उर्वशी पुरूरवा / भाग 10 / संतोष श्रीवास्तव
रात्रि भोजन के पश्चात पुरुरवा को महर्षि ने अपने कक्ष में बुलाया। पुरूरवा का स्वागत करते हुए उन्हें बैठने को आसन दिया- "बैठिए राजन, इतनी रात्रि में यात्रा को स्थगित कर कर आपने अच्छा किया ।"
पुरुरवा ने प्रणाम करते हुए आसन ग्रहण किया - "मेरा सौभाग्य, आपने इस समय जबकि आपके विश्राम का समय है मुझे याद किया। निश्चय ही कोई विशेष प्रयोजन होगा ।"
"हम इतनी जल्दी विश्राम नहीं करते राजन ,इन दिनों हम भास्कर संहिता लिख रहे हैं ।अधिकतर लेखन रात्रि को ही होता है। दिन में तो शिष्यों को शिक्षित करना और औषधियों के अवलेह से प्राश बनाने में ही समय व्यतीत हो जाता है। कब भोर हुई, कब संध्या, ज्ञात ही नहीं होता।"
"जी महर्षि, आप महान गुरु, महान आयुर्वेदाचार्य के साथ-साथ महान लेखक भी हैं।हम तो आपके समक्ष वैसे ही हैं जैसे सागर के समक्ष बूंद।" महर्षि मुस्कुराए -"यह मत भूलिए राजन, बूंद से ही सागर है ।सागर के लिए बूंद अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।"
"यह तो आपकी विनम्रता और बड़प्पन है महर्षि, आप जिस ग्रंथ की रचना कर रहे हैं उसके विषय में जानना चाहता हूँ। भास्कर से तो लगता है कि आपका विषय सूर्य है।"
"सही कह रहे हैं राजन ,भास्कर संहिता में सूर्य की उपासना कैसे की जाती है उससे सम्बंधित मंत्र इत्यादि का विस्तार से वर्णन करेंगे ।"
"अद्भुत होगा यह ग्रंथ ।अधिकतर सूर्य उपासना को लोग उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हुए सूर्य स्रोत का पाठ करना ही समझते हैं। इस ग्रंथ के बाद वे विधिवत जानेंगे कि सूर्य उपासना क्या है ।"
"हाँ राजन ,मेरे शिष्यों का आग्रह है कि मैं औषधियो का ज्ञान देने वाला ग्रंथ भी लिखूं।" "उत्तम आग्रह ,आपने तो शक्ति और ऊर्जा देने वाली महत्त्वपूर्ण औषधि प्राश का आविष्कार किया है। दिव्य चिकित्सा से युक्त औषधियों की जानकारी तो सभी को होनी चाहिए।"
पुरुरवा के मनभावन कथन को सुन महर्षि मन ही मन मुदित हुए। सभी जानते हैं इन दिव्य औषधियों में ही जीवन तंत्र बसा है ।"
शिष्य दो पात्रों में गर्म दूध ले आया। महर्षि ने शिष्य से कहा - "एक मात्रा प्राश की भी लाओ। दूध के साथ सेवन करेंगे राजन और एक पात्र में अलग से इनके लिए प्राश भर लाना।"
फिर पुरुरवा से कहा- "गंधमादन में आप प्राश का सेवन करना और आवश्यकता हो तो सैनिक भेज कर मंगवा लेना। आप राजकाज सहित पूरा प्रतिष्ठानपुर संभालते हैं ।आपके लिए आवश्यक है इसका सेवन ताकि आपकी ऊर्जा तथा शक्ति बनी रहे।"
"जी महर्षि ,अवश्य।"
कहते हुए पुरुरवा ने पात्र में रखी प्राश की मात्रा का स्वाद लेते हुए कहा - "यह तो अत्यंत स्वादिष्ट है महर्षि।"
"हाँ विभिन्न औषधियों के संग इसमें घृत, केसर, मुनक्का आदि हैं जो औषधि के स्वाद को बढ़ाता है, पाचन में सहायक होता है।"
पुरुरवा ने प्राश के साथ दूध का आनंद लिया। निश्चय ही आयुर्वेद में प्राश जैसी औषधि के आविष्कार के कारण आप सदियों तक याद किए जाएँगे।"महर्षि गदगद थे। पुरुरवा को अपने कक्ष में बुलाने का उनका उद्देश्य पूरा हुआ ।उन्होंने कहा -"राजन, विश्राम करें। प्रातःकाल आपको गंधमादन जाना है ।"
"अवश्य" पुरुरवा ने आज्ञा पालन करते हुए महर्षि को शुभ रात्रि कहा और उर्वशी के कक्ष की ओर प्रस्थान किया। उर्वशी के मुख पर गर्भ की पूर्णता के चिह्न दिखाई दे रहे थे।पुरुरवा को देखकर शैय्या पर लेटी उर्वशी ने उठने का प्रयास किया।
"लेटी रहो उर्वशी।"कहते हुए पुरूरवा उसकी शैया पर बैठ गये- "सच कहना उर्वशी, मातृसुख को पाकर विचलित तो नहीं हो?"
