उर्वशी: पुरुष अध्यात्म का रूमान / प्रियम अंकित

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उर्वशी की भूमिका में दिनकर ने मनु, इड़ा और पुरुरवा, उर्वशी के मिथक की तुलना करते हुए कहा है - 'मनु और इड़ा तथा पुरुरवा और उर्वशी, ये दोनों ही कथाएँ एक ही विषय को व्यंजित करती हैं। सृष्टि विकास की जिस प्रक्रिया के कर्तव्य पक्ष का प्रतीक मनु और इड़ा का आख्यान है, उसी प्रक्रिया का भावना पक्ष पुरुरवा और उर्वशी की कथा में कहा गया है।' एक काव्यनाटक के रूप में उर्वशी का उद्देश्य क्या रहा होगा, इसे समझने में यह कथन मदद करता है। 'आधुनिकता' की भारतीय परियोजना उन पश्चिमी उपकरणों की मोहताज रही जो तर्कबुद्धि की महत्ता से आक्रांत थे। इनके द्वारा माँजी गई हमारी 'आधुनिक' चेतना मानुष्यिक संघटन के भावनात्मक पक्ष को नजरअंदाज करती गई। यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारा ध्येय यह नहीं होना चाहिए कि तर्कबुद्धिवाद की दार्शनिक उपलब्धियों को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। बात सिर्फ इतनी है कि तर्कबुद्धि पर अंधी आस्था यांत्रिकता और स्थूलता की प्रवृत्ति को जन्म देती है, जो स्वयं तार्किकता की दार्शनिक जड़ों में मट्ठा डालने का काम करती है। कला और साहित्य के क्षेत्र में जब यह प्रवृत्ति आलोचनात्मक व्यसन बन जाती है तब किसी रचना की शक्ति और कमजोरी का सही आकलन करना असंभव हो जाता है। हिंदी में यह प्रवृत्ति हमेशा विद्यमान रही है और कई रचनाकार इसके शिकार हुए। दिनकर इन्हीं रचनाकारों में से एक हैं। यह बात अलग है कि वह ताकतवर नहीं, बल्कि कमजोर शिकार हैं क्योंकि वह नशे के नहीं, खुमार के कवि हैं।

दिनकर को छायावादी 'हैंगओवर', खुमार का कवि माना जाता है। खुमार सिर्फ उस नशे को ही व्यंजित नहीं करता जो कभी सर चढ़ कर बोला था। वह उस नशे की ढलान, उसके खत्म होते असर को भी व्यंजित करता है। खुद दिनकर के काव्य के भीतर छायावाद की यह ढलान, उसका खत्म होता असर विद्यमान है। दिनकर की रचनाओं के साथ समस्या यह रही कि वे छायावाद के प्रेमियों और विरोधियों के बीच नूराकुश्ती का सबब बनी। प्रेमियों ने जहाँ जम कर सराहा, वहीं विरोधियों ने बुरी तरह कोसा। यानी संज्ञा तो दी गई खुमार, मगर बर्ताव ऐसे किया गया मानो साक्षात नशा हो।

'उर्वशी' का प्रकाशन हिंदी आलोचना के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। जिसे आज 'उर्वशी विवाद' के नाम से जाना जाता है, वह आलोचना में लोकतांत्रिकता की बड़ी मिसाल बना। आजादी के बाद पहली बार बड़े स्तर पर विभिन्न पीढ़ियों और विचारों के लेखकों की भागीदारी और टकराव देखने को मिला। निःसंदेह इस विवाद ने हिंदी आलोचना को एक नई धार दी, उसे सकारात्मक दिशा में प्रवृत्त किया, और काव्य के बदलते मूल्यों एवं प्रतिमानों को परखने की नई दृष्टि प्रदान की। आज 'उर्वशी विवाद' साहित्येतिहास के पन्नों में दफ्न हो चुका है। लगभग पचास वर्ष बाद इस विवाद से फूटी आलोचना की प्रखर किरण का हश्र क्या हुआ, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

