उर्वशी पुरूरवा / भाग 13 / संतोष श्रीवास्तव
भोजन कक्ष में उर्वशी को राजसी परिधान में देख पुरुरवा ने बेहद स्नेह से महारानी की ओर देखा। महारानी उनकी हर चेष्टा, पसंद नापसंद की कितनी परवाह करती हैं ।महारानी की जगह और कोई दूसरी स्त्री होती तो कदाचित उर्वशी को मन से स्वीकार नहीं कर पाती किंतु महारानी ने पुरुरवा का पूरा ध्यान रखा ।उन्हें शिकायत देने का अवसर नहीं दिया। वे मन ही मन महारानी के प्रति धन्यवाद सहित अगाध प्रेम से भर उठे।
भोजन सदा की तरह सुस्वादु था ।भोजन के बीच पुरूरवा मौन रहे। वे सदा मौन रहकर ही भोजन करते हैं ।भोजन समाप्त कर उन्होंने महारानी से कहा - "महारानी, आपने राजपुरोहित से पुत्र की मंगल कामना के निमित्त हवन का मुहूर्त तो निकलवा लिया न?"
"जी महाराज ,आश्विन मास चल रहा है। पुरोहित जी ने कोजागिरी पूर्णिमा का मुहूर्त बताया है।"
"अति उत्तम, कुछ ही दिन शेष है। आप तैयारी आरंभ कर दें। हमने अपने पुत्र के दर्शन नहीं किये किंतु उसकी मंगल कामना तो कर सकते हैं ।"
महारानी ने पुरुरवा से इस बात का उल्लेख नहीं किया कि राजपुरोहित ने उन्हें बताया कि आपने जन्म तो नहीं दिया किंतु आप ही माता होने का सौभाग्य प्राप्त करेगी।
उन्होंने तर्क किया था "क्यों ?पुरोहित जी उर्वशी तो जन्मदात्री है। फ़िर माता क्यों नहीं कहलाएगी वह।"
"यही देवी उर्वशी का प्रारब्ध है ।पुत्र सुख उन्हें नहीं मिलेगा। अन्यथा पुत्र उनसे विलग ही क्यों होता।"
महारानी भरत मुनि के शाप से अनभिज्ञ थीं। अतः उर्वशी क्यों नहीं पुत्र सुख पाएगी वह इस सोच में डूब गई। यही तो महारानी की विशेषता है कि वह प्रत्येक के विषय में सोचती हैं। प्रत्येक के सुख से सुखी और दुख से दुखी होती हैं। ऐसी ही उनकी प्रकृति है।
भोजन के पश्चात महारानी ने पुरुरवा से निवेदन किया - "महाराज ,विश्राम करने के बाद मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हूँ। क्या इसके लिए संध्या का समय ठीक रहेगा?"
"हाँ क्यों नहीं, संध्या को हम आपके कक्ष में आते हैं। तब तक आप भी विश्राम कर लें।"
कहते हुए वे उर्वशी के साथ अपने कक्ष की ओर चले गए ।महारानी अपने कक्ष में आते हुए विचार करती रहीं कि महाराज में कितना धैर्य है। उन्होंने इस विषय में कुछ उत्सुकता प्रकट ही नहीं की,कि वे कहना क्या चाहती है। क्यों उन्हें अपने कक्ष में संध्या को आमंत्रित किया है।
सूर्यास्त की नारंगी आभा राजमहल को स्वर्ण महल में परिणत कर रही थी । पखेरू चहचहाते हुए अपने नीड़ की ओर लौट रहे थे ।राजमहल के शत दीप स्तंभों को दीपों से प्रकाशित करने की तैयारी में सेवक इधर से उधर आ जा रहे थे। कभी भी राजमहल में अंधकार का प्रवेश नहीं हुआ। उसके पहले ही सेवक दीप स्तंभों को प्रकाश से भर देते थे।
जिस समय पुरुरवा ने महारानी के कक्ष में बिना किसी पूर्व सूचना के प्रवेश किया वे आसन पर बैठी दोनों हथेलियों पर चेहरा टिकाए सोच में डूबी हुई थीं। पुरूरवा ने देखा आज कक्ष की सज्जा ही परिवर्तित है। राजमहल में सबसे भव्य आलीशान कक्ष महारानी का ही है। इस कक्ष की साज सज्जा महारानी की रुचि के अनुरूप की जाती है ।इसी कक्ष में पहली बार पुरुरवा महारानी से मिले थे। महारानी के सौंदर्य से जगमगाते इस कक्ष में प्रथम रात्रि पुरुरवा की यादों में चिरस्थाई है। वर्षों बीत गए न महारानी के सौंदर्य में कमी आई न कक्ष की भव्यता में।
पुरुरवा को कक्ष में प्रवेश करते देख महारानी आसन छोड़ कर उठीं - "आईए महाराज बिराजिये।"
पुरुरवा के बाजू वाले आसन में ही महारानी भी बैठ गईं।
"कुछ लेंगे महाराज?"
"नहीं ,तुम्हारे विशेष आमंत्रण पर मैं समय से पूर्व आ गया । जिज्ञासा जो थी।"
महारानी हल्के से मुस्कुराई। मन में सोचा मेरे लिए तो मेरा हर पल आपके लिए विशेष आमंत्रण ही है।
प्रगट में बोलीं - "महाराज एक निवेदन है। आप आग्रह भी कह सकते हैं। किंतु समय की यही मांग है।"
"कहिए महारानी, मैं उत्सुक हूँ जानने को।"
पुरुरवा ने भी मानो आग्रह ही किया ।
"महाराज, मेरा सौभाग्य है कि मैं माता बन गई हूँ। भले ही पुत्र को उर्वशी ने जन्म दिया। किंतु है तो वह प्रतिष्ठानपुर का उत्तराधिकारी। राजगद्दी का असली वारिस किंतु...
पुरुरवा विचलित हुए - "किंतु! किंतु क्यों महारानी ?क्या कोई संदेह है आपको?"