उर्वशी उठकर बैठ गई।
"नहीं पुरू बल्कि इस सुख में आकंठ निमग्न हूँ। किंतु तुम्हारे मन में यह संदेह क्यों उठा?"
पुरुरवा क्षण भर मौन रहे। उन्हें लगा कहीं उनके कथन को अन्यथा न ले उर्वशी ।कहना तो वह यह चाहते थे कि तुम देवलोक की वासी हो। गर्भधारण करना, प्रसव पीड़ा सहन करना यह सब तो भूलोक की स्त्रियाँ ही कर सकती हैं। तुम्हें न तो इन सब का ज्ञान है न अभ्यास।
"मौन क्यों हो पुरू? मैं तुम्हारे मन में उठे संदेह को जानना चाहती हूँ।"
उर्वशी ने अधीर होकर कहा।
पुरूरवा सतर्क हुए, जो उनके मन में संदेह था उसे वह प्रकट करना नहीं चाहते थे ।उन्हें डर था कहीं उर्वशी को वे खो न दें। अतः बहुत ही कोमल तथा प्रेमपगे शब्दों में उन्होंने कहा-
"उर्वशी,मेरी प्रिया, व्यर्थ न सोचा करो। ऐसा माना जाता है कि इस सब का असर गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है। इन दिनों तुम्हारा प्रसन्न रहना महत्त्वपूर्ण है।
"अच्छा,अर्थात शेष दिन मेरी प्रसन्नता अनिवार्य नहीं!"
"ओह उर्वशी, साधारण कही बात को कहाँ के कहाँ ले जाती हो? इतना समझ लो मेरे लिए तुम्हारी प्रसन्नता से बढ़कर और कुछ भी नहीं। तुमने मेरे जीवन में बहार ला दी है। यह पुरुरवा तो तुम्हारा दास हुआ उर्वशी।"
कहते हुए पुरूरवा शैय्या पर लेट गए। उर्वशी के केश सहलाते हुए उन्होंने उसका चेहरा अपने वक्ष से लगा लिया। फ़िर मुख चूमते हुए कहा -"
अब विश्राम करो उर्वशी। प्रातः काल हमारी चार घड़ी की यात्रा आरंभ हो जाएगी।"
उर्वशी ने पलके मूंद लीं। कक्ष के गवाक्ष से दिखते कांस के लंबे श्वेत पुष्पों पर जुगनू टिमटिमा रहे थे । दूर वृक्ष की डाल पर बैठे उल्लू ने पंख फड़फड़ाए ।क्षण भर को अरण्य मुखरित हुआ फ़िर शांत हो गया।
प्रातःकाल सैनिकों ने रथ तैयार कर पुरुरवा को सूचना दी ।पुरुरवा तो उर्वशी के साथ पहले से ही प्रस्थान की तैयारी किए बैठे थे।
दास दासियों ने पाथेय बनाने में सुकन्या के निर्देशों का पालन किया। बड़े-बड़े पात्रों में पाथेय और जल सैनिकों को रखने को दिया गया। महर्षि भी उन्हें आश्रम के द्वार तक विदा करने आए।
"इतने दिनों पुत्री उर्वशी के रहने से आश्रम में रौनक थी।"
"कुछ देर अभाव खलेगा महर्षि, फ़िर सब यथावत । यही सृष्टि का नियम है।"
कहते हुए पुरुरवा ने महर्षि को प्रणाम किया। उर्वशी सुकन्या के गले लग कर भावुक हो गई- "देवी भूलिएगा नहीं मुझे ,आपके सान्निध्य में बहुत कुछ सीखा है ।ईश्वर शीघ्र ही पुनः मिलन करवाये ।"
"ऐसा ही होगा उर्वशी ,यह आश्रम अब तुम्हारा मायका है। सदैव याद रहोगी तुम । आते रहना।"
उर्वशी ने सुकन्या को पुनः गले लगा लिया। जैसे वर्षों की सखियाँ आज अचानक बिछड़ रही हों।दोनों रथ की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थीं। दासियाँ पहरेदार की तरह दोनों के आसपास चल रही थीं।
"मार्ग में रुक कर पाथेय अवश्य ले लेना उर्वशी ।तुम्हें इसकी विशेष आवश्यकता है। तुम्हारे अंदर शिशु भी सांस ले रहा है, यह कभी मत भूलना ।"
