उर्फ / श्रीकांत दुबे
एक थे पिंकू। इसलिए एक पिंकी भी थीं।
पिंकू माने मेरी बुआ के बेटे। माने सूखी सरकती हवा के समानांतर हाथों के पंख बना उड़ने की बार बार की कोशिश। माने एक टुकड़ा किशोरगामी बचपन। मैं अपने नाम के तीनों अक्षर समूहों के साथ 'अनिल कुमार पांडेय'। और साथ में एक अहम बात यह, कि मेरी उम्र बराबर पिंकू की उम्र जुड़े पाँच महीने। पाँच महीने का यह अंतर माने एक स्थिरांक। पहले तो इस आधी अधूरी कहानी भर। आगे, शायद जीवन भर भी।
पिंकू का लगभग एक तिहाई, मतलब तैतीस प्रतिशत बचपन उनके ननिहाल, अथवा कह लीजिए कि अनिल के घर, और उनके साथ बीता था। उनके बचपन के सबसे सघन तैतीस प्रतिशत। तब वे दोनों 'दोस्ती' शब्द से भी परिचित नहीं थे, जबसे उनके और अनिल के बीच छनने लगी। छनने लगी, तो कुछ ऐसे कि मानो दुनिया के जितने हिस्से पर उनके हमउम्रों का राज संभव हो, उसकी साझा बादशाहत उन्हीं दोनों के हाथ लगी हो।
पिंकू के ननिहाल का घर बहुत बड़ा और उनके परदादा के भी दादा के जमाने का बना हुआ था। कहते हैं कि जब सन उन्नीस सौ बाईस में चौरी चौरा कांड हुआ और पुलिस चौकी में गोरे पुलिसिए भून दिए गए, तो उसके बाद की प्रतिक्रिया स्वरूप अंग्रेजों ने पूरे इलाके की परेड लगा दी थी। और पानी की गढ़ही, तालाब और हरियाए पेड़ों भर को छोड़ हरेक चीज को फूँक डालने की कोशिश करते गए थे। तो ऐसे में गाँव भर के खेतों से कटाई समूची फसल अनिल कुमार पांडेय के विशालकाय आँगन की बदौलत ही बचाई जा सकी थी। आगे, यह एक अलग ही वृत्तांत होगा कि तब से कई महीने बाद तक, वातावरण से आग और लोगों के दिल से गोरों की दहशत के ठंडा हो जाने के ठीक पहले तक, उस आँगन से एक एक कर निकलती रसद की बोरियों ने किस तरह पूरे इलाके में 'न भूतो न भविष्यति' जैसी महँगाई ला दी थी। महँगाई, जो अपने नितांत क्षेत्रीय स्वरूप में भी तात्कालिक नतीजे के तौर पर भुखमरी से बीसों की मौत का कारण बनी और जिसकी एक सूराख तक दुनिया के किसी अर्थशास्त्री के पास नहीं पहुँच पाई।
लेकिन यकीनन, तब से लेकर आज तक चालीस पचास कोस के समूचे जवार में ऐसी कोई घटना नहीं हुई, जिसने लोगों के खान पान, बाजार हाट, टट्टी पेशाब पर सामूहिक रूप से कोई वैसा उल्लेखनीय फर्क डाला हो। इंदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी हो, या फिर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, सितारपुर की जिंदगी अपनी ही मद्धम रौ में बहती रही, सबसे बेअसर। तब से लेकर आज तक सितारपुर के लोगों की करीब तीन ईमानदार पीढ़ियाँ, फिर भी, इस पूरे का श्रेय अनिल के खानदान, मतलब उस दानवकद घर में रहने वालों को देती आई थीं।
बहरहाल, यह बैकग्राउंड की भव्यता का जिक्र करने के लिहाज से बता दी जाने वाली एक अवांतर लेकिन सच्ची बात थी।
तो इस तरह के पिंकू के ननिहाल वाले घर के ओसार में एक कोने से शुरू करके दूसरे तक पहुँच जाना, पिंकू और अनिल की बाल चेतना को एक ठीक ठाक दूरी वाली यात्रा का अहसास दिलाता था। फिर भी, वे दोनों दिन में न जाने कितनी दफा इसे पूरी करते। इसके लिए उन्होंने ओसार के विस्तार का सम्मान करने वाला एक खेल भी विकसित कर लिया था। उत्तरी सीमा पर खड़े खंभिए से दौड़ना शुरू कर दक्षिणी छोर के खंभिए तक जाने का खेल। दक्षिणी छोर वाले खंभिए को जो पहले छू लेता, वह विजय के भाव से गद्गद हो कुछ देर के लिए ठहर जाता। जो हारता, वह बिना एक पल भी गँवाए, फिर से उल्टी दिशा की दौड़ शुरू कर देता। यूँ, एक बार शुरू हो जाने के बाद यह क्रम काफी देर तक चलता, और एक के द्वारा दूसरे को कहीं धकेल दिए जाने के बाद लगी चोट, नतीजतन शुरू हुए विलाप के साथ ही खत्म होता। और बिलकुल भी अजीब नहीं था कि आपस की ऐसी दगाबाजियों के बाद भी, चोट का दर्द भूलते न भूलते वे अपने संबंधों में आ चुकी किरकिरी को मसलकर चंदन की धूल में बदल लेते।
लेकिन पिंकू और अनिल के ऐसे किसी भी खेल में उन्हीं का हमउम्र कोई तीसरा भी था, जो उन दोनों से पहले ही, और ज्यादा फुर्ती और चतुराई के साथ खेल की बारीकियाँ समझ, उसे जीत लेता। पर उसकी जीत एक अदृश्य जीत होती। मतलब साफ तौर पर तो यह दिखता कि उसने दौड़ की शुरुआत उनके साथ ही की, और छुए जाने वाले खंभिए के समानांतर खड़े एक दूसरे खंभिए को, उन दोनों से कहीं पहले छू लिया, लेकिन जय और पराजय रूपी फल साबुत सिर्फ पिंकू और अनिल में ही बाँटे जाते थे। उस तीसरे के लिए एक फांक तक नहीं। पिंकू और अनिल को, इस बात का एहसास अनिल की माँ के उस तीसरे के प्रति रवैए से हो गया था कि उनके किसी भी खेल में जीत अथवा हार का निर्धारण सिर्फ पिंकू अथवा अनिल के ही हक में हो सकता है। बावजूद अनिल की माँ के प्रत्यक्ष तिरस्कार के, उस तीसरे के उनके घर में ही बने रहने की वजह होती थीं पिंकू की माँ। जो पिंकू और अनिल को बरफी के सुडौल टुकड़े पकड़ाते हुए, उस तीसरे को भी एक गुड़ की डली तो जरूर ही दे देती थीं। अनिल की माँ से छुपाकर, दरवाजे के पल्ले की आड़ लेते हुए।
यूँ एक रोज तक उस तीसरे की पहचान इतने भर की थी कि जितने में वह किसी को दिख जाए, या फिर उसकी राह में आ जाए, या फिर पिंकू और अनिल कुमार पांडेय में से किसी के द्वारा पीट दिए जाने पर थोड़ी देर के लिए रोती रहे।
जिस रोज उसकी पहचान पक्की हुई, वह एक सूना सूना सा दिन था। सूना इसलिए, कि अनिल की माँ उस रोज अनिल को लेकर पोलियो का टीका लगवाने शहर चली गईं थीं। अनिल के न होने से, घर और पिंकू के मन में जो एक खालीपन भर आया था, उसे पूरा करने के लिहाज से पिंकू ने उस तीसरे को थोड़ा करीब आने दिया और उसके साथ धीरे धीरे खेलना शुरू कर दिया। लेकिन ऐसा करते हुए जल्द ही वे उधम मचाने के उसी स्तर पर पहुँच गए, जहाँ तक वे अनिल के साथ भी पहुँच जाया करते थे। अनिल के उस तीसरे के साथ किए गए अल्पकालिक विस्थापन के दौरान जो दो उल्लेखनीय चीजें हुईं उनमें से पहला था उस तीसरे का तब तक की अपनी जिंदगी में सबसे खुश हो जाना, और दूसरा उसका एक नाम रख दिया जाना। उसकी खुशी की जाहिर सी वजह यह थी, कि तब से पहले जहाँ हर रोज पिंकू और अनिल की हरकतों में उसकी भूमिका एक सहायक भर की होती थी, वहीं उस रोज खेल को किसी नए तरीके से खेलने या फिर कोई नया ही खेल शुरू करने के निर्णय का हक भी उसे मिल गया था। और नाम का रख दिया जाना भी यूँ हो गया कि दोपहर के खाने के लिए जब अनिल के पिता घर में आए और देर तक इंतजार में बैठे रहने के बाद दालान से अपनी बहन, यानी पिंकू की माँ को आवाज लगाई, तो पिंकू की माँ ने जवाब में, झटके में कह दिया, "ई पिंकू और पिंकी लोग हमके परेशान कई देहले बा। अउर दू मिनट रुकि जा भइया"। उस तीसरे को, ऐसे झटके में 'पिंकी' कह दिए जाने का कारण, हर इंसान के लिए एक नाम रूपी संज्ञा की जरूरत होने के साथ उस वक्त उसका पिंकू के साथ और लिंग से उसका लड़की होना भी था। आगे, अनिल के पिता ने दो चार दफे अकेले में, फिर एकाध दफा अनिल की माँ के सामने भी उसे पिंकी के नाम से पुकार दिया। बस, तभी से वह पिंकी हो गई।
पिंकी तीन चार गाँवों के खेतों की सिंचाई करने वाले इकलौते सरकारी ट्यूबवेल के संरक्षक, जिसे कि लोग आपरेटर के नाम से जानते थे, की बेटी थी। आपरेटर आजमगढ़ जिले से अपनी सेवा के स्थानांतरण की नोटिस पाकर अनिल के गाँव, सितारपुर आ गया था। आपरेटर के आने के कई वर्षों बाद भी पूरे गाँव में उसका असली नाम जानने वालों की तादाद बमुश्किल ही दहाई तक पहुँचती थी। वे गाँव में आपरेटर के शुरुआती दिन ही थे जब पिंकी, पिंकू और अनिल का साथ रहा करता था। तब तक आपरेटर अपना कोई स्थायी ठिकाना नहीं बना पाया था, और अनिल के ही घर में पीछे की ओर खुलते दरवाजे वाले कमरे में सपरिवार रहता था। सपरिवार आपरेटर का मतलब पिंकी और उसकी माँ के साथ खुद आपरेटर भी।
बाद में आपरेटर ने भागदौड़ की, और गाँव के जिस पश्चिमी सीमांत पर अकेला सा ट्यूबवेल खड़ा रहता था, उधर ही, और उसी से सटे दो कमरे बनवा लिए।
बनवाए गए कमरों का खर्च, कानूनन सरकारी कोश से आए रुपयों से होना था, जिसके लिए सरकार की तरफ से रुपए आए भी थे, लेकिन पूरी लागत का आधे से ज्यादा खर्च फिर भी आपरेटर को अपने पास तब तक जमा की गई पूँजी से ही करना पड़ा। साथ में, सरकार की तरफ से मिली शेष राशि के लिए कई रसूखदार लोगों का शुक्रगुजार भी होना पड़ा था। और उनमें भी सबसे अधिक अनिल के पिता का।
तो इस तरह से, नए घर में प्रवेश के साथ, पिंकी की पिंकू और अनिल के घर से एक भौतिक दूरी हो गई। लगभग चार पाँच सौ मीटर की दूरी। जो दूरी आगे लगभग डेढ़ दशक के दौर में पिंकी ने फिर से एक बार भी तय नहीं की। लेकिन दूसरी ओर, पिंकू और अनिल कुमार पांडेय का उधर आना जाना दो कारणों से लगा रहा। पहला कारण गाँव के सरकारी ट्यूबवेल वाले सीमांत का अनिल के पिता के आम के बगीचे के अंत से सटा होना, और दूसरा गाँव को सबसे छोटे से बाजार से लेकर बड़े से शहर तक से जोड़ने वाली इकलौती सड़क का पिंकी के घर वाले सीमांत से ही होकर गुजरना था।
थोड़े ही वक्त बाद, जब पिंकू फारिग होने के लिए खुद ब खुद चड्ढी सरकाकर घर या दुआर के निर्धारित कोने तक चले जाने लायक हो गए, तब से वे भी अपने पिता के घर ले जाए और वापस लाए जाने लगे। दो एक महीनों के लिए। बार बार। लेकिन पिंकू का जाना पिंकी के जाने से इस मायने में अलग था, कि पिता के घर के तरफ की हरेक यात्रा पिंकू के अपने ननिहाल में वापस होने की पुख्ता उम्मीद के साथ होती थी। बार बार की आवाजाही के दौरान पिंकू को यह सब कुछ ऐसा लगता मानो पिता के घर जाने का काम ननिहाल वाले घर में वापस आने के लिए, और ऐसे ही ननिहाल आने का काम पिता के घर वापस जाने के लिए किया जाता हो। ऐसे में एक उनके सामने एक मुश्किल खड़ी हो सकती थी, अगर कोई पूछ देता कि पिंकू का स्थायी निवास कहाँ है? मतलब पता? ऐसा पता जिसे वे किसी दफ्तर में लिखा सकें, या जिस पर उनका भूला बिसरा दोस्त उन्हें एक चिट्ठी लिख सके? बहरहाल, यह सब सोचने की अभी उनकी उम्र नहीं थी। जरूरत भी।
यूँ, चूँकि यह कहानी पिंकू अनिल, और पिंकी साझी कहानी है, इसलिए इस बिंदु पर आकर कहानीकार के सामने एक मुश्किल है। तीनों के बीच की भौतिक दूरियों के कारण उपजी मुश्किल। लिहाजा यह कहानी यहाँ से आगे तीन हिस्सों में बँटना चाहती है। तीनों किरदारों का अलग अलग हिस्सा। अगर यहाँ तीनों हिस्सों की कहानियों को किसी चलचित्र की तरह दिखाने की सहूलियत होती, तो परदे के बीच दो लकीरें खींच पिंकू, अनिल और पिंकी के हिस्से की कहानियाँ एक साथ चला देते। लेकिन, जैसा कि उन तीनों के बाल्य काल में लोगों की मजबूरी थी, और जीवन की व्यावहारिक दिक्कतें कभी भी आज की तरह झट पट दूर नहीं हो पाती थीं, मसलन सितारपुर से भटिया बजार की दूरी पैदल ही तय करते आ रहे राहगीर के पास किसी रोज थक जाने की हालत में झट से किसी रिक्शे या मोटरबाईक पर बैठ जाने की सहूलियत बिलकुल भी नहीं थी, इन कहानियों को क्रमवार ही कहा जाता है। तो इस क्रम में...