नहीं, संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। किंतु पुत्र भी विधान पूर्वक पुत्र नहीं है। उसे वैधानिक स्थान प्रदान करने के लिए आपको उर्वशी से विवाह करना होगा।"
चकित थे पुरूरवा । किस मिट्टी से बनी है औशिनरी! उनका हृदय असाधारण ओशीनरी के प्रस्ताव से द्रवित हो गया। धन्य है ओशीनरी जो अपने ही पति के साथ किसी अन्य स्त्री के विवाह का प्रस्ताव स्वयं रख रही है। सत्य है स्त्री के चरित्र की गहराई जानना देवताओं के लिए भी संभव नहीं ।फिर मैं तो साधारण मनुष्य हूँ। सोचा पुरुरवा ने। महारानी को पुरुरवा का मौन उनकी स्वीकृति लग रहा था ।उन्होंने कहा - "महाराज पुत्र की मंगल कामना के लिए जो हम हवन करेंगे उसकी पूर्व संध्या आप विवाह कर लें ।ताकि उर्वशी को आपकी पत्नी होने का अधिकार मिल जाए। वह भी हवन में आहुति दे सके।"
पुरुरवा निःशब्द थे। उनकी दृष्टि में महारानी का स्थान और भी उच्च होता जा रहा था ।उन्होंने महारानी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा - "आप धन्य है औशीनरी ।आपको पाकर मैं भी धन्य हुआ ।
और अति शीघ्र आसन से उठ वे कक्ष से प्रस्थान के लिए उद्यत हुए। फ़िर पल भर रुक कर कहा - "बस इतना आग्रह है ,हवन में आप मेरे साथ बैठेंगी ।"
महारानी के लिए तो पुरूरवा का यह कथन वरदान जैसा था। पुरुरवा के कक्ष से प्रस्थान करते ही वे आँख मूंदकर ईश्वर का स्मरण करने लगीं।
राजमहल के भव्य प्रांगण में
पुरुरवा और उर्वशी का विवाह संपन्न हुआ। महारानी के द्वारा प्रदान किए गए आभूषणों और राजसी वस्त्रों में उर्वशी अत्यंत रूपवती दिखाई दे रही थी।महारानी के चेहरे पर किसी भी प्रकार के ऐसे भाव प्रकट नहीं हो रहे थे जिन्हें देखकर कोई कहे कि महारानी को इस विवाह से दुख हुआ है ।स्वयं पर क़ाबू करना, अपने दुख को अपने तक सीमित रखना महारानी को ख़ूब आता है।
उन्होंने उर्वशी और पुरुरवा को बधाई देते हुए कहा - "बधाई उर्वशी अब तुम इस राजमहल की रानी और महाराज की परिणीता हो। अब हमारे सुख-दुख एक हैं। हमारे उद्देश्य एक हैं जिन पर हमें साथ-साथ जीवन भर चलना है।"
पुरुरवा ने महारानी के सामने हाथ जोड़े - "निश्चय ही महारानी।"
उर्वशी ने भी महारानी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। अपाला उसे उसके कक्ष में ले गई।
महारानी निपुणिका और मदनिका के साथ चौदहवीं के चंद्र की शोभा देखते हुए अपने कक्ष में आ गईं और पुरुरवा को राज विदूषक संगीत कक्ष की ओर ले गया।
"रानी उर्वशी आपके लिए नई नवेली तो है नहीं। अतः संगीत कक्ष चलकर नृत्य का आनंद लें महाराज।"राज विदूषक का कथन पुरुरवा को कटाक्ष जैसा लगा।
किंतु आज के दिन वे किसी भी आपत्तिजनक बात को गहराई से नहीं ले रहे थे उन्होंने भी राज विदूषक को उसी के कटाक्ष में लपेटते हुए कहा - "तुम्हें ईर्ष्या हो रही है मेरे भाग्य पर? यह तो अनुचित है प्रिय मित्र।"
राजविदूषक झेंप गया। आकाश में चंद्र बिल्कुल एकाकी प्रकाशमान था। सितारे अपने मद्धिम प्रकाश को लेकर चंद्र के आगे नतमस्तक थे।
दूसरे दिन विवाह की वेदी पुत्र की मंगल कामना के हवन के कुंड के रूप में परिणत हो गई।
संध्या ढलते ही पूर्व दिशा में बड़े थाल बराबर चंद्र उदित हो गया। महारानी के आराध्य देव चंद्र। बाल्यावस्था से ही महारानी चंद्र की उपासक हैं। प्रत्येक पूर्णिमा को वह चंद्र की विशेष पूजा-अर्चना कर खीर का प्रसाद चढ़ाती हैं फ़िर आज तो कोजागिरी पूर्णिमा है। वर्ष भर की 12 पूर्णिमा में सबसे विशेष और सबसे अधिक सुंदर कोजागिरी की रात्रि प्रकृति का सौंदर्य देखते ही बनता है। अश्विन और कार्तिक की संधि वेला में प्रकृति मानो सौंदर्य का भंडार लुटा देती है। रंग-बिरंगे पुष्पों से प्रत्येक उद्यान और वन प्रदेश का प्रत्येक वृक्ष लद जाता है। निर्मल पावन गंगा नदी की उर्मियों पर से बहती हुई हवाएँ जब राजमहल में महारानी के कक्ष में पहुँचती है तो शीतलता से कक्ष भर जाता है। महारानी अपने पर्यंक पर बैठी बाहें फैलाकर उन शीतल हवाओं को मानो अपने अंक में भर लेना चाहती हैं। हवाओं के संग कोई पुष्प पंखुड़ी उड़कर उनके रेशमी बालों में दुबक जाती है। तो वे सिहर जाती हैं। जैसे कार्तिक स्नान के पावन पर्व पर माताश्री गंगा स्नान कर अपनी लाड़ली कन्या औशीनरी को जगाने आई है। इसी तरह तो वात्सल्य से उनके बालों पर हाथ फेरती माताश्री पत्ते का दोना आगे बढ़ाती थीं।दोने में प्रसाद रूपी पुष्प होते थे जिन्हें वह अपने माथे से स्पर्श कर आशीर्वाद लेती थीं। माता कहती थी - "सदा सुहागन रहो। पुत्रवती, सौभाग्यवती, दीर्घायु हो।"
एकाएक महारानी उदास हो गईं। मन ही मन बुदबुदाई " माता तुम्हारा पुत्रवती होने का वरदान फलीभूत क्यों नहीं हुआ? कहाँ कमी रह गई माता? तुम्हारे वरदान में या मेरे प्रारब्ध में?
विचारों का प्रवाह निपुणिका के कक्ष में प्रवेश से रुक गया ।महारानी एक बार चलकर हवन की तैयारी देख लें। कहीं कोई कमी न रह जाए। पाकशाला में चलकर खीर का प्रसाद भी देख लें। राज रसोईये ने बड़े-बड़े रजत पात्रों में खीर भरकर ऊपर से कटे मेवे और केसर की परत चढ़ा दी है। पूजन भोग के लिए अन्य मिष्ठान्न भी देख लें ।"
"अरे कितना बोल रही हो निपुणिका ।मेरा चलकर देखना आवश्यक नहीं है। मोदक के लिए बेसन के भुनने की सुगंध यहाँ तक आ रही है और फ़िर तुम्हारी पारखी नजरों से कुछ नहीं छूट सकता। ज्ञात है मुझे।" "महारानी" अपनी प्रशंसा से गदगद होते हुए निपुणिका ने आग्रह किया - "चलिए पूजन स्थल पर राजपुरोहित आ चुके हैं।"
महाराज और उर्वशी को सूचना भिजवा दो। विलंब न करें वे। पूजा का मुहूर्त निश्चित है ।"
"महारानी, सेवकों द्वारा सूचना अब तक मिल गई होगी। मैंने आपके कक्ष की ओर आते हुए देवी उर्वशी और अपाला को पूजन स्थल की ओर जाते देखा। वह मुझे नहीं देख पाई। मैं वृक्षों की ओट में चल रही थी न।"
निपुणिका के साथ महारानी शीघ्रता से पूजन स्थल की ओर चल दीं ।पुरुरवा और उर्वशी पहुँच चुके थे। राजपुरोहित कलावे में रोली चंदन लगा रहे थे।
"पहली बार संध्या में हवन का मुहूर्त निकला है ।"
"महाराज यह हवन चंद्र देव के निमित्त ही है। अतः चंद्रोदय का ही मुहूर्त निकाला है ।"कहते हुए राजपुरोहित ने पुरुरवा, महारानी और उर्वशी को पूजन के लिए उचित आसन दिए। राजमहल के सभी सदस्य प्रांगण में बिछी दरी पर बैठ गए। पारिवारिक हवन था। अतः बाहर के किसी भी व्यक्ति को आमंत्रित नहीं किया गया था। जब पूजा संपन्न हुई। चंद्र आसमान में काफ़ी ऊपर चढ़ चुका था। हवन में सभी ने आहुतियाँ दी। पूर्णाहुति के पश्चात चांदनी की उज्जवलता में सभी ने प्रसाद ग्रहण किया। ऐसा हवन पूजन इससे पहले राजमहल में कभी नहीं हुआ था। यह हवन इस बात का संकेत था कि राजमहल में शीघ्र ही ख़ुशियों के दिन आने वाले हैं ।जब बधाईयों का तांता लगेगा और राजमहल राजकुमार के चरण चिन्हों से चर्चित होगा।
हवन के पश्चात पुरुरवा उर्वशी के साथ अपने कक्ष में चले गए।
निपुणिका महारानी को उनके कक्ष की ओर ले जाने के लिए आगे बढ़ी किंतु महारानी ने रोक दिया- "मैं अभी थोड़ा समय उद्यान में व्यतीत करना चाहती हूँ। तुम जाओ।"
निपुणिका ने चिंतित स्वर में कहा -"महारानी रात्रि आरंभ हो चुकी है। ऐसे में आप उद्यान में एकाकी? मैं भी चलूंगी आपके साथ।"
"कहा न, एक घड़ी के लिए मुझे अकेला छोड़ दो। मैं चंद्र दर्शन का पुण्य लाभ लेना चाहती हूँ ।"
निपुणिका ने महारानी को उद्यान के हिंडोले में ले जाकर बिठाया-
"आज आपने व्रत रखा है। मैं फलाहार लेकर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।" कहती हुई निपुणिका ने प्रस्थान किया ।उद्यान के फलों ,पुष्पों से
लदे हरे भरे वृक्षों के बीच से मंद मंद समीर बहता हुआ महारानी के केशो को उड़ा रहा था ।उड़ते हुए केशो से घिरा महारानी का मुख अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहा था। उन्होंने उड़ते हुए केशों को समेट कर बाँधने का प्रयास नहीं किया। हिंडोले पर बैठी वे एकटक कोजागरी के चंद्र को देख रही थीं। आकाश में केवल चंद्र देव अपनी संपूर्ण उज्जवलता से विराजमान थे। उनकी किरणों की ज्योत्सना के आगे कहाँ सितारे चमकेंगे ?ऐसा लग रहा था जैसे आकाश की विशाल बाहों में चंद्र देव शिशु के समान दुबके हैं।
एकाएक उन्हें लगा वे आकाश से अपनी किरणों के सोपान से उतरते हुए उद्यान में आकर साक्षात उनके सम्मुख खड़े हैं। वे मूर्तिवत उन्हें निहारने लगीं ।हिंडोले से उठकर वे खड़ी हो गईं - "अहोभाग्य, मेरे आराध्य देव ,कृपया हिंडोले पर विराजिये।"
चंद्र देव मुस्कुराए -"देवी औशीनरी, तुम्हारे वात्सल्यमय मुख पर चिंता की रेखाएँ क्यों ?"
