उर्मिला शिरीष की कहानियों का आयतन / स्मृति शुक्ला

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उर्मिला शिरीष हिन्दी की प्रतिष्ठित कहानीकार हैं। उर्मिला शिरीष की कहानियाँ उनके लेखन की गहराई, उनके अंतःकरण के आयतन की विशालता और उनकी सूक्ष्म पर्येवेक्षण दृष्टि और गहन सामाजिक सरोकारों के निहितार्थों को रोचकता से अभिव्यक्त करने वाली मुकम्मल कहानियाँ हैं। उनकी कहानियों के केन्द्र में स्त्रियाँ और उनके जीवन की जटिलता हैं। लेकिन इन स्त्रियों के बहाने ही वे व्यापक सामाजिक परिदृश्य को अपनी कहानियों में समेटती हैं। इसलिए उनकी कहानियों का आकलन किसी विमर्श के सीमित दायरे में नहीं किया जा सकता। वस्तुतः उर्मिला शिरीष व्यापक फलक की कहानीकार हैं। उनकी कहानियों में स्त्रियाँ, बच्चे, बुजुर्ग, युवक-युवतियाँ, उनका मनोविज्ञान और उनकी समस्याएँ सभी प्रामाणिकता के साथ गुँथे हुए हैं। उर्मिला शिरीष ने अपनी लेखनी के बलबूते पर हिन्दी कथा-जगत में प्रतिष्ठा और पाठकों के हृदय में स्थान पाया है। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए लगता है कि वे परकाया प्रवेश करना जानती हैं, पात्रों के अन्तर्जगत में पैठकर वे ऐसे किरदार रचती हैं जो हमारे बहुत निकट होते हैं। उर्मिला शिरीष के अब तक अठारह कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनके उपन्यास 'चाँद गवाह' को पाठकों और साहित्यकारों का अभूतपूर्व स्नेह प्राप्त हुआ है।

उर्मिला जी की दो सौ से अधिक कहानियों में से मैं उनकी कुछ प्रतिनिधि कहानियों को आधार बनाकर एक पाठक की हैसियत से ही मैं अपनी बात लिख रही हूँ। उर्मिला शिरीष समकालीन परिवेश पर गहरी पकड़ के साथ, परिवर्तित समाज की एक-एक भंगिमा पर पैनी नजर रखती हैं। वे जानती हैं कि समाज में एक और अपार धन है, चंचल (अवारा) पूँजी है जो दूसरी तरफ भूख, अभाव, गरीबी और बेरोजगारी है। स्त्री की अनेक समस्याएँ हैं, व्यवस्थाजन्य विदू्रप उपभोक्तावाद, बाजारवाद, सूचनाक्रांति और तकनीक का आधिक्य और उससे उपजा तनाव है, प्रदूषित होता पर्यावरण है, स्त्री की बहुविध समस्याएँ है, मूल्यों का क्षरण है, तो इसके बरअक्स चमचमाते मॉल है विकास के नये-नये द्वार हैं, अनके योजनाएँ हैं। उर्मिला शिरीष एक समाज शास्त्री की तरह समाज में घट रही एक-एक घटना पर पैनी दृष्टि रखती हैं और उनका विश्लेषण करती हैं।