सबसे पहले पिंकू।
पिंकू के माथे पर एक चुंडी थी। तब से थी, जब वे द, ड और ढ को एक समान रूप से 'ड' कहने लगे थे। जब उनका दिमाग शब्दों को जोड़कर कोई भाव देना शुरू कर रहा था तब उनके द्वारा सबसे ज्यादा बोला जाने वाला वाक्य 'इ चुंडी ह।' होता था जो हर बार 'इ का ह?' के प्रश्न का उत्तर हुआ करता था। पिंकू की चुंडी के आस पास से शुरू करके बाकी के पूरे सिर के बाल प्रति महीने एक बार की दर से काट दिए जाते थे, लेकिन चुंडी के बालों को वर्षों तक बढ़ता रहने दिया गया था। चुंडी चूँकि उनके माथे पर पीछे की ओर थी, इसलिए उसे उनसे ज्यादा दूसरे ही देखते थे। और कभी कभार जब वे अपने पिता की साइकिल पर सीट और हैंडिल के बीच लगी एक दूसरी छोटी सीट पर बैठकर बिना किसी काम के दूर दूर के गाँवों में घूम आते थे, लोगों की नजरों से ओझल हो जाने के बावजूद अपनी चुंडी की बदौलत वे उनकी यादों में थोड़े से बच जाते थे।
पिंकू के पिता घर और पूँजी से गरीब थे। आजीविका के लिए उनके पास अपना व्यापार था। जबकि उनके पास कोई पूँजी थी ही नहीं, जाहिर है, व्यापार भी बिना पूँजी वाला। वे अपने ग्राहकों को यजमान कहते, और यजमान उन्हें अपना पुरोहित। उनका व्यापार अच्छा चलता था। वे किसी के यजमान नहीं थे। उनका कोई पुरोहित भी नहीं था।
पिंकू के पिता जहाँ रहते थे, वहाँ किसी ब्राह्मण के घर में पैदा होने वाले हर शख्स को पंडित कहा जाता था। पिंकू के घर में खाने पीने की हर थोड़ी बहुत चीज उनके पिता के पंडित होने की वजह से ही रहती थी। और उनके सत्यनारायण की कथा के पाँचो अध्याय शब्द दर शब्द याद होने की वजह से भी। पिंकू के पिता, सत्यनारायण की कथा को गाँव गाँव घूमकर लोगों को सुनाया करते थे। लोग अपने जीवन की बैलगाड़ी को मंथर और निर्बाध चलाते रहने के लिए सत्यनारायण की कथा सुनते रहना चाहते थे। लोग सुनते रहते और पिंकू के पिता सुनाते रहते, लेकिन सत्यनारायण के कथा की असल कहानी क्या है यह दोनों में से किसी भी पक्ष को पता नहीं होता था। यूँ तो यह किसी तरह की समस्या नहीं थी, लेकिन कथा का पता किसी को नहीं होने की वजह किताब सिर्फ संस्कृत में लिखा होना था। पिंकू के पिता जब कथा का पहला अध्याय 'एकदा नैमिषारण्ये...' के साथ शुरू करते, तो उसका अंत हो जाने तक उनके मुँह से संस्कृत के अपार शब्द घने मेघ से फूटी बूँदो के सिलसिले की तरह बरसते रहते। पिंकू के पिता के बोलते बोलते अचानक रुक जाने के तुरंत बाद शंख उठा लेने भर से लोग जान जाते के कि पहला अध्याय पूरा हो गया। कथा के शुरू होने से पहले लोग कथा के शुरू होने को लेकर उत्साहित रहते, लेकिन शुरू होने के बाद जल्दी जल्दी एक एक अध्याय के खत्म होते जाने का इंतजार करने लगते। कथा के दौरान अध्यायों के अंतराल में पिंकू के पिता सौदा खरीदते हुए मोल भाव करने वाला आम आदमी बन जाते। वह अपने भी घर परिवार और बच्चा होने और महँगाई का वास्ता देकर दक्षिणा की रकम बढ़वाने के तमाम यत्न करते रहते।
पिंकू के पिता का व्यापार सिर्फ सत्यनारायण की कथा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वे अधिक राशि की दक्षिणाओं की शर्त पर लोगों की अंत्येष्ठि के कर्मकांडों से लेकर मृत आत्माओं को गरुण पुराण सुनाने और तमाम विघ्न बाधाओं से घिरे मनुष्यों के लिए महामृत्युंजय आदि मंत्रों के पाठ भी किया करते थे। वे किसी के माथे से राहु की छाया हट जाने और उस पर मंगल की नेह दृष्टि पड़ जाने के फायदे बताते। उनके ग्राहक उन फायदों के बरक्स दक्षिणा की देय रकम की तुलना करते और कर्मकांड शुरु कराने पर राजी हो जाते। लेकिन कई बार वे नहीं भी मानते, तो वैसे में पिंकू के पिता को अपनी माँगी रकम घटानी पड़ती।
हालाँकि दक्षिणा की रकम घटाने की स्थिति में वे पूजा की गुणवत्ता के भी थोड़ा सा घट जाने की बात बता देते। दक्षिणा की रकम घटाने के बाद शुरू की गई पूजाओं में पिंकू के पिता काफी आराम से रहते, जमकर खाते पीते और यजमान के पूजा के संभावित फल के बारे में पूछने पर वे कहते कि "एकावन रुपया के पूजा में विश्वकर्मा महराज महल त नहिए बनइहें।" पिंकू के पिता दस बारह गाँवों के अपने जवार में दुर्गा, शिव, विष्णु, लक्ष्मी, गणेश और तमाम दूसरी देवियों और देवों के मामलों के इकलौते विशेषज्ञ थे।
वे अपनी साइकिल पर सवार होकर जिस भी दिशा में जाते, वापसी के वक्त अपने झोले को भरकर ही लौटते। उनके झोले के भीतर एक और झोला छिपा रहता था, जो तोरी, कद्दू, आलू, दाल, और आटे चावल जैसी किसी चीज, या किन्हीं चीजों से पहले झोले के भर जाने, और फिर भी ले जाने के लिए कुछ न कुछ रह जाने की हालत में काम आता था।
ऐसे मौके भी जरूर ही आते थे जब उन्हें पूरे दिन की तफरीह के बाद भी, कुछ भी न मिले। लेकिन उनकी वापसी की रहगुजर में आने वाले लोगों को ऐसी कोई भी स्थिति याद नहीं रहती थी। वजह यह थी कि शाम तक किसी भी यजमान के घर से कुछ भी नहीं मिल पाने वाली हालत में पिंकू के पिता 'खाली हाथ न लौटना पड़े', के भय से भरे कुछ न कुछ जुगाड़ने की जी तोड़ कोशिश में लगे होते। और कोशिश में वे नाकामयाब हैं, इस सच को मानने तक रात एक पहर ढल चुकी होती थी। तब तक उनके गाँव में इतनी रौशनी का इंतजाम नहीं हुआ था कि रात में अँधेरे का टुकड़ा बनकर जा रहे किसी राहगीर को पहचाना जा सके।
पिंकू के पिता के साथ ऐसी होनियों की आवृत्ति ज्यादातर उन दिनों में होती, जब गाँव के किसान घरों की देहरी से अनाज जल्द ही चुक जाने वाले होते, और नई फसल के आने में, फिर भी कम से कम महीने भर की कसर होती। ऐसे दिनों का पहले से ही भान कर, पिंकू के पिता पिंकू समेत उनकी माँ को अनिल के घर पहुँचा आते। फिर उनकी वापसी फसलों की मड़ाई के काफी दिनों बाद होती। पिंकू के पिता तब तक घर में आगामी दो तीन महीनों के लिए रसद का बंदोबस्त कर चुके होते थे। पिंकू के जेहन में, उनके समूचे बचपन, यह सवाल कभी नहीं उठा था कि वे अपने ननिहाल, यानी अनिल के घर में इतना ज्यादा क्यों रहते हैं? लेकिन इसका जवाब, जाहिर तौर पर उनके पिता की तंगहाली थी। यह तंगहाली का किस्सा उनके घर के लोग न जाने कब से पीढ़ी दर पीढ़ी जीते आ रहे थे, लेकिन यजमानों के यहाँ मिलने वाले आतिथ्य ने कभी उनके किसी पूर्वज को अपने मार्ग से विचलित नहीं होने दिया। पिंकू के घर में पैदा होने वाला हर नया शख्स, एक परंपरा के तहत, अपनी पैदाइश के साथ ही गाँव के न जाने कितने कितने घरों के न जाने कितने लोगों का पुरोहित बन जाता था।
पिंकू को साल के हरेक मौसम में सुबह सुबह नहा लेना होता था। उनके लिए सुबह सुबह नहा लेने में एक वैज्ञानिक तथ्य मददगार साबित होता था, जिसका ज्ञान उन्हें उनके पिता से हुआ था। तथ्य यह था, कि जिन दिनों हमारी धरती पर गर्मी होती है, समुद्र में वह सर्दी का वक्त होता है, और धरती पर सर्दी होने के दिनों में वहाँ गर्मी। और चूँकि समुद्र का वास्ता पाताल से है, और पाताल चूँकि धरती के नीचे है और चापाकल का पानी भी चूँकि धरती के नीचे से ही निकलता है, इसलिए चापाकल से निकलते वक्त पानी को धरती पर चल रहे मौसम की खबर नहीं होती और वह हमारी बाल्टी में समुद्र यानी कि पाताल लोक के तापमान पर ही भर जाता है। और इससे पहले कि पानी को हमारी धरती के तापमान की खबर लगे, इंसान को नहा लेना चाहिए। पिंकू हरेक मौसम में अपनी कच्छी और बंडी सरकाते हुए इसी तर्क को याद करते और स्नान समर में उतर जाते। गर्मी और सर्दी के दिनों के लिए तो यह तर्क पूरी तरह से कारगर साबित होता, लेकिन दोनों के संक्रमण काल में नहाने के लिहाज से पिंकू को कुछ मुश्किलें होने लगतीं। जब गर्मी का जाना और ठंड का आना या फिर ठंड का जाना और गर्मी का आना एक साथ हो रहा हो, तो ऐसे में सुबह के वक्त पर ठंड के सनातन अधिकार की बदौलत ठंड तो हुआ ही करती थी, साथ ही साथ पानी भी ठंडा ही होता था।
लेकिन रोज रोज नहाने का क्रम इसलिए नहीं टूटने पाता था कि गर्मी के जाने और ठंड के आने वाले मौसम में उनकी तिमाही और ठंड के जाने और गर्मी के आने वाले मौसम में सालाना परीक्षाएँ चल रही होती थीं। और चूँकि परीक्षा देने जैसा महत्वपूर्ण काम ईश्वर की आराधना, और ईश्वर की आराधना जैसा पवित्र काम बिना नहाए नहीं किया जा सकता था, इसलिए पिंकू को नहाना ही पड़ता था। उनके ऊपर रोज रोज नहाने का दबाव पिता की बजाय उनकी माँ डालती थीं, जो पिंकू के ऊपर लगी शनि की साढ़े साती को पिछले चार सालों से उतारने का यत्न कर रही थीं, और कम से कम आगामी साढ़े तीन वर्षों तक यूँ ही करती रहने वाली थीं। यूँ पिंकू को सुबह सुबह नहा लेने का निर्देश देने से काफी पहले वह खुद भी नहा चुकी होतीं थीं और पिंकू के नहाने के तुरंत बाद उन्हें लेकर शनि चालीसा का पाठ करने बैठ जाती थीं। पिंकू के पंडित पिता के अनुसार पिंकू के ऊपर चल रही साढ़े साती का भावार्थ यह था कि शनिदेव लगातार साढ़े सात वर्षों तक उन्हें विभिन्न प्रकार के कष्ट देते रहने वाले हैं, और यदि उनके प्रकोप को कम करना है, तो इसके लिए हर रोज शनि चालीसा का पाठ अनिवार्य है।
यूँ पिंकू के खानदान में तब तक उपजी न जाने कितनी पंडित पीढ़ियों से लेकर खुद उनके पंडित पिता ने भी शायद कभी विचार नहीं किया था कि महामहिम 'शनि', जो कि देव हैं, उन्हें किसी के साथ ऐसा करने में कौन सा मजा मिलता है? और दूसरा सवाल यह कि अगर उन्होंने पिंकू जैसे सीधे सादे शख्स को परेशान करने की ठान ही ली है, तो उनसे निबटने का कोई दूसरा तरीका नहीं है क्या? बजाय इसके कि हर रोज उनकी चापलूसी की जाए?