"देव ,जब से हम विवाहित होकर इस राजमहल में आए तब से महाराज पर हमारा एकाधिकार था किंतु"...
"अब उस अधिकार को खंडित हुआ अनुभव कर रही हो देवी ओशीनरी? राजमहल की विवाहिताएँ स्वार्थी नहीं होती। फ़िर तुम कैसे?"
"जानती हूँ देव ,स्त्री चाहे राजमहल में हो या झोपड़ी में, भाग्य तो उसका एक जैसा ही होता है। उसके तो जन्म घुट्टी में पिला दिया जाता है , पति चाहे कितनी ही स्त्रियों का स्वामी हो उसे पतिव्रता ही रहना है सदा ।"
"इतना ज्ञात होने पर भी तुम व्याकुल क्यों? इसे अपना प्रारब्ध मानकर स्वीकार करो ।"
"देव स्वीकार कर लिया है हमने। उर्वशी को छोटी रानी के रूप में स्वीकार कर लिया है ।वह माता भी बन चुकी है। किंतु उसका पुत्र न महाराज ने देखा न हमने, न ही वह अभी तक राजमहल में आया। यह कैसी विडंबना है देव?"
"धैर्य रखना होगा देवी, अनुकूल समय आने पर तुम पुत्र मुख भी देख सकोगी।"
"किंतु कब?
"तुम मेरे पूर्ण स्वरूप को देखने के लिए एक-एक कला को बढ़ते देखती हो न? जब 16 कलाएँ मेरे स्वरूप को पूर्ण चंद्र बनाती हैं तभी तो तुम मेरे दर्शन कर पाती हो ।"
"अर्थात! अर्थात 16 कलाओं तक प्रतीक्षा, 16 कला अर्थात 16 वर्ष!"
व्याकुल होकर पुकार उठी औशीनरी -
"देव, देव इतनी लंबी प्रतीक्षा न कराएँ हमसे, बहुत कठिन होगा इतने लंबे अंतराल तक पुत्र वियोग सहना।"कहती हुई महारानी चंद्र देव के चरणों की ओर झुकी किंतु वहाँ चरण न थे। चंद्रदेव भी न थे। महारानी ने देखा चंद्रदेव पुनः आकाश में प्रतिष्ठित थे और उनकी ओर देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे।
अब प्रतिदिन पुरूरवा राजकाज से निवृत हो भोजन कक्ष में ही महारानी से मिलते थे। शेष पूरा समय वे उर्वशी के संग ही व्यतीत करते ।अब नृत्य शाला में बाहर की नृत्याँगनाओं का प्रवेश बंद था ।साजिंदों के आने पर भी रोक लगा दी गई थी ।संध्या समय पुरुरवा उर्वशी के संग नृत्य शाला में जाते हुए स्वयं वीणा बजाते और उर्वशी नृत्य करती। उर्वशी की दासी अपाला पुरुरवा के लिए सोम रस का पात्र बना कर देती और नृत्य शाला के कोने में खड़ी रहकर उर्वशी और पुरुरवा के आदेश की प्रतीक्षा करती।
महारानी का अधिकतर समय योग, ध्यान, उपासना में ही बीतता। वे स्वयं नहीं जानती कि यह परिस्थिति के साथ समझौता है या विरह वेदना में एक नए मार्ग की खोज। इस खोज ने उन्हें परम संतुष्टि दी है विरह को स्वीकार करते हुए उन्होंने नियति के संकेत को भी स्वीकार कर लिया है। महाराज उर्वशी के हो चुके हैं। उनके जीवन में औशीनरी का कोई स्थान नहीं रहा। अतः नियति को स्वीकार कर लेने में ही बुद्धिमता है। वह विरह में भी मिलन का आनंद लेने लगी। आत्मा की गहराई तक डुबकी लगाकर उन्होंने पाया कि यह विरह तो मिलन से भी अधिक आनंददायक है। विरह में उलाहना नहीं, अपेक्षा नहीं, व्यंग्य नहीं, कटाक्ष नहीं। केवल माधुर्य ही माधुर्य है। महाराज के साथ बिताए मधुर समय का स्मरण ही स्मरण है। इस विरह ने तो उन्हें महाराज के और निकट ला दिया। अंतरंग सखी बना दिया। प्रेम सूत्र को और अधिक दृढ़ करके प्रेम रस को छलका दिया। ये अनुभूतियाँ मिलन में कहाँ। सोचते सोचते वे अंतर्मन से हर्षित हो गई। महाराज के प्रति उपजे सारे उलाहने ,पीड़ा भूल वे स्वयं को पंख-सा भारहीन अनुभव करने लगी। यह विरह उन्हें उनके उद्देश्यों की ओर खींच रहा है ।वे नई ऊर्जा नये विश्वास से भर उठीं और सीधे बालिका भवन की ओर चल दी।
प्रतिष्ठानपुर की अनाथ कन्याओं के लिए उन्होंने राजमहल में ही बालिका भवन स्थापित किया था। जहाँ उनके मार्गदर्शन में बालिकाएँ विद्या अध्ययन करतीं। युद्ध अभ्यास करतीं तथा विभिन्न कलाओं में पारंगत होती। इस सभी के लिए उन्होंने योग्य अध्यापक एवं कला विशेषज्ञ नियुक्त किए थे। बालिकाओं की देखरेख के लिए सेविकाएँ भी थीं। इन बालिकाओं का समय आने पर प्रतिष्ठानपुर के ही बालको से विवाह भी कर देती थीं। जहाँ एक ओर महारानी समाज सेवा में तल्लीन हो इन बालिकाओं की माताश्री थीं। वहीं पुरुरवा और उर्वशी भोग विलास रस रंग में डूबे प्रेममय जीवन जी रहे थे। न पुरुरवा उर्वशी से तृप्त हो रहे थे न उर्वशी पुरुरवा से।
तृप्ति मनुष्य का जीवन स्थिर कर देती है। जैसे नदी का ठहरा जल। प्रवाहमान जल ही ताज़गी और ऊर्जा से पूर्ण होता है ।