'उर्वशी' का नायक पुरुरवा है - रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलने वाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य। उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक तथा श्रोत्र की कामनाओं का प्रतीक है। इस प्रकार 'उर्वशी' का नायक ऐंद्रीय सुख पर निसार होने वाला मनुष्य है। वह देह का तिरस्कार नहीं करता। 'उर्वशी' की विषयवस्तु का केंद्रीय तत्व काम है। देवत्व और मनुष्यत्व को काम के निकष पर जिस साहस के साथ यहाँ कसा गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है :

भू को जो आनंद सुलभ है, नहीं प्राप्त अंबर को।

हम भी कितने विवश! गंध पीकर ही रह जाते हैं,

स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं।

हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी श्रवण से,

रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से।

पर, जब कोई ज्वार रूप को देख उमड़ आता है,

किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,

उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है,

उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है।

किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बंध नहीं है,

रुके गंध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबंध नहीं है॥

देवत्व 'गंध' की सीमा में कैद है। इस कैद से मुक्त होना ही मनुष्य होना है :

पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु रस पीता है।

दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक धधक जीता है।

इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है,

क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है।

काम का यह निकष देवों को हीन और मनुष्यों को श्रेष्ठ साबित करता है। प्रतिबंध रहित प्रेम नश्वरता का वरदान है। इसी वरदान को प्राप्त करने के लिए उर्वशी अमरत्व की ऊँचाई से उतर कर नश्वरता के धरातल पर कदम रखती है। उसकी यह यात्रा एक ढलान है - स्वर्ग से धरती की ओर, शिखर से धरातल की ओर, ऊँचाई से नीचे की ओर। ऊपर से नीचे की ओर आना हमेशा पतन की व्यंजना नहीं करता। ढलान में एक किस्म की गरिमा हो सकती है, यह संदेश उर्वशी देती है। छायावाद के प्रभुत्व वाले दौर में ढलान की इस गरिमा को पहचानना असंभव था। छायावाद की महत्वपूर्ण रचनाएँ (कहने की जरूरत नहीं कि निराला की रचनाएँ अपवाद हैं) धरती से स्वर्ग की ओर, धरातल से शिखर की ओर और नीचे से ऊपर की ओर मनुष्य की उठान को महिमामंडित करती हैं। जिस हद तक दिनकर ढलान की गरिमा को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं, उस हद तक 'उर्वशी' नई चेतना का काव्य बन कर उभरता है।

किंतु दिनकर की भाषा में छायावादी सौंदर्यबोध की धारा प्रत्यक्षतः प्रवाहित होती है। 'उर्वशी' के प्रकृति चित्रण में यह सौंदर्य दृष्टि सर्वाधिक प्रखर है :

मही सुप्त, निश्चेत गगन है,

आलिंगन में मौन, मगन है।

ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ जाओ री।

यह रात रुपहली आई।

मुदित चाँद की अलकें चूमो,

तारों की गलियों में घूमो,

झूलो गगन हिंडोरे पर, किरणों के तार बढ़ाओ री!

यह रात रुपहली आई।

'उर्वशी' की कथा जैसे जैसे आगे बढ़ती है, नई चेतना का आवेग गहराता जाता है। मगर उसकी छायावादी सौंदर्य दृष्टि जब धरती को स्वर्ग से बड़ा दर्जा देने वाली नई चेतना के इस गहराते आवेग से टकराती है, उससे उलझती है तो अपनी धार खो बैठती है। परिणाम यह होता है कि कविता जिस नई चेतना का वाहक बनना चाहती है, उसकी भाषा लगातार उससे दूर भागती है। नई चेतना, नई भाषा की माँग करती है। कवि इस नई भाषा को कविता की परंपरागत भाषा में तोड़फोड़ करके प्राप्त करते हैं। मगर दिनकर को यह तोड़फोड़ मंजूर नहीं। हाँ, वह भाषा में कुछ ठोंकपीट अवश्य करते हैं, उसे विषयानुकूल बनाने के लिए। यह ठोंकपीट कहीं कहीं सफल भी हो जाती है। रानी औशीनरी की व्यथा को अभिव्यक्त करने वाली भाषा इसका उदाहरण है :

कितना विलक्षण न्याय है!