जीवन जैसे पानी और शक्कर का घोल। और खतरे उसमें टपकी कागजी नीबू की बूँदें। मात्रा में कम, लेकिन मौजूदगी हर कहीं, हर वक्त।
पिंकू का घर एक पोखर से सटकर था। इसलिए उनके घर के किसी भी कोने में और किसी भी मौसम में साँप निकल आते थे। घर के पोखर की ओर वाले हिस्से में ईंट की नंगी दीवार थी। ईंटों के बीच की गारे की लकीरें साँपों को घर के भीतर टहल आने में सहूलियत करती थीं। उनकी माँ, दिन में कई बार घर को साफ करतीं थीं और हर बार ऐसा करते हुए, कम से कम उस वक्त तक घर में किसी साँप के न होने की आश्वस्ति से थोड़ी थोड़ी खुश रहतीं थीं। वह इस बात को लेकर रातों में डरी होती थीं, और लेटे लेटे कभी कभार यूँ ही सोच लेती थीं कि रसोई और बखार के कोने पर शायद कोई साँप निकल आया हो। ऐसा सोचने के तुरंत बाद वह सस्ती कीमत का, लेकिन तेज फोकस वाला नेपाली टार्च लेकर वहाँ पहुँच जातीं थीं। अजीब यह होता कि साँप पिंकू की माँ की सोच के मुताबिक ठीक उसी जगह पर मौजूद मिल जाता था। पिंकू की माँ शायद निकलने वाले साँप की नस्ल और उसके बैठे होने अथवा रेंगने की स्थिति को भी सोच चुकी रहती हों, और वहाँ जाने पर यह स्थितियाँ भी साबुत साँप की स्थिति से ठीक ठीक मैच कर जाती हो।
घर में साँप निकल आने का कोई भी मामला, चूँकि उनके लिए पहला मामला नहीं होता था, इसलिए वह काफी धीरज से काम लेतीं और अपने पहले के तजुर्बे और सर्प ज्ञान की बदौलत साँप की आँखों पर टार्च की रौशनी को फोकस किए रहतीं। उन्हें पता था कि इतनी तेज रोशनी के असर में साँप की आँखें चुँधिया जाती हैं, इसलिए वह इधर या उधर नहीं जा सकता। साथ ही साथ वे थोड़ी ऊँची लेकिन संयत आवाज में पिंकू के पिता को पुकारतीं, 'सुन तानी जी! तनि झट से आइं त एगो कीड़ा निकलि आइल बा'।
पिंकू की माँ किसी साँप के निकल आने के बाद उनके सामने उसे साँप नहीं कहती थीं। 'साँप' कहना चूँकि उन्हें अज्ञात संभावनाओं वाली दहशत से भर देता था और साँप के सामने उन्हें पिंकू के सशस्त्र पिता के आ जाने तक सधैर्य खड़ा भी रहना होता था, इसलिए वे उसे कीड़ा कहकर अपने भय की तीव्रता को दबाए रहतीं। पिंकू के पिता साँपों को बड़ी तसल्ली से मारते थे। पिंकू के पिता शिव के भी भक्त थे, इसलिए किसी साँप को मारने से पहले हाथ जोड़कर उससे निवेदन करते कि 'देव हव त चलि जा, काल हव त रहि जा, सात खन देतानी' मतलब 'अगर देवता हो तो चले जाओ और काल हो तो रह जाओ, सात क्षण की मोहलत देता हूँ'।
हालाँकि पिंकू के पिता के सामने तब तक सिर्फ एक ही मौका ऐसा आया था, जब ऐसे निवेदन के बाद एक साँप दो ही क्षणों में उनकी नजरों से ओझल हो गया था। पिंकू के पिता ने उस जा चुके साँप को देव मान लिया था और पिंकू की माँ ने उसे देव दर्शन कहकर जा चुके देवता से मन ही मन पिंकू के ऊपर से साढ़े साती का असर कम करने की मन्नत माँग ली थी। मन्नत माँगने के ठीक बाद पिंकू की माँ के जेहन में पिंकू के पिता के लिए कुछ प्रश्न यूँ उठे थे कि साँपों के देवता, यानी भगवान शिव और देव शनि के बीच का रिश्ता कैसा है? क्या शास्त्रों में कहीं पर दोनों को संवाद करते पाया गया है? क्या भगवान शिव, शनि देव को किसी आदमी के हक के लिए कोई निर्देश दिए हैं क्या? आदि... आदि... लेकिन खुद को देव साबित करता हुआ फरार हो गया साँप फिर से अगली ही सुबह गुड़ की हँड़िया से लटकता मिल गया? और बदकिस्मती से इस बार देवत्व की अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाने के कारण मार डाला गया। उसके बाद पिंकू की माँ ने अपने सारे के सवालों को अप्रासंगिक मान दिमाग से खारिज कर दिया था।
दिन में होने वाले सर्प संहार के वाकए पिंकू बड़ी दिलचस्पी के साथ देखते थे, लेकिन रातों में ऐसा होने पर वह सोए ही रह जाते थे। धीरे धीरे खुद पिंकू भी छोटे छोटे सँपोलों का निबटारा करने लग गए थे, और उनकी ऐसी हरेक हरकत पर उन्हें साँपों को न छेड़ने की नसीहत देने के बावजूद उनकी माँ मन ही मन खुश भी होती रहीं थीं।
पिंकू की माँ को खूब सारे सपने आते थे और उनके सपनों की रहगुजर का अकसर ही अनगिन साँपों से भरा होना एक आम बात थी। पिंकू की माँ अपने सपनों में भी साँपों से उतनी ही डरी होतीं और चार साँपों को देखकर वे 'साँप - साँप - साँप - साँप' की जगह 'कीड़ा - कीड़ा - कीड़ा - कीड़ा' सोचतीं (दहशत और धैर्य के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश में व्याकरण के 'और' का प्रयोग शायद कठिन हो जाया करता था)। सपने में साँपों के सामने और आसपास से गुजरते हुए उनके हाथ में तेज फोकस वाला नेपाली टार्च भी होता, जो दिन और रात के वक्त और उसके मुताबिक बिखरी रौशनी से बेखबर - बेअसर साँपों की आँखों को चुँधियाने में कारगर साबित हो जाता था। पिंकू की माँ के सपनों का संसार अकसर पानी से भी भरा होता था, और कई बार वे अपनी ओर हहराकर बढ़ती आ रही भीषण जलराशि के बीच 'सपिंकू' घिर जातीं, और संयत होने की कोशिश के साथ पिंकू के पिता को पुकारने की जुर्रत करती रहतीं। पिंकू की माँ के जीवन की गाड़ी अगर दो पहिए वाली थी, तो उसका एक पहिया उनकी हकीकत और दूसरा उनके सपने हुआ करते थे। उनके खाए हुए चावल और दाल से मिली ज्यादातर ऊर्जा दोनों पहियों पर पड़ी गाड़ी को संतुलित बनाए रखने में खर्च होती थी। पहियों और गाड़ी के बीच की बेयरिंग में ग्रीज न जाने कब का खतम हो गया था। गाड़ी के इकलौते कारीगर हो सकते थे पिंकू के पिता, जो साँप और पानी से भरे सपनों को आगामी सुखकर दिनों का सूचक बताते। इसके लिए उनके पास पंचांग और पुराणों की छाड़न के बीच लिखे वाक्य भी थे।
जीवन भर साथ देने वाली पिंकू की बचपन की स्मृतियों में तमाम साँपों की याद भी शामिल रहने वाली थी लेकिन उनमें हर बार के उनके के निकल आने पर घर में मचती उथल पुथल और पिंकू की माँ के कलेजे में भर आने वाली दहशत और उनके सपनों और उन पर पिंकू के पिता की व्याख्याओं को रिकार्ड करने के भर का स्पेस शायद नहीं बच पाने वाला था।
आगे अनिल कुमार पांडेय।
अनिल को अपने पिता का नाम बचपन के किस समय से याद था, इसकी उन्हें याद नहीं थी लेकिन उनके द्वारा पिता से पूछा गया सवाल कि 'माई के नाम का ह?' मतलब 'माँ का नाम क्या है?' उन्हें अच्छे से याद था। बहरहाल, सामान्य ज्ञान के बिलकुल बेकार हिस्से में शामिल एक और जानकारी की तरह अनिल को यह पता था कि उनकी माँ का नाम 'कौशल्या देवी' है। पिता को याद करने की स्थिति में कई दफा अनिल को उनके पिता का नाम यानी 'श्री महेश चंद पांडेय' बरबस याद आ जाता था लेकिन माँ के मामले में ऐसा कभी नहीं हुआ और वह हमेशा सिर्फ 'माई' ही याद आईं।
सूरज सुबह सुबह उठ जाता। लोग भी सुबह सुबह उठ जाते। लोग सूरज द्वारा खुद का देखा जाना देख उसे पूरे दिन के दिन के लिए अपना सहचर मान लेते।
अनिल का घर ऐसी ऊँचाई पर बना था जिसके सामने से पैदल गुजरने पर लोग सोचते कि 'इंसान का कद कितना छोटा होता है' या फिर, 'मेरी ऊँचाई कितनी कम है' और साइकिल या मोटरसाइकिल से गुजरने पर 'यह घर कितना ऊँचा है?' महसूस करते थे। चार पहिए की मोटरकारों से उतरे लोग ऐसा कुछ भी नहीं महसूस करते और मोटरकार के दरवाजों से निकलकर कुर्ता झाड़ते हुए घर की दहलीज तक चढ़ आते थे। अनिल के पिता हमेशा व्यस्त रहते थे। बाहर दिखने की हरेक स्थिति में धवलरंगी कुर्ता और पाजामा पहने रहना उनका स्थायी भाव था। वे अपने संसार में 'चुस्त दिनचर्या और स्वस्थ मष्तिष्क' का नारा फैलाते रहते थे। वे पान खूब खाते थे और पान के बीड़े को तर्जनी और मध्यमा के बीच एक आकर्षक सलीके से पकड़ते थे। उनके घर का रुख पूरब की ओर होने के कारण उगते हुए सूरज को दिखने वाले पहले दृश्य में उनके मुँह में एक टूथब्रश अनवरत हिलता रहता था। उपरांत सूरज की नजर टूथपेस्ट की झाग से अँटी पानी की दो तीन बाल्टी मात्रा वाली बेतरतीब धार पर पड़ती थी। जिसके ठीक बाद वे कई सारे मंत्र उचारते हुए स्नान करते और पीतल के लोटे में रखे पानी को सिर्फ बाएँ पैर पर खड़ा हो, जमीन पर देखते हुए पूरब की दिशा में धीरे धीरे गिरा डालते। फिर अपनी गर्दन के गर्वीले उत्थान के साथ आसमान देखते। यूँ सूरज से अपने दिन का पहला दीदार करते। तब तक सूरज उनके द्वारा खुद के देखे जाने का इंतजार करता रहता था।
अनिल के पिता को बच्चों से, इसलिए अनिल और पिंकू से भी बहुत प्यार था। लेकिन पिंकू के पिता उन्हें फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। रोजी रोटी के लिए किए जाने वाले पिंकू के पिता के काम को, यानी यजमानों के लिए पुरोहित होने को, वे भीख देने वालों के लिए भिखारी होना मानते थे। लेकिन चूँकि वे पिंकू की माँ को अपनी इकलौती बहन कहने भर का दुलार भी देते रहते थे, इसलिए पिंकू के पिता के प्रति अपनी तमाम शिकायतों को अकसर भीतर ही जब्त किए रहते थे और यजमान और पुरोहित के रिश्ते पर बनी अपनी धारणा को अधिक से अधिक अनिल और पिंकू की माँ के सामने ही जाहिर करते थे। इसी सिलसिले में वे वक्त बेवक्त अपने पिता को भी याद कर लेते, उनके लिए सम्मान से भरे शब्दों के बीच ही, अपनी बहन का रिश्ता ऐसे घर में कर दिए जाने के लिए उन्हें कोसने लगते। फिर चुपचाप उन्हें, अकसर तो सामने ही खड़ी, पिंकू की माँ की याद आ जाती, याद में उगी तस्वीर में उनके ढँके वक्षों और ठुड्ढी के बीच की चमड़ी गेंहुअन साँप की तरह चितकबरी दीख जाती, जो कि उबलते दूध के पतीले के उनके ऊपर गिर जाने से जली हुई थी। वे चमड़े के तत्क्षण में दिख रहे हिस्से भर से ही अपने पिता की मजबूरी समझने लगते और कल्पना में जबरदस्ती ही उगते जा रहे जलन वाले शेष हिस्से की तस्वीर को परे ठेलते हुए बोल जाते, पिता जी भी क्या करते...
पिंकू की माँ जब तक अनिल के घर में रहतीं, घर के भीतरी काम धाम वही सँभालतीं। उनकी अनुपस्थिति में काम सँभालने वाली दोनों बाइयों में से एक की, उतने दिनों के लिए, छुट्टी कर दी जाती। और दूसरी बाई द्वारा किसी रोज मनमाने तरीके से छुट्टी मार देने पर भी उतने दिनों के बीच कुछ सुनना नहीं पड़ता। ऐसा तब से था, जब के बाद पिंकू की माँ की शादी हो गई थी और वह हमेशा साड़ी पहन कर रहने लगीं। वरना उसके पहले तो पिंकू की माँ स्थायी रूप से अनिल के ही घर में, उसे अपना घर कहते हुए रहती थीं। दिन रात एक सूट पहने हुए। तब तक घर में काम करने वाली कोई बाई नहीं थी। तब के वक्त में, प्रकृति के कानून के मुताबिक ऐसी संभावनाएँ जरूर थीं, पर यह तय कतई नहीं था कि आगे चलकर वह घर अनिल का घर भी हो जाएगा, और सूट पहनकर डोलती रहने वाली लड़की कालांतर में जिस शख्स की माँ बनेगी, वह पिंकू ही होंगे।
वे पिंकू की माँ के लिए तब तक के सबसे कठिन, लेकिन ढेर सारी कठिनाइयों के शुरुआत के दिन थे। वह पिंकू, अनिल, उनके पिता और कभी कभार तो उनकी माँ के भी कपड़े पछीटते हुए हाथ में उलझी साबुन की मिट्टी के ही रंग वाली टिकिया के साथ ठहर सी जातीं। उनकी आँखें रंगीन कपड़ों पर उग रही सांद्र झाग पर एकटक हो जातीं। फिर कुछेक मिनट बाद वे जैसे पुनर्जीवित होतीं, टिकिया को फिर से बार बार रगड़ने लगतीं। अनिल की माँ ने जब इसे एक से अधिक बार देख लिया, तो इसे उन्होंने सुन्न होने का नाम दे दिया।
इस तरह से एक बार सुन्न हो जाने के बाद, वे अलग अलग काम करते हुए भी कई रोज तक सुन्न होती रहतीं। हर बार, किसी गतिविधि के बीच आँखों के एकटक हो जाने के साथ। फिर, उन्हीं दिनों की किसी दुपहरी में, जब अनिल के पिता का कहीं बाहर जा चुकना तय होता, और अनिल की माँ खा पीकर अपने कमरे में आराम कर रही होतीं थीं, वह दालान के दरवाजे में एक दरार बनाते हुए घर के बाहर झाँकतीं। और तैनात तीन नौकरों में से एक, रत्तन को बुला लेतीं। वह रत्तन की ओर अपना हाथ बढ़ातीं और उसकी हथेली में अपनी मुट्ठी खोल देतीं। रत्तन अपने हाथ में भर आई कागज की गठरी का मतलब समझ जाता। तब से बमुश्किल दो या तीन दिन ही बीतते, कि पिंकू के पिता आ जाते। यूँ पिंकू को फिर से एक बार अपने पिता के घर जाना पड़ता।
पिंकू के पिता अपनी ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर इतना जान, और पिंकू की माँ को बता भी चुके थे, कि उनकी ग्रह दशा अगले कई वर्षों तक ऐसे ही बिगड़ी रहेगी। यूँ बिगड़ैल नक्षत्रों की छाया उनके ऊपर कम पड़े, इसके लिए उन्होंने घर के चौखटे से सटी दीवार में गौरी गणेश की स्थापना की, हर रोज करीब घंटे भर का वक्त उनकी आराधनाओं को देते रहे और उन बिगड़ैल ग्रह नक्षत्रों के नाम लेकर, मेवे के दो चार दानों के चढ़ावे चढ़ाते रहे। पिंकू के पिता की अनुपस्थिति में पिंकू की माँ खुद ही इस प्रक्रम को निपटाती रहीं। यूँ, ऐसे तमाम यत्नों के बावजूद पिंकू की माँ का कुछ करते करते सुन्न हो जाना बढ़ता ही रहा, और धीरे धीरे इस स्तर तक पहुँच गया कि एक रोज वो देर तक सुन्न रहने के बाद अचेत हो गईं और तुरंत ही चिकित्सक की दरकार हो आई। आगे, डाक्टरी जाँच पड़ताल के सिलसिले में जो बात सामने आई, वो यह कि पिंकू की माँ के माथे में अंदर की ओर दो पथरियाँ बन आई हैं।
जाँच पड़ताल के जरिए 'दो पथरियाँ बन आईं हैं' की बात जानने भर में ही पिंकू के पिता को इतने रुपए लगा देने पड़े कि आगे के इलाज की सोच दिन रात उन्हें नासूर की तरह दुखती रहने लगी। अतिरिक्त खर्चे का यह दबाव वाकई इतना भारी हो गया, कि पिंकू की माँ और पिता फिर से उसी मौन निष्कर्ष पर पहुँच गए, जिसके तहत ऐसे हरेक मुश्किल दौर में, पिंकू की माँ को अनिल के घर पहुँचा दिया जाता था।