उर्वशी का प्रयास रहता कि वह पुनः गर्भ धारण न करे क्योंकि यही तो उसके पुरुरवा से बिछोह का कारण होगा। राजमहल में रहते हुए वह जन्मे शिशु को छिपा भी नहीं सकेगी। इस विकट स्थिति से सामना न ही हो तो अच्छा।
मौसम आते रहे, जाते रहे। ऋतुए बदलती रहीं।
वन में आखेट ,वनभोज,विभिन्न दर्शनीय स्थलों एवं तीर्थ स्थलों की सैर करते हुए
कब उर्वशी के साथ के 15 वर्ष व्यतीत हो गए और 16वां वर्ष लग गया,पता ही न चला।
एक रात्रि पुरुरवा ने एक विचित्र स्वप्न देखा। प्रतिष्ठानपुर के नागरिक एक नया विचित्र प्रकार का पौधा लाए हैं। इस प्रकार का पौधा पुरुरवा ने कभी नहीं देखा था। नागरिक उस पौधे को महल के बाह्य प्रांगण में रोपकर जल से सींच रहे हैं । क्षण मात्र में ही वह पौधा पनप कर एक घना वृक्ष बन गया जिसकी पत्तियाँ मखमली थीं और उन पर पीले पुष्प थे।
वृक्ष की ऊर्ध्वमुखी शाखा वन में किसी आश्रम की ओर संकेत कर रही थी।
पुरूरवा संकेत की दिशा में आगे बढ़ चले।
एकाएक उन्होंने स्वयं को एक आश्रम में पाया। आश्रम के प्रांगण में देवी सुकन्या एक अत्यंत रूपवान बालक के संग खड़ी हुई पुरुरवा की ओर संकेत करते हुए बालक से कह रही हैं- "यही तुम्हारे पिताश्री हैं।इनके चरण स्पर्श करो।"
पुरुरवा बालक को हृदय से लगाए रो पड़े हैं ।
तभी उनका स्वप्न भंग हो गया और नींद खुल गई। पुरुरवा इस स्वप्न से इतने व्याकुल हो गए कि उनका मन प्रातः भ्रमण में भी न लगा। उर्वशी ने उनकी व्याकुलता का कारण पूछा तो उन्होंने वह स्वप्न उर्वशी को बताते हुए कहा - "काश, यह स्वप्न सत्य हो जाए और हमारा खोया हुआ बालक हमें वापस मिल जाए।"
उर्वशी स्वप्न सुनकर अत्यंत व्याकुल हो गई। निश्चय ही इस स्वप्न के विषय में पुरू महारानी को बताएँगे और महारानी... तो क्या पुरू से वियोग का समय आ गया? क्या भूलोक में उर्वशी का समय समाप्त हो गया ?
उर्वशी ने पुरुरवा का ध्यान भटकाया - "तुम्हारा पुत्र जन्म लेते ही लुप्त हो गया ।उसी का स्वप्न है यह। स्वप्न तो स्वप्न होते हैं ।मन में छिपी अतृप्त, अधूरी मनोकामना ही तो स्वप्न में दिखती है। इस स्वप्न को भूल जाओ पुरू।"
"नहीं उर्वशी, यह साधारण स्वप्न नहीं है ।अवश्य इसमें भावी घटना की ओर संकेत है। मैं राज ज्योतिषी विश्वमना से इस विषय में बात करूंगा। वही सही मार्गदर्शन देंगे।"
कहते हुए पुरूरवा। स्नान, पूजन के लिए चले गए। वहीं से वे जलपान ग्रहण कर राजसभा में प्रतिदिन जाते हैं। उसके पश्चात भोजन कक्ष में उर्वशी और महारानी के साथ भोजन करते हैं।
पुरुरवा के जाते ही उर्वशी इतनी अधिक व्याकुल हो गई कि कक्ष में अपने पर्यंक पर बेचैनी से करवटें बदलने लगी। पुरुरवा से सदा के लिए वियोग की बात वह सोच भी नहीं सकती थी। 16 वर्ष पुरुरवा के प्रेम में पगे पलछिन जैसे इन 16 वर्षों में अनुराग की,श्रृंगार रस की ऋतु वसंत ने राजमहल में ही डेरा डाला हो। वह रात्रि का प्रेम भरा संसार, वह पुरूरवा की वीणा के सुरों के संग थिरकती उर्वशी, कितनी संध्याएँ सरोवर किनारे शिला पर बैठकर संग - संग कमल पुष्प को निहारते बीती हैं। जब कमल पुष्प पर भ्रमर मंडराता तो पुरुरवा उसके तप्त अधरों पर अपने अधर रख देते। उर्वशी का रोम- रोम सिहर उठता ।कितनी बार नदी की छल - छल बहती उर्मियों में पांव डुबोए दोनों ढलते सूर्य की अनुराग भरी रश्मियों को देखते। प्रेम की ऐसी प्रगाढ़ता कि प्रकृति के हर कण में अनुराग ही अनुराग दृष्टिगोचर होता ।पुरुरवा बहुत प्रेम से कहते - "उर्वशी, तुम्हारे कोमल ग़ौर वर्ण के पांवों को कहीं कोई मीन अपना आहार न बना ले। मत डुबाओ इन पांवों को नदी के जल में। नदी भी तो विचलित हो रही है। देखो कितनी तीव्रता का बहाव है।" प्रेम के अतिरेक में उर्वशी उनके वक्षस्थल पर अपना सिर टिका देती। पुरुरवा उसके केशों में उंगलियाँ उलझाने लगते- "अहो उर्वशी, इस पल को हम रोक न लें ?
"मत सोचो पुरू, रोकने की क्षमता हममें नहीं । अतः बूंद बूंद इस पल को अपने भीतर समो लो। हमारा यह अभिसार ,यह द्वंद्व प्रेम की मीठी-मीठी चुभन ले जाएगा न उस ओर जहाँ भविष्य अपने होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
कई घड़ियों तक इन्हीं विचारों में मगन रही उर्वशी । अपाला ने आकर अनुरोध किया- "चलिए देवी ,महारानी प्रतीक्षा कर रही हैं भोजन कक्ष में ।महाराज राजसभा से भोजन कक्ष की ओर प्रस्थान कर चुके हैं।" उर्वशी बेमन से उठी। उसे पता है पुरुरवा स्वप्न के विषय में महारानी को बताएँगे। फ़िर विश्वमना से परामर्श किया जाएगा और फिर...
