़ गई. घराती से लेकर बाराती तक ठाकुर जी की इस कृपा से अभिभूत थे। सतानिक का महात्म्य उस समय खूब बढ़ गया। उसकी आवभगत ज़्यादा होने लगी। यजमान के घर में आई रिश्तेदार की एक लड़की सतानिक पर कुछ ज़्यादा मेहरबान हो गई. वह भी ठाकुर जी की कृपा से पार उतरना चाहती थी। उसने बुआ या मामा की किसी बड़े डील-डाल की लड़की का सलवार-सूट पहन रखा था। जो उसके देह के हिसाब से थोड़ा बड़ा था। बार-बार उठते बैठते झुकते उस कृपाकांक्षी बाला के गोपन अंग सतानिक जी महाराज के समक्ष किसी दिव्य फल की तरह दिख-छिप रहे थे। अब तक सतानिक भी ठाकुर जी के प्रभाव के खोबचे में आ गया था। उसे लगा कि यही वह कृपा है जिसे प्राप्त करने के लिए वह अब तक न जाने कितनी बार बाग, बगीचे खेत, खलिहान में अपमानित हो चुका है। सतानिक ने इसको ठाकुर जी की कृपा माना। पंखा झलने के बहाने सतानिक ने लड़की को पास बुलाया। लड़की सम्मोहित थी। सतानिक ने लड़की के सम्मोहन को स्वीकार माना। तुरंत ही घोषणा कर दिया कि "ठाकुर जी के अवतार के बाद इनके लिए विशेष पूजा करनी होगी, इसलिए एकांत में बैठकर मैं यह कार्य संपन्न करूँगा, इसमें सहयोग के लिए मुझे एक कन्या चाहिए."
यजमान ने तुरंत ही घर के भंडार गृह में जगह बनवा दी और उसी सम्मोहित लड़की को सतानिक के सहयोग में लगा दिया। वहाँ उपस्थित सारे लोग अश्रुपुरित और वाह् विह्वल कंठ से भजन गा रहे थे। सतानिक ने प्रदीप को माला जपने में लगा दिया और लड़की को लेकर कमरे में चला गया। अब तक हर कार्य में सतानिक का साथ देने वाला प्रदीप इस महत्त्वपूर्ण प्रसंग में अपनी उपेक्षा से अंदर ही अंदर नाराज हो गया। पर वह करता भी क्या? वह अब यही चाहता था कि या तो उसे भी भंड़ार गृह वाली पूजा में शामिल किया जाए या फिर वह पूजा रोकी जाय। अंततः असहाय होकर वह जोर-जोर से सतानिक के प्रिय श्लोक का पाठ करने लगा-
" एकस्य बाला तरुणी सुशीला
महानिशायाम दिलदार संगम्प्र
योगति अनियमित आसनम्गु
जति विविध प्रकार शब्दम्॥"
प्रदीप अपने हिसाब से भंडार गृह में चल रहे उस 'विशेष पूजा' के रहस्य सबको बता रहा था, पर वहाँ बैठा ग्रामीण समुदाय उस महान भाषा के अर्थ समझने में नाकाम रहा। तभी कमरे के भीतर से चिल्लाते हुए लड़की बाहर भागी। कीर्तन बंद हो गया। लोग अभी कुछ समझते तब तक प्रदीप पोथी-पतरा छोड़कर भागने लगा। लड़की ने रोते हुए अपनी माँ से कुछ बताया। उसकी माँ गरियाते हुए कमरे में घुसी.
दूसरे दिन सुबह बारात विदा हो गई. गाँव में तरह-तरह की चर्चा हो रही थी। गाँव के बाहर वाली नहर के आधे जल और आधे कीचड़ में सतानिक और प्रदीप रक्तरंजित, धूल धूसरित बेहोश पड़े थे। होश आने पर पहले तो आपस में लड़े और फिर इस बात पर तय हुए कि आज के बाद ज़िन्दगी में कुछ पाना है तो सभी कार्य मिल कर करना है। उसी क्रम में दोनों ने पहला निर्णय यह लिया कि इस टूटी-फूटी अवस्था में गाँव जाने पर जग हँसाई होगी। इसलिए कहीं और चला जाय।
प्रदीप ने थोड़ा संशय प्रकट किया कि "घर वालों से क्या कहेंगे?" पर सतानिक ने उसे झिड़की देते हुए समझाया कि "तुमहु यार मुर्खे रह गए, घर पर कहला देगें कि हमें एक बड़े महंत जी मिल गए हैं, वे हमारे ज्ञान से प्रभावित हो कर हमें हरिद्वार भागवत कथा कहवाने ले जा रहे हैं।" प्रदीप खुश हो गया, वह सतानिक की प्रशंसा करते हुए कहा कि "भागवत कथा में तो पता नहीं पर लंतरानी में तुम्हारा कोई जोड़ नहीं ही है।" इस बात पर दोनो जोर-जोर से हँसते रहे... हिप्प्...हिप्प्...हिप्प।
वे दोनों भी जोर-जोर से ही हँस रहे थे ...हुप्प...हुप्प...हुप्प। वे दोनों मतलब पंडी जी और बाबू साहब। उन दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति आदर था या कोई समझौता यह कोई कभी समझ नहीं पाया। पंडी जी को देखते ही बाबूसाहब कहते "परनाम देवता" और पंडीजी उन्हें "शदा शुखी रहें राजन" , कहकर आशीर्वाद देते। पंडीजी स्कूल के बच्चों को भाषा पढ़ाते थे। पर 'स' को हमेशा 'श' बोलते थे, तब और जब सुख बोलना होता। उनका मानना था कि सुख को 'शुख' बोलने से सुख बड़ा हो जाता है।
दोनों एक दूसरे को देवता और राजन सम्बोधित करते हुए खुद को अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ पाते थे। समय के बदलने के साथ ब्राह्मणों को कोई अब 'देवता' नहीं मानता था और नहीं अब कोई 'राजा' बचा था। इसलिए बाबूसाहब पंडीजी को देवता कहते थे और पंडीजी उनको राजन। समाज भले ही इनकी पुरानी पदवियों को भूल चुका था लेकिन दोनों अभी नहीं भूले थे और न ही भूलना चाहते थे। इसलिए एक दूसरे को ऐसा सम्बोधित कर प्रसन्न होकर हँसते थे... 'हुप्प...हुप्प...हुप्प।'