पिंकू की माँ की इस बीमारी की पूरी तफसील और डॉक्टर की राय जानने के बाद अनिल के पिता को उसमें जो इकलौती बात याद रह गई वो यह थी कि वह कभी कभी कुछ करते करते सुन्न हो जाती हैं।
पिंकू की माँ के बार बार अनिल के घर में रहते रहने से अनिल के घर को उनकी आदत हो गई थी, अनिल के पिता को यह बात पता थी, इसलिए उनके सुन्न होने की हरेक हालत में सितारपुर के इकलौते चिकित्सक रामजस को बुला लाने का डिफाल्ट निर्देश वे अपने नौकरों के पास छोड़े रहते थे। बुलाए जाने के बाद रामजस आता, लाल रंग की शीशी से न्यूरोबियान फोर्ट इंजेक्शन निकालकर पिंकू की माँ को लगा देता। थोड़ा आराम करने की हिदायत के साथ चला जाता।
लेकिन यह सब पिंकू के धुर बचपन के उन आखिरी दिनों तक ही चल सका जब अनिल के पिता विधान परिषद सदस्य के चुनाव में खड़े हुए, घर के बरामदे और ओसार में दिन रात मजलिसें जमीं, लोगों ने बिना प्यास के भी कई कई बार मँगाकर पानी पिए, बिना इच्छा के चाय और बिस्कुटें खाईं, कई लोग बिना जरूरत भी रातों में उन्हीं के घर पर रहे, और चुनाव के नतीजों में अनिल के पिता हार गए। घर के अंतरे से इन सभी चीजों का संचालन करते हुए इस बीच पिंकू की माँ के सुन्न हो जाने के वाकए की स्पष्ट गिनती किसी के पास नहीं रही, लेकिन पिंकू ने कई बार इतना जरूर गौर किया कि एकटक आँखों और अचानक ही स्थिर हो गई मुंडी, जो कि माँ के सुन्न हो जाने का सूचक है, के बावजूद उनके हाथ नेनुए के राख से सने खुज्झे को चाय की प्याली पर रगड़ते जा रहे हैं।
चुनाव हारने के बाद से अनिल के पिता ने लंबे वक्त तक किसी भी चीज में दिलचस्पी लेना छोड़ दिया था, लोगों के अभिवादन का जवाब देना और अनिल और उनकी माँ की किसी फरमाइश, गुजारिश पर अमल करना भी। बस उन्हीं दिनों के बीच, जबकि पिंकू की माँ की बीमारी का विस्तार रह रहकर सुन्न हो जाने से बढ़ते हुए कभी कभार के भीषण सिरदर्द तक जाने लगा था, एक पुर्जा फिर से रत्तन को पकड़ाया गया, वह उसी दिन रवाना हो गया, ठीक अगली सुबह पिंकू के पिता आए और उसके अगले रोज पिंकू और उनकी माँ समेत वापस अपने घर लौट गए। पिंकू की माँ का इस बार का जाना, और दफा के जाने से इस मायने में अलग था कि इस बार उनके जेहन में वापस अपने मायके के घर कभी न लौटने का दृढ़ निश्चय भी शामिल था। पिंकू के पिता के घर वापस आने के बाद उन पर काम धाम का दबाव कई गुना कम गया, लिहाजा सिरदर्द भी कम ही रहा, यूँ पिंकू की माँ के बीमार रहने और फिर से ठीक हो जाने के बीच लगभग सुकून देने वाला स्थायी सा साम्य बन गया।
इस तरह, पिंकू, उनकी माँ और उनके पिता के लंबे समय तक अनिल के घर न जाने का असर, और कहीं से ज्यादा अनिल पर हुआ। इसकी खबर नौकर रत्तन से पिंकू के पिता को मिली, यह कहते हुए कि अनिल पिंकू को बेतरह याद करते हैं, और हो सके तो पिंकू को गर्मी की छुट्टियों के लिए अनिल के घर पहुँचा दिया जाय। और तब तक, चूँकि पिंकू फारिग होने के लिए खुद ब खुद चड्ढी सरकाकर घर या दुआर के निर्धारित कोने तक चले जाने से काफी आगे भी बढ़ आए थे, और खुद से नहाना, माँग कर खा लेना और अपनी निकर बंडी पछीटकर सुखा और तहा लेना भी जान गए थे, पिंकू के पिता उन्हें अनिल के घर छोड़ आए। तब से आगे, गर्मियों की हरेक छुट्टी में पिंकू अनिल के घर ही रहने लगे।
पिंकू को भी अनिल के घर पहुँचने का इंतजार रहता था। महीने दर महीने। दोनों का मिलना साल में बस एक ही बार हो पाता था। आम के बौराने वाले मौसम में। लेकिन मिलने के बाद उनके अगले तीन महीने साथ साथ गुजरते। शाखों से आम के आखिरी फल के झड़ जाने के वक्त तक। उन तीन महीनों में दोनों का साथ, जैसे रूह और जिस्म का साथ। जैसे बादल और पानी का साथ। जैसे सन और सरकंडे का साथ। कुल मिलाकर ऐसा, कि जैसे एक के बिना दूसरे का वजूद ही न हो।
अनिल के पिता के आम के बगीचे को उनके दादा के पिता ने उगाया था। अनिल उसे अपना बगीचा कहते थे, और उनके घर आ जाने के बाद पिंकू भी। वापस अपने घर चले जाने के बाद पिंकू उसे मामा का बगीचा कहने लगते थे। साल दर साल वहाँ के पेड़ों में आने वाले बौर की मात्रा का सीधा संबंध अनिल और पिंकू के कलेजे में हूल के साथ बार बार उठती खुशियों से था। अनिल और पिंकू के बगीचे में आम के कुल अट्ठावन पेड़ थे, जिनमें से सभी के अलग अलग नाम थे। अनिल और पिंकू के पास उनमें से एक एक की तफसील रहा करती थी। जैसे मल्दहवा के आम कच्चे में भी मिठाई सरीखे मीठे होते हैं, और खटहवा के तो साले पक के टहाटह हो जाएँ तो भी माहुर से खट्टे (सरासर अतिशयोक्ति के बावजूद बगीचे से वास्ता रखने वाले सैकड़ों लोगों के बीच ये कुछ सर्वमान्य तथ्य थे)।
यूँ पिंकू से मिलन के लगभग तीन महीने बाद जब पिंकू से जुदाई का मौसम आता तो अनिल कुमार पांडेय खुद को सारे आमों के झड़ जाने के बाद के आकर्षणहीन पेड़ों में से किसी एक की हालत में पाते। अधूरे अधूरे से, अगले मौसम के इंतजार में। तब तक बगीचे में गाँव जवार के लोगों की आवाजाही लगभग पूरी ठप हो गई रहती, लेकिन अनिल कुमार पांडेय फिर भी उसमें हफ्तों तक टहलते रहते।
जीवन में दुविधाओं की बहुलता भौतिक मुश्किलों की ही तरह थी, लेकिन दुविधाओं के साथ जीना उन भौतिक मुश्किलों के साथ जीने से आसान था। इसलिए दुविधाओं से निबटारा कभी भी प्राथमिकता न बन सकी।
अनिल और पिंकू की जुदाई का सबसे बड़ा सबब प्रदेश भर के स्कूलों का एक ही तारीख पर खुल जाना होता था। यूँ ऐसे सारे स्कूलों के बारे में उसमें पढ़ने और पढ़ाने वालों की धारणा यही होती थी कि असली पढ़ाई 'झंडे से झंडे' तक ही हुआ करती है। मतलब तिरंगा लहराने के एक अवसर? यानी कि पंद्रह अगस्त से लेकर तिरंगा लहराने के दूसरे मौके, यानी छब्बीस जनवरी तक। अनिल कुमार पांडेय और पिंकू के लिए भी ये अवसर, एक अलग ही तरीके से, महत्वपूर्ण हुआ करते थे। तिरंगा लहराए जाने का पहला मौका, माने पंद्रह अगस्त उन्हें अपनी जुदाई के दर्दीले महीनों की शुरुआत जैसा लगता और दूसरा, अर्थात छब्बीस जनवरी उन्हें मिलन के दिन करीब आने की सूचना देता। दोनों ही इनमें से दोनों मौकों पर अपने अपने स्कूल जाते और गाने, नाच और भाषण के लंबे चौंड़े दौरों के बाद बँटने वाली जलेबी के दो तीन गुच्छे लेकर वापस आ जाते।
दोनों के ही जेहन में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को लेकर कुछ निजी दुविधाएँ थीं। अनिल की दुविधा यह थी कि दोनों में से किसका नाम 'स्वतंत्रता दिवस' और किसका 'गणतंत्रता दिवस'? यूँ पंद्रह अगस्त के दिन कई वक्ताओं से सुनने के बाद कुछ दिनों तक उन्हें याद रहता कि पंद्रह अगस्त माने स्वतंत्रता दिवस, लेकिन पंद्रह अगस्त से दूरी और छब्बीस जनवरी से करीबी के सफर में बीचोबीच तक आते आते वे फिर से अपनी दुविधा के पुराने स्तर पर आ जाते। पिंकू का फंडा इस बात को लेकर साफ था। क्योंकि वे झंडा फहराए जाने के हर मौके पर उजले रंग का कुर्ता पाजामा पहनकर अपने पिता का लिखा हुआ भाषण बोला करते थे। और भाषण बोल पाने के लिए के लिए उसे रटने के दौरान वे पंद्रह अगस्त के प्रसंग में 'स्वतंत्रता दिवस' और छब्बीस जनवरी के मामले में 'गणतंत्र दिवस' का भी रट्टा लगा चुके होते थे। पिंकू की दुविधा यह थी कि सुबह सुबह आठ बजकर तीस मिनट पर झंडा फहराए जाने के बाद लगाए जाने वाले नारों में किसके लिए 'अमर रहे' और किसके लिए 'जिंदाबाद' का इस्तेमाल होता है? और क्यों?
अनिल और पिंकू, दोनों ही अपनी इन दुविधाओं को निहायत निजी मामले मानते थे, और उन्हें किसी से पूछकर स्पष्ट कर लेना जरूरी नहीं समझते थे। इस सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि ऐसे सवाल जिन लोगों से सहजता से पूछ सकते थे, खुद वे भी इन बातों पर उतने ही दुविधाग्रस्त थे, और अनिल और पिंकू दोनों को यह बात पहले से ही पता रहा करती थी। दोनों के मामले में ऐसे लोग दोनों के पिता और हद से हद उनकी माँएँ ही हो सकतीं थीं। दुविधाएँ दूर करने का दूसरा और आदर्श जरिया उनके स्कूलों के मास्टर भी हो सकते थे, लेकिन चूँकि वे पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की व्याख्याओं वाले पाठ बहुत पहले ही उन्हें पढ़ा चुके थे इसलिए दुबारा पूछे जाने पर उनका गर्म तवे पर रखे फिटकिरी की माफिक लावा हो जाना पहले से तय रहता था। एक एक दिन करके बीतती जा रही उम्र के दरम्यान उन दोनों के जेहन में दूसरी तमाम दुविधाएँ और सवाल भी पनपते जा रहे थे, जिनका विस्तार गणित और विज्ञान के सूत्रों, परिभाषाओं की तार्किकता से लेकर पेड़-पौधे, जानवर और इंसानों की जैविकता और उनके व्यवहारों से जुड़े मामलों तक भी जाने लगे थे।
यूँ अनिल कुमार पांडेय और पिंकू के घरों के बीच बीस मील, यानी लगभग तीस किलोमीटर की भौतिक दूरी थी, लेकिन वह पूरी दूरी ऐसी तमाम दुविधाओं से भरपूर बच्चों और उनके पिताओं, माँओं और आतंकवादी मास्टरों से भरी पड़ी थी। उन सभी के जीवन में ऐसी कोई भी दुविधा गौण ही रह जाती थी, कटाई, मढ़ाई, बुआई की उलझनों और मूलभूत जरूरतों की खरीदारियों के सामने।
तुम के शिल्प में हंस लो, बोल लो। लेकिन ' आप' की ' आपियत' दस्तावेजों में तो रहने दो।
साल के आमहीन दिनों में भी अनिल और पिंकू अपने आम के पेड़ों के बारे में सोचा करते। और इसलिए एक दूसरे के बारे में भी। जैसा कि अनिल के घर के तीन नौकरों में से एक, रत्तन की बहन पिंकू के गाँव में ब्याही गई थी, वह साल के आमहीन दिनों में भी पिंकू के गाँव आता और जाता रहता था। रत्तन की बहन का पिंकू के गाँव में ब्याहा जाने के कारण ही पिंकू के पिता के अनिल के घर यानी अपने ससुराल पहुँचते ही, इकलौता रत्तन ही उनकी खातिरदारी के लिए भागकर पहुँचता था। वर्ना बाकी के दोनों नौकरों को पता था, कि पिंकू के पिता अनिल के पिता के लिए इतना मायने तो बिलकुल ही नहीं रखते कि भाग दौड़ कर उनकी आव भगत की जाए। यूँ, पिंकू के पिता चाहे या अनचाहे, ऐसी खातिरदारी की कोई दरकार भी नहीं रखते थे। आते ही रत्तन के संग चुहल और मजाक शुरू कर देते। अनिल के पिता को यह भी गँवारा नहीं था उनका कोई भी रिश्तेदार घर के नौकर सरीखे लोगों से हँसी ठट्ठे करे। पिंकू के पिता की बार बार की इस हरकत से तंग आकर अनिल के पिता ने रत्तन को एक बार दो चार चमाटे भी लगा दिया था। बाकी के दो नौकरों ने तो खुद को आगे के लिए सावधान कर लिया, लेकिन पिंकू के पिता के पुनः आने, और फिर से चुहल शुरू कर देने की हालत में रत्तन से, चुप नहीं रखा जा पाता। लेकिन फिर भी, अनिल के पिता की उपस्थिति में, वह पिंकू के पिता के साथ किसी भी तरह के संवाद से भरसक बचता था।
रत्तन खुद के पिंकू के गाँव जाने की बात को अनिल को चुपचाप दो तीन दिन पहले ही बता देता। चुपचाप इसलिए, कि अगर उसकी इस तैयारी की खबर अनिल के पिता को पहले ही से लग जाती, तो उसे कतई जाने नहीं दिया जाता, क्योंकि उनके पास नौकरी करने में किसी भी तरह की छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं होना एक अघोषित, लेकिन सख्त कानून था। रत्तन को, अपनी इस आगामी योजना को अनिल को बता देने में कोई दिक्कत इसलिए नहीं होती, कि वह अनिल और पिंकू के बीच का याराना पहचानता था, और जानता था कि अनिल पिंकू तक अपनी बात पहुँचाने के इस इकलौते तरीके को, अपनी बहन के घर जाने की उसकी आगामी योजना को किसी से बताकर बेकार तो नहीं ही करेंगे। आगे, रत्तन के पिंकू के गाँव जाने की बात को जान लेने के बाद, अनिल बेतरह लगकर, बगीचे के एक एक आम की जड़ और डालियों पर चढ़ते, उठते, बैठते हुए कई पन्नों की चिट्ठी लिखते। 'आदरणीय पिंकू भईया' के संबोधन से शुरू होने वाली चिट्ठी। अनिल द्वारा लिखी चिट्ठी के इस शुरुआती संबोधन शब्दों के सिवाय अनिल के जीवन के किसी भी हिस्से में पिंकू के लिए आदर का कोई अतिरिक्त आग्रह नहीं था। अनिल के ठीक सामने या फिर दूर सामने होने की दोनों ही स्थितियों में वे उन्हें धीरे बोलकर या जोर से चीखकर सिर्फ 'पिंकू' ही बुलाते थे। चिट्ठी में 'आदरणीय' और 'पिंकू भइया' लिखे होने की वजह पिंकू का अनिल कुमार पांडेय से पाँच महीने पहले पैदा होना होता था। चिट्ठी का बाकी हिस्सा भी पिंकू के लिए 'आप' के शिल्प में लिखा होता था। पिंकू के गाँव से वापसी के वक्त भी रत्तन के पास एक चिट्ठी होती थी। 'प्यारे भाई अनिल' के संबोधन से शुरू और 'तुम' के शिल्प में लिखी गई चिट्ठी।
बाद की हर चीज पहले की उसी चीज से अलग होती है। बाद का मैं भी पहले का मैं नहीं। बचपन, दरअसल, एक बचपना है।
जमाना चुपचाप सिंपल कलर प्रिंट से खिसककर थ्री डी इफैक्ट तक चला आया। तब और अब के बीच समय का एक अदृश्य पहाड़ खड़ा हो गया। जिसके इस पार से उस पार की किसी भी चीज को महज एक याद की तरह देखा जा सकता था। बीत चुकी घटनाएँ जीभ के विभिन्न हिस्सों पर उगे स्वाद की तरह महसूसी जा सकती थीं। पिंकू और अनिल, जो खुलेआम, दो विलग परिवारों के निर्धारक फैसले ले सकने वाले सदस्य बनने लगे थे, के दरम्यान भी एक ऐसे ही गहन खट्टे स्वाद ने घर कर लिया था।
दोनों के रिश्ते के दरम्यान भर आई खटाई की भूमिका में जाएँ तो उस शुरू शुरू के जमाने में, पढ़ाई लिखाई में पिंकू बहुत तेज हुआ करते थे। हरेक दर्जे की परीक्षाओं में उनका अव्वल आना तय रहता था। अनिल का, इसी तर्ज पर फिसड्डी साबित होना भी। और दोनों ही तरह की घटनाओं के परिणाम स्वरूप, अनिल के पिता द्वारा पिंकू का दुलारा जाना और अनिल को दो चार ताने सुनाया जाना भी।