आज प्रत्येक व्यक्ति देशभक्त कहलाना पसंद करता है। देशभक्ति के गीत गाना बलिदानियों की कहानियाँ दुहराना, देशभक्त शहीदों पर कार्यक्रम करना, भाषण देना ये सभी क्रियाकलाप हमारी देशभक्ति के प्रमाण हैं। उर्मिला शिरीष की कहानी 'शहादत' हमारी इस देशभक्ति की भावना के समानांतर उस सच्चाई को सामने लाती हैं जो शहीद के माता-पिता की पीड़ा की गहनता को उजागर करती है। कहानी की पात्र विभा अपनी संस्था की तरफ शहीद के माता-पिता को अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करने जाती है और मन ही मन गौरवान्वित होती है कि आज उसे साहस और कुर्बानी के जीते-जागते किरदारों से मिलने का अवसर मिलेगा। जब वह शहीद के माता-पिता से मिलती है तब जान पाती है कि अपने युवा पुत्र के बिछोह में उन दंपती पर क्या गुजर रही है। हम तो शहीदों को एक दिन याद करके विस्मृत कर देते हैं या कार्यक्रमों में उनके माता-पिता को आमंत्रित करके अपने को गौरवान्वित अनुभूत करते हैं, उनकी तस्वीरों को धरोहर समझकर सँजो लेते हैं, लेकिन उन माता-पिता पर क्या गुजरती है जिन्होंने देश की सुरक्षा के लिए अपने युवा पुत्र की भेंट चढ़ा दी है। जिनके पुत्रों ने देश की सरहदों की हिफाजत करते हुए सीने पर गोलियाँ खाई हैं। कहानी 'शहादत' ऐसी कहानी है जो शहीदों के परिवारों की व्यथा को, उनके जीवन की मर्मांतक सच्चाई को पाठकों के सामने लाती है। कहानीकार ने पिता के मुँह से जो कहलवाया है उस पर हमें गौर करने की आवश्यता है-' बेटी युद्ध सीमा पर समाप्त हो गया है, जीवन में नहीं। असली युद्ध तो युद्ध समाप्ति पर शुरू होता है। जहाँ शहीदों के परिवार अपने बेटों या भाइयों को खोकर अकेले हो जाते हैं और वे जो अपंग हो गये हैं-उस जीवन की त्रासदी को जीना किसी युद्ध से कम कष्टदायी होता है क्या? आगे वे कहते हैं कि यह जरूरी तो नहीं कि हर कोई सम्मान करें, हो सके तो युद्ध के कारणों और उसकी विभीषिका को समझने का प्रयास करें ताकि आने वाली पीढ़ी तो सुरक्षित रह सके। यहाँ उर्मिला जी ने हम सभी का ध्यान उस सत्य की ओर आकर्षित किया है जिसे हम जानना नहीं चाहते। सैनिक तो हँसते-हँसते कुर्बान हो जाते हैं पीछे छूट जाती है जीवन की गहन कुहेलिका। जहाँ माता-पिता अपने बचे हुए जीवन के प्रत्येक क्षण में मृत्यु तुल्य वेदना को झेलने के लिये विवश होते हैं। वे उस दुख को अपने हृदय पर प्रतिपल लिये घूमते हैं जो मृत्यु से भी ज्यादा कठिन है। वे नहीं चाहते कि खोखले शब्दों से बार-बार उनका सम्मान किया जाये या उनके दुख का तमाशा बनाया जावे।

इस पूरी कहानी में उर्मिला शिरीष प्रतीकों और संकेतों के माध्यम से एक गहन विषाद की सजीव उपस्थिति कराती है। घर के बाहर पड़ा खाली झूला किसी की स्मृतियों में खोया एकाकी पड़ा है। पेड़-पौधों की पत्तियाँ समय से पहले सूख चुकी हैं, जड़ तक उनकी शाखें पीली और विवर्ण होकर गिर रही हैं।