कोई न पास उपाय है!

अवलंब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है।

दुख दर्द जतलाओ नहीं,

मन की व्यथा गाओ नहीं,

नारी! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं।

मगर इस ठोंकठाक से काम ज्यादा चल नहीं पाता। काव्य की संरचनागत समग्रता खंडित हो जाती है। 'उर्वशी' की भाषा और उसकी अंतर्वस्तु के बीच फाँक पड़ जाती है। इस फाँक को छिपाने के लिए कविता चमत्कारपूर्ण उक्तियों, वाग्जाल और शब्दाडंबर का सहारा लेती है, जो अंततः उसे और कमजोर करते हैं। 'उर्वशी' के तीसरे अंक को उसका सार भाग माना जाता है। मगर इस अंक की आरंभिक पंक्तियाँ ही चमत्कारिक उक्ति और शब्दाडंबर से ग्रस्त हैं :

जब से हम तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में

रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;

जाने कितनी बार चंद्रमा को, बारी बारी से,

अमा चुरा ले गई और फिर ज्योत्सना ले आई है।

'उर्वशी' में धरती और स्वर्ग, देह और आत्मा, मही और आकाश, देव और मनुज, मातृ सुख से वंचित अप्सरा नारी और मातृ सुख को भोगने वाली साधारण नारी के द्वंद्व को उकेरा गया है। मूलतः यह द्वंद्व काम और योग का द्वंद्व है। तमाम शब्दाडंबर के बावजूद यह द्वंद्व तीसरे अंक में सर्वाधिक तीक्ष्ण है। पुरुरवा की इन पंक्तियों में यह द्वंद्व साकार रूप ग्रहण करता है :

मैं मनुष्य, कामना वायु मेरे भीतर बहती है

कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन पुलक जगा कर;

कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से

मन का दीपक बुझा, बना कर तिमिराच्छन्न हृदय को।

किंतु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?

फिर होता संघर्ष, तिमिर में दीपक फिर जलते हैं।

नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,

उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।

इस पर आश्चर्यग्रस्त उर्वशी प्रश्न करती है :

यह मैं क्या सुन रही? देवताओं के जग से चल कर

फिर मैं क्या फँस गई किसी सुर के बाहु वलय में?

अंधकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक हृदय तुम्हारा

तिमिरग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करूँगी?

और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को,

मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?

उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा है, मगर इन प्रश्नों में धरती का नारीत्व गूँज रहा है। धरती और नारी जननी हैं। उर्वशी अपनी कसी हुई देहयष्टि का त्याग कर माता बनने को तैयार है। माँ बनने पर उसका सौंदर्य ढल जाएगा। मगर वह जानती है कि यह ढलान गरिमामय है। उर्वशी के मुख से फूटे इन प्रश्नों में नारीत्व की गरिमा छिपी है। ये प्रश्न पुरुरवा को देह के अधिकारों के प्रति सचेत करते हैं :

'पर, न जानें, बात क्या है!

इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,

सिंह से बाँहें मिला कर खेल सकता है,

फूल के आगे वही असहाय हो जाता,

शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।

मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ,

प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।

कौन कहता है,

तुम्हें मैं छोड़ कर आकाश में विचरण करूँगा?

