उर्वशी पुरूरवा / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव

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देवलोक में इंद्र पूरे वर्ष उर्वशी के अभाव में विचलित रहे।उर्वशी उनकी सबसे प्रिय अप्सरा थी। उसके सौंदर्य ,नृत्य, गायन, वादन से भी अत्यंत प्रभावित थे वे। कोई भी संध्या ऐसी न बीतती जब उर्वशी का गायन न हो। सोमरस का पान जहाँ उनके शरीर की रक्त शिराओं को उत्तेजित करता वही उर्वशी का गायन वादन उनके हृदय तंत्र को झंकृत कर उन्हें दूसरे ही लोक में ले जाता।इंद्र इस चेष्टा में थे कि किसी तरह भरत मुनि का शाप फलित हो और उर्वशी देवलोक वापस आ जाए ।देवराज इंद्र की इस मंशा से उर्वशी की सखियाँ चिंतित थीं। वे जानती थीं जैसे ही पुरुरवा अपने पुत्र के दर्शन करेंगे उर्वशी देवलोक के लिए प्रस्थान कर देगी। अतः प्रसव की बेला में चित्रलेखा, सहजन्या और रंभा उर्वशी के पास आईं ।उर्वशी ने अत्यंत प्रसन्न हो तीनों को गले लगा लिया - "कैसी हो प्रिय सखियों?"

"हम तो ठीक हैं तुम कैसी हो ?अनुमान लगाओ तुम्हारे बिना देवलोक में रौनक ही नहीं रही ।देवराज इंद्र इसी प्रयास में रहते हैं कि कैसे तुम्हें वापस लाएँ ।हम इसीलिए तो आई हैं यहाँ ।"

"मुझे देवलोक ले जाने के लिए?" उर्वशी ने उदास होते हुए कहा।

"नहीं उर्वशी ,बल्कि हम तो चाहती हैं कि तुम जब तक रहना चाहो पुरूरवा के साथ रहो। किंतु तुम्हें भरत मुनि का शाप तो याद होगा?"

सुनते ही उर्वशी उदास हो गई। किंतु दूसरे ही पल उसे लगा कि उसकी सखियाँ उसके विषय में कितनी चिंतित रहती हैं।

वे उसकी ख़ुशी और सुख के लिए कितना सोचती हैं।

उर्वशी को अपनी सखियों पर गर्व हो आया।

उसने भावुकता से भरकर कहा- "सोच नहीं पा रही हूँ मैं अपने जीवन का क्या निर्णय लूं ?मैं प्रेम के वशीभूत इस धरा पर आई थी।"

रंभा मुस्कुराई -"तब तो तुमने प्रेयसी होने का ही चयन किया होगा।"

"ऐसा करना अनुचित तो नहीं है रंभा ।हम अप्सराएँ हैं। हमारे जीवन में न प्रेमी है न पति और न पुत्र।"चित्रलेखा ने कहा फ़िर उर्वशी की ओर उन्मुख हुई "निःसंकोच कहो सखी उर्वशी,तुमने किसका चयन किया है ?"

क्षण भर के मौन के पश्चात उर्वशी ने कहा- "भरत मुनि का शाप निष्फल नहीं हो सकता। पुत्र का जन्म होते ही पुरू उसे देखेंगे और मुझे तुम सबके साथ देवलोक प्रस्थान करना होगा। किंतु मैं ऐसा नहीं चाहती। मैं पुरू के साथ दीर्घकाल तक प्रेम सुख प्राप्त करना चाहती हूँ। मैं स्वयं नहीं जानती कि मैं कैसे और कब पुरू से इतना अधिक प्रेम करने लगी। उनके बिना एक पल भी बिताना मेरे लिए दुष्कर है।"

"किंतु उर्वशी, पुत्र का जन्म होते ही पुरुरवा तो उसे देखेंगे ही न।" चित्रलेखा ने चिंतित स्वर में कहा।

"हाँ यह तो है।"क्षण भर सोच कर उर्वशी ने कहा -

"प्रिय सखियो । जानती हूँ जो मैं कह रही हूँ उसे मेरी विवशता समझ तुम स्वीकार कर लोगी। इसी में मेरे प्रेम की शाश्वतता है।तुम मेरे पुत्र को महर्षि च्यवन के आश्रम ले जाकर देवी सुकन्या को सौंप देना ।अब वही उसकी माता है। मेरा दुर्भाग्य, मैं अपने पुत्र की बाललीला का सुख नहीं देख पाऊँगी। किंतु इसमें किसी का क्या दोष। निश्चय ही भरत मुनि का श्राप और मेरा हठ ही मुझसे यह सब करवा रहा है। तुम्हीं कहो सखियों क्या ऐसा करना अनुचित है?" उर्वशी ने व्याकुल होकर कहा।