राजन उर्फ बाबू साहब अपनी खानदानी रवायत के अनुसार बड़ी चीजों के हिमायती थे। एक बार वे दोपहर में बच्चों को गणित पढ़ा रहे थे। चौथी कक्षा के बच्चों से पूछा कि पंद्रह गुणे पाँच कितना होता है? लोरिक यादव ने बताया कि 'छिहत्तर' , फेकू चौहान ने कहा कि 'अस्सी' ; और काली राम ने कहा 'सत्तासी' । बाबूसाहब के चेहरे के बदलते रंग को देख कर सारे बच्चों का मुँह सुखता जा रहा था। पंडी जी मजा ले रहे थे, क्योंकि गणित बाबू साहब ही पढ़ाते थे। बच्चे गणित में एकदम फेल थे। इसी बीच बाल्मीकि ने बरगद के एक पत्ते पर कुछ लिखा और धीरे से बहिनी साहेब के सामने पलटकर रख दिया। बाल्मीकि के इस हरकत से बहिनी साहेब का देह थर-थर काँप रहा था। यह कहिए कि पत्ता रखते किसी ने देखा नहीं। पता नहीं कितनी तरह की बातें होती। उधर बाबू साहब के लिए इम्तहान की घड़ी आ गई थी। अंत में उन्होंने अपने होनहार कुलदीपक प्रदीप से पूछा "आप बताइए कुँवर साब, पंद्रह गुणे पाँच कितना हुआ?" प्रदीप ने थोड़ा समय लिया। उठ-बैठ कर तमाम गुणा-भाग लगाने के बाद बताया "पंद्रह गुणे पाँच बराबर सरसठ।" बस क्या था? बाबू साहब का धैर्य जबाब दे गया। वे कुर्सी से उछले और प्रदीप को पटक कर उसके सीने पर चढ़ गए. फिर तो दनादन लात-हाथ चलाने लगे। पंडी जी लपक कर जब तक प्रदीप को छुड़ाते तब तक बाबू साहब ने उसे शीतल कर दिया। पंडी जी ने बाबू साहब को डपटा "क्या करते हैं राजन, माना कि क्रोध राजाओं का भवभाव है, किंतु जब सारे बच्चे ग़लत बता रहे हैं तो आप बश एक कुँवर साहब का कचूमर क्यों निकाल रहे हैं?" बाबू साहब ने गमछे से पसीना पोछते हुए कहा "बात, ग़लत बताने की नहीं है; देवता। दुख इस बात का है कि ये सारे लड़के असामियों के हैं, नान्ह जातियों के हैं, लेकिन इन सबका कलेजा बड़ा है, इनका हौसला बुलंद है, ये दबा कर ज़्यादा बता रहे है; और एक हैं ससुरे कुँवर साब, राजपूत जमींदार के वारिस, पंद्रह गुणे पाँच कितना होता है यह तो पता नहीं, पर जितना होता है उससे भी कम बता रहे हैं।" पंडी जी ने उन्हें समझाते हुए कहा कि "जाने दीजिए, यह सवाल ही थोड़ा कठिन था। यह तो कोई बच्चा नहीं बता पाएगा" इसी बीच बहिनी साहेब ने धीरे से बाल्मीकि का दिया पत्ता पलट कर देखा-उस पर लिखा था 'पचहत्तर' । खुशी से उनका चेहरा खिल गया। अचकचा कर उन्होंने कहा "मासाब... बाल्मीकि बताएँगे, ये जानते हैं।" तब तक बाल्मीकि खड़ा हुआ "मासाब...! पंद्रह गुणे पाँच बराबर पचहत्तर होता है।"
बाल्मीकि के जबाब के साथ पंडी जी और बाबू साहब के मुँह का स्वाद बिगड़ गया। उस दिन स्कूल क्या पूरे इलाके का रिकार्ड टूट गया। एक डोम जाति का लड़का आज पचहत्तर तक की गिनती बता दिया था। जो डोम सुअर चराने और बाँस की टोकरियाँ बनाते अपना सारा जीवन बिता देते हैं, उसी जाति का एक लड़का आज बाह्मनों... ठाकुर की तरह ज्ञानी हो गया था। बाबू साहब ने संशय और दुख के साथ पंडी जी को देखा। पंडी जी ने धीरे से बाबू साहब के कंधे पर हाथ रखा, "धैर्य रखिये राजन! यही कलियुग है। शरकार भी इन्हीं शब के शाथ है। हम क्या कर शकते हैं? इनको श्कूल में दाखिला देना ही पड़ता है। इन्हें दाखिला मत दो तो तनख्वाह रुक जाएगी और ये शब हैं कि।"
"हाँ... देवता! धीरे-धीरे समय बड़ा खराब होता जा रहा है। ये शूद्र-दलित आज गिनती-पहाड़ा बता रहे हैं कल को ये हमे ही पहाड़ा पढ़ाने लगेंगे। सरकार कह रही है कि सारे शूद्रों-दलितो को पढ़ाओ..., पर कोई यह नहीं सोचता कि ये लोग पढ़ लिख लेंगे... तो हम लोगों का क्या होगा?" पंडी जी ने उसी भाव से चिंता प्रकट करते हुए कहा "शही कह रहे है देवता कुछ न कुछ करना होगा। नहीं तो ये कुकुर-बिलार, कल को हमारे बगल में आकर बैठने लगेंगे। ...हमारा नेम-धर्म कुछ भी नहीं रह जाएगा।" बाबू साहब जैसे गहरी साँस लेते हुए बोले "कुछ करिए देवता... कुछ करिए." पंडी जी के कानों में घंटे-घड़ियाल की आवाज गूँजने लगी थी। उन्हें लग रहा था कि वे किसी भव्य राज दरबार में खड़े है। राज्य पर घोर संकट आ गया है। धर्म की हानि हो रही है। आर्तनाद करती हुई प्रजा कातर दृष्टि से उन्हें ही देख रही है और राजन उनसे इस विपत्ति से निकालने के लिए गुहार लगा रहे है-'कुछ करिए देवता... कुछ करिए.' थोड़ी देर में ही पंडी जी संयत हो बोले "राजन यह हमारे शमाज पर घोर विपत्ति का शमय है। पहले मलेच्छों ने हम पर शाशन किया फिर ब्रितानियों ने और अब शूद्र, दलित हम पर राज करेंगे। ...हम तो ठहरे गरीब ब्राह्मन... हमारा श्थान अब पहले जैशा नहीं रहा रह गया है। ...फिर भी धर्म और शमाज के रक्षा हेतु हम आखिरी दम तक प्रयत्न करते रहेंगे।" फिर थोड़ा ठहर कर गहरी उच्छवास के साथ अपनी मंशा प्रकट किया "हम तो केवल राश्ता बता सकते हैं... आप राजा हैं..., करना तो आपको ही होगा।" बाबू साहब ने लगभग संकल्प लेते हुए कहा "चिंता न करें देवता! ऐसा कभी हुआ है कि ब्राह्मन देवता का कहा कभी किसी क्षत्रिय ने टाल दिया हो। ये माना कि अब पहले जैसा राज-काज नहीं रहा पर हमारा रिश्ता तो वही है। इसलिए अब समय आ गया है कि हम फिर एक होकर इन आसुरी शक्तियों का मुकाबला करें।"
लेकिन इन संकल्पों और संधियों से अनजान बाल्मीकि आज स्कूल के बच्चों के बीच 'सुपर हीरो' बन गया था। हीरो तो वह पहले से ही था। बहिनी साहेब ने आज जी भर कर बेधड़क होकर उसे ताका था। बाल्मीकि ने उन्हें देखते हुए देखा तो वे लजा गईं। पर इस देखने और लजा जाने के बीच बहुत कुछ घटित हो चुका था। बहिनी साहेब ने अपना दुपट्टा ठीक करते हुए उसे गले तक ओढ़ लिया। कनखी से बाल्मीकि को देखा और मुस्कुरा कर घर की ओर चल दीं।
आगे-आगे बहिनी साहेब चल रही थीं और पीछे-पीछे उनका मुस्कुराना।
बाल्मीकि थोड़ी देर तक उनको जाते हुए देखता रहा। उसके भीतर से खुशी का एक रेला उमड़ा और गले से छिटक पड़ा-