न सुकन्या ने ध्यान दिया न उर्वशी ने कि आश्रम के प्रांगण से निकलते ही सुकन्या के पालित हिरणों का झुंड उनके संग संग चल रहा है। जैसे ही उर्वशी ने रथ में चढ़ने के लिए पैर उठाया वैसे ही झुंड में से एक हिरण ने उर्वशी के आंचल के छोर को मुंह में दबा लिया। उर्वशी ठिठक गई ।
"देखो यह हिरण भी तुमसे मार्ग में अपना विशेष ध्यान रखने को कह रहे हैं।"सुकन्या ने कहा
उर्वशी ने वहीं भूमि पर बैठकर हिरण को गले से लगा लिया। यह मूक स्नेह रिसता हुआ सीधे उर्वशी के मन में उतर गया। उसे कस्तूरी मृग याद आ गए। उनके साथ तो कुछ ही घड़ियाँ बिताई थी उर्वशी ने, किंतु इन हिरनो के साथ तो काफ़ी समय बीता है।
भीगे नेत्रों से उसने हिरण का मुख चूमते हुए कहा- "स्मरण रहोगे तुम, तुम्हारा यह स्नेह जो मेरी धरोहर में शामिल है। देवी सुकन्या का ध्यान रखना।" कहते हुए उर्वशी रथ में चढ़ने को तत्पर हुई ।दासियों ने उसे रथ के आसन पर बैठा दिया।
रथ के ओझल होते तक सुकन्या खड़ी रही। फ़िर थके क़दमों से आश्रम की ओर लौटी। आश्रम के प्रांगण में मौलश्री के वृक्ष के नीचे बने परकोटे पर वह उदास होकर बैठ गई। आज उर्वशी के बिना आश्रम में मन लगना कठिन था सुकन्या का।
क्या इसे ही मोह कहते हैं? क्या सुकन्या अभी भी मोह के बंधन में जकड़ी है? अगर नहीं तो फ़िर क्यों उर्वशी का जाना उसे व्याकुल कर रहा है। कहीं यह उसके एकाकी जीवन का परिणाम तो नहीं? उसने तो अपने मन को मार कर अपनी परिस्थितियों में जीना सीख लिया था ।ओह, इस व्यवधान ने तो उसे विचलित कर दिया।
सोचते हुए वह भारी मन से अपने कक्ष की ओर लौट आई।
अरण्य बहुत घना और सुंदर था। तरह-तरह के जंगली फूलों की छटा देखते ही बन रही थी।विविध प्रकार के फलों से लदी डालियाँ वृक्षों को बहुत मनमोहक बना रही थीं।ऊँचे-नीचे रास्तों पर रथ का सारथी बहुत संभाल कर रथ चला रहा था ।रथ के आगे पीछे अश्वों पर सैनिक थे।
"थोड़े समय के लिए अरण्य में निवास अच्छा लगता है। किंतु स्थाई निवास अनेक असुविधाओं, अभावों और भय से भरा रहता है ।महर्षि च्यवन तो तपस्वी है। किंतु देवी सुकन्या तो राजकुमारी है। उनका स्थाई रहना चकित करता है।" उर्वशी ने रथ के आसन पर तकियों के सहारे आराम से बैठते हुए कहा।
"देवी सुकन्या कोई साधारण स्त्री नहीं है उर्वशी ,उन्होंने महर्षि के लिए जो त्याग किया है निश्चय ही उसका उल्लेख ग्रंथों में होगा ।सदियों लोग उन्हें याद रखेंगे ।पुरुरवा ने उर्वशी की दोनों हथेलियाँ अपने हाथों में कमल कली-सी बहुत कोमलता से दबा रखी थीं। तभी रथ के सामने दो खरगोश दौड़ते हुए आए ।क्षण भर ठहर अपनी काली चमकीली आंखों से रथ को देखा और विद्युत गति से झाड़ियों में ओझल हो गए।उर्वशी उनकी चपलता पर निहाल होकर रथ के पीछे के भाग में बंधे अपने श्वेत मेमनों को थपथपाने लगी।
"हाँ पुरू, हम भी ऐसा ही कुछ करें जो हमें सदियाँ याद रखें।"
पुरुरवा ने मुस्कुराते हुए उर्वशी को देखा- "प्रेम ,शाश्वत प्रेम। तुम मुझे और मैं तुम्हें आत्मा की गहराईयों तक प्रेम करेंगे। प्रेम अमर है। इसी को लक्ष्य बनाकर प्रेम में अमरता पाई जा सकती है।"
"क्या परिभाषा है प्रेम की तुम्हारी दृष्टि में ?"