यही हुआ पुरूरवा से स्वप्न का वृत्तांत सुनकर महारानी के मुख पर स्मित भरा उल्लास झलका- "निश्चय ही महाराज, हमारे खोए हुए पुत्र से मिलन का संकेत है यह।
"अहो महारानी, कदाचित ऐसा ही हो। पुत्र के दर्शनों के लिए हम पल-पल व्याकुल हैं।" भोजन के पश्चात पुरुरवा ने अपने कक्ष में राज ज्योतिषी विश्वमना को बुलाया ।उस समय महारानी उन्हीं के कक्ष में थीं। किंतु उर्वशी अपाला के साथ अपने कक्ष में आ गई थी। स्वप्न सुनकर विश्वमना ने कहा- "महाराज बधाई, पुत्र मिलन का तीव्र संयोग है। ग्रह नक्षत्र सभी अनुकूल हैं ।कहीं कोई रुकावट नहीं है।"
"महारानी ने अपने गले की मोतियों की माला उतार कर विश्वमना को दी-"आपने हमारे वंश को बढ़ाने वाला शुभ संदेश दिया है ।महाराज, मैं मंदिर की ओर जाना चाहती हूँ। आज तो विशेष पूजा का अवसर है। आज तो मैं पंचमुखी आरती उतारूंगी। प्रभु को सुगंधित पुष्पों की माला पहनाउंगी और अपने हाथों प्रसाद बनाकर चढ़ाऊँगी।"
महारानी की ख़ुशी देख पुरूरवा गदगद थे। वे शीघ्र उर्वशी के कक्ष में यह समाचार सुनाने आए। किंतु उर्वशी कक्ष में नहीं थी। वह राजमहल के बाह्य प्रांगण में उस पौधे को ढूँढ रही थी जिसे पुरुरवा के स्वप्न में नागरिकों ने लाकर लगाया था। यह कैसी प्रतीति थी उर्वशी की। कभी स्वप्न में दिखा दृष्टिगोचर होता है ।तभी उसे चित्रलेखा , रंभा और सहजन्या आती दिखाई दीं। इस बार तीनों के अद्भुत श्रंगार ने उर्वशी को विशेष आकृष्ट किया। चित्रलेखा ने कहा- "उर्वशी, अब तुम्हारा देवलोक लौटने का अवसर आ गया। देवराज इंद्र इतने वर्षों से तुम्हारे बिना व्याकुलतापूर्ण दिन व्यतीत कर रहे हैं। नृत्यशाला भी सूनी हो गई है। हम अप्सराएँ नृत्य तो करती हैं किंतु देवराज उसमें रस नहीं लेते। उर्वशी हम महर्षि च्यवन के आश्रम से ही आ रहे हैं। देवी सुकन्या तुम्हारे पुत्र आयु को लेकर आश्रम से प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान करने की तैयारी कर रही है । वे शीघ्र राजमहल पहुँच जाएँगी ।"
सहजन्या से यह सुनकर उर्वशी के हृदय में वात्सल्य की मधु धारा उमड़ आई। उसने अधीर होकर पूछा -
"कहो सखी, कैसा दिखता है मेरा पुत्र ?निश्चय ही पुरु जैसा सुदर्शन होगा। इतने वर्षों में महर्षि ने उसे सब कलाओं में निपुण कर दिया होगा। देवी सुकन्या ने उसे योग्य पुरुष बनाने में कोई कमी न छोड़ी होगी।"
उर्वशी की व्याकुलता देख तीनों सखियाँ हतप्रभ रह गईं।यह आचरण तो अप्सरा होने के विपरीत है। किंतु दूसरे ही क्षण उन्हें भान हो गया कि उर्वशी पृथ्वी का सुख भोगने धरती पर आई है।इसलिए वात्सल्य का उमड़ना स्वाभाविक है।
"हाँ उर्वशी उसे देखकर ऐसा लगता है जैसे पुरुरवा अपने युवाकाल में लौट आए हो।" उर्वशी आतुर होकर सखियों के अंक में समा गई।
अब अधिकतर समय पुरुरवा अपने कक्ष में एकाकी रहकर व्यतीत करते। उनके एकांत में किसी का भी प्रवेश वर्जित था। वह चिंतन मनन में डूब जाते। स्वयं को खंगालते । स्वयं से एकालाप करते-' अवश्य यह मेरे पूर्व जन्मों का पाप है। जो मुझे मेरे ही पुत्र का वियोग सहना पड़ रहा है। न जाने किस स्थिति में कहाँ होगा मेरा पुत्र। क्या वह मेरा स्मरण करता होगा? उर्वशी और ओशीनरी का स्मरण करता होगा? मैंने जो ओशनरी के साथ अन्याय किया है कहीं यह उसका परिणाम तो नहीं ? सहृदय,प्रेमवत्सला, सदा मेरी सेवा में तत्पर ,सदा मेरे सुख की कामना करती औशिनरी के हृदय को अवश्य मेरे इस कृत्य से ठेस पहुँची होगी। एक वर्ष मैं उससे दूर रहकर उर्वशी के संग रंगरेलियों में डूबा रहा और वह राजमहल में मेरी अनुपस्थिति में राज्य और प्रजा के प्रति मेरे कर्तव्यों का पालन करती रही। हाँ ओशनरी मैं तुम्हारा अपराधी हूँ ।मैं यह क्यों भूल गया कि सप्तपदी के फेरों के साथ मैंने तुम्हें अपनी अर्धांगिनी स्वीकार किया था ।मैं यह क्यों भूल गया कि ईश्वरीय सत्ता में प्रत्येक के लिए न्याय होता है। तुम्हारे प्रति किए मेरे अपराधों का ही परिणाम तो है यह जो मैं पुत्र वियोग में तड़प रहा हूँ ।कहाँ हो तुम पुत्र? पालने में तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथ पैरों का नर्तन ,तुम्हारी दूध भरी किलकारियाँ, कितना स्वर्गिक आनंद ले रहा होगा वह ,जो तुम्हारा पालन कर रहा है। कौन है वह? कितना सौभाग्यशाली। ईर्ष्या हो रही है मुझे उसके सौभाग्य से। उर्वशी, कहीं तुमने ही तो उसे मेरी नजरों से ओझल नहीं कर दिया यह सोचकर कि हम दोनों के प्रेम में पुत्र व्यवधान न बने।
यह विचार मन में आते ही व्याकुल हो उठे पुरुरवा। स्वेद बूंदों से नहा उठे और उनकी श्वास तेज चलने लगी। वे व्याकुलता से आसन से उठकर गवाक्ष तक आए। उद्यान के सुगंधित पुष्पों से होकर आई शीतल बयार ने उन्हें पल भर को शांति दी, किंतु हृदय की व्याकुलता, तेज श्वास यथावत थी। ठीक उसी समय महारानी उनके कक्ष के पास से निपुणिका के साथ मंदिर की ओर जा रही थीं।पुरूरवा को गवाक्ष में उद्विग्न खड़े देखकर शीघ्रता से कक्ष में आईं।
"क्या हुआ महाराज? आपके मुख पर इतना स्वेद ?"
कहते हुए वे उन्हें पर्यंक तक ले आईं। अपने आंचल से उनका स्वेद पोछकर उन्हें लेटा दिया
"मैं अभी राजवैद्य को बुलाती हूँ।"
पुरुरवा ने उनका हाथ पकड़ लिया -"नहीं महारानी ,वैद्य की आवश्यकता नहीं है ।यह मेरे हृदय का पश्चाताप है। इसे बाहर आने दो। अन्यथा यह सदा पीड़ित करता रहेगा।
"कुछ न कहिए महाराज आपको विश्राम की आवश्यकता है।किंतु ऐसा क्यों हुआ यह जानने के लिए वैद्य को दिखा देना आवश्यक है ।"
पुरुरवा के बार-बार मना करने के उपरांत भी महारानी हठ पूर्वक कक्ष के बाहर आईं।निपुणिका कक्ष के बाहर उनके आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी। "निपुणिका शीघ्र जाओ और राजवैद्य को बुला लाओ, महाराज अस्वस्थ हैं।"
निपुणिका लगभग दौड़ती हुई राजवैद्य के प्रासाद की ओर भागी ।उनके कक्ष तक पहुँचने में समय लगा क्योंकि प्रासाद राजमहल के अंतिम छोर पर था। राजवैद्य अपने कक्ष में सेवक द्वारा लाई जड़ी बूटियों का निरीक्षण कर रहे थे । निपुणिका को आया देख चिंतित हुए-
"क्या हुआ निपुणिका , तुम इतनी व्याकुल क्यों हो?"
