उर्वशी पुरूरवा / भाग 12 / संतोष श्रीवास्तव
प्रतिष्ठानपुर पहुँचते ही राजमहल के मुख्य द्वार पर खड़े सभासदों और राजमहल के निवासियों ने पुरुरवा की जय जयकार के नारे लगाए ।मार्ग के दोनों ओर खड़ी दासियों ने उन पर पुष्प वर्षा की ।महारानी ओशिनरी के अभ्यस्त हाथों ने पुरुरवा का तिलक करते हुए आरती उतारी- "स्वागत है महाराज।"
पुरुरवा ने महारानी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा - "सब कुशल मंगल ?"
"जी आप अपने प्रासाद के कक्ष में पधारें ।"कहते हुए महारानी उर्वशी की ओर मुड़ी -"स्वागत है उर्वशी ।वे उर्वशी को भी पुरुरवा के ही कक्ष में ले गईं।
कक्ष विशेष रूप से सज्जित किया गया था।पुरूरवा के मनपसंद पुष्प कक्ष के कोनों में स्फटिक तिपाई पर रखे थे। जिनकी भीनी भीनी सुगंध से कक्ष सुवासित था। पूरे कक्ष में मखमली दरी बिछी हुई थी जिस पर चलते हुए पांव धंस जाते थे।
आसन पर पुरुरवा बैठे । बांए तरफ़ उर्वशी और महारानी। विलंब किए बिना राजज्योतिषी विश्वमना पधारे ।
"बारंबार प्रणाम महाराज, अत्यंत शुभ घड़ी में आपकी महल में वापसी हुई है। भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है।"
पुरुरवा फीकी हंसी हंसे "वर्तमान नहीं है उज्ज्वल ज्योतिषी महाराज। मैं जो हर्षदायक सूचना महारानी को देने वाला था अब वह वेदना भरी हो गई।"
महारानी ने व्याकुल होकर पूछा -"कौन-सी सूचना महाराज? वह वेदनादायक क्यों? मेरा हृदय बैठा जा रहा है ।बताएँ महाराज ।"
पुरुरवा ने उर्वशी की ओर देखा। उसके नेत्र भावहीन थे। मानो उर्वशी पर इस बात का कोई प्रभाव ही नहीं हुआ हो और होगा भी क्यों आख़िर इस पूरे घटना चक्र में उसी का तो हाथ है? वैसे भी वह अप्सरा है। भूलोक की स्त्रियों के समान हर परिस्थिति में अपने मनोभावों को प्रकट करना वह नहीं जानती। वह केवल प्रेम जानती है जो उसने पुरूरवा से किया है।
पुरुरवा को अपनी ओर देखते पा उर्वशी ने ही मौन तोड़ा- "महारानी आप माता बन गई हैं।"
चौक पड़ी महारानी।
"माता ! क्या कह रही हो उर्वशी ?यह कैसे संभव है? कहाँ है मेरा पुत्र?"
महारानी की बेचैनी धैर्य के सभी कगार तोड़ रही थी।
"महारानी हमारा दुर्भाग्य, पुत्र का अपहरण कर लिया गया है ।"
उर्वशी ने सिर झुकाए कहा ।
"यह , मैं क्या सुन रही हूँ महाराज।"
पुरुरवा ने बड़े कष्ट से उत्तर दिया- "महारानी यह सत्य है।उर्वशी ने मेरे पुत्र को जन्म दिया किंतु मेरा दुर्भाग्य मैं उसे देख तक नहीं सका और उसे न जाने कौन उर्वशी की शय्या से उठा ले गया। यह वृत्तांत एक मास पहले का है। मैंने सैनिकों सहित एक मास तक सभी दिशाओं में उसकी खोज की। पर वह नहीं मिला। कहीं नहीं मिला महारानी मेरा पुत्र, मेरा अंश, चंद्रवंश के वृक्ष का नन्हा बिरवा ।"कहते हुए पुरुरवा विलाप करने लगे ।महारानी भी उनके साथ रुदन करने लगी। किंतु उर्वशी शांत बैठी रही। विश्वमना ने पुरुरवा को धैर्य बंधाते हुए कहा-
"महाराज स्वयं पर संयम रखें। आपकी कुंडली में आपका पिता होना और पुत्र का वर्षों तक प्रतिष्ठानपुर का राज्य संभालना निश्चित है। चंद्रवंश फलेगा फूलेगा ।उसमें कोई रुकावट नहीं है ।किंतु पुत्र सुख के लिए अभी उपयुक्त समय नहीं है ।आपका पुत्र राजमहल में आएगा। वही आपका उत्तराधिकारी होगा। आपको धैर्य पूर्वक अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी है।"
"पुत्र के जीवन को कोई संकट तो नहीं है न विश्वमना?"
