उर्दू राष्ट्रभाषा / रामचन्द्र शुक्ल
निजाम की राजधानी हैदराबाद में Young men’s Improvement Society के बीच खडे होकर डॉक्टर निशिकान्त चटर्जी ने उर्दू का खूब गुणानुवाद किया और उसे भारतभाषा होने के योग्य बतलाया। उन्होंने उठते ही कहा कि 'क्या अच्छा होता यदि ऍंगरेजी यहाँ की देशभाषा हो जाती। पर यह बात असम्भव देख पड़ती है।' मैं भी कहता हूँ कि क्या अच्छा होता यदि भारतवासी आज कन्दराओं में से ऑंख मलते निकलते, उनका कोई इतिहास न होता, उनकी कोई भाषा न होती, उनका कोई साहित्य न होता। डॉक्टर साहब ने फिर कहा 'मैं बहुत दिनों से ऐसी देशभाषा की खोज में था जो सारे हिन्दुस्तान की भारतीय भाषा हो सके, अन्त में इतिहास परम्परा और शब्द भंडार के विचार से उर्दू ही इस योग्य देख पड़ी। सौ वर्ष से अधिक हुए कि ऍंगरेज शासकों के ध्यान में यह बात आई और वे फोर्ट विलियम कॉलेज द्वारा उसका पोषण और संस्कार करने लगे। इसी से ऍंगरेजी राज्य और पादरी लोग ही उसके पालनकर्ता कहे जाते हैं।'
जिस उर्दू की चर्चा दिल्ली के शाही दरबारों में भी औरंगजेब के पीछे मुगल राज्य के अधोपतन के साथ शुरू हुई उसकी इतिहास परम्परा के सामने हिन्दी की इतिहास परम्परा कुछ न ठहरी। जो पृथ्वीराज के समय के वीरों की भाषा रही, जिसमें अमीर खुसरो और मलिक मुहम्मद जायसी ने पहेलियाँ और कहानियाँ कहीं, जिसके महाकवियों ने भारत में भक्ति और प्रेम का स्रोत बहाया क्या उसके गौरव को भुलाने ही में अब देश का कल्याण् है? डॉक्टर साहब ने जो उर्दू के शब्द भंडार की बात कही वह भी विलक्षण ही है। हिन्दी शब्दों के सिवाय जो शब्द उर्दू में हैं वे अरबी, फारसी, तुर्की आदि के हैं। ये विदेशी शब्द अधिकतर सीख सीखकर भाषा में भरे जाते हैं इसमें तो कुछ सन्देह ही नहीं। उन संस्कृत शब्दों की ओर जिनका प्रचार न केवल सारे हिन्दुस्तान ही में वरन् सिंहलद्वीप, ब्रह्म देश और श्याम आदि में है उर्दू भूलकर भी नहीं ताकती। और कहाँ तक कहें संस्कृत के उन साधारण शब्दों के लिए भी जो गाँव गाँव घर घर सुनने में आते हैं उर्दू में जगह नहीं। जैसे सुख दु:ख, माया, प्रेम, प्रीति, कलह, शोक, शोभा, रीति, प्राण, जीवन, ज्ञान, ऐश्वर्य, वैभव, मुख्य अतिथि, चिन्ता, अस्तित्व, पाप, पुण्य, धान इत्यादि। हिन्दी उन फारसी वा अरबी शब्दों को अपनाने में जरा भी संकोच नहीं करती जो लोगों के व्यवहार में आ गए हैं। यह प्रवृत्ति उसकी अपनी है। सूरदास और तुलसीदास आदि अरबी फारसी के शब्दों को जो देश में बस गए हैं, पूरा पूरा ग्रहण करते हैं। बहुत से ऐसे ठेठ हिन्दी के साधारण शब्द जिनके बिना हमारा नित्य का व्यवहार नहीं चल सकता पर जिनके बिना अरबी फारसी का काम बड़े मजे से चला आता है, उन्हें हम क्या समझें! यही न कि उर्दू साहित्य से और हमारे सांसारिक जीवन से बहुत कम लगाव दिखाई पड़ता है। वैज्ञानिक, दार्शनिक और गम्भीर विषयों को समझाने के लिए हिन्दी संस्कृत से सहायता लेते हैं, जिसके समझने और जाननेवाले इस देश में फारसी अरबी की अपेक्षा दस गुने अधिक हैं। दूसरी बात यह है कि उर्दू