" मटिया के पुतरी
सरगवा से उतरी
पुतरी तोहके ले के ना
छवायेब डिहवा पर एक ठो मड़ई
पुतरी तोहके ले के ना। "
आगे-आगे बाल्मीकि चल रहा था और पीछे-पीछे उसका गीत।
बाल्मीकि के छोटे-छोटे तीन भाई और दो बहने थीं। पिता अपने पुश्तैनी काम-काज में लगे रहते थे। उनके पास संपत्ति के नाम पर एक टुटही मड़ई ही थी। वे पूर्णतः भूमिहीन थे। माटी के नाम पर सिर्फ़ घराड़ी की जमीन थी। वह जमीन भी बड़का साहेब के नाम की थी जो पीढ़ियों पहले उनके परिवार के किसी व्यक्ति के दाह-संस्कार के नेग में बाल्मीकि के परदादा को मिली थी। तब से आज तक पीढ़ी दर पीढ़ी वह जमीन वाया वरासतनामा, खसरा खतौनी में आज भी बड़का साहेब के नाम दर्ज है। इतने दिन तक बाल्मीकि के परिवार के कब्जे में रहने के बाद भी वह जमीन उन लोगों के नाम से नहीं हो पाई थी। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। लेकिन वह जमीन दो कस्बों को जोड़ने वाली मुख्य सड़क के पास थी। बाद के दिनों में नहर वाले चौराहे पर लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार ने स्थायी स्वरूप धारण कर लिया। वहाँ पाँच-सात दुकानें स्थायी तौर पर बन गई. बसे भी रुकने लगी। बड़का साहेब, जिनका परिवार एक समय में उस इलाके का सबसे बड़ा जमींदार था। खूब खेत बारी थी, रोब-दाब था। ट्रक-ट्रैक्टर, जीप आदि उनके दरवाजे की शोभा बढ़ाते थे। इसी परिवार के आखिरी वारिस बड़का साहेब का पीने पिलाने का शौक ऐसा लगा कि धीरे-धीरे सब कुछ कम होता गया।
अब बड़का बाबू देर तक उसी नहर चौराहे पर बैठने लगे थे। वहीं पर कुछ नवसिखुआ पियक्कड़ जुटते थे और पीना-पिलाना होता रहता था। उसी चौराहे पर कहीं से एक बंगाली डॉक्टर आ गया था। छोटी-सी गुमटी ही उसका नर्सिंग होम था। गुमटी के पीछे हर वक्त एक-दो मरीज लेटे ही रहते थे।
आस-पास के दो चार गाँवों का अकेला डॉक्टर वही बंगाली था। बड़का साहेब उसी के गुमटी के सामने पड़े बेंच पर पसरे रहते। इस बारे में गाँव-ज्वार में कई तरह की बातें थीं। बंगाली की पत्नी जब भी कोई नई साड़ी पहनती तो लोग जान जाते कि कल बड़का साहब रात भर वहाँ रुके थे। धीरे-धीरे उनकी बाकी की जमीनें भी सरकते हुए बंगाली के नाम पर चढ़ने लगी थी। तरह-तरह की बातें थीं। पर एक दिन तो गजब हो गया। बंगाली के गुमटी की ओर से शोर उठा। लोग भागकर वहाँ पहुँचे, तो देखा कि बड़का साहब बंगाली डॉक्टर को पटक कर मार रहे थे। बीच-बचाव कर छुड़ाया गया। बाद में पता चला कि बंगाली डॉक्टर ने किसी मरीज को सर्दी जुकाम की दवा बताते हुए कहा था कि "सुबह-शाम आधा-आधा गिलास दारू पिया करो।" तब मरीज ने संशय प्रकट किया कि "कहीं दारू से सर्दी जुकाम जाएगा" इस पर बंगाली ने कहा कि "जब दारू से बड़का साहेब का ट्रक, जीप और बाईस बीघा खेत चला गया, तब तुम्हारा सर्दी जुकाम कैसे नहीं जाएगा।" उसी बात को बड़का साहेब ने कहीं से सुन लिया और सुबह-सुबह आकर बंगाली को शीतल करने में जुट गए थे।
उस घटना के बाद बड़का बाबू का उस चौराहे पर बैठने का स्थान बदल गया। अब जिस नई जगह पर वे बैठने लगे थे उसी के ठीक सामने उनकी पुश्तैनी जमीन थी जिस पर बाल्मीकि का परिवार झोंपड़ा बनाकर रह रहा था। एक रात उसी जगह पर बैठकर बड़का साहेब शराब पी रहे थे। चाँद बाल्मीकि के झोंपड़े के ऊपर चमक रहा था। ऐसे में बड़का बाबू को एकदम से यह ख्याल आया कि क्यों न यह जमीन बेच दी जाय।
स्कूल में अपने ज्ञान का लोहा मनवाकर और बहिनी साहेब के मन में अपने प्यार की रुई तह करके जिस दिन बाल्मीकि खुशी से घर लौटा तो पाया कि उसका सारा घर उजाड़ दिया गया है। उसके भाई-बहन डरे सहमे पेड़ के नीचे बैठे थे। बाल्मीकि के पिता बड़का साहेब के सामने औंधे लेटे हुए गिड़गिड़ा रहे थे। माँ एकदम से खामोश हो टूटे-फूटे बर्तनों को समेट रही थी। केवल सुअरों के बाड़े में हलचल थी। सुअर रह-रह कर गुर्रा रहे थे। जबकि वहाँ मौजूद लोग एकदम से चुप थे। बाल्मीकि ठगा-सा खड़ा था। उसकी जाति ऐसी नहीं थी कि वह बड़का साहेब का पैर पकड़कर दया की भीख माँग सकें। जिससे भी कुछ कहना चाहा, तो सबने यही कहा कि "उनकर जमीन है, उहे ले लिहने त, दूसर केहु का करी।"
बाल्मीकि अवाक था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। आस-पास के गाँवों में सबसे बड़े आदमी बड़का साहेब ही थे, इसलिए कहीं जाने का कोई मतलब ही नहीं था। उसने हिम्मत बाँध कर बड़का साहेब से कहा "आपके पास बहुते खेती-बारी है, लेकिन हमनी के पास माटी के नाम पर इहे इतना था, इतना से आपका कुछ ना होगा पर हमनी के त सब बिगड़ जाएगा, मालिकार।"
लेकिन बड़का बाबू ने कुछ नहीं सुना। बाल्मीकि और भी तमाम बातें, तमाम तरह से कह रहा था, लेकिन बड़का बाबू ने नहीं सुना और अंत में बाल्मीकि रोया भी, पर बड़का बाबू को नहीं सुनना था तो नहीं सुना।