उर्मिला शिरीष की खूबी यह है कि वे मनुष्य के मन की अनेक परतों के भीतर छुपी सच्चाईयों का संधान करती हैं। वे ऐसे विषयों पर भी कहानी लिख सकती हैं जो अदृश्य हैं लेकिन उन अदृश्य और मन के कोनों-अंतरों भीतर छिपी गूढ़ बातों से ही व्यक्ति का बाह्य जगत् या व्यक्ति का व्यवहार संचालित हो रहा है। उनकी कहानी 'बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु' पढ़ने के बाद पाठक के हृदय में विषाद की एक गहरी लकीर छोड़ जाती है। कहानी का शीर्षक बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु निराला के प्रसिद्ध गीत से लिया गया है। कहानी एक बुजुर्ग व्यक्ति की मृत्यु के दृश्य से शुरू होती है। स्पंदन विहीन पड़ी देह और शांत चेहरा। उर्मिला शिरीष लिखती हैं कि-"कौन कहेगा इस चेहरे की भाव मुद्रा को देखकर कि यह वही चेहरा है, जो चीखते वक्त गुस्से से कितना भयानक और कुरूप हो उठता था।" यह कहानी एक बुजुर्ग की है जो जीवन भर अपने परिवार के लिये खटता रहा, परिवार के लिये सुख-सुविधाएँ जुटाता रहा। वह व्यक्ति अपनी सेवानिवृत्ति के बाद किस तरह धीरे-धीरे निःसहाय होता जाता है, परिवार के पत्नी के तानों से किस तरह टूटता है, उसके जीवन में क्या कुछ घटा है, अतीत का कोई ऐसा टुकड़ा जो उसके वर्तमान से इस कदर लिपटा हुआ है जो उसे चैन नहीं लेने देता इन सभी बातों और घटनाओं को उर्मिला शिरीष कहानी में जिस मार्मिकता से उद्घाटित करती हैं वह मार्मिकता पूरी कहानी में आदि से अंत तक पाठक को भिगोती है। कहानी में इस एक ओर जहाँ मृत्यु का दर्शन है, पत्नी और परिवार के दूसरे सदस्यों का एक तटस्थ या कहें कि कर्तव्य का रिश्ता या ठंडा-सा व्यवहार है वही दूसरी ओर बुजुर्ग के बड़े पुत्र का अपने पिता के प्रति अपार स्नेह भी प्रदर्शित है। बेटा अंतिम समय में अपने पिता का हमराज बन जाता है। पिता अपने जीवन का वह रहस्य उसके सामने उद्घाटित कर देते हैं जिसे उन्होंने वर्षों तक अपने हृदय की सात पर्तों में छुपाकर रखा था उसे वे केवल अपनी कविताओं में उद्घाटित करते रहे। अब जीवन के अंतिम समय में वे उस स्त्री को एक बार देखना चाहते हैं जो अपनी युवावस्था में ही विधवा हो गयी थी। यह बात चालीस-पचास साल पुरानी है। एक सुंदर और युवा विधवा पर समाज के असामाजिक तत्वों की नज्र थी तब इन बुजुर्ग ने ही उसकी मदद की थी सिलाई मशीन खरीदकर उसकी रोजी-रोटी का इंतजाम किया था। इस तरह दोनों में एक-एक भावनात्मक लगाव हो गया था। रूपा नाम की यह स्त्री उनको सदा ही एक मानसिक सम्बल प्रदान करती रही थी। बड़ा बेटा यह जानकर अपने पिता को उस स्त्री से मिलवाना चाहता था ताकि अपने पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण कर सके पर ऐसा हो नहीं पाया। मृत्यु के बाद वह उस स्त्री को पिता के द्वारा बनवाये घर में किरायेदार की हैसियत से रह रही और अब बुजुर्ग हो चुकी रूपा को निकालना नहीं चाहता क्योंकि यह पिता की अंतिम इच्छा थी। लेकिन रूपा घर की चाबियाँ सौंपकर चली गयी थी और वह सोच रहा था कि रूपा एक बार फिर बेघर हो गयी और वह पिता की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाया। अपनी सघन बुनावट और संवेदनाओं की आर्द्रता में भीगी यह कहानी जैनेन्द्र परंपरा की एक सशक्त कहानी है।

'किसका चेहरा' कहानी एक गहरे आशयों को खोलने वाली कहानी है। यह कहानी उन बेरोजगार युवाओं की कहानी है जो चंद पैसों के लिये किसी राजनीतिक पार्टी या संगठनों के लिये काम करते हैं। कहानी ट्रेन के कम्पार्टमेंट के उस दृश्य से आरंभ होती है जिसमें किसी राजनीतिक रैली में भाग लेने आए हुए युवाओं की भीड़ अचानक घुस आती है। उस कम्पार्टमेंट में अपनी मैडम के साथ बैठी कॉलेज की लड़कियाँ उन्हें देखकर अपने को किस तरह असुरक्षित महसूस करने लगती है। यह कहानी राजनीति के उस चेहरे की पहचान कराती है जो अपने निहित स्वार्थों के लिये गरीब युवकों का इस्तेमाल करती है। ये युवक अपराधी नहीं हैं, वे लड़कियों से छेड़छाड़ नहीं करते। पुलिस उन्हें पीटती है और डंडों से उनका सिर फोड़ देती है। उर्मिला शिरीष चूँकि अपने सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करती हैं इसलिये वे 'किसका चेहरा' जैसी भयावह सच्चाई का उद्घाटन करने वाली संवेदनात्मक कहानी रच पाती हंै।