हिन्दुस्तानी, बंगाली, मराठी, गुजराती आदि किसी की शब्द परम्परा से नहीं मिलती अत: वह इन भाषाओं के बोलनेवालों के बीच प्रचार कैसे पा सकती है। पर हिन्दी से उनका बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। कहीं कहीं तो केवल क्रिया आदि के रूपों को बदलने ही से दो भाषाएँ एक हो जाती हैं। अत: स्पष्ट है कि राजभाषा बनाने के लिए हम हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती आदि ही में से किसी को चुन सकते हैं। उर्दू की ओर तो ध्यान ही नहीं जा सकता। ये भिन्न भिन्न भाषाभाषी थोड़ी बहुत राह दे सकते हैं, अपनी भाषाओं को बिलकुल किनारे नहीं कर सकते। हिन्दी की कोई पुस्तक उठाकर पढ़िए, उसे आपके पास बैठे हुए बंगाली, महाराष्ट्री और गुजराती थोड़ा बहुत सब समझ लेंगे पर उर्दू की कोई इबारत पढ़ने लगिए तो वे आपका मुँह ताकने लगेंगे। डॉक्टर साहब की भाँति क्या सब बंगालियों को अपने मधुसूदनदत्ता, बंकिम और नवीन के वाक्यों पर कुछ भीममत्वनहीं ? क्या वे उनकी शब्दावली को बिलकुल पलट देंगे और गालिब और सौदा की भाषा लिखने पढ़ने लगेंगे। क्या हम अपने सूर, तुलसी, रहीम तथा हरिश्चन्द्र और प्रतापनारायण को बिलकुल भूल जायँ ? इन हिन्दी, बंगला, मराठी आदि भाषाओं के ठेठ शब्द भी प्राय: मिलते जुलते क्या एक ही हैं। और वे सब आवश्यकतानुसार संस्कृत से सहायता लेती हैं। रह गईं तमिल और तैलंगी, वे भी संस्कृत शब्दों की सहायता से चलतीहैं। इस एकता को नष्ट करने की जो चेष्टा करे वह देश का हितैषी कभी नहीं हो सकता।
इस बात को दुनिया जानती है कि उर्दू में संस्कृत वा प्राकृत शब्दों की रत्तीर भर भी गुजर नहीं। अब उर्दू का ढाँचा और व्याकरण बिलकुल हिन्दी का है, उसके शब्द भी बहुत से हिन्दी के हैं, अत: व्याकरण सम्बन्धी किसी बात की खोज के लिए प्राकृत से होते हुए संस्कृत तक जाना होगा। इसी प्रकार शब्दों की व्युत्पत्ति भी प्राकृत और संस्कृत में टटोलनी होगी पर यह बात उर्दू पंडितों के लिए असम्भव ही है क्योंकि उर्दू साहित्य सेवा के लिए अरबी और फारसी की लियाकत की जरूरत होती है न कि संस्कृत और प्राकृत की। प्राय: सब उर्दू लेखक इन संस्कृत और प्राकृत शब्दों से लगाव न रखने के कारण अपनी भाषा के शब्दों की व्युत्पत्ति आदि कुछ भी नहीं जानते। उनका व्याकरण विचार लखनऊ और दिल्ली के मुहावरों तक ही खत्म हो जाता है। हिन्दी में विभक्ति, प्रत्यय पर जो लेख संवाद पत्रों में निकले उन्हें उर्दू वालों ने बड़े आश्चर्य के साथ देखा। पर हिन्दी पढ़ने लिखने वाले लोग चाहे वे संस्कृत न भी जानें बहुत से संस्कृत शब्दों के जानकार रहते हैं और प्राचीन (700 वर्ष तक के) ग्रन्थों को पढ़ते पढ़ते शब्दों की क्रमागत बनावट आदि का पूरा पूरा ध्यान रख सकते हैं। अत: देश में उर्दू फैलाना मानो एक तरह से मूर्खता फैलाना है, किसी उर्दू पंडित ने कुछ दिन हुए इतिहास की एक पुस्तक लिखी। उसमें मौर्यवंश का जिक्र करते हुए आपने लिखायह खानदान मोरिया इसलिए कहलाया कि उसके झंडों पर मोर का निशान बना रहता था। उर्दू द्वारा ऐसे ही लोगों की सृष्टि होगी?