रात होते-होते नहर की पटरी पर एक झोंपड़ा बन गया था। झोंपड़े के एक ओर पानी से भरी हुई नहर थी और दूसरी ओर अभी-अभी खाली कराई गई बड़का साहेब की जमीन। बाल्मीकि के घर वालों के लिए इन दोनों ओर के रास्ते बंद थे। एक ओर नहर का पानी था और दूसरी ओर इलाके का सबसे बड़ा नामी था। इन दोनों के बीच की थोड़ी-सी जगह में बाल्मीकि की माँ ने गेहूँ उबाल कर उसमें थोड़ा-सा नमक मिलाया और सबके आगे परोस दिया। पहला कौर मुँह में डालते ही बाल्मीकि को यकीन हो गया कि इसमें माँ की आँखों के कोर से टपके नमक का हिस्सा कुछ ज़्यादा है। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। छोटे बच्चे भी जैसे सब समझ रहे हो, उस तरह से चुप थे। आधी रात को सोते समय बाल्मीकि को लग रहा था कि जैसे उसकी झोंपड़ी कोई नाव है जो बही जा रही है, कहाँ? यह मालूम नहीं।
इसके बाद के कई दिन तक बाल्मीकि भटकता रहा। जहाँ भी गया, जिससे भी अपनी समस्या बताई सबने अपने हाथ खड़े कर लिए. कहीं-कहीं तो बाल्मीकि से हफ्ते भर तक ईंट ढुलवाते थे या खेत की मेड़बंदी करवाते थे और जब काम हो जाता तो कह देते "देख बाल्मीकि हम पता कइले रहनीं, बाकिर ओमे कुछ ना हो पाई. जमीन बड़का साहेब के नाम से रहल। कोर्ट-कचहरी कुछ ना करी।"
फिर हर तरफ से हार कर मन मसोस कर धीरे-धीरे बाल्मीकि सामान्य होने लगा। उसके पास इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था।
बाल्मीकि को अपनी डोम जाति के इतिहास के बारे में सिर्फ़ इतना पता था कि बनारस में एक कोई डोम राजा थे। जिन्होंने घोर विपत्ति के समय महान इच्छवाकु वंश के राजा हरिचंद्र को शरण दिया था। आज उसी वंश के प्रतापी राम के नाम पर चलने वाली समाज व्यवस्था में बाल्मीकि और उसकी जाति के लिए कोई शरण नहीं था। राशन कार्ड कभी नहीं बना। कोई अपने घर मजदूरी आदि के कार्य में डोम को लगाता नहीं था। खेती भी नहीं थी। गाय-भैंस पाल नहीं सकते थे। उनसे दूध कौन खरीदता। किसी से बात करते समय लगभग दस हाथ की दूरी बनाए रखनी होती थी। स्कूल में भी बाल्मीकि सबसे किनारे वाले मिट्टी के टिले पर बैठकर पाठ सुनता रहता। धूप तेज होने पर अपना बुशर्ट पलटकर सिर पर रख लेता। अब बाल्मीकि नियम से स्कूल आने लगा था। बहिनी साहेब से बातचीत तो क्या उनकी ओर देखता भी नहीं था। बड़का बाबू के अत्याचार ने उसे एकदम से तोड़ दिया था। उस दिन भी वह मिट्टी के उसी टिले पर बैठकर यही सब सोच रहा था। दूसरे बच्चे जोर-जोर से रट रहे थे "सोरे के सोरे..., सोरे दूनी बत्तीस"। पर बाल्मीकि भयानक यत्रंणा में बैठा आत्मालाप कर रहा था "...जब हमारे लिए कुछ नहीं है तो हम डोम काहें हैं। ... हमहूँ मानुष हैं, हम का करें और कइसे जियें।" उसकी आवाज तीखी और तेज हो गई थी। काला शरीर अब तपने लगा था। बच्चे डर कर चुप हो गए. तभी बाबू साहब ने अपना जूता चला कर बाल्मीकि को मारा "ले सारे... जूता खोर।" बाल्मीकि के मुँह पर जूता लगा। वह चौंक गया। दर्द, क्रोध और अपमान से उसका चेहरा विकृत हो उठा। उसकी आँखों में खून उतर आया था। पर वह जानता था कि इससे भी कुछ नहीं होगा। वह चुपचाप टीले से उतरा और पोखरे की तरफ चला गया। दोपहर की छुट्टी होने पर बहिनी साहेब बाल्मीकि को खोजने उधर आई. बाल्मीकि पोखरे की ठंडी गीली मिट्टी में बैठा अहक-अहक कर रो रहा था। बहिनी साहेब का मन भर आया वे अचकचा कर बाल्मीकि के आँसू पोंछना चाहीं पर रुक गईं। बाल्मीकि ने तंज किया "इ आँसू नाहीं, डोम के आँख से निकला तेजाब है, बहिनी साहेब..., आप घर चले जाइए, नाहीं त जल जाइएगा।"
बहिनी साहेब की आँखे भर आईं। उन्होंने दुलार में बाल्मीकि को डाँटा "चुप्प! एकदम चुप्प! बाबू साहब ने मारा तो पलट कर मारे काहें नाही।"
"हम मारें कैसे... हम त उन्हें छू भी नहीं सकते।" बाल्मीकि ने भरे गले से कहा। बहिनी साहेब ने उसे समझाने की कोशिश की "हम अपने बाबूजी से आज की बात कहेंगे, वे बाबू साहब को धिकाएँगें तब इनको समझ में आएगा।"
बाल्मीकि को मौका मिला गया "आपके बाबूजी हमारा सब घर उजारवा दिए, अब उनसे कह कर क्या होगा?"
यह सुन कर बहिनी साहेब का चेहरा सफेद हो गया। वह पहले से यह बात जानती थी। पर उन्हें उम्मीद नहीं थी कि वह बात इस तरह सवाल बन कर उनके सामने आ जाएगी। वह बोलें तो क्या बोलें। थोड़ी देर चुप रहीं तो बस चुप रही। बाल्मीकि उनकी चुप्पी समझ रहा था पर बहिनी साहेब थोड़ी देर वैसे ही खड़ी रहीं और फिर बिना कुछ कहे वापस चली गई. बाल्मीकि उनको जाते हुए देखता रहा।
इसके बाद से बाल्मीकि की सक्रियता स्कूल में बढ़ गई थी। अब वह स्कूल के बच्चे जो अधिकांश छोटी जातियों से थे, उनको इकट्ठा कर गिनती पहाड़ा से लेकर गणित पढ़ाने लगा था। बाबू साहब और पंडी जी को उनकी यह बात अच्छी तो नहीं लगती थी पर वे लोग जिस तरह से स्कूल से गायब रहते थे उस बीच स्कूल की व्यवस्था बनाए रखने में बाल्मीकि से मदद मिल जाती थी, इसी से वे उसको बर्दाश्त कर रहे थे।
उसी बीच स्कूल में एक घटना घट गई. स्कूल में खेल कूद का जिम्मा बाबू साहब के पास था। ब्लॉक स्तर पर होने वाले खेल-प्रतियोगिताओं के लिए बरगद स्कूल को भी भाग लेना था। बाबू साहब इसकी तैयारी करा रहे थे। तेरह चौदह साल की सुखिया स्कूल की सबसे होनहार खिलाड़ी थी। उस दिन बाबू साहब उसी की प्रैक्टिस करा रहे थे। सुखिया दोनों पैर ऊपर कर अपने हाथों पर चल कर दिखा रही थी। ऐसा करते हुए उसका फ्राक गले तक सरक आ रहा था और फिर उसकी फटी हुई चढ्ढी से।
चारों तरफ लड़के-लड़कियाँ खड़े थे। उन सबने सब कुछ देखा। बाल्मीकि से रहा नहीं गया तो उसने प्रतिवाद किया कि " इ क्या है, बाबू साहब..., इस खेल को बंद कराएँगे कि नहीं' ?