"शीघ्रता करें आदरणीय ,महाराज अस्वस्थ हो गए हैं।"
राजवैद्य तीव्रता से उठे और
अपने सेवक को औषधि की पेटिका लाने का आदेश दे निपुणिका के साथ पुरुरवा के प्रासाद की ओर प्रस्थान किया। राजवैद्य को कक्ष में प्रवेश करते देख पुरुरवा ने महारानी की ओर उलाहना भरी दृष्टि डाली, मानो मन ही मन कहा हो, नहीं मानी न आप ।
राजवैद्य ने पुरुरवा की नाड़ी पर अपनी उंगलियों का दबाव डाला । हृदय गति अभी भी तेज थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक औषधि खिलाते हुए पुरुरवा को विश्राम की सलाह दी।
" महारानी, हमारे महाराज चिंतन में अधिक रहने लगे हैं ।
वैसे चिंतन करना श्रेष्ठ होता है किंतु जब वह स्वास्थ्य पर असर करने लगे तो अहितकर हो जाता है।आप इन्हें समझाइए समय अनुकूल होते ही सारी स्थितियाँ सामान्य हो जाएँगी। प्रतिकूल समय में कुछ सोचना ही नहीं चाहिए ।"
कहते हुए राजवैद्य ने औषधी की मात्रा और उसके सेवन का समय बताते हुए कहा- "इस समय महाराज को तुलसी, दूर्वा का मधु मिश्रित पेय पिला दें। महाराज को निद्रा आएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
राजवैद्य के प्रस्थान करते ही पलक झपकते पेय आ गया। पेय के सेवन के पश्चात जब तक पुरुरवा को निद्रा नहीं आई महारानी उनकी हथेलियाँ सहलाती रहीं।
यह एक दिन की बात नहीं थी ।जब-जब पुत्र के लिए व्याकुलता चरम पर होती वे अस्वस्थ हो जाते। कक्ष में स्वयं को बंद कर लेते। एकाकी रहकर एकालाप करते ।उनका स्वास्थ्य महारानी के लिए चिंता का विषय हो गया था।
उर्वशी भी पुरुरवा के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थी। वह सोचती पुरू अपने पुत्र को लेकर अस्वस्थ हुए हैं ।यह मेरा उनके प्रति कैसा प्रेम है कि मैं केवल अपने विषय में ही सोच रही हूँ कि कहीं मुझे उनका वियोग न सहना पड़े! यदि उन्हें कुछ हो गया तो ? इस तो ने उर्वशी के मन में खलबली मचा दी। वह व्याकुलता से अपने कक्ष में इधर से उधर विचरती रही। तभी उसने गवाक्ष में से राजवैद्य को पुरुरवा के कक्ष में जाते देखा। वह भी शीघ्रता से वहाँ पहुँच गई। पुरुरवा स्वस्थ और शांत लगे।
"अब आप पूर्णतया स्वस्थ हैं महाराज, आपने अपनी आत्म शक्ति से काम लिया है। धीरे-धीरे समय भी अनुकूल हो रहा है।"
राजवैद्य का कथन सुनते ही पुरुरवा पर्यंक पर सीधे बैठ गए।
"क्या ?अर्थात पुत्र का मुख मैं शीघ्र देख सकूंगा। सुना आपने महारानी? सुना उर्वशी? आपने तो मेरी समस्त पीड़ा हर ली।"
पुरुरवा को हर्षित देख कक्ष में उपस्थित महारानी के चेहरे से चिंता की रेखाएँ मिट चली किंतु उर्वशी... उर्वशी पुनः व्याकुल हो गई। वह बुझे हुए मन से महारानी और पुरुरवा से आज्ञा ले अपने कक्ष में लौट आई। विचित्र उहापोह की स्थिति थी उर्वशी की। यह तो निश्चित है कि पुत्र का राजमहल में पदार्पण शीघ्र होगा। 16 वर्ष बीत चुके हैं ।कैसा होगा मेरा पुत्र? चित्रलेखा ने बताया कि वह पुरू का प्रतिरूप है ।कैसे दिखते होंगे पुरू 16 वर्ष की आयु में। क़ाश उस आयु में पुरु से उसका मिलन हुआ होता ।उनके मन की युवा तरंगों में वह बसी होती। तब पुरू भी राज्य के दायित्व से मुक्त रहे होंगे। मुक्त या फ़िर इतने अधिक व्यस्त भी नहीं रहे होंगे। तब पुरू का सारा समय उसका होता ।वे प्रेम सागर में निमग्न संसार की सारी ख़ुशियों को समेटे सब कुछ भूल बस वे ही वे रहते ।किंतु किंतु यही सब तो पिछले 16 वर्षों में उसने पुरू से पाया है ।प्रेम की पराकाष्ठा में बीते हैं 16 वर्ष ।उसके रोम रोम में पुरू समाये हैं ।कैसे सहेगी बिछोह? कैसे पुरू को देखे बिना, उसके स्पर्श सुख से वंचित दिनों को जीएगी वह? दुष्कर... दुष्कर है यह । किंतु यही है प्रारब्ध। यही है भरत मुनि का शाप।
उर्वशी का पूरा बदन स्वेद से भीग उठा। वह जल बिन में-सी प्रियंक पर छटपटाने लगी। सदा सेवा में तत्पर अपाला ने उन्हें इस अवस्था में देखकर पूछा- "देवी क्या हुआ ?आप स्वस्थ नहीं है। मैं राजवैद्य को बुलाती हूँ।"
उर्वशी ने संकेत से अपाला को रोका और जल लाने को कहा ।
अपाला के लाए जल की कुछ घूंटें पीकर उर्वशी ने अपाला से यह कहते हुए पलके मूंद लीं - "एकांत... एकांत अपाला।"
अपाला कुछ कहे बिना कक्ष से बाहर चली गई।
उसके जाने के कुछ ही पलों पक्ष उर्वशी को लगा बिना उसकी आज्ञा के कोई कक्ष में आया है।
उर्वशी, उर्वशी... यह तो देवराज इंद्र की पुकार है। वह उठकर खड़ी हो गई।
"देवराज आप? आप भूलोक में ?मेरे कक्ष में?"
