उर्मिला शिरीष की बातचीत / सुधा अरोड़ा
साक्षातकारकर्ता: उर्मिला शिरीष
आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई ? क्या पारिवारिक वातावरण साहित्यिक था या आपकी ही रुचि साहित्य में थी ?
मेरा जन्म एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ जहाँ माँ के ज़माने में सोलह-सत्रह साल में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी । अपने सभी भाई बहनों में से सिर्फ़ मेरी माँ ( जिन्हें हम बीजी कहते थे ) पढ़ाई में काफ़ी ज़हीन थीं । लाहौर की वैदिक पुत्री पाठशाला से हिन्दी में प्रभाकर, वही प्रभाकर की डिग्री जिसे हिन्दी के अग्रज रचनाकार विष्णु प्रभाकर ने अपने नाम का हिस्सा बना लिया था, प्रथम रेणी में पास कर चुकी थीं और साहित्य रत्न, जो एम. ए. की कक्षा के बराबर था, कर रहीं थीं । पढ़ाई के दौरान वे कविताएँ लिखा करती थीं और किताबों के बीच छिपाकर रखती थीं । उन दिनों महादेवी वर्मा कविता लेखन में सब साहित्य प्रेमी छात्राओं की रोल मॉडल थीं । माँ की कविताएँ भी महादेवी जी की छाप लिए थीं - कुछ रोमाँटिक, कुछ विरह वेदना लिए । लेकिन महादेवी जी की की छाप लिए हुए उस समय की जिन साहित्य-प्रेमी छात्राओं ने जो कुछ भी लिखा गया, सब महादेवी जी की रचनाओं के सामने बिला गया ।
माँ और पापा - दोनों ही साहित्य प्रेमी थे । पर जैसा कि मध्यवर्गीय परिवारों में आम है - माँ ने शादी के बाद अपना साहित्य प्रेम घर की चूल्हा-चक्की में और बच्चे जनने में झोंक दिया (और अपनी सारी रचनात्मक आकांक्षाएँ मुझमें पूरा करने के सपने देखने लगीं ) हालाँकि ख़ाली समय में वे साहित्यिक किताबें पढ़ती रहती थीं । हमारे घर विशाल भारत, विप्लव, चांद, हंस पत्रिकाएँ नियमित रूप से आती थीं । कलकत्ता के आर्य विद्यालय में श्री प्रभुदयाल अग्निहोत्री पापा के हिन्दी शिक्षक थे और पापा उनके बेहद प्रिय और मेधावी छात्र थे । भोपाल में अग्निहोत्री जी से बहुत लंबे समय तक पापा का पारिवारिक सम्बन्ध रहा ।
राजेन्द्र यादव ने ‘मुड़ मुड़ के देखता हूँ ’ में आपके पिता से मित्रता की बात लिखी है । क्या लेखन की ओर रुझान उनके कारण भी हुआ ?
हाँ, साहित्य में माँ और पापा के रुझान के अलावा कहानी लेखन के दो कारण थे - एक राजेन्द्र यादव - जिनकी किताबें मेरे पापा ज़बरदस्ती मुझे पढ़ने को कहते और दूसरा - मेरी बीमारी, जिसे लेकर मैं पलंग पर लेटे लेटे डायरी लिखती रहती ।
1955-58 में राजेन्द्र यादव और मेरे पापा पुराने दोस्त थे । घर में हर रविवार को उनका आना तय था । मैं दस - ग्यारह साल की थी । लेखन की ओर रुझान का कारण सीधे सीधे राजेंद्र यादव बेशक़ न रहे हों पर एक लेखक के आस पास एक प्रभामंडल तो रहता ही था । हम बच्चे उन्हें चाचाजी कहते थे । आज भी मैं उन्हें चाचाजी ही कहती हूँ । और वह कहते हैं - भाड़ में गए चाचाजी, जब देखो तो हमला करती रहती हो, चाचा-वाचा की ऐसी-तैसी करती रहती हो । अभी 2009 की पहली जनवरी को मैं मन्नू भंडारी जी के पास दिल्ली में थी । उनका फ़ोन आया - मन्नू जी को नया साल विश करने के लिए । फ़ोन मैंने उठाया तो उन्होंने मुझे नए साल की शुभकामनाएँ दीं । मैंने भी कहा - नये साल में आप स्वस्थ रहें । तपाक से बोले - तुम स्वस्थ रहने दोगी तब न !
आप उन्हें अपने लेखन से अस्वस्थ करती रहती हैं?
वैसे उनके ख़िलाफ़ कोई कुछ भी लिखे, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता । उनकी ज़िंदादिली और सेंस ऑफ़ ह्यूमर तो लाजवाब है पर वह एक तरफ़, आज यादवजी की स्त्री संबंधी अवधारणाओं से मेरा ख़ासा मतभेद रहता है जिसपर मुझसे चुप रहा नहीं जाता। स्त्री संबंधी मुद्दों पर मेरा उनसे 36 का आँकड़ा है । उनका स्त्री विमर्श एक निहायत भ्रामक और स्यूडो क़िस्म का बौद्धिक विमर्श है जिसका स्त्रियों के जीवन की वास्तविक समस्याओं से न कोई सरोकार है, न कमिटमेंट। स्त्री समस्याओं की जानकारी तक तो है नहीं उन्हें, प्रतिबद्धता तो बहुत दूर की बात है । इस तरह के किताबी दर्शन और उधार के सिद्धांतों से स्त्रियों की ज़िदगी में कोई बदलाव आने से रहा। उनके दिए स्त्री विमर्श बनाम देह मुक्ति से हिन्दी साहित्य में वैचारिक धुंध ही बढ़ेगी ।
यह प्रसंग बाद में ...... आपके लेखन की शुरुआत किस विधा में हुई ?
उन दिनों यानी शुरू के दिनों मैं कविताएँ लिखती थी । अक्सर हम कविता को पीड़ा और व्यथा से जोड़ते हैं । मुझे लगता है, किसी भी रचनात्मक विधा के लिए एक क़शिश या चोट का होना बहुत ज़रूरी है । तेरह साल की उम्र से मैंने कविताएँ लिखनी शुरू कीं और हर साल अपने श्री शिक्षायतन स्कूल की वार्षिक पत्रिका में मेरी कविताएँ लगातार छपती और प्रशंसित होती रहीं ।
यानी आपके लेखन की शुरूआत कविता विधा से हुई ?
नहीं, शुरूआत तो डायरी विधा से हुई । कविताएँ भी डायरी में ही लिखीं पर डायरी तो छपवाने के लिए नहीं थी तो स्कूल की पत्रिका के लिए कविताएँ दे दीं ।
वे कविताएँ कहीं और भी छपीं ? किसी साहित्यिक पत्र-पत्रिका में ?
नहीं, बिल्कुल नहीं । तेरह साल की उम्र में ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ छाप कविताएँ लिखनी शुरू कीं जो बाद में नयी कविता के मुक्त छंद में बदल गईं। स्कूल की वार्षिक पत्रिका में छप जातीं और माँ-पापा ख़ुश होते । वे कविताएँ निहायत बचकानी थीं पर स्कूल की पत्रिका में उन्हें वाहवाही मिल जाती थी ।
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