बाबू साहब का चेहरा गुस्से से और वहाँ खड़ी लड़कियों का चेहरा शर्म से लाल हो गया।
"तो क्या... हम तुम्हरा से पूछ कर खेल कराएँगे, तुम साला बीच में कइसे बोला? उस दिन का जूता भूला गया का?" ...फिर उसे हड़काते हुए कहा "भाक्क साला इहाँ से।" बाल्मीकि गुस्से में पैर पटकते हुए चला गया। बाबू साहब ने वहाँ खड़े हुए बच्चों को भी भगा दिया और फिर सुखिया को उसी खेल की प्रैक्टिस कराने लगे। दूसरी लड़कियाँ थोड़ी दूर खड़ी भय और घृणा के साथ उस दृश्य को देख रही थी। उधर बाबू साहब कभी सुखिया को पैर फैलाने को तो कभी उपर नीचे करने को कहते। वह सब करते कराते बाबू साहब की आँखों के लाल-लाल डोरे में सुखिया उलझती जा रही थी।
छुट्टी के बाद घर लौटते समय सभी बच्चे खामोश थे। लड़कियाँ लड़कों से अलग चल रही थी। सुखिया से लड़कियों ने जब यह बात बताई तो पहले उसे विश्वास नहीं हुआ फिर उसने किनारे जाकर अपना फ्राक उठा कर देखा तो सन्न रह गई. रोते-रोते घर पहुँची। माँ से सारा हाल कहा। उसकी माँ छाती पीटकर रोने लगी। सुखिया इस वाकये से क्षुब्ध और अपमानित महसूस कर रही थी। उसे लग रहा था कि वह सारे गाँव के सामने नंगी हो गई है। गरीब के पास सिर्फ़ दो ही धन होते है एक इज्जत और दूसरी गरीबी. ये दोनों एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। एक आती है तो दूसरी आ ही जाती है। सुखिया को अपनी माँ की रुलाई से यह यकीन आ गया कि अब सब कुछ खत्म हो चुका है।
दूसरे दिन स्कूल में सुखिया दोपहर तक चुपचाप बैठी रही। किसी से कुछ बात भी नहीं कर रही थी। खड़ा होकर चलने में उसे लज्जा आ रही थी। दोपहर बाद बाबू साहब फिर वही प्रैक्टिस कराने वाले थे। दोपहर की छुट्टी में पोखरे की तरफ गए बच्चों में अचानक शोर हुआ। पता चला कि सुखिया पोखरे में कूद गई. उसको बचाने के लिए कई बच्चे भी कूदे। पर पोखरे में भ्रष्टाचार की तरह ब्याप्त जलकुंभी के भयानक चक्रव्यूह में कोई वहाँ तक नहीं पहुँच पाया जहाँ सुखिया डूब रही थी। खूब हो हल्ला मचा। बाल्मीकि ने इसके लिए बाबू साहब को जिम्मेदार ठहराया। पर उसके कहने से कौन मानता। फिर भी उसने बाबू साहब की उदार और पंडी जी की सीधे-सज्जन की तथाकथित छवि पर प्रश्नचिह्न तो लगा ही दिया। पंडी जी सुखिया के माँ-बाप से मिलकर मामला रफा-दफा करा लिए पर बाल्मीकि उन लोगों की नजरों में अब साँप हो गया था। बाल्मीकि बाबू साहब को माफ नहीं कर सका। पर वह करता भी क्या? गाँव वालों के लिए बाबू साहब और पंडी जी का झूठ एक डोम के सच से ज़्यादा प्रिय और स्वीकार योग्य था। बाल्मीकि अब धीरे-धीरे अपनी सीमा समझने लगा था।
बाल्मीकि के मेहनत से स्कूल के इतिहास में पहली बार एक साथ अठारह बच्चे पाँचवीं का इम्तहान देने की स्थिति में आ गए थे। पहले के दोनों विद्यार्थी प्रदीप और सतानिक पढ़ाई छोड़ चुके थे। दलित बच्चों की तैयारी देखकर पंडी जी ने बाबूसाहब से कहा "राजन! देखते है; क्या शमय आ गया है इन शब के पीछे शरकार खड़ी है। आज पढ़ा रही कल नौकरी देगी। शूद्रों, दलितों के तो नौकरी की गारंटी पर ही शरकार वोट बटोर रही है। ये शारा लोग कल को नौकरी पाकर हमारे शाथ उठे बैठेगा और हम पर ही हुकुम चलाएगा।"
बाबूसाहब ने भी पंडी जी की चिंता में शामिल होते हुए कहा "अरे दूर कहाँ जाते हैं, अपने ही यहाँ देखिए, जिन पिल्लों को हम इतने परिश्रम से फेल कर-कर के पाँचवीं के पहले स्कूल छोड़ा देते थे, उनको ई साला बाल्मीकिया पढ़ा कर पाँचवीं तक ला दिया है।" फिर खुद पर ही झल्लाते हुए कहा "यादो, कोइरी, चौहान, प्रजापति, हरिजन और तो और उ डोम बाल्मीकि भी, ऐसे-ऐसे सवाल लगा रहे हैं जो आज तक हम भी नहीं लगा पाए. ...यही हाल रहा तो इ सब इस बार पाँचवीं बोर्ड पास कर जाएँगे। ...याद है आपको, ऊ साला स्कूल इस्पेक्टर, बाल्मीकिया पर किस तरह खुश होकर भाषण दिया था। कह रहा था बाल्मीकि इसी स्कूल में मास्टरी करेगा।" ...फिर एक गहरी साँस छोड़ते हुए कहा "और जिस दिन एक डोम शिक्षक बनेगा उस दिन सरोसती मइया के वीणा का तार टूट जाएगा। महराज कोशिश करते रहना है कि कोई भी असली ज्ञानी व्यवस्था में न आ जाय। हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि स्कूल में हमसे ज़्यादा होशियार नहीं आना चाहिए. नहीं तो हमारा भंडाफोड़ हो जाएगा और हमको सरकार पेन्सन देकर घर भेज देगी और आपके सतानिक महराज और हमारे कुँवर साब घूम-घूम कर उखरनी करेंगे।"
पंडी जी की आँखे मिचमिचा रही थी। उनका चेहरा देख कर लग रहा था कि वे घोर वैदिक संकट में घिर गए है। बड़ी मुश्किल से वे बोल रहे थे "हाँ राजन... यही अगातम शोचकर मैं घबरा रहा हूँ। इस लोक में जो है वह है ही, पर बड़ा दुख इस बात का है कि इन अशुरों से अगर धर्म जाति की रक्षा न कर शका तो भरने के बाद मनु महराज को क्या मुँह दिखाऊँगा।"
उस दिन एक लंबे अर्से के बाद बाबू साहब और पंडी जी हँस नहीं रहे थे। चुप्प थे और उदास भी।
बाल्मीकि को जैसे जीवन का कोई मकसद मिल गया था। वह अब स्कूल के बाद भी अँधेरा घिरने तक बरगद स्कूल में पाँचवीं के बोर्ड के लिए बच्चों को पढ़ाने लगा था। बहिनी साहेब को भी बोर्ड की परीक्षा देनी ही थी। इसलिए अब वे बड़का साहेब की अनुमति से शाम तक वहाँ रुकने लगी थी। उन दिनों बरगद का वह बूढ़ा पेड़ भी खूब मस्ती में झूमता रहता था। वह खुश था शायद इसलिए भी कि पहली बार उसके छाँव तले कोई पूरी इबारत लिखी जा रही थी।