"उर्वशी अब समय हो गया भरत मुनि के श्राप की अवधि की समाप्ति का। चलो, देवलोक के तुम्हारी अनुपस्थिति से उत्पन्न सूनेपन को समाप्त करो ,तुम्हारे सौंदर्य की आभा ,कांति, नृत्यशाला की तुम्हारी मुद्राएँ , तुम्हारे सुकोमल पैरों में पहने घुंघरूओ की झंकार, वीणा के तारों में तरंगित तुम्हारा कंठ स्वर चलो, सब कुछ पहले जैसा कर दो प्रिय उर्वशी।"
"नहीं देवराज।"
ओह , यह तो पुरू का स्वर है ।प्रतीत हुआ मानो वे देवराज इंद्र के सामने करबद्ध खड़े हैं - "उर्वशी को क्षमा करें देवराज, वह तो मेरी हो चुकी है। उसका देवलोक लौटना असंभव है।" उर्वशी विभोर हो उठी। उसे लगा जैसे असंख्य मयूर एकाएक नाच उठे हैं। उनके पंखों की सतरंगी आभा कितनी समीप प्रतीत हो रही है। पुरू के कथन में नेह की स्निग्धता है ।अटूट प्रेम की रिमझिम है। अमृत की फुहारे हैं ।वह बाहें पसारे वेगवती नदी-सी उमड़ी है पुरू की ओर। किंतु शून्य में टकराकर मानो गहरी चोट लगी है उसे ।पुरु के अभाव का शून्य तो देवलोक में भी उसके साथ रहेगा। शून्य अनंत है। सीमाहीन है। वह शून्य में समाती जा रही है कि एक दीर्घ सिसकी उसके हृदय को भेदती होठों को घायल करती कक्ष के द्वार से टकराई है ।
"देवी"एकाएक कक्ष के द्वार खुले और अपाला वेग से उसके समीप आई- "देवी आप अस्वस्थ हैं ।अब मैं नहीं रुक सकती। राजवैद्य को दिखाना आवश्यक हो गया।"
कहती हुई वह राजवैद्य के प्रसाद की ओर जाने के लिए कक्ष से बाहर चली गई।उर्वशी कुछ न कह सकी।पुरुरवा से वियोग की पीड़ा अंतर्मन में उमड़ी पड़ रही थी। उसने अश्रु पूरीत नेत्रों से अपाला को कक्ष से बाहर जाते देखा।
राजवैद्य के साथ महारानी भी आईं ।उर्वशी की पीड़ा से व्याकुल हो गई वे। उन्होंने राजवैद्य की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा।
"धैर्य रखें महारानी, देवी उर्वशी किसी आघात से व्यथित हैं।अभी स्वस्थ हो जाएँगी ।"कहते हुए राजवैद्य ने उर्वशी की नाड़ी देखकर औषधि की मात्रा मधु में घोलकर अपाला को दी - "खिला दो इन्हें ।"
और महारानी से निवेदन किया "देवी उर्वशी को एकांत में न रहने दें। आप जानती हैं प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन है। मनुष्य के मन की क्या दशा हो जाती है इससे आप अपरिचित नहीं है ।"
राजवैद्य के प्रस्थान करते ही महारानी चिंताग्रस्त हो गईं ।उधर महाराज, इधर उर्वशी, पुत्र वियोग ने दोनों को किस कगार तक पहुँचा दिया।
निश्छल हृदय महारानी समझ नहीं पाईं कि उर्वशी की यह दशा पुत्र वियोग की नहीं बल्कि महाराज से वियोग की है।
शेष समय या तो वे उर्वशी के संग बिताते या अपने कक्ष में एकाकी। उनके एकांत में किसी का भी प्रवेश वर्जित था। वह चिंतन मनन में डूब जाते। स्वयं को खंगालते । स्वयं से एकालाप करते-' अवश्य यह मेरे पूर्व जन्मों का पाप है। जो मुझे मेरे ही पुत्र का वियोग सहना पड़ रहा है। न जाने किस स्थिति में कहाँ होगा मेरा पुत्र। क्या वह मेरा स्मरण करता होगा? उर्वशी और ओशीनरी का स्मरण करता होगा? मैंने जो ओशनरी के साथ अन्याय किया है कहीं यह उसका परिणाम तो नहीं ? सहृदय,प्रेमवत्सला, सदा मेरी सेवा में तत्पर ,सदा मेरे सुख की कामना करती औशिनरी के हृदय को अवश्य मेरे इस कृत्य से ठेस पहुँची होगी। एक वर्ष मैं उससे दूर रहकर उर्वशी के संग रंगरेलियों में डूबा रहा और वह राजमहल में मेरी अनुपस्थिति में राज्य और प्रजा के प्रति मेरे कर्तव्यों का पालन करती रही। हाँ ओशनरी मैं तुम्हारा अपराधी हूँ ।मैं यह क्यों भूल गया कि सप्तपदी के फेरों के साथ मैंने तुम्हें अपनी अर्धांगिनी स्वीकार किया था ।मैं यह क्यों भूल गया कि ईश्वरीय सत्ता में प्रत्येक के लिए न्याय होता है। तुम्हारे प्रति किए मेरे अपराधों का ही परिणाम तो है यह जो मैं पुत्र वियोग में तड़प रहा हूँ ।कहाँ हो तुम पुत्र? पालने में तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथ पैरों का नर्तन ,तुम्हारी दूध भरी किलकारियाँ, कितना स्वर्गिक आनंद ले रहा होगा वह ,जो तुम्हारा पालन कर रहा है। कौन है वह? कितना सौभाग्यशाली। ईर्ष्या हो रही है मुझे उसके सौभाग्य से। उर्वशी, कहीं तुमने ही तो उसे मेरी नजरों से ओझल नहीं कर दिया यह सोचकर कि हम दोनों के प्रेम में पुत्र व्यवधान न बने।
यह विचार मन में आते ही व्याकुल हो उठे पुरुरवा। स्वेद बूंदों से नहा उठे और उनकी श्वास तेज चलने लगी। वे व्याकुलता से आसन से उठकर गवाक्ष तक आए। उद्यान के सुगंधित पुष्पों से होकर आई शीतल बयार ने उन्हें पल भर को शांति दी, किंतु हृदय की व्याकुलता, तेज श्वास यथावत थी। ठीक उसी समय महारानी उनके कक्ष के पास से निपुणिका के साथ मंदिर की ओर जा रही थी।पुरूरवा को गवाक्ष में उद्विग्न खड़े देखकर शीघ्रता से कक्ष में आईं।
"क्या हुआ महाराज? आपके मुख पर इतना स्वेद ?"
कहते हुए वे उन्हें पर्यंक तक ले आईं। अपने आंचल से उनका स्वेद पूछकर उन्हें लेटा दिया ।
"मैं अभी राजवैद्य को बुलाती हूँ।"
पुरुरवा ने उनका हाथ पकड़ लिया -"नहीं महारानी ,वैद्य की आवश्यकता नहीं है ।यह मेरे हृदय का पश्चाताप है। इसे बाहर आने दो। अन्यथा यह सदा पीड़ित करता रहेगा।
"कुछ न कहिए महाराज आपको विश्राम की आवश्यकता है।किंतु ऐसा क्यों हुआ यह जानने के लिए वैद्य को दिखा देना आवश्यक है ।"
पुरुरवा के बार-बार मना करने के उपरांत भी महारानी हठ पूर्वक कक्ष के बाहर आईं।निपुणिका कक्ष के बाहर उनके आदेश की प्रतीक्षा कर रही थी। "निपुणिका शीघ्र जाओ और राजवैद्य को बुला लाओ, महाराज अस्वस्थ हैं।"
निपुणिका लगभग दौड़ती हुई राजवैद्य के प्रासाद की ओर भागी ।उनके कक्ष तक पहुँचने में समय लगा क्योंकि प्रासाद राजमहल के अंतिम छोर पर था। राजवैद्य अपने कक्ष में सेवक द्वारा लाई जड़ी बूटियों का निरीक्षण कर रहे थे । निपुणिका को आया देख चिंतित हुए-
"क्या हुआ निपुणिका , तुम इतनी व्याकुल क्यों हो?"