उर्मिला शिरीष की अनेक कहानियों के केन्द्र में स्त्री है। पितृ सत्तात्मक व्यवस्था से लहुलुहान स्त्रियों के अनेक चेहरे, इस समाज व्यवस्था और उसकी सत्ता के आतंक-तले घुटती स्त्री, अपनी भावनाओं, इच्छाओं, स्वप्नों और प्रेम का गला घोंटकर जीने को मजबूर स्त्री, शारीरिक शोषण अन्याय और अत्याचार की शिकार स्त्री के साथ अपने स्व को पहचानने वाली स्त्री, अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व के प्रति सजग स्त्री, अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाली स्त्री उनकी कहानियों में मूर्त होती है। स्त्री की संवेदनाओं और उसकी समस्याओं को पाठक की चेतना का अनिवार्य हिस्सा बनाने के लिये वे जिस गहरी मार्मिक संवेदनात्मक और बिम्बात्मक भाषा का सर्जन करती हैं। उनकी कहानियाँ स्त्रियों के अंतरंग और बहिरंग पक्ष का, उनकी मनःस्थितियों का पारदर्शी अंकन करती हैं। उनकी कहानियाँ स्त्री की अस्मिता, स्वतंत्रता, समानता स्वाधिकार और न्याय की माँग करती हैं इन कहानियों का दायरा किसी विमर्श तक सिमटा हुआ ना होकर एक व्यापक सामाजिक फलक तक फैला है। उनकी कहानियाँ स्त्री संघर्ष को एक नई जमीन देती हैं। उर्मिला शिरीष की बहुचर्चित कहानी 'चीख' का जिक्र करना चाहूँगी। यह कहानी सामूहिक रूप से बलत्कृत एक युवती और उसके परिवार की कहानी है। लड़की जिसके शरीर के साथ उसकी आत्मा को भी तार-तार कर दिया गया था, जिसके हृदय मन और आत्मा पर ऐसे घाव हुए थे जो अमिट थे जिसकी वेदना और टीस लिये वह पत्थर-सी जड़ हो गयी थी। माँ-बाप और भाई समाज से इतना डर रहे थे कि वे कहीं भी आने-जाने में कतरा रहे थे। वे इस घटना के बाद लोगों का सामना नहीं कर पा रहे थे। लोगों के सवाल उन्हें तीर की तरह छेद रहे थे। भाई क्रोध और विवशता में मुट्ठियाँ भींचें रहता था। इस घटना ने उनकी पूरी जीवनचर्या बदल दी थी, उनके परिवार की हँसी-खुशी को मानो ग्रहण लग गया था। कोर्ट कचहरी के चक्कर और लड़की से बार-बार पूछे जाने वाले वही सवाल। इन सबका उत्तर देने में लड़की को बार-बार उसी दर्द, पीड़ा और ज़लालत से गुजरना पड़ रहा था। उर्मिला शिरीष 'चीख' में हमारे समाज की उस भयानक सच्चाई को दिखाती हैं जहाँ स्त्रियों के प्रति अत्याचार का सिलसिला थमा नहीं है। 16 दिसम्बर 2012 को हुआ निर्भया कांड हो या शक्ति मिल में घटी घटना या इसी से मिलती-जुलती हजारों घटनाएँ और इनका शिकार बनती बच्चियाँ, युवतियाँ और स्त्रियाँ जो या तो मार दी जाती हैं या ताउम्र बिना किसी अपराध के एक कलंक को ढोने के लिये विवश होती है। 'चीख' कहानी महज घटना का वर्णन करने वाली साधारण कहानी नहीं है वरन असाधारण इस अर्थ में है कि वह ऐसी युवतियों को जीने की नयी राह दिखाती है, उनका खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लाकर उन्हें ग्लानिबोध से मुक्त कर सामान्य जीवन जीने का मार्ग दिखाती है। कहानी में उर्मिला शिरीष एक महिला डॉक्टर पात्र को लाती है जो उस लड़की की कोख में पड़ गये अनचाहे बीज को नष्ट करने के साथ उसके मन और हृदय पर लगे घावों को साफ करने का भी काम करती हैं और कहती हैं-" यदि तुम मेरी बेटी होती तो मैं तुम्हें कहती-उठो। जागो। जीवन को अपनी गति से चलने दो... जो हुआ उसका सामना करो। कोई तुम्हें एक्सेप्ट नहीं करता मत करने दो, तुम खुद को एक्सेप्ट करो।