"पुत्र के विषय में आपकी व्याकुलता उचित है। ईश्वर पर विश्वास करते हुए धैर्य रखें।आपके पुत्र का कुशल हाथों में श्रेष्ठ स्थान पर पालन पोषण हो रहा है ।"
"कहाँ ?बताएँ विश्वमना । मैं उसे देख तो लूं। अपने हाथों में उठाकर हृदय से तो लगा लूं ।"
विश्वमना ने पुनः ढांढस बंधाया -
"पितृ प्रेम ऐसा ही होता है किंतु आप तो असाधारण बालक के पिता हैं। अधीरता को निकट न आने दें।"
फिर महारानी की ओर मुड़कर उन्होंने कहा- महारानी पुत्र की मंगल कामना करते हुए पूजन हवन कर लें। उर्वशी ने आपके पुत्र को जन्म दिया है। उर्वशी को स्वीकार करें।"
महारानी दृश्य-सा देखने लगीं। पालने में महाराज पुत्र अपने पंखुड़ी जैसे होठों को गोल फैलाकर किलकारी भर रहा है। उसके चमकते नयन जैसे चमकती हुई मणियाँ हों। वे उसके निकट गई हैं। जैसे ही उन्होंने पालने में से उसे उठाने का प्रयास किया वह उनके हाथ से फिसल कर अंतर्धान हो गया।उनकी आंखें उमड़ आईं जिसे उन्होंने सबकी आंखों से बचा कर आंचल की छोर से दबा लिया। प्रकृतिस्थ होते हुए उन्होंने विश्वमना से कहा - "आप शुभ मुहूर्त बता दें हवन पूजन का।"
विश्वमना ने उठते हुए आज्ञा मांगी ।
"की महारानी,अब आज्ञा दें महाराज, महारानी। मैं राजपुरोहित जी को शुभ मुहूर्त निकालने के लिए आपका संदेश बता देता हूँ।"
विश्वमना के जाते ही उर्वशी ने अपने कक्ष में जाना चाहा - "विश्राम करना चाहती हूँ महारानी, मार्ग की थकावट है ।"
"अवश्य, चलिए मैं आपको आपके कक्ष तक पहुँचा देती हूँ।"
"महाराज आप भी विश्राम करें। मन को शांत रखें। ईश्वर इतना कठोर नहीं है।" कहते हुए महारानी उर्वशी को लेकर अपने प्रासाद की ओर गई। उर्वशी का कक्ष उनके कक्ष के बाजू में ही था। उन्होंने दो दासियाँ उर्वशी की सेवा में देते हुए उर्वशी से बिदा ली।
"रात्रि भोज में हम साथ होंगे ।"
उर्वशी ने हाथ जोड़े - "अवश्य महारानी ।"
प्रतिष्ठानपुर में समाचार फैल गया कि महाराज के उर्वशी से पुत्र हुआ जिसे वे देख तक न पाए और वह अंतर्धान हो गया। यह कैसे हो सकता है! किसी में इतना साहस नहीं है कि वह महाराज के पुत्र का अपहरण करे।तब पुत्र गया कहाँ !सभी के मन में संदेह उठ रहा था। आपस में लोग तर्क कर रहे थे हो सकता है यह प्रतिष्ठानपुर के दुश्मनों की चाल हो। उन दुश्मनों की जिन्हें युद्ध भूमि में महाराज ने परास्त किया है ।जो यह नहीं चाहते कि चंद्रवंश आगे बढ़े।