"शीघ्रता करें आदरणीय ,महाराज अस्वस्थ हो गए हैं।"
राजवैद्य तीव्रता से उठे और अपने सेवक को औषधि की पेटिका लाने का आदेश दे निपुणिका के साथ पुरुरवा के प्रासाद की ओर प्रस्थान किया। राजवैद्य को कक्ष में प्रवेश करते देख पुरुरवा ने महारानी की ओर उलाहना भरी दृष्टि डाली, मानो मन ही मन कहा हो नहीं मानी न आप ।
राजवैद्य ने पुरुरवा की नाड़ी पर अपनी उंगलियों का दबाव डाला । हृदय गति अभी भी तेज थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक औषधि खिलाते हुए पुरुरवा को विश्राम की सलाह दी।
" महारानी, हमारे महाराज चिंतन में अधिक रहने लगे हैं ।
वैसे चिंतन करना श्रेष्ठ होता है किंतु जब वह स्वास्थ्य पर असर करने लगे तो अहितकर हो जाता है।आप इन्हें समझाइए समय अनुकूल होते ही सारी स्थितियाँ सामान्य हो जाएँगी। प्रतिकूल समय में कुछ सोचना ही नहीं चाहिए ।"
कहते हुए राजवैद्य ने औषधी की मात्रा और उसके सेवन का समय बताते हुए कहा- "इस समय महाराज को तुलसी, दूर्वा का मधु मिश्रित पेय पिला दें। महाराज को निद्रा आएगी तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।"
राजवैद्य के प्रस्थान करते ही पलक झपकते पेय आ गया। पेय के सेवन के पश्चात जब तक पुरुरवा को निद्रा नहीं आई महारानी उनकी हथेलियाँ सहलाती रहीं।
यह एक दिन की बात नहीं थी ।जब-जब पुत्र के लिए व्याकुलता चरम पर होती वे अस्वस्थ हो जाते। कक्ष में स्वयं को बंद कर लेते। एकाकी रहकर एकालाप करते ।उनका स्वास्थ्य महारानी के लिए चिंता का विषय हो गया था।
उर्वशी भी पुरुरवा के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थी। वह सोचती पुरू अपने पुत्र को लेकर अस्वस्थ हुए हैं ।यह मेरा उनके प्रति कैसा प्रेम है कि मैं केवल अपने विषय में ही सोच रही हूँ कि कहीं मुझे उनका वियोग न सहना पड़े! यदि उन्हें कुछ हो गया तो ? इस तो ने उर्वशी के मन में खलबली मचा दी। वह व्याकुलता से अपने कक्ष में इधर से उधर विचरती रही। तभी उसने गवाक्ष में से राजवैद्य को पुरुरवा के कक्ष में जाते देखा। वह भी शीघ्रता से वहाँ पहुँच गई। पुरुरवा स्वस्थ और शांत लगे।
"अब आप पूर्णतया स्वस्थ हैं महाराज, आपने अपनी आत्म शक्ति से काम लिया है। धीरे-धीरे समय भी अनुकूल हो रहा है।"
राजवैद्य का कथन सुनते ही पुरुरवा पर्यंक पर सीधे बैठ गए।
"क्या ?अर्थात पुत्र का मुख में शीघ्र देख सकूंगा। सुना आपने महारानी? सुना उर्वशी? आपने तो मेरी समस्त पीड़ा हर ली।"
पुरुरवा को हर्षित देख कक्ष में उपस्थित महारानी के चेहरे से चिंता की रेखाएँ मिट चली किंतु उर्वशी... उर्वशी पुनः व्याकुल हो गई। वह बुझे हुए मन से महारानी और पुरुरवा से आज्ञा ले अपने कक्ष में लौट आई। विचित्र उहापोह की स्थिति थी उर्वशी की। यह तो निश्चित है कि पुत्र का राजमहल में पदार्पण शीघ्र होगा। 16 वर्ष बीत चुके हैं ।कैसा होगा मेरा पुत्र? चित्रलेखा ने बताया कि वह पुरू का प्रतिरूप है ।कैसे दिखते होंगे पुरू 16 वर्ष की आयु में। क़ाश उस आयु में पुरु से उसका मिलन हुआ होता ।उनके मन की युवा तरंगों में वह बसी होती। तब पुरू भी राज्य के दायित्व से मुक्त रहे होंगे। मुक्त या फ़िर इतने अधिक व्यस्त भी नहीं रहे होंगे। तब पुरू का सारा समय उसका होता ।वे प्रेम सागर में निमग्न संसार की सारी ख़ुशियों को समेटे सब कुछ भूल बस वे ही वे रहते ।किंतु किंतु यही सब तो पिछले 16 वर्षों में उसने पुरू से पाया है ।प्रेम की पराकाष्ठा में बीते हैं 16 वर्ष ।उसके रोम रोम में पुरू समाये हैं ।कैसे सहेगी बिछोह? कैसे पुरू को देखे बिना, उसके स्पर्श सुख से वंचित दिनों को जीएगी वह? दुष्कर... दुष्कर है यह । किंतु यही है प्रारब्ध। यही है भरत मुनि का शाप।
उर्वशी का पूरा बदन स्वेद से भीग उठा। वह जल बिन मीन-सी पर्यंक पर छटपटाने लगी। सदा सेवा में तत्पर अपाला ने उन्हें इस अवस्था में देखकर पूछा- "देवी क्या हुआ ?आप स्वस्थ नहीं है। मैं राजवैद्य को बुलाती हूँ।"
उर्वशी ने संकेत से अपाला को रोका और जल लाने को कहा ।
अपाला के लाए जल की कुछ घूंटें पीकर उर्वशी ने अपाला से यह कहते हुए पलके मूंद लीं - "एकांत... एकांत अपाला।"
अपाला कुछ कहे बिना कक्ष से बाहर चली गई।
उसके जाने के कुछ ही पलों बाद उर्वशी को लगा बिना उसकी आज्ञा के कोई कक्ष में आया है।
उर्वशी, उर्वशी... यह तो देवराज इंद्र की पुकार है। वह उठकर खड़ी हो गई।
"देवराज आप? आप भूलोक में ?मेरे कक्ष में?"
"उर्वशी अब समय हो गया भरत मुनि के श्राप की अवधि की समाप्ति का। चलो, देवलोक के तुम्हारी अनुपस्थिति से उत्पन्न सूनेपन को समाप्त करो ,तुम्हारे सौंदर्य की आभा ,कांति, नृत्यशाला की तुम्हारी मुद्राएँ , तुम्हारे सुकोमल पैरों में पहने घुंघरूओ की झंकार, वीणा के तारों में तरंगित तुम्हारा कंठ स्वर... चलो, सब कुछ पहले जैसा कर दो प्रिय उर्वशी।"
"नहीं देवराज।"
ओह , यह तो पुरू का स्वर है ।प्रतीत हुआ मानो वे देवराज इंद्र के सामने करबद्ध खड़े हैं - "उर्वशी को क्षमा करें देवराज, वह तो मेरी हो चुकी है। उसका देवलोक लौटना असंभव है।" उर्वशी विभोर हो उठी। उसे लगा जैसे असंख्य मयूर एकाएक नृत्य कर उठे हैं। उनके पंखों की सतरंगी आभा कितनी समीप प्रतीत हो रही है। पुरू के कथन में नेह की स्निग्धता है ।अटूट प्रेम की रिमझिम है। अमृत की फुहारे हैं ।वह बाहें पसारे वेगवती नदी-सी उमड़ी है पुरू की ओर। किंतु शून्य में टकराकर मानो गहरी चोट लगी है उसे ।पुरु के अभाव का शून्य तो देवलोक में भी उसके साथ रहेगा। शून्य अनंत है। सीमाहीन है। वह शून्य में समाती जा रही है कि एक दीर्घ सिसकी उसके हृदय को भेदती होठों को घायल करती कक्ष के द्वार से टकराई है ।
"देवी"एकाएक कक्ष के द्वार खुले और अपाला वेग से उसके समीप आई- "देवी आप अस्वस्थ हैं ।अब मैं नहीं रुक सकती। राजवैद्य को दिखाना आवश्यक हो गया।"
कहती हुई वह राजवैद्य के प्रासाद की ओर जाने के लिए कक्ष से बाहर चली गई।उर्वशी कुछ न कह सकी।पुरुरवा से वियोग की पीड़ा अंतर्मन में उमड़ी पड़ रही थी। उसने अश्रुपूरित नेत्रों से अपाला को कक्ष से बाहर जाते देखा।
राजवैद्य के साथ महारानी भी आईं ।उर्वशी की पीड़ा से व्याकुल हो गई वे। उन्होंने राजवैद्य की ओर प्रश्न भरी दृष्टि से देखा।
"धैर्य रखें महारानी, देवी उर्वशी किसी आघात से व्यथित हैं।अभी स्वस्थ हो जाएँगी ।"कहते हुए राजवैद्य ने उर्वशी की नाड़ी देखकर औषधि की मात्रा मधु में घोलकर अपाला को दी - "खिला दो इन्हें ।"
और महारानी से निवेदन किया "देवी उर्वशी को एकांत में न रहने दें। आप जानती हैं प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन है। मनुष्य के मन की क्या दशा हो जाती है इससे आप अपरिचित नहीं है ।"
राजवैद्य के प्रस्थान करते ही महारानी चिंताग्रस्त हो गईं ।उधर महाराज, इधर उर्वशी, पुत्र वियोग ने दोनों को किस कगार तक पहुँचा दिया।
निश्छल हृदय महारानी समझ नहीं पाईं कि उर्वशी की यह दशा पुत्र वियोग की नहीं बल्कि महाराज से वियोग की है।