इसके बाद डॉक्टर निशिकान्त चटर्जी निजाम साहब के दरबार की तारीफ करते हुए उनकी शायरी की तारीफ करते हैं और कहते हैं कि 'आसफ' (निजाम बहादुर का तखल्लुस) की गजलें उनके राज्य के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक सबके मुँह से सुनाई पड़ती हैं। निजाम बहादुर की तारीफ गाकर फिर आप उनके वजीर महाराज सर किशुन परशाद की तारीफ करते हैं, जो अपनी शायरी में अपना तखल्लुस 'शाद' रखते हैं। मालूम होता है कि इसी इतने के लिए आपने इतना बखेड़ा रखा।
आप अपने पक्ष के समर्थन में ये पाँच दलीलें पेश करते हैं
1. उर्दू भारतवर्ष की देशभाषा रही है और है। यह ढाका से लेकर कराची और लाहौर से लेकर तंजौर तक बोली और समझी जाती है। अत: उसके बोलने वाले और भाषाओं के बोलने वालों की अपेक्षा अधिक हैं।
जो बात हिन्दी के विषय में बड़े बड़े विद्वानों द्वारा कही जा रही है उसी को डॉक्टर साहब ने उर्दू पर चढ़ाया है। हिन्दी बोलने वाली जनसंख्या ही को आपने कौशल से उर्दू बोलने और समझने वाली बतलाया है। पर इसे कोई स्वीकार नहीं कर सकता। उर्दू में जो हिन्दी के शब्द मिले हैं, उन्हीं ने आपको यह कहने का अवसर दिया है। आपके 'तशरीफ लाइए' 'इस्म शरीक' और 'दौलतखाना' को समझने वाले किन किन प्रान्तों में मिलेंगे, बताइए तो। 'बैठिए', 'आपका नाम क्या है', 'घर कहाँ है' जब कहा जाएगा तभी सभी प्रान्त के लोग समझेंगे। ये वाक्य ठेठ हिन्दी के हैं और समझ लिए गए। अब यदि हम इनके स्थान पर संस्कृत मिलाकर 'विराजिए', 'आपका स्थान कहाँ है', कहें तो भी और प्रान्त वाले अच्छी तरह से समझ लेंगे। अब पक्षपात छोड़कर विचारने की बात है कि देश में हिन्दी के समझने वाले अधिक हैं कि उर्दू के।
2. उर्दू अंगरेजी के समान एक मिलीजुली और खिचड़ी भाषा है जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के भाव हैं।
इस कथन की असारता हम पहले दिखा चुके हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस भाषा में हिन्दुओं के कोई भाव नहीं हैं। इसमें उनके धार्मिक शब्द तक नहीं, उनके पूर्व पुरुषों की अधिक चर्चा नहीं। इसमें हमारे नित्य के काम के शब्दों का समावेश नहीं। हमारी बहुत सी ऐसी गृहस्थी की चीजें हैं जिनका नाम लेना भी उर्दू को नापसन्द है। हमारे जीवन से इस भाषा का कोई लगाव नहीं। बहुत से ऐसे संस्कृत शब्द हैं जिसे इस देश के स्त्रीथ पुरुष, पढ़े अनपढ़े सब बोलते हैं पर जिनके उच्चारण करने तक की सामर्थ्य उर्दू में नहीं। किन्तु हमारे मुसलमान भाइयों के भाव और शब्द हिन्दी में बराबर पाए जाते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी, नूर मुहम्मद आदि ने अपने धर्म की बहुत सी बातें अपनी हिन्दी पुस्तकों में लिखी हैं। हिन्दी अरबी वा फारसी के शब्दों को उच्चारण करने में जरा सा भी नहीं हिचकती। मुसलमान लोग भी ईसाइयों की भाँति यदि अपने धर्म की बातों को हिन्दी में लिखा करें तो बड़ी अच्छी बात हो।
डॉक्टर साहब ने हिन्दी और उर्दू के बीच एंग्लो सैक्सन और अंगरेजी का सम्बन्ध बतलाकर बड़ी विचित्रता की है। डॉक्टर साहब को जानना चाहिए कि हिन्दी एक मिलीजुली और साहित्य की ऊँची भाषा है। इसको विदेशी विद्वानों ने भी स्पष्ट कहा है। बेट साहब ने लिखा है
The number of Persian and Arabic words is sufficient to prove that Hindi, in common with other languages, is composite.