"उर्वशी तुम वही कर रही हो जो तुम्हें पसंद है । अपनी अंतरात्मा का सुनो। अपने मन का करो। यह मत भूलो कि हम अप्सरा हैं। पृथ्वीलोक की स्त्रियों की तरह हमारे अंदर मातृत्व और वात्सल्य के गुण आ ही नहीं सकते ।तुम्हारे चरित्र पर कोई भी संदेह नहीं करेगा। तुम्हारी प्रकृति में गोपनीयता है ही नहीं। तुम तो अपनी आत्मा की गहराई से केवल पुरू की होकर रहना चाहती हो। दैविक गरिमा से पूर्ण प्रेम है तुम्हारा।"

उर्वशी आश्वस्त हुई।

सखियाँ देवलोक की ओर प्रस्थान करने ही वाली थीं कि उर्वशी को प्रसव पीड़ा आरंभ हो गई।

वह अपनी शैय्या पर बेचैन होकर करवटें बदलने लगी। उसकी पीड़ा देख सखियाँ रुक गई।

उर्वशी ने तड़पते हुए कहा

देवी सुकन्या ने मुझे प्रसव पीड़ा आरंभ होने पर उनके द्वारा दी औषधि का सेवन करने को कहा है। "

सखियाँ भी उसकी पीड़ा देखकर व्याकुल हो गई थीं। औषधि कहाँ रखी है यह उर्वशी के मुख से सुनते ही उन्होंने औषधि निकालकर उसकी मात्रा उर्वशी को खिला दी।

उर्वशी अपनी पीड़ा बहुत ही धैर्य पूर्वक सहती रही क्योंकि उसे यह भय था कि कहीं पुरुरवा को पता न लग जाए कि प्रसव थोड़ी ही देर में होने वाला है। प्रसव उसे गोपनीय रखना था ताकि पुत्र को सुरक्षित सुकन्या के आश्रम में पहुँचा दिया जाए।

औषधि की मात्रा का सेवन करने के एक घड़ी पश्चात उसने पुत्र को जन्म दिया। उस समय कक्ष में कोई दासी न थी। पुरूरवा तक किसी भी तरह यह सूचना न पहुँचे। अतः शीघ्रता से चित्रलेखा ने शिशु को स्नान कराके रेशमी वस्त्र पहनाए और उर्वशी से अंतिम बार उसके मुख का दर्शन करने कहा। उर्वशी के हृदय में हिलोर-सी उठी।

'यह मेरा पुत्र, मेरे और पुरू के प्रेम की निशानी। पुरू का प्रतिरूप ।अपनी माता को क्षमा करना पुत्र ।तुम्हारी माता विवश है तुम्हें त्यागने को। तुम्हारा यश दिग दिगंत में फैले। इसी कामना के साथ मैं तुम्हें देवी सुकन्या को सौंपती हूँ। क्षमा पुत्र, क्षमा।'

चित्रलेखा ने विह्वल हो रही उर्वशी की गोद से उसके पुत्र को उठाकर अपने आंचल में छुपा लिया ।

यह समय था माता और पुत्र के उस वियोग का जिसका अंत पहले से निश्चित था। मानो काल घोषणा कर रहा है कि अब उनका कभी मिलन नहीं होगा ।उर्वशी ऐसी जननी है जो पुत्रवती होकर भी सूनी गोद की हो गई ।किंतु इस सूनेपन को वह पुरू के प्रेम से ओतप्रोत कर देगी। पुत्र के अभाव को पुरू के प्रेम में समाहित कर लेगी। हाँ उसे जीना है दीर्घकाल तक इस भूलोक पर पुरू का होकर। 'निश्चय ही मेरा पुत्र देवी सुकन्या की छत्रछाया में संस्कारवान वीर और दयालु होगा। जाओ पुत्र दीर्घायु और यश प्राप्त करो।' सोचते हुए उर्वशी ने अपना चेहरा अपनी हथेलियों में छुपा लिया और रो पड़ी।

क्षण भर भी विलंब किए बिना चित्रलेखा ने उर्वशी के पुत्र को लेकर सहजन्या और रंभा के साथ गुप्त मार्ग से महर्षि च्यवन के आश्रम की ओर प्रस्थान किया।