"प्रेम के पथ की थकान भी जब मधुर लगे, अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों का बोझ जब पुष्प-सा हल्का लगे, जब विरह में दग्ध होना भी शीतल लगे ,तब, हाँ तब मनुष्य की आत्मा प्रेम की चाशनी में पगी होती है। प्रेम इतना विशाल है कि उसके लिए इस लोक का ब्रह्मांड भी छोटा है ।भ्रमर का पुष्पों पर गुंजार करना, तितलियों का पुष्प पराग के लिए उस पर नर्तन करना, अग्नि की लौ से शनै: शनै:
मोमबत्ती का पिघलना प्रेम ही तो है। उस लौ पर पतंगो का मंडराना, मंडराते हुए प्रातः काल होते ही जान दे देना प्रेम ही तो है। प्रेम को देखने के लिए दृष्टि चाहिए। समझने के लिए मेधा और जीने के लिए आत्मा चाहिए।"
पुरुरवा के मुख से प्रेम के लिए झरते शब्दों को अपने कर्ण से बटोरती उर्वशी मुग्ध थी ।उसने अरण्य के घने वृक्षों पर दृष्टि डाली। वृक्षों की सघनतावश सूर्य किरणें जहाँ प्रवेश नहीं कर पा रही थीं ।अंधकार का साम्राज्य था जहाँ। जो कुछ समय पहले उर्वशी को भयाक्रांत किये था अब वहाँ प्रेम ही प्रेम था। आकर्षित करता अंधकार का सौंदर्य। यह अंधकार ही तो है जो उजाले का महत्त्व बताता है। यह अंधकार ही तो है जो प्रिय के समीप होने पर हृदय में प्रेम बीज होता है । एकाएक उर्वशी को याद आया कि अभी पुरुरवा ने कहा था कि प्रेम के लिए इस लोक का ब्रह्मांड भी छोटा है तो क्या और भी ब्रह्मांड हैं जिसकी जानकारी उसे नहीं है?
उसने पुरुरवा से प्रश्न किया- "पुरू,इस लोक के ब्रह्मांड के अतिरिक्त और भी ब्रह्मांड है ऐसा तुमने अभी बताया। मैं उनके विषय में जानना चाहती हूँ।"
"यह बहुत विस्तृत विषय है उर्वशी ,इस विषय पर चर्चा करते हुए तो कई दिन और कई रातें बीत सकती हैं। इतना समझ लो कि जब प्रलय काल था तब एक ज्योति का पुंज था जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान थी ।इसी तेज के भीतर तीनों लोक हैं। संपूर्ण सृष्टि का सृजन करते समय सभी देवताओं की उत्पत्ति हुई ।भगवान विष्णु का शुक्र जब जल में गिरा तो 1000 वर्ष पश्चात उस शुक्र में से विराट पुरुष की उत्पत्ति हुई जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं ।उनके प्रत्येक रोम में एक ब्रह्मांड है। तो सोचो कितने ब्रह्मांड होंगे और प्रत्येक ब्रह्मांड में अंतरिक्ष भी है, सूर्य ,चंद्र ,ग्रह ,नक्षत्र, धूमकेतु ,आकाशगंगाए सभी कुछ तो विद्यमान हैं। उन ब्रह्मांडों का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।"
उर्वशी को यह वृत्तांत बहुत अधिक रोचक लगा। वह आगे जानने के लिए इच्छुक थी किंतु पुरुरवा ने यह कहते हुए कि यह सब समझने के लिए अभी उपयुक्त समय नहीं है ,अभी तुम्हें भोजन और विश्राम की आवश्यकता है।"