लेकिन शुरू शुरू के जमाने के ही अंतिम छोर वाले उस एक साल में अनिल के पिता ने अनिल की माँ के समझाने पर पब्लिक स्कूल और सरकारी विद्यालय के बीच के फर्क को समझ लिया। उसके बाद, जब पिंकू एक और गर्मी की छुट्टी मनाने अपने मामा के घर, यानी अनिल के पास पहुँचे, तो सबसे पहले अपने तेज होने के रोब को काफी मात्रा में घटा हुआ पाया। कुछ इस तरह, कि हमेशा की ही तरह उस साल भी जब उनके पिता छुट्टियों के लगभग बीचोबीच के किसी दिन पिंकू की सालाना परीक्षाओं का अंकपत्र लेकर पहुँचे, फिर से उनके अव्वल आने की खबर के साथ, तो इस पर अनिल की माँ और पिता ने किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं दी। हर बार की तरह शुभंकर को दुलारना और अनिल को कुछ देर के लिए दुत्कारना तो दूर, इस दफा शुभंकर की लगन और कुशाग्रता की शान में तारीफ का एक कसीदा भी न बोला गया। अनिल ने राहत की अनेक साँसें लीं। देश दुनिया को, अपनी उम्र के अनुपात में वक्त से थोड़ा पहले ही समझना शुरू कर देने वाले पिंकू को यह अपना अपमान लगा। यह पहली मर्तबा था, जब उन्हें अपने मामा के घर में कोई निराशा मिली थी। पिंकू इस ग्लानि से किसी भी कीमत पर मुक्त होना चाहते थे। शायद कुछ भी, और भी बेहतर करके। लेकिन उनके पास अपने अगले दर्जे में भी प्रथम आने से बेहतर करने का कोई विकल्प ही नहीं था।
बहरहाल, उनके रिश्तों में घर कर गई खटाई की वजह महज इतनी ही नहीं थी। बल्कि उसी एक खास वर्ष में, अनिल के चारों ओर बन चुका एक व्यूह भी इसके लिए जिम्मेदार था। मणी, सागर और राजू नामक तीन प्राणियों का व्यूह। जो लगभग हमेशा ही अनिल को घेरे रहने लगा था।
अनिल के पिता ने तब तक आम के बगीचे में एक बैठका बनवा दिया था। दरवाजा उत्तर की तरफ, और पूरब और पच्छिम वाली दीवारों में दो हवादार जँगले। यह बगीचे और उससे सटे सब्जियों के खेतों की रखवाली के लिहाज से बनवाया गया बैठका था, गर्मियों की रातों में, जिसकी छत पर दसियों अनामंत्रित लोग सोने आ जाते, बदले में बगीचे और खेतों की रखवाली का जिम्मा अपने हाथ में लिए हुए। दिन में, ठीक दुपहरिया के आस पास के वक्त में यह बैठका अनिल, मणी, सागर और राजू से गुलजार रहता। इस समूह में शायद सबसे बाद में राजू शामिल हुआ था। अनिल, मणी और सागर के साथ लूडो का पासा फेंकते हुए, उसके चेहरे पर एक ऐसा भाव रहता, मानों वह लूडो को किसी हार और जीत की उम्मीद के साथ बिलकुल भी नहीं खेलता, और उसने इससे बड़ी न जाने कितनी हारें और जीतें देख ली हैं।
यूँ, चूँकि लूडो में लाल पीले हरे और नीले रंग वाले चार रंगों के घर और गोटियों पर प्रति रंग एक व्यक्ति की दर से चार खिलाड़ियों की ही भागीदारी हो सकती थी, इसलिए पिंकू की प्रासंगिकता वहाँ से खतम हो जाती। पिंकू के लिए यह भी अपमानजनक होता।
चूँकि पिंकू के पास अब खुद की एक साईकिल भी थी, जिसे पहली दफा इतनी लंबी दूरी तक के लिए चलाकर वे अनिल के घर आए थे, वे अगर चाहते तो अपने पिता के घर वापस भी जा सकते थे। लेकिन बैठके में गिरते लूडो के एक एक पासे और बात बात पर उठते अनगिन हँसी के ठट्ठों की तर्ज पर न जाने कितने तरह के तीखे स्वाद वाली पीकें निगलते हुए पिंकू, फिर भी, वहीं रहे। इस बीच, जब कि उनकी बोल चाल अपने मामा और मामी के साथ तो पहले की ही तरह कम रही आई, और अनिल से लगभग खतम ही हो गई थी, राजू की एक हरकत ने उन्हें राहत दिलाई। यह हरकत राजू के द्वारा कहीं से जुगाड़कर ताश की पत्तियाँ ले आना था। पुराने वक्त से ही राजू की सोहबत के नाते मणी भी ताश की पत्तियों के कम से कम सात आठ खेलों में माहिर था। यह अनिल और सागर के लिए एक और दिलचस्पी का मामला था। लिहाजा चौकड़ी अब ताश के पत्तों के साथ जमने लगी। राजू और मणी द्वारा ताश के पत्तों को एक खास तरह की रहस्यात्मक भंगिमा में पकड़ने, अपनी बारी पर महज एक पत्ती उछालने, और बार बार पूरब और पश्चिम वाली खिड़कियों से बाहर की ओर झाँकते रहने ने अनिल और सागर को एहसास करा दिया था कि ताश के पत्तों का खेल, किसी न किसी वजह से एक संगीन काम है, और अनिल के पिता उसे लूडो की तरह सहजता से नहीं ले पाएँगे। बहरहाल, सबको सुकून इस बात से था, कि अनिल के पिता पूरी गर्मियों में अधिक से अधिक दो या तीन बार ही बगीचे में आते थे, चीजों का मुआयना करने। और जब आते भी, तो उनके साथ कुछ लोगों की भीड़ होती, जिसकी वजह से दूर से ही पता चल जाता कि वे आ रहे हैं।
तब तक, अपना समय काटने के लिए पिंकू ने पहले के पढ़े हुए, अनिल के कामिक्स को फिर से पढ़ने का प्रक्रम शुरू कर दिया था। कभी कभार तो चौकड़ी से ही थोड़ी दूर, बैठके में बैठकर। अनिल की सोहबत, कभी जिस अटूट तरीके से पिंकू के साथ थी और अब नहीं रही, बैठके में कोने की ताख पर रखे लूडो की दास्तान भी अब वैसी ही हो गई। पिंकू कामिक्स से नजरें हटते ही लूडो और खुद में एक साम्य भी देखने लगते।
उन दुपहरियों में खेल के बदलने के साथ, उनकी चौकड़ी में राजू का रौब भी बढ़ गया। मतलब, थोड़ी थोड़ी देर पर उसका उसाँसे लेना पहले से अधिक हो गया। इक्का, पंजा, बेगम या गुलाम जैसा कोई एक पत्ता फेंकने के साथ वह कोई एक बात छेड़ देता। अकसर तो कल्पनाओं की मदद लेकर कोई आपबीती ही। लेकिन खेल में जीत या हार के निर्णायक क्षणों पर वह जिसका नाम लेता वह हर बार एक ही शख्स होता। राजू, खेल की अपनी आखिरी पत्ती कुछ यह कहते हुए फेंकता, ये बेगम हुई तेरी, और आपरेटर की पिंकी मेरी।
इस तरह, चौकड़ी में पिंकी की उपस्थिति राजू की मार्फत खेल के बीच भी कई बार होती, जब वह दिन ब दिन पिंकी की देह के भरते जाने और उसके साथ न जाने कितने तरह की हरकतें करने की अपनी काल्पनिक संभावनाएँ बयाँ करता।
एक रोज जब पिंकी खिड़की पर नहीं थी, पिंकी की माँ ने पिंकू को अकेलवा पेड़ की तंदुरुस्त डाली पर बैठे देखा और उन्हें पहचान नहीं पाई, तो उसने आपरेटर से इस बाबत पूछा। आपरेटर यह बताने के साथ, कि वहाँ बैठा लड़का वही पिंकू है जो पिंकी के साथ बचपन में खेला करता था, पिंकू की ओर बढ़ आया। आपरेटर ने पिंकू का हाल चाल पूछा और अपने घर आने को आमंत्रित किया। पिंकी में लगातार बढ़ रही उनकी दिलचस्पी एक इतना मजबूत कारण तो थी ही, कि पिंकू इस आमंत्रण को दूसरे किसी भी कारण से ठुकरा न सके। बल्कि संभव तो यह भी था, कि आपरेटर द्वारा ऐसी कोई पेशकश न करने पर पिंकू शायद खुद ही ऐसी पहल कर देते कि आपरेटर को उन्हें अपने घर ले जाना पड़ता। बहरहाल, जैसी कि उम्मीद थी, पिंकू की सारी खातिरदारी पिंकी ने ही की। अपनी डब डब काली और बड़ी बड़ी आँखों से उन्हें भरपूर देखते हुए। पिंकू, हालाँकि पिंकी को उस तरह से कतई नहीं देख पा रहे थे, क्योंकि उनके चेहरे पर हर वक्त आपरेटर या उनकी पत्नी की नजर टिकी रहती थी, लेकिन 'पिंकी उन्हें देखती ही जा रही है' की तसल्ली भी काफी थी उनके लिए।
पिंकू के जीवन में पिंकी का यह दूसरी बार दाखिला था। और देश दुनिया की माँग के मुताबिक बचपन को तेजी से पीछे छोड़ रही उम्र में वे दोनों इतने समझदार भी हो चुके थे, कि पिंकू ने झट से बात का एक किनारा पकड़ पिंकी के साथ एक संवाद कायम कर लिया। वर्ना, दूर से नजरों का खेल खेलते न जाने कितना वक्त बीत जाता। हालाँकि, संवाद की स्थापना में हुई बातें बस पिंकी और पिंकू की पढ़ाई लिखाई तक ही सीमित थीं, लेकिन यह एक ऐसा तंतु था जिसे पकड़ वे दूसरी बातों तक आसानी से पहुँच गए, तथा एक साझी दुनिया सी बना लिए। पिंकी की पढ़ाई चूँकि एक ऐसा मसला था जिसमें आपरेटर और उसकी पत्नी की दिलचस्पी हमेशा से महज इतने की ही रही थी कि वह पढ़ाई करती है, इसके लिए स्कूल जाती है, और कलम और नोटबुक के सिवाय कभी कभार उसे खर्च के लिए थोड़े से और पैसों की जरूरत भी होती है, लिहाजा उन दोनों बातों के शुरू हो जाने के बाद वे देर तक मौन ही साधे रहे। लेकिन बातों के खतम होने से पहले ही, आपरेटर ने जैसे उन दोनों की दुनिया में एक खिड़की से झाँका और पिंकू से बोला कि अगर हो सके, तो पिंकू अपनी पढ़ी किताबें पिंकी को दे दें। इससे पहले, उन दोनों की बात के दौरान यह साफ हो चुका था कि पिंकी पढ़ाई में पिंकू से ठीक एक दर्जा पीछे चलती रही है। पिंकू को तत्क्षण अनिल के घर बीतने वाली छुट्टियों के लिए पिता के घर से लाए अपने जरूरी असबाब के बीच रखी किताब 'भारत की महान विभूतियाँ' की याद आ गई, और उन्होंने बिना एक निमिष गँवाए बोल दिया कि एक किताब तो है उनके पास जिसे वे कल ही लेते आएँगे। इस तरह पिंकू को अगले दिन भी आपरेटर के घर, यानी पिंकी के पास आने का मौका मिल गया और वे जीवन में पहली बार चुपचाप अपने पिता का शुक्रगुजार भी हुए, जिन्होंने उनके सामान वाले झोले में 'भारत की महान विभूतियाँ' नामक किताब महज इस मकसद से रख दिया था कि पिंकू उसे पढ़कर देश, ईश्वर और मानवता के भक्तों की जीवनियाँ पढ़ते हुए काफी कुछ सीख सकेंगे।
पिंकू अगले दिन अपने ही द्वारा निर्धारित किए समय से काफी पहले आपरेटर के दुआर पर पहुँच गए। किताब के साथ उनके हाथ में लूडो की पैड भी थी। पाशा और गोटियाँ जेब में। जितनी देर में वे पिंकी के हाथ की बनाई शरबत का इंतजार करते रहे, और फिर उसे पीते रहे, वे पिंकी को और पिंकी उन्हें बार बार देखती रही। इस दफा के उनके आगमन पर पिंकी की माँ स्वागत भाव वाली एक मुस्कान देकर परिदृश्य से हट गई। मतलब शायद चावल चुनने या लहसुन की कलियाँ बनाने के लिए दूसरे कमरे में चली गई। आपरेटर किसी अपने काम से बाहर गए थे।
बस इसी सेट पर दो चार रोज पहले से सुगबुगा रहे उनके प्रेम की शुरुआत हो गई। बिना किसी शाब्दिक भूमिका के, चुपचाप। मतलब जब पिंकी ने पिंकू को शरबत भरा गिलास पकड़ाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तो पिंकू ने गिलास को पिंकी के हाथ को कुछ देर तक छूते रहने के बाद छुआ। फिर शरबत के पी लेने पर, गिलास की वापसी का काम भी ऐसे ही हुआ। दोनों को चीजों के आदान प्रदान में किया जा रहा स्पर्श इतना रोमांचक लगा होगा कि उनकी तमन्ना ऐसे ही अनगिन चीजों को जीवन भर एक दूसरे को पकड़ाते रहने की हुई होगी। लेकिन फिलहाल वह शरबत के गिलास से बढ़कर 'भारत की महान विभूतियाँ' नामक किताब और लूडो के पैड, पाशे और गोटियों तक चला।
लूडो के पैड, पाशे और गोटियों से भरे डिब्बे को पकड़ते हुए पिंकी ने पूछा कि 'यह क्या है?' पिंकू ने जवाब दिया था 'लूडो'। पिंकी ने पूछा 'तुम्हें खेलने आता है?' पिंकू ने कहा 'हाँ'। पिंकी ने कहा कि 'मुझे लूडो खेलना अच्छा लगता है।' पिंकू ने सोचा कि आखिरी बार उन्होंने लूडो कब खेला था?' पिंकी भी चाहती तो सोच सकती थी कि उसने इकलौती बार लूडो कब खेला था? पिंकू ने पूछा कि 'तुमने किसके साथ खेला है लूडो?' पिंकी को यह सवाल सुनाई नहीं दिया। पिंकी ने यह नहीं पूछा कि 'तुम मुझे लूडो सिखाओगे क्या?' पिंकू ने इसे सुन लिया। जवाब दिया 'हाँ'। पिंकी ने सुना 'हाँ', और बाद में अपना नहीं पूछा गया सवाल भी। पिंकू पिंकी को लूडो सिखाने लगे। दूसरे कमरे में पिंकी की माँ किसी और ग्रह तक की दूरी पर थी। घर से बाहर एक तरफ अनिल का बगीचा था और दूसरी ओर अनंत तक केवल धूप और लू का विस्तार।
वापस अनिल के घर लौटते हुए पिंकू ने जान बूझकर लूडो की पैड, पाशे और गोटियाँ पिंकी के पास छोड़ दीं। पिंकी ने उसे रख लिया और चौके बासन के हरेक काम के बाद लौटकर उसे देखती रही। बार बार लूडो की तरफ देखना, उसे बार बार पिंकू की तरफ देखने जैसा भी लगता था। लूडो के पास भी आँखें होतीं तो जैसे पिंकू भी उसे देखते रहते। वह कई बार अकेले में मुस्करा देती थी चुपचाप।
अगले रोज पिंकू फिर से आए। लूडो की पैड, पाशा और गोटियाँ वापस ले जाने के बहाने। आपरेटर फिर से कहीं बाहर गए हुए थे। आपरेटर की पत्नी फिर से किसी दूसरे ग्रह की दूरी पर चले जाने की तरह दूसरे कमरे में चली गईं। लूडो सीख चुकी पिंकी पिंकू के साथ उसे खेलने लगी। साँप सीढ़ी का खेल।
छुट्टियाँ बीतने नहीं पाई थीं, कि अनिल को वापस अपने पिता के घर लौट जाना पड़ा। हुआ यों कि सात आठ दिनों तक, हर रोज की दुपहरी में पिंकी के साथ लूडो खेलते हुए पिंकू बगीचे से नदारद रहे। अनिल की चौकड़ी को, यूँ तो बगीचे में पिंकू की उपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता था, लेकिन बगीचे में पिंकू का न होना, उनके लिए बेशक एक रोचक सवाल हो गया। आगे, जल्द ही उसका जवाब भी खोज लिया गया। यह जान लेना अनिल पर शायद ऐसा कोई असर नहीं डालता कि वे पिंकू के आपरेटर के घर में बैठकर लूडो खेलने खिलाफत करने लगें, लेकिन चूँकि उनकी चौकड़ी में उपस्थित राजू के लिए दुःसह थी, इसलिए अनिल को भी पिंकू की खिलाफत में उतरना पड़ा।
पिंकू और पिंकी के दिन और रातों का एक दूसरे के एहसास से सराबोर रहने का सातवाँ या आठवाँ ही दिन था, जब आपरेटर के घर की रहगुजर निकले पिंकू को रोक लिया गया। जाहिर है, अनिल की चौकड़ी द्वारा। चारों के समूह में, हालाँकि सबसे ज्यादा प्रभावशाली अनिल थे, और पिंकू के इतना करीबी होने के नाते यह हक भी उन्हीं का बनता था, लेकिन बात शुरू की राजू ने।
'कहाँ जा रहे हैं भाई साहब?' - प्रश्न में अनिल का चुपचाप समर्थन मिला हुआ था।
पिंकू हकलाते हुए चुप ही रह गए। शायद यह सोचकर, कि उत्तर का पता न होता तो ये सवाल ही न पूछा जाता।
आगे मणि ने कहा - 'भाई, छोड़ दो यह सब काम। तुम्हें जब पहले से पता था कि पिंकी राजू का निशाना है, तो फिर वहाँ काहे जाते हो?'