बहिनी साहेब ने उन्हीं दिनों बाल्मीकि से अपने प्रेम का खुलकर इजहार किया था। दोपहर के समय गन्ने के खेत में बाल्मीकि को माटी का माधो कहा था। बाल्मीकि माटी का माधो नहीं जाति का डोम था। यह बात बाल्मीकि को न भी याद हो, बहिनी साहेब को भी न याद हो, पर सारा गाँव-ज्वार इसे कभी भुला नहीं सकता था। पंचायती राज और लोकतंत्र के सारे वादों-इरादों के बावजूद अभी इस देश में कोई भी नेता डोम जाति का नहीं आया था। डोम अभी दूसरी दलित जातियों की तरह वोट बैंक नहीं बन पाए थे। लोगों को इनकी याद विवाह और मृत्यु के समय ही आती थी। उपदेशकों, धर्मप्रचारकों, संस्थाओं आदि के प्रायोजित सुधार कार्यक्रमों से, सरकारी विकास योजनाओं की फाइलों से, राजनीतिक कार्यक्रमों की कार्य सूची से, लोगो की संवेदनाओं के चौराहे से, पूँजीवादी-फ़िल्मी पटकथाओं से, साहित्य और संस्कृति के फैशनेबुल विमर्शों से, कविता और कथा की महान परंपरा से डोम गायब थे।
उधर गायब होने की इस आम आदत के विरुद्ध बाल्मीकि अपने अंजाम से अनजान बरगद स्कूल में बाबू साहब की सत्ता और पंडी जी की व्यवस्था के विरुद्ध दर्ज होने की जिद कर बैठा था। उसी जिद में उसने बहिनी साहेब को साफ-साफ बता दिया कि "आपका बहुते एहसान है हमरे पर। आपने हमको परेम किया। एक डोम से परेम किया। इस बात को डोम जाति की औलादें कभी भुला नहीं पाएँगी। यह डोम जाति से किया गया इस धरती का पहला परेम है। ...हमारे पास दो रास्ते है, एक तो यह कि आपके प्रेम को अपना कर आपको लेकर यहाँ से भाग से जाएँ और दूसरा यह कि जो काम अभी हाथ में लिया है उसको पूरा करें। बहिनी साहेब। शायद आप नहीं समझ पायेंगी कि एक डोम भूख से तो एक बार पर अपमान से रोज-रोज मरता है।" बहिनी साहेब सब कुछ सुन उदास हो गईं। धीरे से उठीं और चली गईं।
स्कूल में पाँचवीं के बोर्ड का फार्म भरा जा रहा था। परीक्षा देने वाले सभी बच्चे अपने-अपने घर से धान, गेहूँ, सरसों, कद्दू, लौकी, धनिया जो भी मिला ले आए थे। जिनके घर कुछ नहीं था वे रास्ते में से दूसरे के खेत से मटर और आलू निकाल लाए थे। पंडी जी और बाबू साहब की कुर्सियाँ नियत स्थान पर लगा दी गई थी। प्रार्थना वाले चबूतरे पर पंडी जी के घर से लाया हुआ चादर बिछा हुआ था। कुछ बच्चों के माँ-बाप भी आए थे। थोड़ी ही देर में बहिनी साहेब भी आईं। बाल्मीकि पहले से ही वहाँ था। वह खुशी और उत्साह के मिले जुले भावों के साथ सबसे किनारे बैठा था। पंडी जी और बाबू साहब इस अवसर के लिए बड़का साहेब की ओर से भेजे गए धोती-कुर्ते में चहक रहे थे। थोड़ी ही देर में पंडी जी ने आयोजन की शुरुआत मंत्रोचार के साथ किया-
" मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुणध्वज,
मंगलम पुण्डरीकाक्ष मंगलायतनो हरिः"
मंत्र पाठ के बाद बाबू साहब के आदेश पर विद्यार्थियों ने एक दूसरे को टीका लगाया। इन सब के बीच किसी को बाल्मीकि का ध्यान नहीं आया। वह चुपचाप उठा और बरगद के जड़ से मिट्टी लेकर अपने पूरे ललाट पर पोत लिया। लोहे-सा शरीर और पहाड़ जैसे ललाट पर सफेद मिट्टी का सूरज उगाए हुए बाल्मीकि वैदिक अरण्यों से देवताओं को चकमा देकर भागा हुआ कोई योद्धा लग रहा था। इसके बाद पंडी जी ने चढ़ावे में लाई गई सामग्रियों को चादर पर जमा कराया। सबसे पहले बहिनी साहेब का फार्म भरा गया। उसके बाद दूसरे बच्चों का। अंत में बाल्मीकि का फार्म। उस दिन स्कूल में उत्सव-सा माहौल था। बाल्मीकि भी खूब मस्ती में था। बहिनी साहेब भी अन्य दिनों की अपेक्षा ज़्यादा खुश थीं। खूब जमकर ओल्हा-पाती खेला गया। कबड्डी हुआ। बाल्मीकि खेल तो सकता नहीं इसलिए रेफरी का काम करता रहा। उसके आँखों में एक सपना पल रहा था कि इतने सारे दलित बच्चे पहली बार पाँचवीं का बोर्ड परीक्षा देगें। ...वह खुद भी तो देगा। सब कुछ अच्छा रहा था तो पाँचवीं के बाद वह अमीन तो बन ही जाएगा। पाँचवीं के बाद जो बच्चे पढ़ना चाहेंगे उनके लिए रास्ता खुलेगा। बाल्मीकि खुश था, इस उम्मीद में कि शायद दुनिया बदलेगी। बहिनी साहेब लड़कियों के साथ खूब हँसी ठिठोली कर रही थीं। स्कूल की छुट्टी के समय तक यह सब चलता रहा। गाँव वाली सड़क पर आते ही बहिनी साहेब बाल्मीकि के पास आईं। थोड़ी दूरी बनाकर चलते हुए कहा "हमें तुम्हरा दूसरा वाला रास्ता पसंद है, उसी रास्ते पर चलना बाल्मीकि... इज्जत ओर परेम सब उसी रास्ते पर मिलेगा।"
बाल्मीकि भौंचक हो उन्हें देख रहा था। बहिनी साहेब ने फिर थोड़ा गंभीर होकर कहा "और सुनों, जब हम ससुरा जाएँगे तो मिठाई रखने वाली झपोली तुम अपने हाथ से बनाना। हम सारी झपोलियाँ अपने कोठरी में सजा कर रखेंगे; जब तुम्हारी याद आएगी, जी भर कर देखेंगे उन्हीं को।" यह कहते हुए बहिनी साहेब का गला भर आया। बाल्मीकि भी भावुक हो गया "इ का कह रही हैं बहिनी साहेब! हम सोनार होते तो आपके खातिर सोने के झपोली बना देते, पर का करें हम तो जाति के डोम हैं... बाँस-बलहन का ही काम आता है, उसी का बनाएँगे। पर इ है कि ऐसी चटाई बाँधेंगे जो जिनगी भर न खुले।" उसके इस तरह बताने पर बहिनी साहेब को हँसी आ गई. उन्होंने कनखी से बाल्मीकि को देखा और दुपट्टे को सँवारते हुए मुस्कुरा कर चली गई. उनके इस तरह से मुस्कराने और चले जाने के बीच बाल्मीकि के भीतर एक पुरवाई-सी बहने लगी थी...