वे सारथी को रथ रोकने का आदेश देने ही वाले थे कि तभी दासी ने "क्षमा करें महाराज ,कहीं रुक कर भोजन ग्रहण करिए। यह देवी उर्वशी के लिए अत्यंत आवश्यक है।" कहते हुए रथ रुकवाने की आज्ञा मांगी।
"ठीक है, सैनिकों से कहो उचित स्थल देखकर तंबू लगाएँ।"पुरुरवा ने कहा।
"जी आधे कोस की दूरी पर नदी है। उसी के तट पर तंबू लगा लेते हैं।"
कहते हुए दासी सैनिकों की ओर मुड़ी।
धूप में झिलमिलाती नदी की लहरें रूपहली लग रही थीं। मंद मंद समीर में नदी के जल के कण उर्वशी को विभोर करने लगे। रथ के रुकते ही उसने दासी से कहा- कितना सुरम्य दृश्य है।मुझे नदी के तट तक ले चलो।"
"क्षमा करें देवी, पहले भोजन कर लें।"
सैनिकों ने आनन - फानन में नदी के तट पर तंबू लगा दिए। दासियाँ पुरूरवा और उर्वशी को भोजन परोसने लगी।
भोजन के पश्चात उर्वशी ने विश्राम किया।
पुरुरवा टहलते हुए नदी के तट पर आ गए ।स्वच्छ उर्मियाँ सूर्य की किरणों में रजत हो उठीं। वे उर्मियों में अपना प्रतिबिंब देखने का प्रयास करने लगे। किंतु उर्मियों ने वायु के संग मिलकर प्रतिबिंब को कई कोणों में विभक्त कर दिया ।उन्हें लगा उनका जीवन भी कोणों में बंट चुका है ।एक ओर वह उर्वशी के प्रेमी है ,दूसरी ओर ओशीनरी के धर्मपति ।तीसरी ओर प्रतिष्ठानपुर के कर्तव्य निष्ठ महाराज। किंतु वे स्वयं को महाराज नहीं मानते। यह राज पाट ,समृद्ध कोष यह उनके द्वारा अर्जित किया हुआ नहीं है। यह उनके पूर्वजों का है ।जिसकी रक्षा वे एक सेवक की भांति कर रहे हैं। फ़िर उनका अपना क्या? यह शरीर तक तो नहीं। शरीर से आत्मा के विलग होते ही यह पंचतत्व में मिल जाएगा। आत्मा अजर अमर है। अतः आत्मा में ही ईश्वर की लौ लगानी है ।आत्मा को भी क्लेश रहित पवित्र रखना है। किसी को भी त्रस्त पीड़ित नहीं करना है। अचानक उन्हें ओशनरी बड़ी तीव्रता से याद आई। जिसकी एक कमी ने उन्हें उससे दूर कर दिया। यह कमी उसके द्वारा तो निर्मित नहीं थी। ईश्वर प्रदत्त थी। इसमें उसका क्या दोष? आज उन्हें ओशीनरी विचलित कर रही है। आज उसका भोला भाला मुखड़ा बार-बार उनके सम्मुख आ रहा है।
वायु बहुत तेज थी। अपने उड़ते उत्तरीय को संभालते हुए वे भारी मन से तंबू की ओर लौटे।
अरण्य महल के अपने कक्ष में उर्वशी का अधिकतर समय ईश वंदना में व्यतीत होता। वह प्रसव के अंतिम सोपान पर थी और सुखद अनुभूतियों में डूबी थी। पुरुरवा भी अपनी होने वाली संतान को लेकर सतर्क थे। वह उर्वशी का हर पल ध्यान रखते। उसके खान-पान, विश्राम, मनोरंजन के लिए उन्होंने विशेष दासियाँ नियुक्त की थी। पुरूरवा स्वयं या तो साधुओं की संगत में समय व्यतीत करते या ईश आराधना में ।निश्चय ही उनके जीवन में संतान के आगमन की सूचना उनकी विशिष्ट उपलब्धि है। जिसे वे किसी भी मूल्य पर प्राप्त करना चाहते थे। किंतु होनी को कुछ और मंजूर था ।