किंतु उर्वशी शांत है ।उसे पूर्ण विश्वास है कि देवी सुकन्या और महर्षि के आश्रम में पुत्र आयु विलक्षण प्रतिभा संपन्न पुरुष होगा। उर्वशी ने इस विषय पर गहराई से चिंतन किया। पुरुरवा के प्रेम के आगे पुत्र प्रेम फीका पड़ गया। उर्वशी स्वार्थी होकर सोचने लगी। देवराज इंद्र उसे सदा के लिए पृथ्वी पर तो रहने नहीं देंगे। उसे तो जाना ही होगा देवलोक। किंतु यदि अभी पुत्र आयु राजमहल में आ जाए और पुरुरवा उसे देख ले तो फ़िर तो उसे तत्काल देवलोक प्रस्थान करना होगा । जबकि वह दीर्घ समय तक पुरुरवा के साथ रहना चाहती है। अभी तो प्रेम पुष्प खिला ही है। अभी तो उसकी सुगंध भी वह ठीक से नहीं ले पाई, अभी तो उसके सौंदर्य पर मुग्ध होना है ,अभी तो उसके कोमल स्पर्श को हृदय में उतारना है ।वह अभी अपने पुरू से विलग नहीं हो सकती ।सोचते हुए उर्वशी सूर्य के प्रकाश में उद्यान की ओस भीगी दूर्वा पर टहल रही थी।
महारानी भी चिंतन में डूबी थीं। महाराज ने अब उर्वशी को अपना ही लिया है। वे वर्ष भर गंधमादन के अरण्य महल में उसके साथ रहे । उससे पुत्र उत्पन्न किया जो वह इतने वर्षों में भी महाराज के साथ रहते हुए नहीं कर पाई ।विचारों का मंथन उन्हें उद्वेलित कर रहा था ।वह किसी भी तरह उर्वशी से कम नहीं है ।कमी बस यही है कि वह निपूती है और निपूती औरत तो अधूरी कहलाती है ।बस इसी एक जगह तो बाजी मार ले गई उर्वशी ।कुछ भी कहने लायक छोड़ा ही नहीं उसने ।तब क्या करें?अपना लें उर्वशी को ?नहीं भी अपनाएँगी तो महाराज उसे त्याग तो नहीं देंगे ।इतने वर्ष महाराज ने संयम पूर्वक जीवन व्यतीत किया था और राजमाता इला के प्रयत्नों के बावजूद भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया था। राजमाता इला प्रायः कहती - "यह कैसा हठ है तुम्हारा ?क्या राजा दूसरा विवाह नहीं करते? इसमें अनहोनी जैसी बात तो नहीं ।क्या तुम अपने वंश को आगे नहीं बढ़ाना चाहते? क्या तुम पितृ ऋण से मुक्त नहीं होना चाहते ?"