उर्वशी मानवीय भावना के उद्दाम आवेगों का प्रतिनिधित्व करती है। वह दृढ़ है कि 'रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी' क्योंकि 'निरी बुद्धि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं।' पुरुरवा का पुरुष भी 'रक्त' को 'बुद्धि' से अधिक बलशाली मानता है, मगर एकदम विपरीत अर्थ में :

रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो

निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नही पाते हैं।

यह भावना नहीं, बल्कि अनासक्ति का तर्क है। पुरुरवा काम के आवेग में डूबना चाहता है, मगर अनासक्ति का तर्क उसे बार बार ऊपर खींच लाता है। पुरुरवा उर्वशी के प्रणय संवाद से निर्मित तृतीय अंक 'उर्वशी' का सबसे लंबा भाग है। मूल द्वंद्व शुरू के सात आठ पृष्ठों में ही मुखर हो उठता है। आगे इस द्वंद्व का दोहराव भर है, हालाँकि शब्द बदले हुए हैं। यहाँ द्वंद्व का विस्तार नहीं, बल्कि पर्यायवाची आशय है जो इस अंक को बोझिल और निस्सार बना देता है। अनावश्यक स्फीति उर्वशी पुरुरवा संवाद की मार्मिकता और ताजगी को नष्ट कर देती है। फिर भी अंत की ओर बढ़ने पर ये पंक्तियाँ ताजा हवा के झोंके की तरह आती हैं :

कुसुम और कामिनी, बहुत सुंदर दोनों होते हैं,

पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से,

क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है।

सुमन मूल सौंदर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं।

'उर्वशी' की भूमिका में दिनकर लिखते हैं : 'भावना और तर्क, हृदय और मस्तिष्क, कला और विज्ञान अथवा निरुद्देश्य आनंद और सोद्देश्य साधना, मानवीय गुणों के ये जोड़े नवीन मनुष्य को भी दिखाई देते हैं और वे प्राचीन मानव को भी दिखाई पड़े थे। मनु और इड़ा का आख्यान तर्क, मस्तिष्क, विज्ञान और जीवन की सोद्देश्य साधना का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के अर्थ पक्ष को महत्व देता है। किंतु पुरुरवा उर्वशी का आख्यान भावना, हृदय, कला और निरुद्देश्य आनंद की महिमा का आख्यान है; वह पुरुषार्थ के काम पक्ष का माहात्म्य बताता है। 'उर्वशी' में पुरुषार्थ के काम पक्ष के माहात्म्य का बोध किस तरह किया गया है इसका गवाह तृतीय अंक का यह संदेश है :

चिंतन की लहरों के समान सौंदर्य लहर में भी है बल,

सातों अंबर तक उड़ता है रूपसी नारि का स्वर्णांचल।

'उर्वशी' यह संदेश देती है, मगर आगे बढ़ कर नहीं, बल्कि पीछे हटकर। उर्वशी आरंभ में धरती और देह के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करती है। मगर अब वह 'सौंदर्य लहर' के बल द्वारा पुरुरवा को दीक्षित करने के क्रम में देह को भ्रम के रूप में निरूपित करने लगती है :

'मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो :

मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो

सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की।

यहाँ दिनकर के साहित्य बोध पर दृष्टिपात करना तस्वीर को कुछ और साफ करने में सहायक होगा। संयोग से इसके लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, भूमिका के कुछ अंश को एक बार फिर उद्धृत करना होगा : 'कला, साहित्य और विशेषतः काव्य में भौतिक सौंदर्य की महिमा अखंड है। फिर भी, श्रेष्ठ कविता, बराबर, भौतिक से परे भौतिकोत्तर सौंदर्य का संकेत देती है, 'फिजिकल' को लाँघ कर 'मेटा फिजिकल' हो जाती है। इस तरह दिनकर की काव्य चेतना जिसे महत्वपूर्ण मानती है, वह 'फिजिकल' नहीं, बल्कि 'मेटा फिजिकल' है। अतः दिनकर की सौंदर्य लहर, जिसकी श्रेष्ठता का बखान उर्वशी करती है, पाठक को बहा कर वहीं ले जाती है, जहाँ पुरुष अध्यात्म की चिंतन लहर पहुँचती है। ये वेदांत से निःसृत पुरातन मूल्य हैं, जिन्हें आजादी के बाद सत्ता की बागडोर सँभालने वाले भारत के तथाकथित नीति निर्माताओं ने परंपरा की संज्ञा दी और उन पर उदारता का मुलम्मा चढ़ाया। दिनकर भारतीय परंपरा की इसी शासकीय व्याख्या के अलंबरदार थे। 'उर्वशी' की रचनात्मक गत्वरता को जो शक्ति नियंत्रिात कर रही है, उसे 'संस्कृति के चार अध्याय' में बिना किसी लागलपेट के देखा जा सकता है। दिनकर का वेदांती मन रामकृष्ण परमहंस के संदर्भ में भारतीय महापुरुष की व्याख्या इस तरह करता है : 'किंतु रामकृष्ण ने नारी की ऐसी निंदा कभी नहीं की। अपनी पत्नी की तो उन्होंने प्रशंसा ही की है। हाँ, काम भोग को साधना की बाधा वे भी मानते थे और उनका भी उपदेश यही था कि नर नारी एक दूसरे से अलग रह कर ही अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने एक बार कहा था, 'उन दिनों मुझे स्त्रिायों से डर लगता था। ...अब वह अवस्था नहीं रही। अब मैंने मन को बहुत कुछ सिखा पढ़ा कर इतना कर लिया है कि स्त्रियों की ओर आनंदमयी माता के भिन्न भिन्न रूप जान कर देखा करता हूँ। तो भी, यद्यपि, स्त्रियाँ जगदंबा के ही अंश हैं, तथापि साधु साधक के लिए वे त्याज्य ही हैं। (संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 494)। इस पर आगे दिनकर टिप्पणी करते हैं : 'कामिनी और कांचन के विषय में किसकी क्या दृष्टि है तथा इनके आकर्षण से कौन कहाँ तक बचता है, यही वह कसौटी है जिस पर भारतीय महापुरुषों की जाँच होती आई है। रामकृष्ण इस कसौटी पर खरे उतरे। (वही)। स्पष्ट है कि किसी महापुरुष की भारतीयता का निकष यही है कि वह कामिनी और कांचन का परित्याग करे। इसी तरह दिनकर के वेदांती मन की गाँठ का पता वहाँ भी चलता है जब 'संस्कृति के चार अध्याय' में भारतीय सभ्यता पर इस्लामी प्रभाव के बारे में वह अनर्गल टिप्पणी करते हैं।

यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि 'निरुद्देश्य आनंद की महिमा' का गुणगान करने वाला पुरुरवा उर्वशी का मिथक, 'उर्वशी' में निरुद्देश्य नहीं है। उसका एक स्पष्ट उद्देश्य है - सनातन समझे जाने वाले वेदांती मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा। सारी ढलान अंततः गरिमा खो देती है। उर्वशी का सौंदर्य पुरुरवा की अनुभूति में घुल कर विसरित हो जाता है - नीचे से ऊपर की ओर, धरती से स्वर्ग की ओर, मही से आकाश की ओर, मूर्तन से अमूर्तन की ओर :

अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आँखों से

रही झाँकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,

बाँहों में जिसको समेट कर उर से लगा रहा हूँ,

रक्त मांस की मूर्ति नहीं, वह सपना है, छाया है।

छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य वसन में,

देह ग्रहण करने पर भी तुम रहीं अदेह विभा सी।

यह 'अदेह विभा' भारतीय पुरुष अध्यात्म का ध्येय रही है। 'उर्वशी' इसी पुरुष अध्यात्म का रूमान है क्योंकि यहाँ देह में डूब कर, उसकी तरंगों के आवेग में बह कर 'अदेह' तक पहुँचा गया है। 'अदेह विभा' की चमक बिखेरने के लिए देह का तिरस्कार नहीं, बल्कि स्वीकार है। छायावादी सौंदर्यबोध और राष्ट्र व परंपरा की शासकीय धारणाओं का अनुभागी होने के चलते दिनकर को इस 'अदेह' के पुंसत्व ने बंधक बना रखा है। इस बंधन के बावजूद उन्होंने देह को साधने की कोशिश की है। दिनकर को जिस सांस्कृतिक काव्यधारा का कवि माना जाता है वह नई कविता आंदोलन के समानांतर प्रवाहित हुई थी। नई कविता का नया भावबोध देह की महत्ता को नए सिरे से परिभाषित कर रहा था। दिनकर नई कविता के बाहर के कवि हैं, फिर भी नए भावबोध के असर को उन्होंने शिद्धत से महसूस किया। अतः यह उचित ही कहा गया है कि नई कविता के बिना 'उर्वशी' की कल्पना कठिन थी। विडंबना यह है कि दिनकर के पिछड़े संस्कार नई चेतना के साथ ज्यादा दूर तक नहीं जा पाए। देह धारण करने के बावजूद उनकी उर्वशी 'अदेह' का ही गुणगान करती रही। दिनकर की काव्य भाषा भी देह के साथ उतनी सहज नहीं, जितनी कि 'अदेह' के साथ। सबसे ध्यान देने योग्य यह है कि 'उर्वशी' का काव्य देह से 'अदेह' में संक्रमित हो जाता है, महज भावोच्छवास द्वारा। अतः 'उर्वशी' वास्तविकता के किसी धरातल को तोड़ने के बजाए हवाई किले बनाने लगती है। 'उर्वशी' का आरंभ नारी सौंदर्य के संबंध में जिस नई संवेदना की उम्मीद जगाता है, उसका अंत नारीत्व की पिटी पिटाई सनातनी अवधारणा का साक्ष्य बनता है :

नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, क्षांति, करुणा है।

इसीलिए, इतिहास पहुँचता जभी निकट नारी के,

हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है।

चलते चलते कुछ बातें दिनकर की उस टिप्पणी पर जो उन्होंने पुरुरवा उर्वशी के पुत्र आयु के संबंध में की है। वह 'उर्वशी' की भूमिका में लिखते हैं : 'जब देवी सुकन्या यह सोचती है कि नर नारी के बीच संतुलन कैसे लाया जाए, तब उनके मुँह से यह बात निकल पड़ती है कि यह सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। इसलिए रयचिता ने पुरुषों के साथ पक्षपात किया, उन्हें स्वत्व हरण की प्रवृत्तियों से पूर्ण कर दिया। किंतु, पुरुषों की रचना आदि नारियाँ करने लगें, तो पुरुष की कठोरता जाती रहेगी और वह अधिक भावप्रवण एवं मृदुलता से युक्त हो जाएगा।

'इस पर आयु यह दावा करता है कि मैं ही तो वह पुरुष हूँ, जिसका निर्माण नारियों ने किया है।

'आयु का कहना ठीक था और वह प्रसिद्ध राजा भी हुआ, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है। किंतु उल्लेख इस बात का भी है कि युवक राजा सुश्रवा ने आयु को जीतकर उसे अपने अधीन कर लिया था।

'फिर वही बात!

'पुरुष की रचना पुरुष करे तो वह त्रासक होता है; और पुरुष की रचना नारी करे तो लड़ाई में वह हार जाता है।

यह लंबा उद्धरण दिनकर की पुरुष दृष्टि का परिचायक है। यह दृष्टि भूल जाती है आयु लड़ाई में इसलिए नहीं हारा, क्योंकि उसका निर्माण नारियों ने किया है। उसकी हार का कारण यह है कि अब तक की सृष्टि, वास्तव में, पुरुष की रचना है। पुरुषों की रचना यदि नारियाँ करने लगें तो धरती पर शायद युद्ध कभी हो ही नहीं। और अगर हो भी तो! कौन जाने वह जीतने के बजाय हारने के लिए ही लड़ा जाए! जीतना अप्रासंगिक हो जाए!