यह कहानी लड़की के जिस वाक्य से खत्म होती है वह स्त्री चेतना का स्वर है-" मैंने कोई गलती या अपराध नहीं किया है, जिसके लिये मैं जिंदगी भर आत्मग्लानि में घुलूँ। मम्मी मैं हर स्थिति का सामना करूँगी। चाहे कोई साथ दे या ना दे। इस प्रकार हम देखें कि उर्मिला शिरीष कहानियों में केवल समस्या का ही चित्रण नहीं करती वरन उनके सटीक हल और समाधान भी प्रस्तुत कर वे अपनी लेखकीय जिम्मेदारी का भी बखूबी निर्वहन करती हैं।

समाज के प्रत्येक वर्ग की स्त्रियाँ उनकी कहानियों की पात्र हैं। नकली हाथ कहानी घरेलू काम करने वाली स्त्रियों के दुख-दर्दों की कारूणिक अभिव्यक्ति करने वाली कहानी है। घर-घर में आॅटोमेटिक वॉशिंग मशीन के आ जाने से कैसे घरेलू काम करने वाली गरीब स्त्रियों के काम छिनते चले गये और उनकी जो छोटी-सी कमाई थी उस पर डाका पड़ गया। इस काम के जाने से उनके बच्चों और उन पर कितना बुरा असर पड़ा इसकी बारीकी से पड़ताल इस कहानी में की गयी है। यह कहानी उन तमाम परिस्थितियों पर गौर करती है, उन कारणों को सामने लाती है जिनके कारण गाँव के लोग शहरों की शरण में आये। मशीनीकरण के फलस्वरूप गाँवों में काम मिलना बंद हुआ तो खेतिहर मजदूरों ने शहरों का रुख किया। उनकी स्त्रियाँ घरेलू बाइयाँ बन गयीं लेकिन शहरों में भी जब हाथों की जगह नकली हाथों ने यानी मशीनों ने ले ली तो ये मजदूर कहाँ जायें। इस कहानी के अंत में एक मानवतावादी दृष्टिकोण कहानीकार उर्मिला शिरीष प्रस्तुत करती हैं। कथानायिका को जब यह अहसास होता है कि उसने अपने सुख-सुविधा की खातिर कामवाली के हितों पर कुठाराघात किया है तो वह बाई से कहती है कि अब तुम अपने हाथों से ही मेरे घर के कपड़े धोओगी। तुम्हारे हाथों की जगह कोई मशीन नहीं ले सकती और बाई के चेहरे पर मेहनत और विश्वास के रंग को सुबह के सूरज की लालिमा के रंग की तरह उतरते देखकर प्रसन्न होती है।

उर्मिला शिरीष की कहानी 'रोटियाँ' कहानी मिसेज वर्मा के एक जानवर के प्रति करुणा भाव रखने और उसे रोटियाँ खिलाने के बहाने से हमारे समाज की मनोवृत्ति की गहरी छानबीन करती हैं। जिन रोटियों ने क्रांतियाँ करवाई, जिन रोटियों ने युद्ध करवाया, जिन रोटियों के लिये इंसान रात-दिन मरता-खपता है, जिन रोटियों की चोरी करता है वही रोटियाँ आज उच्च वर्ग द्वारा फेंकी जा रही हैं और निरीह पशु के प्रति करुणा रखने वाली मिसेस वर्मा को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। उर्मिला जी की सभी कहानियाँ जीवन से उपजी हैं। संवेदनहीन होते जा रहे समाज में संवेदनाओं का आख्यान रचती उनकी कहानियाँ हर अन्याय को बेनकाब करती हैं, स्वार्थी मनुष्यों को निष्कवच करते हुए सच से साक्षात्कार कराती हैं। उनकी एक कहानी 'दहलीज पर' मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' के बच्चे बंटी की याद दिलाती है। 'दहलीज पर' खड़ा बच्चा बाबा जो अपने पिता की मृत्यु के बाद जन्म से ही अपनी नानी और मामा के साथ रह रहा है। मामा के बच्चों के साथ पढ़ता है, खेलता कूदता है। उसकी जिंदगी में तूफान तब आता है जब उसकी माँ की दूसरी शादी दो बच्चों के पिता से परिवार द्वारा करायी है। शादी के समय शर्त रखी जाती है कि बाबा अपनी माँ के साथ रहेगा। माँ शादी के बाद माँ नहीं रहती वह पत्नी बन जाती है, अपने नए परिवार और पति के प्रेम में बाबा को भूल ही जाती है। उस घर में वह बच्चा अपने को अजनबी महसूस करता है। ऐसे में वह स्कूल से लौटकर मामी के घर जाता है लेकिन वह घर भी उसे अब पराया लगता है। बच्चा इस दहलीज से उस दहलीज पर जाता है। एक बच्चे का दुख, उसकी निरीहता की कारुणिक अभिव्यक्ति इस कहानी में हुई है। मामी के रूप में एक संवेदनशील स्त्री को रखकर उर्मिला शिरीष इस कहानी को एक सुखद मोड़ पर खत्म करती हैं।