पुरूरवा मौन रहते। इन प्रश्नों के उत्तर नहीं है उनके पास। "मौन क्यों हो? तुम्हारे भाग्य में पुत्र है, किंतु पुत्र आगमन के व्यवधान को तुम्हें ही हल करना है।"
राजमाता इला अपने कथन पर दृढ़ थीं।
पुरुरवा ने अत्यंत नम्रता से कहा -"माताश्री, प्रत्येक बात का समय निर्धारित है। यदि मेरे भाग्य में पुत्र है तो उसे आने से कोई नहीं रोक सकता ।"
"सत्य है पुत्र, किंतु प्रयत्न करना भी तो मनुष्य का कर्तव्य है।" राजमाता इला के कथन से पल भर मौन रहे पुरूरवा। उन्हें उनकी व्याकुलता में कोई अतिशयोक्ति नहीं लग रही थी। अतः पुरुरवा ने उन्हें धैर्य बंधाया - "प्रभु की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता माताश्री। आप निश्चिंत रहें ।जब मेरे भाग्य में पुत्र है तो मार्ग भी वही बताएँगे। मैंने सब कुछ प्रभु को सौंप दिया है। मैं उनकी शरण में हूँ।"
महारानी पुरुरवा की ओर से आश्वस्त तो थीं कि वे कभी उससे दूर नहीं जा सकते। विलग नहीं हो सकते। किंतु राजमाता इला के पुरुरवा से कथोपकथन उन्हें विचलित भी कर देते थे। वे अपनी कमी तीव्रता से महसूस करतीं। उन्हें लगता कहीं सत्य ही वंश बेल आगे नहीं बढ़ी तब? यही सोचते सोचते वर्षों बीत गए।
राजमाता तो अपने पौत्र का मुख देखे बिना ही संसार से चली गई ।इस बात की पीड़ा महारानी को कम नहीं। वे अपने भाग्य को दोषी मान धैर्य रखे रहीं। राजमहल पुत्र की किलकारियों से उसकी तोतली बोली से वंचित ही रहा। राजकाज कहाँ रुकता है ।किंतु महारानी को हर समय चिंता सताती रहती कि उनके और पुरुरवा के स्वर्गवास के पश्चात उनका तो कोई नाम लेवा ही न रहेगा। पूर्वजों द्वारा अर्जित किए अपार कोष और राज सिंहासन के लिए तो लूटमार आरंभ हो जाएगी।
सोचते सोचते व्याकुलता के चरम पर पहुँच गई वे। यह सत्य है कि उन्होंने महाराज को निस्वार्थ भाव से असीमित प्रेम किया है। वे सोच भी नहीं सकती कि एक समय ऐसा आएगा जब उनकी सुहाग सेज का बंटवारा होगा।
महाराज उनके हैं, उनके ही रहेंगे। किंतु यह उर्वशी! किस कारण महाराज उर्वशी पर मोहित हुए और इतने अधिक कि उसके बिना एक पल भी व्यतीत करना उनके लिए मुश्किल हो गया। क्या एक बार भी उन्होंने नहीं सोचा कि उनकी विवाह कर लाई धर्मपत्नी औशिनरी का क्या होगा? क्या वह सहन कर पाएगी यह सब? दूसरे ही पल उन्होंने अपने व्याकुल मन को समझाया- ' राजघराने की कन्याओं की तो जन्म घुट्टी में यही बात पिला दी जाती है कि वह जिस राजा से ब्याही जाएगी उनके रनिवास का उन्हें सामना करना पड़ेगा। एक से अधिक रानियाँ रखना तो राजा की शान समझा जाता है। समृद्धि समझा जाता है। यह कैसा संसार का नियम है? क्या स्त्रियों की अपनी कोई भावना नहीं ?अपनी कोई मनोकामना नहीं ?क्या पुरुष पर एकमात्र उसकी पत्नी का ही अधिकार होना समाज के तथाकथित नियमों के विरुद्ध है? ओशीनरी क्यों आरंभ में उर्वशी के राजमहल में निवास का तर्क नहीं खोज पाई? पूरे वर्ष महाराज ओशीनरी से विलग हो गंधमादन के अरण्य महल में विहार करते रहे और ओशनरी उन दोनों के प्रेममय काम स्वरूप की बहती नदी की गहराई का पता नहीं लगा पाई। वे प्रयास अवश्य करती रही किंतु हर बार नदी का तट दूर होता गया, हर बार उन्हें असफल ही लौट आना पड़ा।