रतिया में जब रजनीगंधा फूलाइल,
गाँव के बँसवारी में चाँद आ गइल
हो तोहार याद आ गइल,
तारों से भरी हुई उस रात नहर की पटरी पर सोते हुए भी बाल्मीकि उसी एहसास से तरबतर था। उसके इर्द गिर्द उसी गीत की पंक्तियाँ लिपटी इुई थीं...
जोन्हिन के बा जइसे नेवता दिआइल,
ले के चनरमा बारात आ गइल
हो तोहार याद आ गइल।
स्कूल में बच्चों की छुट्टी कर दी गई थी। मार्च का महीना शुरू हो गया था। दस-पंद्रह दिन बाद ब्लाक के मिडिल स्कूल पर सभी प्राथमिक स्कूलों की पाँचवीं की परीक्षा होनी थी। बाबू साहब और पंडी जी दोपहर तक स्कूल पहुँच गए. उस दिन दोनों कुछ गंभीर थे। एक दो दिन में भरे गए सारे फार्म बोर्ड ऑफिस भेजना था। इतने सारे दलित एक साथ पाँचवीं का इम्तहान पास कर आगे बढ़ जाएँ, तो यह वर्णव्यवस्था के लिए कदापि उचित नहीं होगा। इसी चिंता में पंडी जी और बाबू साहब घुल रहे थे। उस चुप्पी को तोड़ते हुए बाबू साहब के कहा "आप को काफी पहले सचेत किया था देवता! पर तब आप चेते नहीं, अब बताइए इ बल्मीकिया तो खूबे आगी लगाया।"
पंडी जी ने अपना सिर उठाया और गंभीर स्वर में बोले "हाँ राजन! यह कठिन शमय है; अगर मैं आज चूक गया तो मुझे वर्ण के साथ विश्वासघात करने का पाप लगेगा। थोड़ी देर का मौका मुझे दीजिए। कुछ न कुछ राश्ता तो अवश्य निकलेगा।"
यह कहकर पंडी जी ने बरगद के नीचे अपना आसन लगाया। आचमन किया, अगरबत्ती जलाया और मनुस्मृति की पोथी निकाल कर पाठ करने लगे। बाबू साहब भक्ति भाव से वही सामने बैठ गए. बाबू साहब ने देखा जैसे-जैसे पंडी जी पोथी के पन्ने पलटते जा रहे है वैसे-वैसे उनके चेहरे पर चमक बढ़ती जा रही है। एक स्थान पर आकर पंडी जी रुक गए. पाठ पूरा हो गया था। रास्ता मिल गया था। पंडी जी ने थोड़ी देर तक अज्ञात का ध्यान लगाया और फिर आँखें खोलकर बड़े ही वत्सल भाव से बाबू साहब को देखा। बाबू साहब का धैर्य जबाब दे गया था। वे आतुर स्वर में बोले "मार्ग बताइए देवता।"
पंडी जी ने वही बैठे-बैठे संकेत से फार्म लाने को कहा बाबू साहब दौड़कर फार्म उठा लाए. पंडी जी ने भक्ति भाव से प्रणाम कर मनुस्मृति को कपड़े में लपेटा और उसे गोद में रखकर बाल्मीकि का फार्म माँगा। बाबू साहब कुछ समझ नहीं पा रहे थे। बस यंत्रवत पंडी जी का कहा करते जा रहे थे। पंडी जी ने बाल्मीकि का फार्म लिया। गोद में रखे मनुस्मृति पर रखकर कुछ गिनती लगाया और उस पर पेन से कुछ लिख कर बाबू साहब की ओर बढ़ा दिया। बाबू साहब ने उस लिखे हुए को गौर से देखा और रहस्यात्मक लहजें में पूछा "म...त...ल...ब?" पंडी जी मुस्कुराए "होने दीजिए पाँचवीं पाश, लेकिन इन्हें नौकरी कभी नहीं मिलेगी।" बाबू साहब विह्वल होकर पंडी जी के चरणों पर गिर गए "धन्य हैं ...धन्य है देवता..., आज आपने वर्ण और समाज का बहुत बड़ा उपकार किया है। मनु महराज ने तो यह व्यवस्था दी थी, पर आपने आज इस व्यवस्था की रक्षा की है। आप महान है, सचमुच के देवता हैं।" इस आरती के बाद बाबू साहब का राजत्व जागृत हो गया। उन्होंने उच्च स्वर में संकल्प लिया, "हमारे सारे पूर्वज सुनें, तैतिस करोड़ सभी देवता सुने, हमारे सारे ऋषि गण सुने, मैं यह संकल्प लेता हूँ कि आज से पाठशाला में इसी नई व्यवस्था का पालन करता और कराता रहूँगा। ...जिससे की फिर कोई शूद्र कभी इस ज्ञान मार्ग से आगे बढ़ कर हमारी पवित्र व्यवस्था को चुनौती न दे।" बाबू साहब के संकल्प के बाद पंडी जी उठे और उन्हें गले से लगा लिया। बाबू साहब थोड़े संयत हुए और पंडी जी से पूछा "मेरा संकल्प तो ठीक है न देवता?"
पंडी जी ने सहमति जताते हुए कहा "हाँ बिल्कुल, कुल परंपरा के अनुशार ही है। एक बार त्रेता जुग में भी ऐसी ही एक शमस्या आन पड़ी थी। जब शंबुक नामक एक शूद्र विद्या ग्रहण कर श्वर्ग प्राप्ति के लिए तपस्या करने लगा था, तब क्षत्रिय शिरोमणि प्रभु राम ने उशका बध किया था।"
बाबू साहब ने भी उन्हें याद दिलाया "हाँ देवता! त्रेता में ही गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अँगूठा कटवा कर उसे ज्ञान के मार्ग से हटाया था।"
पंडी जी ने टोका "यह त्रेता की नहीं द्वापर की बात है।"
"हाँ, देवता, द्वापर की बात है... और इस कलजुग में तो आप और हम हैं... जो इस महान परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।" यह कहते हुए बाबू साहब ने पंडी जी को एक बार फिर दंडवत कर लिया।
पंडी जी ने उन्हें उठाया "हाँ...हाँ... ठीक है, राजन! आइए अब शेश दलित विद्वानों का पिंड दान कर दिया जाय।"
फिर दोनो एक साथ बहिनी साहेब का फार्म छोड़ कर शेष सभी आवेदनों पर कुछ लिखते रहे। ...और रह-रह कर हँसते रहे। ...हुप्प...हुप्प...हुप्प...हुप्प। उनकी हँसी इतनी भयानक थी कि पोखरे के आस-पास का सारा वातावरण वैदिक अरण्य में बदल गया था और उस अरण्य में मनुस्मृति के किसी श्लोक से निकले हुए दो यती यज्ञ कर रहे थे। चारो तरफ उनके मंत्र गूँज रहे थे... हुप्प...हुप्प...हुप्प।
कोई कुछ जान नहीं पाया पर दूसरे दिन सबने महसूस किया कि बरगद के पत्तों पर नमी कुछ ज़्यादा थी।
(इसके बाद तो इस कहानी में कहने के लिए कुछ बचा भी नहीं है। जैसे उस दिन जब सारी चीजें खत्म हुई थीं, कायदे से तो यह कहानी भी तभी खत्म हो गई थी। पर अभी कुछ बातें बाकी थीं... जो आपको बताना है। यह जो कुछ है, वह और कुछ भी हो सकता है... पर कहानी नहीं। वैसे मैं यह दुस्साहस कर भी नहीं सकता कि दर्द को, दंश को, शर्म को और सच को कहानी कर दूँ। उस दिन के बाद उस इलाके में कुछ भिन्न-भिन्न किस्म की सिलसिलेवार घटनाएँ हुई थीं, अब इसका फैसला आप ही करेंगे कि उन घटनाओं का इस कहानी से कोई रिश्ता है कि नहीं?)
