उर्मिला मातोंडकर का शुभागमन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 अप्रैल 2019
फिल्म कलाकार उर्मिला मातोंडकर उत्तर मुंबई लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस दल की उम्मीदवार हैं। उर्मिला के पिता श्रीकांत मातोंडकर ने मजदूर संगठनों के लिए बहुत काम किया था। दरअसल श्रीकांत मातोंडकर सारा जीवन ही मेहनतकश मनुष्य को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करते रहे और कई बार उन्होंने भूख हड़ताल भी की। अपने परिवार की पृष्ठभूमि के कारण उर्मिला मातोंडकर का इस राजनीतिक कुरुक्षेत्र में कूदना आश्चर्यजनक नहीं है। अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना सत्याग्रह करना मातोंडकर परिवार के सदस्य पीढ़ियों से करते चले आ रहे हैं। उन्होंने अपने भाषण में जानकारी दी है कि ख्वाजा अहमद अब्बास, वसंत साठे, राज कपूर, बलराज साहनी, चेतन आनंद इत्यादि कलाकार हमेशा अपनी फिल्मों के माध्यम से समाजवादी विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए कामगार वर्ग की व्यथा को प्रस्तुत करते रहे हैं।
दरअसल, अमेरिका जैसे पूंजीवादी देश में हॉलीवुड में अधिकांश फिल्मों के नायकों को आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रस्तुत किया है। सिनेमा का आर्थिक आधार आम दर्शक है। वहां अमीर लोग ऑपेरा देखते हैं। बैले कार्यक्रम देखते हैं और रेस कोर्स पर घोड़ों पर दांव लगाते हैं। औद्योगिकीरण के दौर में मजदूरों के मनोरंजन के लिए फिल्में बनाई गईं और दिखाई गईं। इस प्रारंभिक दौर में सिनेमाघर नहीं थे, अतः फैक्ट्री के गोडाउन में फिल्में दिखाई गईं और फैक्ट्री के चौकीदार की बॉक्स नुमा जगह से टिकट बेचे गए। उसी दौर से सिनेमा उद्योग में बॉक्स ऑफिस शब्द का प्रचलन प्रारंभ हुआ। कभी-कभी पूंजीवादी व्यक्तियों पर भी फिल्में बनी हैं। जैसे 'सिटीजन केन'। हमारे देश में सट्टा बाजार में सक्रिय नायक पर 'सट्टा बाजार' नामक फिल्म बनी थी।
उर्मिला मातोंडकर को बोनी कपूर ने 'द्रोही' नामक फिल्म में प्रस्तुत किया था और उसी समय शाहरुख खान और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत 'चमत्कार' भी बनी थी। राम गोपाल वर्मा ने उर्मिला मातोंडकर, आमिर खान और जैकी श्रॉफ अभिनीत 'रंगीला' बनाई थी और इसी फिल्म की सफलता ने उर्मिला मातोंडकर को सितारा हैसियत प्रदान की। उसने अनेक सफल फिल्मों में प्रभावोत्पादक अभिनय किया है। अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत एक फिल्म का नाम था 'मैंने महात्मा गांधी को नहीं मारा'। कथासार कुछ यूं है कि गांधीवाद में विश्वास करने वाला आम आदमी बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेल में एक डार्ट फेंकता है जो इत्तेफाक से महात्मा गांधी की तस्वीर पर जा लगती है और उसी क्षण रेडियो पर महात्मा गांधी की हत्या का समाचार प्रसारित होता है। अनुपम खेर द्वारा अभिनीत इस पत्र को केमिकल लोचा होता है और वह चीखता है कि उसने गांधी को नहीं मारा। इस आदमी की युवा पुत्री की भूमिका उर्मिला मातोंडकर ने अभिनीत की थी। वह अपने पिता का इलाज मनोविकार के डॉक्टर से कराती हैं। वह अपना पूरा जीवन अपने पिता की सेवा में अर्पित करती हैं। इसके पूर्व उसे एक युवा से प्रेम हुआ था जो विवाह करने का प्रस्ताव रखता है परंतु अपने पिता की तीमारदारी के लिए वह विवाह करने से इंकार कर देती है। यह एक अत्यंत सार्थक फिल्म थी और अनुपम खेर तथा उर्मिला मातोंडकर इसके लिए पुरस्कृत भी किए गए।
अन्याय व असमानता आधारित व्यवस्था में अनगिनत लोग केमिकल लोचे के शिकार हो रहे हैं और वे अपना इलाज नहीं कराते क्योंकि वह स्वयं को रोगी ही नहीं मानते। भारत में मनोरोग चिकित्सकों की संख्या बहुत कम है। पूर्व में उजागर किए गए एक आंकड़े के अनुसार मात्र 4000 मनोचिकित्सक हैं।
बहरहाल, उर्मिला मातोंडकर ने 'द्रोही' नामक फिल्म और परवेश सी मेहरा की 'चमत्कार' से अभिनय यात्रा प्रारंभ की थी और उन्हें जब सही लगा तब उन्होंने अभिनय छोड़ दिया। ज्ञातव्य है कि फिल्म कलाकार शूटिंग के पूर्व मेकअप करते हैं। मेकअप पदार्थ में कुछ चुना और कुछ प्लास्टर का अंश भी होता है। उर्मिला मातोंडकर शांति व आराम का जीवन जी रहे थीं परंतु उन्होंने महसूस किया कि सुख संतोष का मेकअप पावडर-प्लास्टर उनके चेहरे पर सूख गया है और आम आदमी के दुख दर्द के कारण व सूखा और तड़का हुआ मेकअप अब आंसू बनकर उनकी आंखों से बहने लगा है। इसलिए वे उत्तर मुंबई से चुनाव लड़ रही हैं। उनके पिता श्रीकांत मातोंडकर के काम को ही आगे बढ़ाने के लिए वह मुंबई की उमस में चुनाव प्रचार में प्राणपण से जुट गई हैं।