कक्ष के प्रकोष्ठ से दूर-दूर तक फैले प्रतिष्ठानपुर के साम्राज्य को अनिमेष, अपलक निहारती रहीं वे। अपने आप में लौटी तब
जब सेविका ने आकर महारानी से कहा - "क्षमा करें महारानी ,राजज्योतिषी विश्वमना जी आपसे मिलना चाहते हैं।"
महारानी को आश्चर्य हुआ ऐसी क्या आवश्यकता आ गई कि विश्वमना उनसे उनके कक्ष में एकांत में मिलना चाहते हैं !उन्होंने सेविका से कहा- "उन्हें आदर पूर्वक कक्ष में ले आओ।"
विश्वमना तो कक्ष के बाहर प्रतीक्षा ही कर रहे थे।क्षण भर भी विलंब किए बिना वे कक्ष में आ गए। विश्वमना को देखते ही महारानी ने कहा - "बिराजिये , निःसंदेह विषय आवश्यक होगा। बताएँ।"
विश्वमना बड़े संकोच से आसन पर बैठे। थोड़ी देर के मौन के बाद उन्होंने कहा- "महारानी अन्यथा न लें। अत्यंत हर्ष का विषय है कि प्रतिष्ठानपुर को उसका उत्तराधिकारी मिल चुका है किंतु देवी उर्वशी महाराज की विवाहिता नहीं है ।"
महारानी के मन में संदेह जागा। कहना क्या चाहते हैं विश्वमना ।
"आप निःसंकोच कहिए। मैं सुनने को उत्सुक हूँ।"
"महारानी मुझे कहना तो नहीं चाहिए। किंतु अविवाहित स्त्री का पुत्र तो अनैतिक ही हुआ न। राजगद्दी पर उसका अधिकार मात्र इसलिए कि वह महाराज पुत्र है पर्याप्त नहीं है। धर्म के विरुद्ध है यह।"
विश्वमना सत्य कह रहे हैं। यह धर्म के विरुद्ध ही आचरण होगा। सोचा महारानी ने ।
"महारानी इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है कि महाराज उर्वशी से विवाह कर लें। यह आपके लिए कठिन है पर आवश्यक भी है ।
कल प्रातः मंदिर में सूक्ष्म रूप से महाराज उर्वशी को अपनी पत्नी स्वीकार कर लें और पुत्र को उसके अधिकारों से सम्पन्न करें।"
विश्वमना के कथन से महारानी विचलित अवश्य हुई। किंतु शीघ्र स्वयं को संभाल लिया उन्होंने। यह अवसर स्वयं के विषय में सोचने का नहीं है। यह अवसर प्रतिष्ठानपुर की प्रतिष्ठा और उत्तराधिकारी की नैतिकता का है। उन्होंने दृढ़ता से कहा- "आप ठीक कह रहे हैं विश्वमना जी। मैं महाराज को इस विषय में सूचित करती हूँ। आप विवाह का मुहूर्त निकलवा कर प्रारंभिक तैयारियाँ आरंभ करें ।"
"जी महारानी ।"
विश्वमना आसन से उठे।
"आप धन्य हैं महारानी ।"कहते हुए हाथ जोड़कर उन्होंने शीश नवाया और कक्ष से बाहर चले गए।
महारानी विश्वमना के प्रस्ताव पर विचार करते हुए गवाक्ष से लगकर खड़ी हो गईं। मन की गति न स्थिर थी न अस्थिर । वे स्वयं के लिए अस्थिर चित्त थीं किंतु चंद्रवंश के लिए कदाचित स्थिर। कि उनकी मनोकामना इस रूप में पूर्ण हुई।
एकाएक वे गवाक्ष से हटकर रत्न जवाहरात के स्वर्ण जड़ित पिटारे की ओर बढ़ीं। पिटारे का ढक्कन हटाते ही रत्नों की जगमगाहट से कक्ष में मानो आकाश से सैकड़ो चंद्रिकाएँ उतर आईं । ये आभूषण राजमाता ने उन्हें मुंह दिखाई में दिए थे। इन आभूषणों को पहनकर वह किसी अप्सरा से कम न लगतीं। अब यह उर्वशी के अंगों की शोभा बढ़ाएँगे ।
किंतु इन आभूषणों को उर्वशी को देना क्या उचित होगा?