सागर ने समापन वाक्य कहा - 'पाहुन हो, पाहुन की तरह रहो।'
अनिल ने आँखों में तैश के साथ सागर की बात का समर्थन किया और बगीचे की ओर मुड़ गए। पीछे पीछे बाकी के तीनों।
पिंकू धूप के उस बियाबान में अकेले छूट गए। और साथ में मणि का वाक्यांश, कि 'पिंकी राजू का निशाना है'। पिंकू को खड़े खड़े न जाने कितनी चीजें याद आ गईं। उनमें से सबसे ज्यादा पिंकी। ठीक सामने के घर की दीवार के उस पार से। फिर उनकी माँ। फिर उनके पिता। फिर उनका गाँव।
दोपहर बीतने पर जब अनिल वापस घर आए, तो पिंकू वहाँ न मिले। अनिल उल्टे पैर बगीचे की तरफ गए, बैठका भी पिंकू से खाली था। बस हल्के से सोच विचार के बाद वे आपरेटर के घर की तरफ भी बढ़ लिए। दरवाजे पर कोई दस्तक नहीं देनी पड़ी, सामने पिंकी ही मिली। अनिल ने पूछा कि पिंकू यहाँ आए थे क्या? आज तो नहीं - जवाब था। अनिल लौट आए, लेकिन जवाब देते हुए पिंकी के माथे पर जो एक प्रश्न चिह्न उभरा वह महीनों तक लगातार वैसे ही रहा।
अनिल के घर में शाम तक यह बात स्पष्ट हो गई कि पिंकू अपने पिता के घर वापस लौट गए। उनके सामान वाला झोला और साइकिल, दोनों ही गायब थे। अनिल के पिता पिंकू के इस तरह कारण बताए बिना जाने का कारण खोजने की कोशिश किए, जो कि नहीं मिला। रात बीत गई। और यूँ ही बात भी। बाद में, कुछेक हफ्ते बीतते न बीतते जब पिंकू के पिता आए, तो उनसे भी एक बार इस बाबत पूछा गया। उन्होंने बताया कि इस साल की परीक्षाएँ बोर्ड से होने वाली थीं, सो थोड़ा पहले से ही तैयारी शुरू करनी थीं। और सच में आजकल पढ़ता लिखता भी खूब ज्यादा है।
आगे से पिंकू अनिल के घर बस एक पाहुन की तरह ही आए। जब भी आए, अनिल से न्यूनतम बातें किए और अधिक से अधिक एक रात गुजारकर लौट जाते रहे। लेकिन अनिल की जान पहचान वाले, जो तब तक दिन में दो रात में चार की रफ्तार से बढ़ते ही जा रहे थे, के मुताबिक पिंकू को फिर भी कई बार उस इलाके में देखा गया। अलका देवी बालिका इंटर कालेज के इर्द गिर्द, किसी दुकान की गुमटी पर, किसी खेत के मेड़े पर। और कई बार तो साफ साफ, नीले कुर्ते और सफेद सलवार पहनी पिंकी के साथ, पिंकी के घर की तरफ न जाने वाली और लगभग निर्जन सी किसी पगडंडी पर भी।
इस तरह एक के पीछे एक सटे दिन महीने और साल गुजरे। तब्दीलियों की रफ्तार के घटने के बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था, बल्कि उसमें त्वरण की तर्ज पर बढ़ोत्तरी होती रही। देश दुनिया के सारे विज्ञानी इलेक्ट्रान, प्रोटान, वेलासिटी, सनलाईट, वाटर एनर्जी, सेलुलोस, ईथाइल एल्कोहाल आदि से जुड़े जितने भी सफल प्रयोग करते गए, सितारपुर के लोग भी तब से महज कुछ ही महीनों बाद उनके फायदे उठा सकने लगे। अगर किसी के प्रश्न के उत्तर में यह कह दिया जाता कि 'मेरे पास मोबाइल फोन नहीं है', तो अगला सवाल पक्के तौर पर यही होता था कि 'क्या आपके पास सचमुच कोई फोन नहीं?' पिंकी और अनिल के जीवन में भी तमाम अफसाने बन जाने भर के लिए यह कालावधि काफी रही। लेकिन, जो बदलाव इस कहानी के सिलसिले में सबसे अहम रहा, वह पिंकू का शुभंकर मिश्रा में तब्दील हो जाना। और उनकी दुनिया के दायरे का कई गुना तक बढ़ जाना। अपने छोटे से गाँव से लेकर दूसरे कई सारे गाँवों को पार करते हुए बड़े से शहर तक।
पिंकू के शुभंकर में तब्दील हो जाने के मामले में, दरअसल, हुआ यूँ था कि अपनी पढ़ाई लिखाई के सिलसिले में जब पिंकू जल्द ही गाँव छोड़ शहर पलायन कर जाने की योजना बना रहे थे, और उनके पिता इसे अंजाम देने के लिहाज से न जाने कितनी भंगिमाओं का इस्तेमाल कर अपने यजमानों की मदद से पैसे जुटा रहे थे, उन्हीं उमस और नमी से सराबोर दिनों में पिंकू की बारहवीं की परीक्षाओं का परिणाम आया। जो सफेद कागज पर लाल प्रिंट वाले अखबार के साथ तहसील के कई गाँवों तक फैल गया।
उस साल मानसून सतमासे में पैदा बच्चे की तरह वक्त से काफी पहले आ गया था और कीच काच से नरक हो गई गाँव की गलियों से सटे घरों में लोगों ने अखबार में पहली बार शुभंकर का नाम पढ़ा था। नाम के साथ यह खबर भी कि शुभंकर ने पूरे तहसील में अब तक के रिकार्ड बतौर 83 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं। नाम और खबर के साथ दिखने वाली तीसरी चीज उनकी तस्वीर भी थी, जिसे देखते ही लोगों ने उसे कोई हाल फिलहाल का देखा हुआ चेहरा पाया। शुभंकर के नाम वाला चेहरा असल में पिंकू का ही चेहरा था। आनन फानन में लोगों को याद आ गया कि यह चेहरा उसी लड़के का है जो अभी कुछ देर पहले अखबार देकर गया है।
शुभंकर के बारे में छपी उस खबर के साथ, पढ़ाई की खातिर किए जाने वाले उनके संघर्षों का भी जिक्र किया गया था, और उनके एक मास्टर ने यह भी कोट किया था कि, "देश के एक लाल थे लाल बहादुर शास्त्री, जो केरोसिन न होने पर पढ़ाई के लिए चाँदनी रातें अगोरा करते थे, और दूसरा लाल है शुभंकर मिश्रा, जिसने किताब कापियों के खर्च के लिए अखबार तक बेचने में शर्म नहीं की।"
इस प्रकार पिंकू शुभंकर मिश्रा के रूप में ख्यातिलब्ध हो गए और जवार भर के मास्टर, अपने विद्यार्थियों का जीवन शुभंकर मिश्रा की मेधा की मिसाल दे देकर दुष्कर करते रहे।
किस्से का प्रवाह मतलब उत्तर भारत का भूगोल। सितारपुर हिमालय, वे तीन नदियाँ, और रघुराई विश्वविद्यालय बंगाल की खाड़ी। आगे एक लड़ाई, पानी और पानी के बीच।
बचपन में कुदरत ने जो तीनों की जुदाई कराई, बाद में उस चूक को सुधारने का काम भी उसने करना चाहा। मतलब तीनों का दाखिला रघुराई विश्वविद्यालय में हुआ। अनिल और शुभंकर का तो ठीक बचपन की ही तर्ज पर एक ही वर्ष में। लेकिन तब तक उनकी फितरत पर कुदरत का इतना वश नहीं था कि विषय भी एक ही जैसे लें। शुभंकर ने चुने सांख्यिकी, अर्थशास्त्र और गणित। अनिल ने इतिहास, भूगोल और हिंदी। शुभंकर के चुने विषय, उन्हें शहर और आस पास के कस्बे तक से ट्यूशन के लिए एक-आध पार्टियाँ मुहैया कराने में मदद कर सकते थे, जबकि अनिल के चयन वाले सब्जैक्ट्स उन्हें भरपूर मोहलत देने वाले थे, पढ़ाई के इतर बाकी के तमाम काम करने के लिए। दोनों के दाखिले के अगले ही वर्ष पिंकी भी आ गई। पिंकी अब तक प्रियंका प्रसाद थी।
शुभंकर मिश्रा, अपनी मेधा के चलते विश्वविद्यालय की उस प्रवेश परीक्षा के बाद, जिसमें बैठने वाला लगभग हरेक विद्यार्थी प्रवेश के योग्य मान लिया जाता था और जिसका प्रवेश नहीं होता था, वो महज इसलिए था कि वह प्रवेश लेना ही नहीं चाहता था, फिर से एक बार लोगों की नजर में आ गए थे। स्पष्ट सी बात है, टाप कर गए थे। और जो बात काफी समय तक उनकी चिंता का सबब भी बनी हुई थी, मतलब शहर में वे रहेंगे कहाँ का सवाल, प्रवेश परीक्षा के नतीजे के आने के साथ उसका भी समाधान मिलता दिखने लगा। दिखने लगा माने यह कि विश्वविद्यालय के छात्रावास के लिए अर्ह लोगों की लिस्ट में भी पहला नाम शुभंकर मिश्रा का आ गया। राज्य सरकार, अथवा विश्वविद्यालय कोश में से किसी एक या दोनों के मिले जुले अहसानों की बदौलत, छात्रावास में ठहरना शुभंकर के लिए किराए का कमरा लेने की तुलना में ज्यादा किफायती था।
लेकिन जब वे साजो सामान के साथ गौतम बुद्ध की ऊँचे कद वाली मूर्ति के ठीक पीछे गौतम बुद्ध छात्रावास के अंदर कमरा नंबर 44 के सामने पहुँचे तो उन्हें अपनी पहली ही दृष्टि में एक साथ कई चीजें देखने को मिलीं। मसलन, कमरे के बाहर पड़े कमरे के अंदर रहने वाली दोनों मेजें, दरवाजे के दोनों पल्ले खुले हुए, भीतर की दोनों चौकियाँ एक दूसरे के आलिंगन की मुद्रा में खड़ीं, नीचे के अधिकतम फर्श पर बिछी एक मैली सी दरी, उस पर दो तीन तकिए, और उन पर आड़े तिरछे पड़े पाँच लड़के।
शुभंकर को कमरे के सामने खड़ा देख, भीतर से पूछा गया कि वे कौन हैं? उन्होंने बताया कि शुभंकर मिश्रा। अंदर से यह पूछते हुए, कि वे योगी आदित्यनाथ या मुख्तार अंसारी क्यों नहीं हैं, यह भी पूछ लिया गया कि काम क्या है? शुभंकर ने जवाब में कहा कि 'कमरा उनका है'। 'कमरा उनका है' की बात पर भीतर के तीन लोगों के चेहरे पर विस्मय उग आया और बाकी के दो पर एक धीमी मुसकान। दो लोगों की धीमी मुसकान का मतलब शुभंकर को अपनी बात पर उनका शक किया जाना लगा, लिहाजा वे 'अयोध्या दास भवन' से मिली हॉस्टल आबंटन की रसीद निकालकर उन्हें दिखाने लगे जिस पर छात्रावास के सामने 'जी बी हॉस्टल' और कक्ष संख्या के सामने 44 लिखा था, और सबसे ऊपर उनका नाम। हल्के मुस्कराने वाले दो लोगों में से एक उठा और शुभंकर मिश्रा के कंधे को अपने हाथों से दबाते हुए बोला कि वो जो सामने बैठे हैं, उनका नाम जीतेंद्र सिंह श्रीनेत्र है। चुनाव के बाद यूनिवर्सिटी के छात्र संघ के अध्यक्ष बनेंगे। मेरा नाम राय बहादुर है, ये रहे रंजय सिंह और विवेक चौधरी, सभी को अच्छे से पहचान लो। सामान अंदर रखकर कमरा ठीक ठाक कर लो, और किसी भी तरह की दिक्कत हो तो हमें याद कर लेना। ताश के पत्ते यूँ तो अभी और देर तक उनके बीच में घूमते रहना चाहते थे, लेकिन जीतेंद्र सिंह श्रीनेत्र ने कहा कि काफी लेट हो गया है, चलो निकलते हैं। जाते वक्त शुभंकर मिश्रा से बोल गया कि कमरे का ताला खरीदने की जरूरत नहीं है, और अगर खरीद लाए हो तो लगाने की जरूरत नहीं। रंजय और विवेक सिंह जीने की ओर थोड़ा आगे तक बढ़ लिए थे जब जीतेंद्र सिंह श्रीनेत्र पीछे की ओर मुड़कर शुभंकर से पूछ पड़ा - फिर मिलेंगे, जल्दी ही, दिक्कत तो नहीं होगी। शुभंकर के चेहरे पर जवाब में न जाने कैसी भंगिमा उभरी थी, जिसे उनकी सहमति समझकर वह वापस चला गया।
शुभंकर ने कमरे की चीजों को एक एक कर उनकी जगह पर लगाया। बेमन से, यह सोचते हुए कि शायद उन चारों की वापसी के साथ जल्द ही यह सारा बंदोबस्त पहले की ही तरह अस्त व्यस्त कर दिया जाय। जल्दी जल्दी कुछ हफ्ते बीत गए और वे नहीं आए। शुभंकर को इस बीच अपना कमरा अपना सा लगने लगा। उनकी बार बार की फिक्र के बीच विश्वविद्यालय की कुछेक कक्षाएँ भी चलनी शुरू हो गईं। किसी खास अध्यापक की उपस्थिति में शुरू हो रही कक्षाएँ जैसे जन्म लेती हुई कक्षाएँ थीं। उन्हें शुरू कराने के लिए बार बार की तफतीश और अध्यापकों के तगादे करते हुए शुभंकर जैसे कक्षाओं को पैदा करने वाली माँ या पिता थे। शुभंकर तल्लीनता से अध्ययन में लग गए। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते हुए। वे ज्यादातर अध्यापकों के चहेते विद्यार्थी बन गए। अध्यापक भी शुभंकर को कक्षा की अनिवार्य जरूरत मानने लगे। कक्षा से शुभंकर की अनुपस्थिति, जिसका कि अगर इंतजार किया जाता तो इंतजार करने वाले का धैर्य कई बार टूट ही जाता, में अध्यापक विषय के महत्वपूर्ण हिस्से अगली कक्षा में पढ़ाने के लिए रोक देते थे। लेकिन इन सब में कुछ नया जैसा नहीं था।
उस एक सत्र में, अनिल ने भी काफी कुछ हासिल कर लिया। परीक्षाओं के परिणामस्वरूप मिले अंकों के अलावा बाकी का बहुत कुछ। जैसे, चुनावों में छात्रसंघ का अध्यक्ष चुन लिए गए जीतेंद्र सिंह श्रीनेत्र के सीने का फेफड़ा बन जाने का गौरव, मध्यकालीन भारत के धर्मगुरुओं के नाम पर बने विभिन्न छात्रावासों के किसी भी कमरे में कभी भी घुस जाने और अनियतकाल तक के लिए वहाँ ठहर सकने का स्वतः अर्जित अधिकार, दीक्षा भवन, मीराबाई कला संकाय तथा दूसरे अनेक विभागों को, या से जाती आती लड़कियों की झुकी आँखों को और भी झुका देने की सलाहियत आदि... आदि। गर्मियों के दिनों की एक और खेप आई। लेकिन पिंकू और अनिल के किस्सों वाले उन पुराने दिनों को याद करना बेमानी होगा। सो वे आने की ही तर्ज पर यूँ ही चली भी गईं। अनिल इस दौरान अपने गाँव पर रहे, बीच बीच में कई बार शहर को आते जाते हुए। लेकिन शुभंकर शहर में ही डटे रहे। छात्रावास के कमरे में ही, सामान्य से कुछ तेज ही आवाज करने वाले पंखे के एकांत में, दिन भर कुछ पढ़ते रहने के बाद, शाम में थोड़े पास से काफी दूर तक के तीन चार कस्बों के चार पाँच बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाते, आते, दाल भात और चोखा बना-खाकर सो जाते हुए।