3. उर्दू अंगरेजी के समान एक कामकाजी और लचकदार भाषा है जिसमें जितनी नई बातें मिलाई जायँ सब मिल सकती हैं। इससे भविष्य में उसकी बेहद उन्नति हो सकती है।
इसकी जाँच तो पहले हो चुकी। जिसमें हमारे नित्य के बोलचाल के संस्कृत शब्दों के उच्चारण करने की क्षमता नहीं, हमारे घरेलू और कामकाज के शब्द जिसकी नादरुचि के अनुकूल नहीं वह कितनी नई बातों को ग्रहण कर सकती है, समझने की बात है। नई बातों को ग्रहण करने का गुण हिन्दी में है। यह हिन्दी ही का गुण था कि उसमें अरबी और फारसी के बहुत ही कठिन रूढ़ शब्द मिलाकर कुछ लोगों ने अपने लिखने पढ़ने के लिए एक अलग भाषा बनाई जिसकी ध्वनि यहाँ तक विदेशी हो गई कि देश की बोलचाल और कामकाज के शब्द भी उसे अपरिचित और बेमेल लगने लगे। अब हिन्दी और उर्दू में भेद किस बात का है वह सुनिए। जो अरबी फारसी आदि के शब्द बोली में मिल गए हैं हिन्दी उनका व्यवहार बड़ी खुशी से करती है। पर यदि उसे नए शब्दों की जरूरत होती है तो अपनी और बहिनों की तरह उसे संस्कृत से लेती है। यह स्थिर करने के लिए कि कौन कौन से विदेशी शब्द हमारी बोली में मिल गए हैं हम देखते हैं कि किन किन शब्दों को वे लोग बोलते हैं जिन्होंने उर्दू वा फारसी की शिक्षा कभी नहीं र्पाई। जिन शब्दों को लोग पढ़कर वा मौलवी साहब से सीखकर बोलते हैं वे हमारी भाषा के नहीं समझे जाते।
4. इसे अंगरेजी सरकार का सहारा रहा है और अब भी है।
यह ठीक है कि इसका कारण यह है कि अंगरेजी सरकार ने इन प्रान्तों के शासन सम्बन्धी कागज पत्र उसी भाषा में पाए। पर अंगरेज सरकार के पहले देश का राज्य जिन लोगों के हाथ में था उनका प्रबन्ध ऐसा विस्तृत और व्यवस्थित न था कि सारी प्रजा को वे लगाव में रख सकें। जिलों और तहसीलों के अमलों और क्लर्कों की इतनी बड़ी सेना तब नहीं थी। प्रजा के बहुत से काम तो बिना किसी लिखापढ़ी के तै कर दिए जाते थे। अत: उस समय राजकाज किस भाषा में चलाया जाता है, इसकी परवा करने की किसी को उतनी जरूरत न थी। पर अब यह अवस्था नहीं है। अब सरकार इस बात को अच्छी तरह देख रही है कि कचहरियों में जो भाषा लिखीपढ़ी जाती है वह जन साधारण् की भाषा नहीं है। उसको समझने के लिए बहुत से दीन प्रजाजन को पेट काट कर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। दूसरे सरकार से सहारा पाकर ही कोई भाषा बड़ी नहीं हो जाती, उसे आप खुद आगे चलकर स्वीकार करते हैं।
5. उर्दू ऐसी लिपि में लिखी जाती है जिसमें शीघ्र लेखन प्रणाली का गुण है और जो कैथी वा नागरी की अपेक्षा अधिक आसानी से लिखी जाती है। इसके सिवाय इसके अक्षर ऐसे सुन्दर और मनोहर होते हैं कि देखते ही बनता है।
जनाब डॉक्टर साहब! यह ख्याल बहुत पुराने जमाने का है कि हिन्दी की अपेक्षा उर्दू बहुत ही जल्दी लिखी जाती है। अब यह गलत साबित हुआ। और थोड़ी जल्दी लिखी भी जाय तो उसके पढ़ने की दिक्कत उसकी तेजी से सौ गुनी हजार गुनी बढ़कर है। जिस फारसी लिपि की गड़बड़ी के कारण चौथाई प्रजा त्राहि त्राहि कर रही है, जिसमें हमारे मुँह से निकले हुए शब्दों को ठीक ठीक अंकित करने की शक्ति नहीं, उससे हमें क्या लाभ पहुँच सकता है? जिनको एक दिन में सीखकर लोग मनुष्य के मुँह से निकली हुई प्रत्येक ध्वनि को अंकित करने में समर्थ हो सकते हैं उन नागरी अक्षरों के गुण बतलाने की यहाँ जगह नहीं। जिस वर्णमाला के वैज्ञानिक क्रम और विभाग को देखकर योरोपियन विद्वान् इतने चकित हुए कि उसे अपौरुषेय तक कह डाला उसके इस रूप से जो भारतवासी अपरिचित रहे तो उसे हमारे दुर्भाग्य के कारणों में से समझना चाहिए।
रही फारसी अक्षरों की खूबसूरती की बात। निगाह से देखनेवालों की तो बात ही क्या, इस देश के अधिकांश लोग इसे जानते हैं। जिन अक्षरों का अच्छा टाइप तक नहीं ढल सकता उन्हें लेकर शिक्षित समाज क्या करेगा?