इन आभूषणों पर तो उन्हीं का अधिकार है। कैसा अधिकार? जब पत्नी होने का अधिकार महाराज ने उर्वशी को दे दिया तो ये आभूषण भला किस श्रेणी में आते हैं?
आभूषणों को लेकर वे उहापोह की स्थिति में थीं। सोच नहीं पा रही थी कि आभूषण दें या उर्वशी के लिए स्वर्णकार को बुलाकर नए आभूषण ही क्रय कर लें।
दीर्घ समय तक सोच विचार के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वे यही आभूषण उर्वशी को देंगी। उर्वशी ने प्रतिष्ठानपुर को उत्तराधिकारी दिया है और इन आभूषणों पर उसी का अधिकार बनता है।
दूसरे ही पल उनके मन में विचार आया कि उर्वशी जो स्त्री नहीं अप्सरा है। क्या महाराज उसे मेरे जैसी अर्धांगिनी का स्थान देंगे ?क्या वह इस राज महल की रानी का पद संभाल पाएगी?
मन में उठे प्रश्नों को परे ढकेल उन्होंने स्वर्ण थाल में आभूषण एक-एक कर रखे और उसे थालपोश से सज्जित कर तिपाई पर रख दिया। उनके नेत्र अश्रु बूंदों को रोकने में असमर्थ हो रहे थे। कैसा दुर्भाग्य कि उन्हें स्वयं अपनी सौतन की सेज सजानी पड़ेगी ।उन आभूषणों से सज्जित करना होगा जिस पर एकमात्र उनका अधिकार है। एकमात्र अधिकार तो महाराज पर भी है उनका किंतु उनका अधिकार बंट गया। दो भागों में विभक्त हो गया। अब वे इस विभक्त अधिकार का करेंगी क्या !उन्होंने आहत निःश्वास ली और अपने आसन पर बैठ गईं।
तभी निपुणिका और मदनिका ने साथ साथ कक्ष में प्रवेश किया। निपुणिका के हाथों में मेवों वाला दूध और फलों का पात्र था-
"कुछ खा लीजिए महारानी, आपने सुबह से कुछ खाया नहीं है ।"
वे कक्ष में आकर आसन पर बैठ गई।
"सेविका से ज्ञात हुआ कि आपने आज जलपान नहीं किया। अब तो दोपहर के भोजन का समय हो गया है ।"
निपुणिका ने फलों का पात्र महारानी की ओर बढ़ाते हुए कहा - "मन नहीं है निपुणिका।अब तो भोजन ही करूंगी महाराज के साथ ।"
"महाराज को अभी राजसभा में थोड़ा समय और लगेगा। इतनी देर भूखे न रहें महारानी। स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।"
मुंह लगी सेविका निपुणिका के कथन पर ध्यान न देते हुए महारानी ने मदनिका से पूछा - "मदनिका देखो उस तिपाई पर बड़ा थाल रखा है। थाल यहाँ ले आओ।"
मदनिका ने आदेश का पालन करते हुए पूछा -"क्या है इसमें महारानी?"
महारानी ने थाल पर ढका मखमल का थालपोश हटाने को कहा।
आभूषणों और राजसी वस्त्रों से भरे थाल को देखते ही मदनिका और निपुणिका ने एक साथ प्रश्न किया - "ये सब किसके लिए महारानी?"
"छोटी रानी उर्वशी के लिए।" महारानी ने धीमे से कहा।
"छोटी रानी? वे हमारी छोटी रानी कैसे हो सकती हैं? क्या यह महाराज का आदेश है ?"