एक घड़ी पश्चात उर्वशी के कक्ष से रुदन का स्वर सुन दासियाँ दौड़ी ।पुरुरवा भी शीघ्रता से आए। उर्वशी ने रोते हुए बताया- "पुरू, हमारे पुत्र का अपहरण हो गया। मैंने पुत्र को जन्म दिया किंतु वह न जाने कहाँ लुप्त हो गया।"

कहते हुए उर्वशी की जिव्हा लड़खड़ाने लगी। उसका साहस नहीं था कि वह पुरूरवा की ओर देखे। कहीं भेद खुल गया तो न जाने क्या होगा।

"क्या?" पहले आश्चर्य फ़िर क्रोध के आवेग में पुरुरवा ने तेज स्वर में कहा-"तुम सब कहाँ थी? उर्वशी को अकेला कक्ष में क्यों छोड़ा?"

सभी दासियों की नज़रें झुकी हुई थीं। कैसे बताती कि देवी उर्वशी ने ही एकांत चाहा था। "कितनी अदभुत बात है कि कड़े पहरे के बीच तुम सबके होते हुए कोई नवजात शिशु का अपहरण कर ले और पता ही न चले !"कहते हुए पल भर को रुके पुरुरवा। वे भी तो, वे भी तो व्याकुलता से कक्ष के बाहर प्रांगण में विचरण करते हुए प्रतीक्षा कर रहे थे शुभ समाचार की। उनके सामने से भी कोई नहीं गया। न कक्ष के अंदर गया और न बाहर आया। फ़िर यह कैसे संभव हुआ! निश्चय ही किसी अज्ञात शक्ति का कार्य है यह ।उन्होंने उर्वशी को ढांढस बंधाते हुए कहा-

"धैर्य रखो उर्वशी,जिसने भी यह दुस्साहस किया। वह मेरी नजरों से बच नहीं सकता।"

फिर वे दासियों की ओर मुड़े- "तुम सब कक्ष में ही रहोगी और उर्वशी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उनके विश्राम का पूरा ध्यान रखोगी।"

कहते हुए वे कक्ष से बाहर चले गए।

आनन फानन में वे शस्त्र से सुसज्जित हो अश्व पर सवार हुए। साथ में सैनिकों का दल ...दल का विभाजन कर उन्होंने चारों दिशाओं में अपने सैनिक दौड़ा दिए। कुछ सैनिकों को अपने साथ ले वे वेग से अरण्य का चप्पा चप्पा खंगालने लगे ।मन ही मन ईश्वर का स्मरण भी - 'हे प्रभु आपने प्रतिष्ठानपुर को उसका उत्तराधिकारी दिया किंतु उसे मेरी नजरों से क्यों ओझल कर दिया। मैं पुत्र की किलकारी सुनने को तरस गया। कहाँ हो पुत्र ,संकेत दो मुझे। मैं धरती पाताल एक कर दूंगा।'

पश्चिम दिशा सूर्य के अस्त होने के कारण पुरुरवा को रक्त रंजित नज़र आ रही थी ।धीरे-धीरे पग धरती संध्या और फ़िर रात्रि का घना अंधकार मानो पुरूरवा का उपहास उड़ा रहा था ।इतने शक्तिशाली होकर भी वे पुत्र की रक्षा नहीं कर पाए ।भारी मन से वे अरण्य महल लौटे ।

थके बुझे क़दमों से वे थोड़ी देर विश्राम कक्ष में बैठे। सेवकों के लाए फलों के शरबत को पीने से मना करते हुए वे उठे और उर्वशी के कक्ष में गए। उर्वशी पर्यंक पर तकियों से टिकी बैठी थी और दासी उसे फलों का रस पिला रही थी। पुरुरवा को कक्ष में देखते ही उर्वशी ने दासी को बाहर जाने को कहा। पुरुरवा का उतरा हुआ चेहरा देख उर्वशी व्याकुल हो गई। पुरुरवा ने उसके समीप बैठते हुए कहा - "मैंने पुत्र को खोजने में जी जान लगा दी किंतु ..."