इस तरह से बीत गए उस एक साल में बहुतेरी बार ऐसा हुआ कि शुभंकर और अनिल, विश्वविद्यालय के विभिन्न हिस्सों में आमने सामने पड़े। शुरू शुरू में ऐसा होने पर, शुभंकर थोड़े वक्त के लिए अपनी जगह पर ठहर जाते, अनिल की ओर एक संवाद शुरू हो जाने की उम्मीद में देखते हुए, लेकिन अनिल के चेहरे की भंगिमा पिंकू को एक अजनबी ही दिखाती रह जाती थी। शुभंकर को यह बात शुरू शुरू के कई महीनों तक सालती रही, विश्वविद्यालय में टहलती सैकड़ों की भीड़ में उन्हें जान पहचान के नाम पर इकलौता चेहरा अनिल का ही दिख सकता था, और उस चेहरे की भी तरफ से इतनी बेरुखी शुभंकर के लिए असह्य हो जाती। कई बार वे अपने साहचर्य के दिनों की यादों से लदे हुए कैंपस के किसी सुनसान कोने में फूट फूटकर बिसूरने लग जाते। लेकिन बाद में, जब वक्त ने उन्हें इसकी आदत डाल दी, तो सब धीरे धीरे ठीक लगने लगा।
अगले सत्र की शुरुआत शुभंकर के लिए मिठाई खिलाई जा सकने वाली खुशखबरी के साथ हुई। खुशखबरी वही, कि पिंकी ने भी रघुराई विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। वैसे तो शुभंकर को इसका भान पहले से ही था, लेकिन भान की गई बात का यूँ सच हो जाना उनके साथ बहुत कम दफे हुआ था, इसलिए एक कुतूहल था, जिसने उन्हें और भी चीजों का भान कर लेने तथा और भी सपने देखने को एक नए सिरे से उकसाना शुरू कर दिया।
इस तरह से, ठहरा था जो सिलसिला, या कम से कम लगने वालों को ऐसा लगता रहा था, मतलब पिंकी और पिंकू के दरम्यान, प्रियंका और शुभंकर के बीच परवान चढ़ते हुए फिर से सरनाम हो गया। किताबों और नोट्स की अदला बदली नहीं करनी थी। जींस की टीअर और जुल्फों की शोखी नहीं निहारनी थी। न ही जल्द ही कुछ कहूँगा के इंतजार में कुछ भी न कह पाने के लंबे चौड़े दिन गुजारने थे। सारी की सारी भूमिका पहले से तैयार थी। जो नहीं तैयार था, वो इस नाटक में अनिल के किरदार का रिहर्सल। यूँ तो तब तक उसकी स्क्रिप्ट भी नहीं लिखी गई थी। लेकिन कोई बात नहीं, जो नहीं हुआ वह हो भी तो सकता है।
जेहनी बुनावट से शुभंकर एक जिम्मेदार इंसान थे। इसीलिए, जीवन में इतने साफ तरीके से प्रियंका के आ जाने के बावजूद वे अपने रास्ते से विचलित नहीं हुए। कक्षाओं से पहले और बाद के समय में वे उतनी ही संख्या में बच्चों को पढ़ाकर लगभग उतने ही पैसे कमा लेते रहे। उसका एक तयशुदा हिस्सा दो दो महीनों के अंतराल पर, अपने पिता को दे आते रहे। एक क्षणभंगुर ना नुकुर के बाद उनके पिता वे पैसे ले भी लेते रहे। प्रियंका के छात्रावास का कानून, जो शुभंकर से उसके दीदार को, कक्षाओं से इतर के किसी वक्त में होने देने के भरसक खिलाफ था, ने भी शुभंकर को अपनी जिम्मेदारियों के प्रति वफादार रहने का भरपूर मौका दिया।
इतवार के दिन, जबकि दिन के ग्यारह से शाम से पहले के चार बजे तक, किसी वैध कारण की बिना पर प्रियंका के छात्रावास से बाहर जाने की छूट मिल सकती थी, प्रियंका ढेर सारे सामानों की लिस्ट बनाती और बाहर से उनकी खरीदारी को वजह बता निकल आती थी। इतवार के दिन के ग्यारह बजे का इंतजार शुभंकर शनिवार के दिन के शाम से पहले के चार बजे से ही होने लगता था। वे प्रियंका को ठीक ग्यारह बजकर पाँच मिनट पर महाराणा प्रताप की, एक घोड़े की प्रतिमा पर बैठी मूर्ति के पास मिल जाते। इतवार के दिन उस खास जगह पर और भी कई लड़के ऐसे ही किसी के इंतजार में खड़े दिखते थे। लेकिन ज्यादातर तादाद ऐसों की होती थी, जिनका इंतजार कभी पूरा नहीं होता था, और उनका काम उस चौक से बनकर निकलती जोड़ियों को चिह्नित करने, उनकी और सारी तफसीलें जुटाने तथा, आगे विश्वविद्यालय में कहीं भी दिख जाने पर उन पर उलूल जुलूल फिकरे कसने का था। हाल फिलहाल के ही अतीत में किसी रचनात्मक दिमाग ने उस जगह का नाम मजनू चौक रख डाला था।
ऐसे, ठीक ठाक चलते जा रहे शुभंकर और प्रियंका के सिलसिले में अनिल का प्रवेश भी उसी जगह से हुआ। मजनू चौक से। अनिल वहाँ इंतजार करने वाले उन्हीं दूसरी तरह के लोगों की जमात में शामिल थे, जिन्हें किसी न किसी ऐसी जोड़ी से कोई न कोई ऐतराज जरूर रहता था। शुभंकर और प्रियंका की जोड़ी से अनिल का ऐतराज, पहले तो अकारण ही था, लेकिन जल्द ही उन्हें इसे तूल देने वाला एक कारण मिल गया।
सूचना और संचार के लिहाज से सोचें तो जमाना बेशक जीरो लेटेंसी का था, लेकिन फिर भी बात के मजनू चौक से उठकर, अनिल से होते हुए सितारपुर और पिंकू के पिता के गाँव तक पहुँच कर वापस शुभंकर और प्रियंका तक संचरित हो जाने में लगभग दो हफ्ते लग गए। अगर आप सरकारों को बिना सिर पैर की बात पर भी कोसते रहने वालों में से एक हों, तो इसके लिए भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय को दोषी ठहरा सकते हैं।
दरअसल, बात के पहली बार में ही जाहिर हो जाने के बाद भी अनिल को यह एक जाहिर सी बात नहीं लगी। अनिल ने अपने कई दिन शुभंकर और प्रियंका पर नजर रखने में खर्च किए। मणी, सागर और राजू की ही तर्ज पर अब भी अनिल के आस पास एक व्यूह बना रहता था। अनिल ने उस व्यूह के सभी सूरमाओं को अलग अलग दिशाओं में रवाना कर दिया। उनमें से कुछ की प्रेमिकाएँ प्रियंका की सहपाठिनी थीं और उसी के छात्रावास में रहती थीं, सो हॉस्टल के अंदर की प्रियंका की गतिविधियों की खबर भी अनिल को मिल जाती रही। खास तौर पर इसकी, कि हॉस्टल के बेसिक फोन पर दिन में कितनी बार प्रियंका के लिए काल आई और किस काल में क्या क्या बातें हुईं आदि। यूँ, एक हफ्ते की लगन के बाद अनिल के पास पर्याप्त सामग्री हो गई, इस प्रेम कहानी के यहाँ तक के हिस्से को लेकर बनाई जाने वाली फिल्म की सिनाप्सिस तैयार कर लेने की। अनिल ने उसे कहीं लिखा नहीं, और 'आशु शिल्प' में ही उसकी प्रस्तुति के लिए सितारपुर रवाना हो गए।
लोग बाग कहा करते थे कि अपने पैरों के, पिता के जूते से बड़ा हो जाने के बावजूद अनिल उनसे आँखें नीची करके ही बात करते हैं। सो शुभंकर और प्रियंका की बात अनिल के पिता को सीधे सीधे नहीं बताई गई। लेकिन गैर सीधे तरीके से ही सही, इसे जान लेने के बाद उन्होंने अनिल के सामने सीधे शब्दों में कहा, 'ब्राह्मण का लड़का और तेली की लड़की... होना भी था, तो मेरे खानदान में... नाक कट जाएगी। ऊपर से चुनाव भी सर पर हैं, खैर...'
अनिल वापस शहर आ गए, क्रमशः अगला इतवार भी आया। और मजनू चौराहा। हर बार वाला ग्यारह बजकर पाँच मिनट साढ़े बारह बजे तक नहीं बजा। मतलब इंतजार करने वाले शुभंकर तो अपने खड़ा होने की जगह से नदारद थे ही, प्रियंका भी छात्रावास से बाहर नहीं आई। अनिल अपने व्यूह के साथ लौट गए। लेकिन ढाई बजे तक विश्वस्त सूत्रों ने एक सही खबर से उनके कान भर दिए। खबर यह, कि शुभंकर और प्रियंका 'डी' पार्क में बैठे हुए हैं।
'डी' पार्क इतना बड़ा नहीं था कि उसमें एक साथ झरने, जंगल और पहाड़ दिख रहे होते। शुभंकर को प्रियंका के होठों पर एक चुंबन ले लेने के लिए झरने, जंगल और पहाड़ों वाले माहौल में बिखरे एकांत की जरूरत नहीं थी। रास्ते की लगभग अनजानी सी एक लकीर पर दोनों ओर की झाड़ियों के बीच बना ली गई एक छटाँक जगह काफी थी इसके लिए। मतलब शुभंकर ने एक चुंबन ले लिया। प्रियंका ने मना नहीं किया। शुभंकर तुरंत ही दूसरे चुंबन के लिए तत्पर हुए, साथ में प्रियंका की देह के नीचे दबते जा रहे पत्ते कसमसाते रहे। प्रियंका एक इनकार के साथ 'अभी बस्स इतना ही' की मिन्नतें करने लगी। शुभंकर नहीं माने और पहले और दूसरे चुंबन के बाद झट से दस और बारह की संख्याएँ भी पार कर गए... कि कोई आहट लेने के वास्ते उनकी नजर उठी और एकबारगी उसमें अनिल का अक्स भर गया। ठीक सामने की झुरमुट से ताकता तमतमाया सा चेहरा।
ठीक इसी वक्त अगर शुभंकर के मन में प्रश्न उठता कि अनिल माने कौन? तो क्या जवाब में उन्हें उम्र में खुद से छह महीने छोटा भाई याद आ सकता था? नहीं। कतई नहीं। अनिल के उस चेहरे के सामने शुभंकर, प्रियंका और अनिल का समूचा इतिहास झूठ था। उनके साझे अतीत से वर्तमान का कोई वास्ता ही नहीं।
जमीन से उठती प्रियंका के जिस्म पर कपड़े पूरे थे, बस चंद सिलवटें आ गई थीं, जो अतिरिक्त थीं, और दृश्य से हट जाने की उसकी हड़बड़ी के कारण देर तक बनीं भी रहीं। अनिल के साथ के लड़कों में एक रंजय सिंह भी था, जिसने जल्दबाजी में पार्क के पिछले गेट की तरफ बढ़ रही प्रियंका की तरफ एक वाक्य उछाला, दुबारा अगर ऐसा कुछ दिखा तो तुम्हारी खुजली हम सब मिलकर मिटाएँगे। प्रियंका के लिए यह वाक्य काफी था, अजोर भरे दिन को अनजानी दहशतों से भर देने के लिए। प्रियंका के साथ जाने की जुगत कर रहे शुभंकर को रोक लिया गया था। रुके हुए शुभंकर कुछ देर तक आँखें नीची किए रहे, फिर एकाध बार अनिल से नजरें मिला लेने लगे। अनिल ने पहली बार शुभंकर के लिए तुम शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि, "अब तुम्हें सुधरने का दूसरा मौका नहीं मिलेगा... करना ही था तो इसके लिए सितारपुर की ही लड़की मिली तुम्हें? तिस पर भी तेली? एकदम से नाक कटवाने पर लगे हुए हो"। प्रस्थान से पहले का आखिरी वाक्य रंजय सिंह ने पूरा किया - फिर से अगर ऐसा कुछ हुआ, तो तुम्हारा कुछ और ही काट देंगे।
बात का संचरण जब आपरेटर तक हुआ, तो वह दोपहर के बाद का वक्त था। दो चार रोज पहले आई एक आँधी ने गाँव से बाहर के तीन बिजली के खंभे ढहा दिए थे। इस तरह की किसी भी बिगड़ी को बनाने की अपनी अघोषित जिम्मेदारी के तहत आपरेटर उसे ठीक करा रहा था। हाइड्रिल से लाइन मैन बुलाकर तारों की खींचा तानी शुरू करवा दी थी। सुबह हुई बारिश अभी याद भी नहीं बनने पाई थी कि आसमान पर फिर से जामुनी जिल्द चढ़ गई थी। धीरे धीरे आठ दस लोग भी जुट आए थे, खासकर गाँव में दुबई, बहरीन तथा खाड़ी मुल्कों के दूसरे शहरों से दो तीन साल तक कमाने के बाद लौटे नवयुवक, जिनका काम उनकी अगली यात्राओं से पहले तक ऐसे ही जमघटों में तादाद बढ़ाना होना था। उनमें से एक के हाथ में रेडियो सेट था, जिस पर आ रहे क्रिकेट के आँखों देखे हाल के अनुसार राहुल द्रविड़ एक अजीब दुर्भाग्य से आउट हो गया था। वह गांगुली द्वारा एक आक्रामक शाट खेले जाने से पहले ही, तेजी से रन पूरा करने की फिराक में क्रीज से बाहर आ गया था, सौरभ गांगुली द्वारा खेला गया शाट, दूसरे छोर पर गेंद फेंककर खड़े हो रहे डैनियल विटोरी के हाथ से टकराकर सीधा स्टंप पर जा पड़ा। द्रविड़ वापस क्रीज में आने की जुगत भी न कर पाए और सीधा सामने पैवेलियन की तरफ बढ़ने लगे। खंभे की जड़ में मिट्टी दे रहे आपरेटर कुछ देर के लिए रुक गए और लोग एक विषाद से भर गए।
कि तभी अनिल के पिता का आना हुआ। वे बाहर कहीं से गाँव में वापस आ रहे थे। खंभे से सटी सड़क पर उन्होंने जीप रुकवा दी, तत्क्षण से लोगों के अभिवादन स्वीकार करते हुए, वे खेत में उतरे, मिट्टी के सख्त ढेले जो पानी के असर में कुछ मुलायम हो गए थे, को रौंदते हुए। आपरेटर को पता था कि वे उसी की खैर जानने, और साथ में ऐसा ही कोई और काम सौंपने के लिए उसी के पास आ रहे हैं, इसलिए उनके करीब पहुँच जाने पर उसने कहा - 'गोड़ लगत हईं मालिक'। अनिल के पिता ने देर तक कोई जवाब नहीं दिया, जिससे आपरेटर ने मिट्टी गोड़ना रोक दिया और उनकी ओर तकने लगा। अनिल के पिता ने बिना किसी लाग लपेट के सीधे वह बात दे मारी, पोल खड़ा करने के बाद, अगला काम अपनी बिटिया को वापस बुलाने का करो, वर्ना जल्दी ही कुछ उल्टा सीधा होगा। बड़ी सरनाम हुई जा रही है पूरे शहर में।
कहने के बाद वे अविलंब वापस मुड़ गए, जीप स्टार्ट हुई और वे चलते बने। आपरेटर सिर झुकाए मिट्टी गोड़ता रहा। लोगों की भीड़ खामोशी में खड़ी रही, द्रविड़ के बाद गांगुली और युवराज सिंह भी आउट हो गए, मिट्टी जरूरत से कुछ ज्यादा ही इकट्ठी कर दी गई। अंत में, किसी भी सुबह अपने नहीं होने की खबर दे देने के लिए उपयुक्त उम्र में पहुँच चुके राम अधार चाचा ने पूछा - का हो आपरेटर, उ पिंकुए बाबू के साथे का?...