"यह ईश्वर का संकेत है। यह कार्य बहुत पहले हो जाना था। किंतु मैं ही नहीं समझ पाई, न महाराज को। न उर्वशी को और देखो बात कहाँ तक पहुँच गई। उर्वशी माँ भी बन गई महाराज के पुत्र की। यह बहुत सुखद समाचार है। चंद्रवंश का वंश वृक्ष बढ़ाने के लिए उर्वशी का सहयोग प्रशंसनीय है। किंतु वह महाराज की विवाहिता नहीं है ।अतः महाराज को उससे विवाह करना ही होगा और जब विवाह हो जाएगा तो
उर्वशी छोटी रानी हुई न।" कहते हुए महारानी के मुख की आभा पल भर को फीकी पड़ी। फ़िर यथावत हो गई ।
इस समाचार से दोनों पहले से ही अवगत थीं। फ़िर भी अधीरता दिखाते हुए पूछा-
"किंतु हमारे राजकुमार हैं कहाँ ?उन्हें इस महल में महाराज क्यों नहीं लाए?" "तुम्हारे राजकुमार के महल में प्रवेश के लिए अभी अनुकूल समय नहीं है। समय अनुकूल होते ही तुम उनके दर्शन कर सकोगी।"
"हम व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे हैं महारानी। हमारे राजकुमार, आहा ,ईश्वर शीघ्र वह दिन दिखाएँ।"
कहते हुए दोनों ने महारानी के चरण स्पर्श किए।
"बधाई महारानी, माता बनने की बधाई। अब आप शीघ्रता से यह दूध पी लीजिए। तब तक मैं भोजन कक्ष की व्यवस्था देखकर आती हूँ।"
मदनिका के आग्रह पर महारानी ने दूध पी लिया फ़िर निपुणिका से बोलीं - मेरे साथ उर्वशी के कक्ष में यह थाल लेकर चलो।"
उर्वशी गवाक्ष पर खड़ी उद्यान में फुदकती चिड़ियों को देखकर आनंदित हो रही थी। निपुनिका ने कक्ष में प्रवेश करते हुए कहा- "महारानी पधार रही हैं देवी उर्वशी।"
उर्वशी गवाक्ष से हटकर कक्ष के बीचों बीच रखे सिंहासन नुमा आसन की तरफ़ आई। कक्ष में अतिथियों के लिए ही आसन रखे गए हैं । जो सिंहासन से किसी भी प्रकार कम नहीं हैं। उर्वशी ने महारानी का स्वागत करते हुए कहा- "आईए महारानी, स्वागत है।"
महारानी के बैठने के पश्चात उर्वशी बैठी ।महारानी ने थाल में रखे वस्त्र और आभूषण उर्वशी को देते हुए कहा - "उर्वशी अब तुम राज परिवार में सम्मिलित हो ।महाराज की विशेष पसंद बल्कि कहूँ कि उनकी प्रेयसी।"
"प्रेयसी तो आप भी है महारानी। धर्मपत्नी भी प्रेयसी भी।"
उर्वशी के कथन पर महारानी ने नेत्र झुका लिए। क्या स्वयं को पराजित अनुभव करते हुए या...