'यात्रा' कहानी की माँ जो एक नदी थी, जो एक कविता थी, जो एक खूबसूरत पेन्टिंग की तरह थी, वह माँ कैसे विवाह के बाद धीरे-धीरे एक मनोरोगी बन गई थीं उन्हें कोई शारीरिक बीमारी नहीं थी लेकिन मानसिक बीमारी जरूर थी। माँ की बेटी मन्नो ने माँ के अवसाद के कारणों को जान लिया था और अस्पताल से लौटने के बाद उनके धूल खाये कैनवास को साफ करके रंग कूँची उनके हाथ में थमा दिये थे। माँ को उनका ख्वाब वापिस देकर मन्नो आश्वस्त थी कि माँ अब ठीक हो जायेंगी।
'तिकड़ी' कहानी की मीनाक्षी, छवि और लक्ष्मी 'उसका अपना रास्ता' की वृंदा और अनु दी, 'पत्ते झड़ रहे हैं' की अंबिका और सीमा, 'लौटकर जाना कहाँ है' की वन्या, 'रंगमंच' की विमला के रूप समाज की अधिसंख्य स्त्रियों के रूप और उनके जीवन की कटु सच्चाइयाँ उर्मिला शिरीष अपनी कहानियों में चित्रित करती हैं। मध्यम वर्गीय परिवारों की वे युवतियाँ जो फिल्मी दुनिया में या मॉडलिंग में कैरियर बनाना चाहती हैं, जिनके ख्वाब बहुत बड़े-बड़े हैं। जब वे अपने परंपरागत परिवारों से विद्रोह करके इस दुनिया में दाखिल होती है तब चमचमाती रोशनी के पीछे छिपे अंधेरों को देख पाती हैं। उर्मिला शिरीष ऐसी लड़कियों को आँसू बहाते नहीं दिखाती बल्कि उनकी कहानियों की ये लड़कियाँ विषम परिस्थितियों में भी टूटती नहीं हंै, अपना रास्ता स्वयं बनाती हैं।

उर्मिला शिरीष की कहानियों की खासियत यह भी है कि वे वक्त के साथ पुरानी नहीं पड़ी है वरन और भी प्रासंगिक हो गयी हैं। उनकी कहानियों का कुछ हिस्सा सदैव बहुत गहरे अर्थों में प्रासंगिक बना रहता है और कुछ हिस्सा समकालीनता का अतिक्रमण करता है इसलिये उर्मिला शिरीष की कहानियाँ कभी पुरानी नहीं पड़ेंगी। कहानियों के पात्रों का जीवन संघर्ष और उनकी जीवटता को दिखाती कहानीकार उर्मिला शिरीष अपनी कहानियों में आशा की लौ प्रदीप्त रखती हैं। भाषा पर असाधारण अधिकार, शिल्प की सघन बुनावट और कथा रस की उपस्थिति पाठकों को बाँधकर रखती है। निःसंदेह उर्मिला शिरीष हिन्दी की श्रेष्ठ कहानीकार हैं जो जीवनानुभवों से प्राप्त चेतना और अनुभूतियों को अपनी कहानियों में प्रतिफलित करती हैं। जीवन और समाज से गहरी सम्बद्धता और मानवीयता उनके लेखन की जरूरी पहचान है। उनकी रचनाधर्मिता संवेदना के साहचर्य से आर्द्र है और मनुष्य के स्व की पहचान कराने में समर्थ है।