पुरुरवा स्वयं को संभाल नहीं पाए उनके नेत्र श्रावण मास के मेघों की तरह बरसने लगे। उर्वशी ने पुरुरवा को गले लगा लिया -

"धैर्य रखो पुरू, हमारा पुत्र कहीं नहीं गया है ।वह हमें अवश्य मिलेगा।"

रात्रि का प्रथम प्रहर बीतने को था ।उर्वशी और पुरुरवा के बीच मौन संवाद था ।हृदय की व्याकुलता, पराजय रात्रि जागरण का कारण थी ।कालरात्रि प्रातः काल में भी कालरात्रि ही बनी रही।

प्रतिदिन का नियम हो गया पुरूरवा का ।चारों दिशाओं में सैनिकों को भेजना और स्वयं अरण्य में संध्या काल तक पुत्र की खोज करना। रात्रि होते ही निराश , उचाट मन से वे अरण्य महल लौटते। उन्हें लगता वे ज़िन्दगी की बिसात पर पांसे चलते हुए सब कुछ हार गए हैं। जबकि पराजय उनके स्वभाव में न थी।

उस दिन उनका अश्व चिर परिचित मार्ग पर दौड़ने लगा। सामने महर्षि च्यवन का आश्रम था ।आश्रम के द्वार पर पुरुरवा के आते ही महर्षि च्यवन सतर्क हुए ।अभी अनुकूल समय नहीं है कि पुरुरवा पुत्र का मुख देखे। वे स्वयं द्वार तक आए- "राजन सब कुशल मंगल तो है?

पुरुरवा महर्षि को प्रणाम कर पुत्र के अपहरण का वृत्तांत सुनाने ही वाले थे कि महर्षि ने सावधानीपूर्वक पुरुरवा का ध्यान खींचते हुए कहा - "चलिए जड़ी बूटियों की वाटिका की ओर जा रहे हैं हम। आप भी चलिए। मार्ग में बताइएगा, आप क्यों विचलित हैं।"

सैनिकों ने पुरुरवा का अश्व आश्रम के बाहर वृक्ष से बाँध दिया और स्वयं भी सुस्ताने लगे। सुकन्या ने सतर्कता से कक्ष के द्वार अंदर से बंद कर लिए। ईश्वर की कृपा से उर्वशी पुत्र अभी निद्रा मग्न था। महर्षि के साथ चलते हुए पुरुरवा ने सारी घटना विस्तार से बताई ।"महर्षि आप ही बताएँ, मैं क्या करूं? मैं किंकर्तव्यविमूढ होता जा रहा हूँ ।मुझे अपनी शक्ति घटती अनुभव हो रही है।"

महर्षि ने ढांढस बंधाते हुए - "राजन सब ठीक हो जाएगा। आपका पुत्र सुरक्षित है। समय अनुकूल होते ही आप पुत्र का मुख देखेंगे। अभी प्रतिष्ठानपुर लौटना ही आपके हित में है।पुरुरवा अत्यधिक धैर्यवान पुरुष थे समय की अनुकूलता ,प्रतिकूलता पर विश्वास करते थे। अतः महर्षि के कथन को हितकारी सोच उनका मन शांत हुआ-

"जी महर्षि ,आपका कथन शिरोधार्य। मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगा, जब मुझे पुत्र दर्शन होंगे। अब आज्ञा दें।"

कहते हुए पुरुरवा ने महर्षि को प्रणाम किया और साथ ही सैनिक को अश्व लाने का संकेत किया। न महर्षि ने उनके सामने सुकन्या से मिलते हुए जाने की बात कही ,न पुरुरवा को ही ध्यान रहा। उनका अश्व तीव्र वेग से अरण्य महल की ओर जाने वाले मार्ग पर दौड़ने लगा।

उर्वशी पुत्र वियोग में अंदर ही अंदर टूट रही थी। पुत्र को जन्म देकर भी वह मातृत्व से वंचित थी। जब उसके स्तनों से दूध उमड़ता तो वह पुत्र के लिए अधीर हो जाती। पश्चाताप भी होता। स्त्री का पहला धर्म पुत्र है। स्त्री की पूर्णता पुत्रवती होने में ही है। स्त्री का कर्तव्य पति की वंश बेल बढ़ाना है किंतु उर्वशी पुत्र को जन्म देकर भी यहाँ एकांत में एकाकी अश्रु बहा रही है ।

जब पुरूरवा महर्षि च्यवन के आश्रम गए थे उसी दिन चित्रलेखा और सहजन्या उससे मिलने आई ।उर्वशी ललककर उनके गले लग गई- "बताओ सखी मेरा पुत्र कैसा है ?देवी सुकन्या ने उसे स्वीकार तो किया न? सब कुछ सोचकर मेरा हृदय मुंह को आ रहा है।" "शांत उर्वशी ,शांत। सब ठीक है। किसी भी प्रकार की चिंता करके अपने शरीर को कष्ट मत दो। देवी सुकन्या को जब हमने तुम्हारा पुत्र सौंपा तो उन्होंने गदगद हो उसे हृदय से इस तरह लगा दिया जैसे वह उन्हीं के द्वारा जन्म पाया पुत्र हो ।वे दौड़ी दौड़ी महर्षि के पास गई-"महर्षि देखिए, उर्वशी पुत्र। अब यह आपकी छत्रछाया में पलेगा। यही विधि का विधान है।"