इसके उपरान्त चटर्जी साहब ने जान बीम्स और अपने उर्दू हिन्दी के शिक्षक गार्सा डि टासी के वाक्य उध्दृत करके अपने मत को पुष्ट करना चाहा है। पर डॉक्टर साहब को चाहिए था कि वे सब विद्वानों की सम्मतियों का मिलान करके देखते। डॉक्टर हार्नली ने तो साफ कहा है
With the extension of the Mohammedon Power, the use of Urdu spread over the Hindi area, but it remained the Language of those exclusively, who were more immediately connected with that power. It never became the vernacular of the people. इसके सिवाय चटर्जी साहब को जानना चाहिए कि उन दोनों विद्वानों के पीछे जिनका आपने प्रमाण दिया है, भाषा सम्बन्धी खोज बड़ी छानबीन के साथ हुई है। डॉक्टर ग्रियर्सन ने अपना क्या मत प्रकट किया है इस पर भी आपने विचार किया?
आगे चलकर चटर्जी महोदय उर्दू सेवियों को चेताते हैं कि 'भाइयो, अगर तुम उर्दू का प्रचार करना चाहते हो तो हिन्दी के अधिक शब्दों का व्यवहार करो, क्योंकि यह एक साधारण नियम है कि भाषा की उन्नति उसकी विशुद्धता, सरलता, और सुबोधता के अनुसार होती है।' इस कथन में डॉक्टर महोदय स्वीकार करते हैं कि हिन्दी के शब्द अधिक सुबोध और सरल हैं। अगर आप एक अजनबी बोली को फैलाना चाहते हैं तो इस देश की स्वाभाविक भाषा हिन्दी ने आपकी कौन सी गठरी मारी है कि आप इतने जोश से उर्दू को और सब भाषाओं से जुड़ी हिन्दी की ओर से फेरा चाहते हैं? अब तो महाराष्ट्र, बंगाल और गुजरात आदि प्रान्तों के विद्वान् भाई नागरी अक्षरों और हिन्दी भाषा के लिए उद्योग कर रहे हैं तब आप अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग क्यों पकाने लगे?
दूसरी सलाह आप यह देते हैं कि उर्दू लेखकों और ग्रन्थकारों को चाहिए कि वे लोग अपने भाव, अपने नायक नायिका और अपनी उपमाएँ भारतवर्ष से लिया करें, अरब और फारस से नहीं। अर्थात् वे हातिम, नौशेरवाँ और रुस्तम की जगह कर्ण, युधिष्ठिर और भीम की तारीफ किया करें, बुलबुल की सदा की जगह कोयल और पपीहे की वाणी सुनें। लाला और नरगिस की जगह कुन्द केतकी की बहार देखें, यारों के गन्दे कूचों को छोड़ लताकुंज और काननों के फेरा लगाएँ, ऋंगार में कफन, खून और खंजर का बीभत्स व्यापार छोड़ दें।
अन्त में आप अपने इन नीचे लिखे हुए वाक्यों से उर्दू की यथार्थ स्थिति आप ही खोल देते हैं!
मुसलमानों को भारतवर्ष के प्राचीन ऐतिहासिक महापुरुषों का उतना ही अभिमान करना चाहिए जितना कि हिन्दुओं को। यदि इस देश के सब मुसलमान भारतवर्ष के प्रति वैसा ही प्रेम प्रगट करते जैसा कि उनके एक भाई ने किया तो आज उर्दू साहित्य पर यह कलंक न लगाया जाता कि वह परिपूर्ण और उन्नत भावों से युक्त नहीं है, वह देश की आजकल की आवश्यकताओं के उपयुक्त नहीं है, वह देश के भविष्य के शिक्षित सन्तानों के काम की नहीं है।
पाठक, इन उपर्युक्त वाक्यों से हम क्या समझे? यही न कि उर्दू को एक विशेष वर्ग के लोगों ने अपने लिए बनाया है। वह देश के लोगों की भाषा नहींहै।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, दिसम्बर, 1909 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]