बोर्ड की परीक्षा हो गई थी। सारे बच्चों के पेपर बहुत बढ़िया हुए थे। परीक्षा के बाद सारे बच्चों ने सब कुछ भुलाकर बाल्मीकि को गले से लगा लिया था। सभी हँस रहे थे... सभी चिल्ला रहे थे ...सभी रो रहे-रहे थे।
उसी साल गर्मी में बहिनी साहेब की शादी हो गई थी। बाल्मीकि अपने वादे के मुताबिक अपने हाथ से लड्डू, खाजा, कसार रखने की रंगबिरंगी, झपोलियाँ बना कर उनके घर दे आया था। उसे यकीन था कि इन झपोलियों को बहिनी साहेब अपनी कोठरी में सजा कर ज़रूर रखेगीं और जब अल सुबह बहिनी साहेब की डोली नहर से होकर जा रही थी तो बाल्मीकि अपने जाति का वाद्य यंत्र धुतुंगा बजा रहा था... बजा क्या, गा रहा था...
मटिया के पुतरी
सरगवा से उतरी
पुतरी तोहके ले के ना
छवायेब डिहवा पर एक ठो मड़ई
पुतरी तोहके ले के ना।
बाल्मीकि ने देखा तो नहीं पर उसे लगता था कि बहिनी साहेब ने डोली से झाँक कर उसको देखा होगा।
मार खाने के बाद सतानिक और प्रदीप जिस शहर में भाग कर गए थे, वहाँ एक खाली पड़ी सरकारी जमीन में साँईं बाबा का फोटो रख, एक मंदिरनुमा ढाँचे से धंधे की शुरुआत कर अब लाखों में खेलने लगे थे।
जुलाई शुरू होते ही पाँचवीं का रिजल्ट आ गया था। बरगद स्कूल के सभी बच्चे बाल्मीकि समेत पास हो गए थे। बड़कनपूरा और दक्खिन टोले में ढोल मंजीरा बज उठे थे। हर आदमी इस बदलाव का श्रेय बाल्मीकि को दे रहा था। बाल्मीकि के बाप मँगरू ने तो उस दिन कंठ तक ताड़ी पिया था और अम्मा गहरे लाल रंग से अपनी फटी हुई एड़ियाँ रंगे घूमती रहीं। बाल्मीकि तो उसी दिन आगे की पढ़ाई के लिए फार्म लाने शहर चला गया था। पूरा दिन और पूरी रात बाल्मीकिमय हो गई थी। टोले वालों को अब लगने लगा था कि ये बाल्मीकि रामायण वाले बाल्मीकि का ही अवतार है।
दूसरे दिन बाद अखबार में दो बड़ी खबरे छपी थी। पहली खबर देश की राजधानी से और दूसरी ब्लॉक से छपी थी। पहली खबर के रूप में भारत के अब तक के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी का बयान था कि "दिल्ली से एक रुपया चलता है तो गाँव तक पहुँचते-पहुँचते वह सिर्फ़ पंद्रह जैसा बचता है।"
दूसरी खबर थी कि "बरगद स्कूल के शिक्षकों ने कर्मनिष्ठा का इतिहास रचा"। खबर की डिटेल थी कि "इस साल बरगद स्कूल से अठारह विद्यार्थियों ने बोर्ड की परीक्षा दी थी जिसमें एक लड़की को छोड़कर शेष सभी शूद्र दलित थे। दलित विद्यार्थियों की उम्र सैंतीस से चौवालीस साल के बीच है और एक शूद्र विद्यार्थी बाल्मीकि जिसने पूरा बोर्ड टॉप किया है-उसकी उम्र पैंतालीस वर्ष है। इतने उम्रदराज प्रौढ़ व्यक्तियों को पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाने में पाठशाला के शिक्षक पंडी जी और बाबू साहब ने अपना सर्वस्व लगा दिया था। अध्यापकों की इस महान सेवा के लिए जिलाधिकारी ने राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए उनके नाम की अनुशंसा की है।"
इस खबर के बाद पूरे बड़कनपुरा में मातम छा गया था। उनके बच्चे पास तो हो गए थे, पर पास होते-होते कागज पर इतने बूढ़े हो गए थे कि आगे की पढ़ाई और नौकरी की दौड़ में बिना शामिल हुए ही थका दिए गए.
उस दिन बाल्मीकि फार्म लाने गया तो आज तक लौटा नहीं है। कुछ लोग कहते है कि बागी हो गया, या नक्सली बन गया था। कुछ का यह भी मानना है कि राष्ट्रपति पुरस्कार में कोई व्यवधान न आ जाय इसलिए बाल्मीकि को रास्ते से हटा दिया गया था। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह पोखरे में डूब कर मर गया था, आज भी रात में बाल्मीकि और सुखिया पोखरे से निकल कर कक्षा-चार की किताब 'भाषा-भारती' की पृष्ठ संख्या-पैंतालीस पर छपी सोहनलाल द्विवेदी की कविता "उठो लाल अब आँखें खोलो" का पाठ करते हैं।
पंडी जी और बाबू साहब का प्रमोशन हो गया था। अब वे दो अलग-अलग स्कूलों के हेड मास्टर बन गए थे। वहाँ पूरे मनोवेग से अपने जाति-वर्ण का वही पारंपरिक कार्य कर रहे थे।
देश की राजधानी में मानवाधिकार आयोग के रिसेप्सन हॉल की बड़ी-सी टी.वी. में "मिले सुर मेरा तुम्हारा" का सरकारी विज्ञापन देखते हुए अधिकारी कर्मचारी सो रहे थे।
बरगद स्कूल पर सरकार मेहरबान हो गई थी। वहाँ पर ईंट का पक्का स्कूल बन गया था। स्कूल बनाने वाला ठेकेदार बरगद को काटकर उसे नए स्कूल के चौखट, दरवाजे और खिड़कियों में लगा चुका था। आज भी उस स्कूल की खिड़कियाँ और दरवाजे पूरे बंद नहीं होते। जैसे बरगद की आत्मा सत्याग्रह कर रही हो शायद।
उधर बड़कनपूरा में पिता रोज किसी अजनबी को जबरदस्ती पकड़ कर चिल्लाने लगते हैं "देखव-देखव, हम्मर बाल्मीकि आ गइलें।" सब देखते हैं पर कोई कुछ कहता नहीं हैं और अम्मा हैं कि उसी दिन से सड़क के किनारे बैठी हैं और बसों से उतरने वाले सवारियों को बाल्मीकि समझ कर बलैंया ले रही हैं।
और आखिर में एक अपील...
बाल्मीकि का अभी तक कुछ पता नहीं चल पाया है। सच से भी साफ मन लिए, कोई कहीं दिख जाय, तो लपक कर गले मिल लीजिएगा। वह बाल्मीकि ही होगा और हमको भी बताइएगा। ज़रूरी है जी। छोटे-छोटे भाई बहिन थे सब उसी को खोजने निकले थे पता नहीं कहाँ बिला गए और अम्मा, बाबूजी का हालत तो आप देख ही रहे हैं।