"महारानी मेरी उपस्थिति से आप विचलित न हों ।मैं तो उस ऋतु की तरह हूँ जो कभी स्थिर नहीं रहती। आती है और चली जाती है। महारानी मैं आपके साथ एकांत चाहती हूँ।"
महारानी का संकेत पाते ही निपुणिका कक्ष से बाहर चली गई ।उर्वशी महारानी के समीप के आसन पर बैठ गई। "महारानी मैंने पुरुरवा से अत्यधिक प्रेम किया है। मैं उनके लिए सब कुछ त्याग सकती हूँ। फ़िर चाहे वह मेरा जीवन ही क्यों न हो।मैंने अपने मन के तिमिर में उन्हें उगते हुए सूर्य की तरह बसाया है। जो कभी अस्त नहीं होगा। आप जानती हैं महारानी प्रेम की आध्यात्मिक शक्ति? हमारा प्रेम शरीर के धरातल तक ही सीमित नहीं है ।हमारा प्रेम प्राण और आत्मा के अंतरिक्ष में विचरण करता है। तभी तो प्रेम चिर युवा है ।"
उर्वशी के वक्तव्य को महारानी ने आत्मसात करते हुए कहा- "उर्वशी तुम परम विदुषी हो। इसीलिए अंतर कर पा रही हो देह, आत्मा और प्रेम में। किंतु मैं तीनों को समेट कर देखती हूँ। इन तीनों के समन्वय के बिना प्रेम संभव ही नहीं। तुम देवलोक से भूलोक में आई वह स्त्री हो जो देश काल से परे निरंतर है। आत्मतंत्र यौवन की नित्यप्रभा हो। तुम चिर कुमारी हो। मेरा तुम्हारा तो आपस में कोई तालमेल ही नहीं ।क्योंकि मैं मनुष्य के जीवन के चार काल के वशीभूत हूँ। बालिका से युवती , युवती से प्रौढ़ और प्रौढ़ से वृद्ध ।इस भूलोक पर प्रेम का पक्ष निश्चित किए समय तक ही है। यही हाल आकर्षण और कामवासना का है। यह सब तर्क का विषय है उर्वशी। भोजन का समय हो चुका है अतः इस विषय के लिए हम फ़िर कभी संगत करेंगे।" महारानी ने निपुणिका को पुकारा ।इस बार निपुणिका के साथ अपाला भी थी।
अभी उर्वशी महारानी के वक्तव्य पर विचार कर ही रही थी कि महारानी ने कहा
"ध्यान चाहूँगी उर्वशी, आज से तुम्हारी विशेष सेविका रहेगी अपाला।"
उर्वशी ने देखा एक आकर्षक युवती उसकी सेविका के रूप में खड़ी मंद मंद मुस्कुरा रही है ।महारानी ने वस्त्रों और आभूषणों के थाल की ओर संकेत करते हुए कहा-
"यह सब तुम्हारे लिए हैं उर्वशी। महाराज शीघ्र ही तुमसे विवाह करेंगे। तब तुम इन वस्त्रों और आभूषणों को धारण करके" ...
कहते कहते महारानी का गला भर आया था। अतः आगे का वाक्य अधूरा ही रह गया, जिसे पूरा किया निपुणिका ने
"तब आप हमारी छोटी रानी कहलायेंगी।"
उर्वशी का हृदय महारानी के प्रति सम्मान और स्नेह से भर उठा। अगर महारानी की जगह वह होती तो वह कभी भी अपने पति के विवाह की बात नहीं कर सकती थी। यही तो अंतर है देवलोक और भूलोक की स्त्रियों में। उर्वशी अपने को रोक नहीं पाई। वह महारानी के गले लगकर बोली- "धन्य है आप महारानी। मैं तो आपके चरणों की धूल तक नहीं।"
महारानी ने उर्वशी की पीठ को थपथपाया - "तुम मेरे लिए अद्वितीय हो। क्योंकि तुमने वह काम किया है जो इतने वर्षों से मैं न कर सकी। अब तो तुम मेरी प्रिय सखी हो।"
"महारानी"कहते हुए उर्वशी पुनः प्रगाढ़ता से उनके आलिंगन में बंध गई।
यह समय दोनों के भावनात्मक बंधन का था जिसमें पुरुरवा की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण थी। दोनों के हृदय पर एक ही पुरुष का शासन था और वह थे पुरुरवा।
"मैं चलती हूँ । अपाला तुम्हें भोजन कक्ष में ले आएगी।
महाराज भी आते ही होंगे।" महारानी के प्रस्थान करते ही उर्वशी को लगा जैसे आकाशीय दामिनी कुछ पल की चमक दिखाकर लुप्त हो गई। वह महारानी के तेजस्वी व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक थी।