महर्षि ने भी उसे अपने अंक में लेते हुए कहा- भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है? यह हमारे आश्रम का दीप है।"

चित्रलेखा के वृतांत से उर्वशी आश्वस्त हुई। अर्थात पति-पत्नी दोनों ने उसे अपना लिया है। प्रभु आपकी अनुकंपा का पारावार नहीं। आपकी लीला समझना तीनों लोकों में किसी के बस का काम नहीं। सहजन्या ने उर्वशी के कंधों पर हाथ रखते हुए कहा- "तुम भाग्यशाली हो उर्वशी, तुम्हारे पुत्र का उचित स्थान पर पालन पोषण होगा। तुम्हारा और पुरुरवा का अप्रतिम प्रेम तो उसकी रगों में व्याप्त है ही ।पुरूरवा से प्राप्त श्रेष्ठ गुणों को आश्रम की सम्यक और कुशल शिक्षा पद्धति और अधिक उज्ज्वल मणिमय कर देगी।"

"हाँ उर्वशी, महर्षि ने तो उसका नामकरण संस्कार भी कर लिया। आयु ,आयु है तुम्हारे पुत्र का नाम।" चित्रलेखा ने कहा। उर्वशी के अश्रु ढलकने लगे।

"आयु,मेरे पुत्र आयु ,ईश्वर तुम्हें स्वस्थ दीर्घायु करें ।चंद्रवंश के पुरुरवा के उत्तराधिकारी तुम हजारों वर्षों तक पृथ्वी पर राज करो ।दिग दिगंत में तुम्हारी कीर्ति फैले।,

"उर्वशी ,अब हमें जाने की अनुमति दो । पुरूरवा लौटते ही होंगे।"

कहते हुए दोनों ने उर्वशी के कक्ष से प्रस्थान किया ।वे यह बात उर्वशी से छिपा गई कि उन्होंने पुरुरवा को महर्षि च्यवन के आश्रम में जाते देखा है । अगर यह बात उर्वशी को ज्ञात हो गई तो वह पुत्र को लेकर व्यर्थ चिंता करेगी।


पुरूरवा सैनिको सहित अरण्य महल में लौट आए थे । इस बार पुरुरवा का मन शांत था। उन्होंने उर्वशी के कक्ष में प्रवेश करते हुए कहा-

"उर्वशी एक मास व्यतीत हो चुका है पुत्र को ढूँढते हुए । हमें मान लेना चाहिए कि पुत्र मिलन का अभी समय नहीं आया है। अतः हमें प्रतिष्ठानपुर लौट जाना चाहिए ।"

उर्वशी ने पलके झुका ली। पुत्र आयु की समस्त जानकारी के बावजूद वह पुरुरवा से कुछ न कह सकी ।मन मसोस कर रह गई।

"उर्वशी , हम कल ही प्रतिष्ठानपुर प्रस्थान करेंगे। हमारी अनुपस्थिति में महारानी पर अतिरिक्त बोझ आन पड़ा है। उसका निवारण भी हो जाएगा।"

"जैसा उचित समझो पुरू।" कहते हुए उर्वशी ने सजल नेत्रों से पुरुरवा की ओर देखा। अश्रु वहाँ भी नेत्रों में अटके थे। उर्वशी व्यथित हो गई। कैसे कहे कि वह शापित स्त्री है। भरत मुनि के शाप ने उसे पुत्र त्याग के लिए विवश कर दिया ।वह पुरुरवा के बिना एक पल भी नहीं रह सकती। उसे वह भटकती नदी नहीं बनना है जो अपने प्रेमी समुद्र की तलाश में कंदराओं, पत्थरों ,चट्टानों, मिट्टी के टीलों पर बहती अंततः शुष्क हो जाती है। उर्वशी को पुरुरवा के साथ इस धरती पर लंबा जीवन जीना है। प्रेम पगा जीवन जो दूसरों के लिए उदाहरण बने ।प्रेम ऐसा तो हो कि प्रेमी प्रेमिका उनके नाम की शपथ लें। आयु आश्रम में सुरक्षित पलेगा। वह संस्कारी, शिक्षित ,धर्मात्मा और कुशल योद्धा होगा। उसे महर्षि और देवी सुकन्या पर गहरा विश्वास है।