प्रियंका वापस सितारपुर आ गई।
आगे का प्रियंका का रहना, चंद महीनों पहले की प्रियंका के रहने की तरह ही होने लगा। इस बीच यह बात उसे राहत देने वाली कतई नहीं थी कि आपरेटर या उसकी पत्नी ने समूचे प्रकरण के बारे में उससे कुछ भी नहीं पूछा। कोई ताने भी नहीं मारे। बस, जिस दोपहर वह वापस लाई गई, उसी के बाद की तिजहर से चुपचाप चावल चुनने और बासन माँजने लगी। पूर्ववत। पढ़ाई के अधूरे रह जाने की बात उसने पूरी तरह से स्वीकार लिया था, अथवा परीक्षाओं के लिए एक बार वापस जाने के आस की उसमें एकाध फाँक बची थी, यह किसी को नहीं पता।
शुभंकर के दिन और दुखकर होते अगर विश्वविद्यालय में फिर से चुनावों की धूम न आ जाती। अपनी प्रेम कहानी में आए उस आशातीत मोड़ के बाद वे लगभग पूरे ही बदल गए। कक्षाओं से लगभग संन्यास ले लिया। ट्यूशन का कारोबार भी तकरीबन छोड ही दिया। पर जिम्मेदार होना जैसा कि उनकी बनन में था, घर, और खासकर माँ के कपड़े और दवाइयों के दायित्व को वे बदस्तूर निभाते रहे। जो काम पहले प्रत्यक्ष तौर पर पैसे चुकाकर की गई खरीदारियों द्वारा किया जाता था, अब वह छात्रावास के छात्रों द्वारा आस पास के कुछ बाजारों में, प्रति वर्ष एक बार की दर से की जाने वाली खुलेआम लूट, तथा बाकी, वायदों और दादागीरी की भी मदद से होने लगा। जो नहीं बदला वो विश्वविद्यालय परिसर में बार बार का उनका तफरीह करते रहना।
यूँ एक से दूसरे विभाग तक घूमते रहना ही जैसे शुभंकर का पहला मकसद हो गया, यह शायद आस पास बिखरे माहौल का असर था, मतलब कम से कम सैकड़ों की तादाद ऐसे दूसरे विद्यार्थियों की भी थी जो उन्हीं की तरह दिन भर एक से यहाँ वहाँ की खाक छानते रहते थे। शुभंकर समेत ऐसे सभी लोगों का यह पहला मकसद, दरअसल एक दूसरे मकसद से संचालित होता था, जो आगामी चुनावों में अपने करीबी प्रत्याशी के पक्ष में समाँ बनाने का था। ऐसा इन्हीं लोगों की बदौलत संभव हो पाता था कि अध्यक्ष पद के उम्मीदवार विनायक ठाकुर के गोलघर बाजार में कुर्ता खरीद रहे होने के वक्फे में भी विश्वविद्यालय के अंदर उनके पक्ष में एक वोट बन, अथवा दो चार वोट कट जाते थे।
शुभंकर खुलकर अजय सिंह श्रीनेत्र के पक्ष में प्रचार कार्य करने लगे थे। एक दूसरी खबर के मुताबिक, अनिल भी छात्र संघ के अध्यक्ष के उसी पद की उम्मीदवारी में खड़े हुए थे।
यह बताना एक बेहद प्रत्याशित बात होगी, कि चुनाव में अनिल के खड़े होने के बावजूद शुभंकर द्वारा दूसरे के पक्ष में प्रचार किया जाना अनिल, तथा बात के अप्रत्यक्ष रूप से उन तक पहुँचने के बाद अनिल के पिता को असह्य होने की हद तक नागवार गुजरेगा।
यह भी सहज ही सोचा जा सकता था कि इस बाबत अनिल के पिता द्वारा शुभंकर के पिता को बुलाया और उनके बेटे के बेलगाम होते जाने की बाबत बताया तथा शुभंकर को जिस थाली में खाया, उसी में छेद करने वाली गतिविधियों को तत्काल ही रोक देने का निर्देश देने को कहा जाएगा। लेकिन यह शायद उतनी आसानी से न सोचा जा सके कि शुभंकर के पिता द्वारा यह सब सुन लेने के बावजूद, इस पर रत्ती भर भी अमल नहीं किया जाएगा। अनिल के पिता के साथ हुई उस मुलाकात की तफसीलें भी, निर्देशानुसार तत्काल शुभंकर तक नहीं पहुँचाई जाएँगी...
उधर, अपने तेज तर्रार विषय ज्ञान के सहारे अर्जित शानदार अंकों, और शिक्षकों का चहेता रहने के कारण लड़कियाँ जो उन्हें कालेज का सबसे शालीन छात्र मानती आईं थी, अजय सिंह श्रीनेत्र ने इसका लाभ उठाने के लिए शुभंकर को सिर्फ लड़कियों के महकमे में प्रचार कार्य का जिम्मा सौंप दिया। शुभंकर ने यहाँ भी अपना जिम्मेदाराना तेवर दिखाया, तथा कई बार तो बस लड़कियों का ही जमघट जुटा उन्हें संबोधित किए। यूँ शुभंकर और अजय सिंह श्रीनेत्र एक दूसरे के काफी करीब आ गए, और हॉस्टल के उसी कमरे पर, ठीक उसी तरह की तास के पत्तों वाली जमघट कभी कभार फिर से जमने लगी, इस दफा शुभंकर की सहमति और सहभागिता के साथ, कई दफा तो खुद उन्हीं के आमंत्रण पर भी।
वोटिंग की तारीख जिस दिन महज चार दिन की दूरी पर थी, और प्रचार कार्य कानूनन जिस दिन से ठप कर दिया जाना था, शुभंकर ठीक उसी की सुबह से सुस्त पड़ने लगे, शायद इस थकाऊ खयाल से, कि जो हो सकता था, कर दिया, अब और नहीं। लेकिन उस सुस्ती के दौर में ही उनके थके दिमाग ने जिस एक बात पर विचार कर लिया, उसके नतीजे के तौर पर अगले ही घंटे में वे अजय सिंह श्रीनेत्र के साथ सितारपुर के लिए रवाना हो गए। सुजुकी आल्तो नाम की उनकी लाल रंग की कार गाँव के पश्चिमी सीमांत पर ही रोक दी गई, जाहिर है पिंकी के घर पर। लाल रंग की कार के अपने दरवाजे पर ठहरते देख आपरेटर काफी उत्सुकता से भरा हुआ बाहर निकला, लेकिन कार से एक हट्टे कट्टे अजनबी के साथ शुभंकर को निकलता देख उतनी ही मात्रा में दहशत से भर गया।
शुभंकर के साथ अजय सिंह श्रीनेत्र के भी अभिवादन कर लेने भर से उन्हें तसल्ली हुई, वे घर के भीतर बुलाए गए, पिंकी ने अपने हाथों से शरबत बनाई और आपरेटर के हाथों ने उसे मेहमानों को परसा। थोड़ी देर तक का समय हाल चाल पूछने और खान पान करने से खाली रहा, और बस इतने ही समय में वोटिंग के दिन प्रियंका को रघुराई विश्वविद्यालय तक जाने देने के लिए आपरेटर को राजी कर लिया गया। आपरेटर की किसी भी तरह की शंका का समाधान सुरक्षा और साधनों की प्रचुर उपलब्धता के आश्वासन पर कर दिया गया। तय हुआ कि आठवीं तारीख को सुबह के साढ़े नौ बजे के आस पास एक गाड़ी आएगी और शाम होने से पहले प्रियंका को वापस उसी गाड़ी से छोड़ भी दिया जाएगा। इस पूरे प्रकरण के पीछे सबसे बड़ा कारण शुभंकर के दिल में तेजी से उठी प्रियंका से दीदार की ख्वाहिश थी, जिसके लिए उन्होंने अजय सिंह श्रीनेत्र को यह तर्क दिया कि अपने बिरादरी की लड़कियों में उसकी काफी चलती रही है, और अगर प्रियंका उस रोज भी आ गई, तो सबसे निकट प्रतिद्वंद्वी, अर्थात अनिल कुमार पांडेय के खाते से बारह - पंद्रह वोट तो यूँ उड़ा लाएगी। संभव है कि यह काफी हद तक सच भी रहा हो, खैर...
वोटिंग का दिन आया। प्रशासन की नजर बूथ के बाहर कतार में खड़े प्रत्याशियों पर, और प्रत्याशियों की नजर वोटिंग के लिए आगे बढ़ रह छात्रों पर, हाथ जोड़े हुए, अपने अपने माथे पर अपने चुनाव चिह्नों वाले बैनर बाँधे हुए। कतार की शुरुआत अजय सिंह श्रीनेत्र से होती थी, जो सामने से गुजरने वाले हरेक की शान में अपने जुड़े हाथों में एक ऊर्ध्वाधर कंपन लाते तथा एक विनम्र याचक की भंगिमा से भर जाते थे। कतार का अंत अनिल कुमार पांडेय से होता था, जो अजय सिंह श्रीनेत्र तथा शेष प्रत्याशियों की ही तरह लगभग वही प्रक्रम दुहराए जा रहे थे।
कि तभी उनका आना हुआ। बारह बजकर छत्तीस या अड़तीस या चालीस मिनट जैसा कुछ बज रहा था। शुभंकर और प्रियंका। शुभंकर को देखकर अजय सिंह श्रीनेत्र ने हल्की मुस्कान के साथ बस एक आँख दबा दी, बाकी के प्रत्याशियों ने शुभंकर के लिए अपनी भंगिमाएँ समान रखीं, अनिल बस उन्हें गहरी आँखों से घूरते रहे। शुभंकर के ठीक पीछे चली आ रही प्रियंका को सबने अपनी याचक मुद्रा के साथ भरपूर सम्मान दिया था, लेकिन जैसे उसका बिंब अनिल की आँखों में उभरा, अनिल जैसे तमतमा उठे। तुरंत ही उन्होंने अपने जुड़े हाथों को खोल लिया।
वोटिंग पूरा कर बाहर निकलने पर अनिल अपने जगह के साथ आस पास की हर जगह से गायब मिले।
शुभंकर ने एक लमहे भर मे न जाने क्या क्या समझ लिया, खड़े खड़े अजय सिंह श्रीनेत्र के पास गए, कुछ बातें कीं और पिंकी को लेकर विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार की बजाय दक्षिण वाले निकास की तरफ जाने लगे। गेट से बाहर निकल जाने तक उन्हें किसी भी तरह की अड़चन नही मिली, और राहत के लाल रंग के साथ उन्हें अजय सिंह श्रीनेत्र की सुजुकी आल्तो कार भी वहाँ पहले से ही खड़ी मिली। आगे, जबकि वे चालक के रूप में अपने दोस्त नदीम के वहाँ से नदारद हो जाने से विस्मित हो रहे थे, कार के दरवाजे को खोलने के लिए थोड़ी थोड़ी जोर लगाए जा रहे थे, उन्हें प्रियंका द्वारा पुकारा गया उनका नाम, और तुरंत ही उसकी चीख भी सुनाई दी। 'क्या हुआ' के प्रश्न के साथ जैसे ही शुभंकर पीछे मुड़े उन्हें हाकी की घुंडीदार मूठ अपनी तरफ आती दिखी, उसके पीछे से रंजय सिंह का चेहरा। ऐसा दिखने के अगले ही क्षण एक और चीत्कार के साथ उन्हें और कुछ भी दिखना बंद हो गया। कार का दरवाजा झट से खुल गया, प्रियंका उसमें आसानी से भर दी गई, गौतम बुद्ध छात्रावास के कमरा नंबर चौवालीस के खुले दरवाजे के दोनो पल्ले दो तरफ किए गए, फिर अंदर लिटाकर प्रियंका प्रसाद की दोनो टाँगें भी...
कहते हैं कि चुनाव अभियान में अभूतपूर्व तरीके से सक्रिय रहे होने के बावजूद वे पाँच लड़के एक अच्छी नींद के लिए जरूरी थकान नहीं पा सके थे। लिहाजा प्रियंका के साथ थोड़ा और श्रम कर लेना उन सबकी सेहत के लिए अनिवार्य था। और श्रम के इस क्रम में जिसकी हिस्सेदारी सबसे बाद में, शाम बाद के तकरीबन साढ़े सात बजे हुई, वे खुद अनिल कुमार पांडेय थे।
आगे, जबसे शुभंकर मिश्रा अपने बाएँ हिस्से के ललाट से शुरू होकर दाईं आँख के किनारे तक लगे स्पष्ट टाँके के साथ, बार बार पुलिस स्टेशनों, अखबारों और इक्के दुक्के मीडिया चैनल्स के दफ्तरों के चक्कर काटने लगे, तब से गौतम बुद्ध छात्रावास से कमरा नंबर चौवालिस गायब है। कमरा नंबर तैतालीस और पैतालीस तो सभी को दिख जाते, लेकिन उन दोनों के बीच से चौवालीस नंबर की अवस्थिति किसी को भी नहीं दिखती, वैज्ञानिक इसके लिए 'माइक्रो' से लेकर 'टेली' तक की क्षमताओं वाले अनेक लेंसों का इस्तेमाल कर करके भी थकने लगे हैं।
मामले के विशेषज्ञों के मुताबिक कमरा नंबर चौवालीस के मिल जाने के साथ प्रियंका का भी सुरक्षित मिल जाना तय है। अजय सिंह श्रीनेत्र इस बीच फिर से एक बार छात्र संघ के अध्यक्ष हैं। पराजित अनिल कुमार पांडेय अगले वर्ष के चुनावों की तैयारियों के लिए अभी से कमर कस लिए हैं। और शुभंकर अपने पिता के घर के रास्ते पर हैं, शायद उनकी माँ का रह रहकर सुन्न हो जाना इन दिनों फिर से बढ़ गया है और माथे में लगातार दर्द रहने लगा है...