उर्दू साहित्य सम्मेलन / रामचन्द्र शुक्ल

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विगत ईस्टर की छुट्टियों में उर्दू भक्तों ने बदायूँ में अपना एक सम्मेलन कर डाला। हैदराबाद सरकार के पूर्व होम सेक्रेटरी मौलवी अजीज मिरजा सभापति के आसन पर सुशोभित हुए थे। मौलवी साहब ने पहले सम्मेलन करने का कारण बतलाकर फिर उर्दू का इतिहास कह सुनाया और इस बात को अस्वीकार किया कि उर्दू किसी धर्म या जाति विशेष के लोगों की भाषा है। आपकी समझ में वह हिन्दू और मुसलमानों को एक करनेवाली शक्ति से उत्पन्न हुई है। मुसलमान लोग उसे उर्दू कह सकते हैं और हिन्दू लोग हिन्दुस्तानी। (हिन्दू लोग तो नहीं, हाँ अंगरेज लोग अलबत उसे उस नाम से पुकारते हैं)। सभापति ने अपने स्वधार्मियों को इसलिए कोसा कि वे संस्कृत के अमूल्य रत्नों से उर्दू का भंडार नहीं भरते। मौलवी साहब ने यह भी बतलाया कि उर्दू कविता में देशी रंगत इस कारण नहीं आती कि उसके कवि लोग बैठे तो रहते हैं हिन्दुस्तान में और ख् वाब देखते हैं फारस का। मौलवी साहब ने आगे चलकर कहा-”बड़े खेद की बात है कि यद्यपि संयुक्त प्रदेश उर्दू साहित्य का उद्गम स्थान है पर उसमें 'हिन्दुस्तानी' को छोड़ और कोई ऐसा पत्र नहीं है जो अपने कर्तव्यम का पालन करता हो वा सर्वसाधारण की सम्मति पर कुछ प्रभाव डालता हो अथवा जिसका प्रचार इतना हो कि वह अपना खर्च निकाल सके।' हिन्दी प्रेमियों को अब भी चेतना चाहिए।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मार्च, 1910 ई.)

[ चिन्तामणि, भाग-4 ]