उर्वशी पुरूरवा / भाग 14 / संतोष श्रीवास्तव

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महर्षि च्यवन के आश्रम में आयु के विदाई समारोह का आयोजन था। शिष्यों ने आश्रम को रंग-बिरंगे पुष्पों से सजाकर सभी कक्षों के द्वार पर आम्र और अशोक के पत्तों की तोरण बाँधी थी और मुख्य द्वार पर चौक पूरा था ।सुकन्या एक माह पूर्व से ही आयु को राजमहल के योग्य बना रही थी-

"पुत्र, अब समय आ गया है जब तुम अपने माता-पिता के दर्शन करोगे ।अपने राज्य के राजप्रासाद में प्रवेश करोगे। सदा स्मरण रखना तुम्हारी शिक्षा दीक्षा महान महर्षि च्यवन के द्वारा हुई है। तुम्हें स्वयं को नरों में श्रेष्ठ ,अति बलवान ,दयालु एवं प्रजापालक सिद्ध करना है। तुम्हें महर्षि का योग्य शिष्य सिद्ध होना है।"

आयु स्वभाव से धैर्यवान और गंभीर था। परिस्थितियाँ उसे शीघ्र विचलित नहीं करती थीं। उसमें दो भिन्न संस्कृतियों का वास था, देवलोक और भूलोक। उसने सुकन्या को निश्चिंत किया- "माता, आपका यह पुत्र सदैव अपने कर्तव्यों को स्मरण रखेगा। सदैव स्मरण रखेगा कि उसके प्रथम माता-पिता महर्षि च्यवन और माता सुकन्या हैं। मैं हृदय में आपको धारे हूँ माता।" सुकन्या ने गदगद हो उसे हृदय से लगा लिया। महर्षि च्यवन औषधि कक्ष में शिष्यों से पुरुरवा के लिए अवलेह, प्राश आदि मिट्टी के पात्रों में भरवा रहे थे। आयु से जिनकी प्रगाढ़ मित्रता थी ऐसे चार शिष्यों के लिए उनका आदेश था कि वह भी आयु के साथ प्रतिष्ठानपुर जाएँ। यह आयु की सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है। मार्ग लंबा है अतः रात्रि विश्राम के लिए उन्हें अरण्य में रुकना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में उनका आयु के साथ रहना आवश्यक है।सुनकर चारों अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने यात्रा में जाने के प्रबंध के लिए महर्षि से आज्ञा मांगी और तीव्रता से अपने कक्ष की ओर चले गए।

महर्षि च्यवन ने औषधि कक्ष से निकलकर बाहर प्रांगण में खड़े सुकन्या और आयु से कहा- "यह अवलेह और प्राश महाराज पुरुरवा को देना और कहना-"संसार के नियमों और अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए शरीर को ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो उन्हें इन औषधियों से प्राप्त होगी।"

औषधी के दोनों पात्रों को अपने हाथों में उठाने से पहले आयु ने महर्षि के चरण स्पर्श किए

"आयुष्मान भव वत्स, कर्तव्य के पथ पर अडिग रहना। यह आश्रम सदैव तुम्हारी प्रतीक्षा करेगा और यह प्रतीक्षा ही तुम्हारे सद्गुणों को सिद्ध करेगी।"

"देवी मंगला तुम्हारे साथ आयु के परम मित्र भी प्रतिष्ठानपुर जाएँगे।"

फिर शिष्यों के कक्ष की ओर देखते हुए कहा - "देखो वे आ भी गए।"

चारों शिष्यों ने महर्षि च्यवन के चरण स्पर्श किए और प्रस्थान की अनुमति मांगी।

जहाँ एक ओर मित्रो के साथ चलने की आयु को प्रसन्नता थी वहीं वह सजल नेत्रों से अंतिम बार आश्रम को देख रहा था।

जहाँ के प्रांगण में घुटनों के बल चलते, दौड़ते वह कितनी ही बार गिरा था। गिरते - उठते उसने चलना सीखा था। महर्षि च्यवन के कठोर अनुशासन में उसने उन सभी विद्याओं को सीखा था जो उसे भविष्य में नरश्रेष्ठ प्रमाणित करेंगी। देवी सुकन्या के लाड़ प्यार ने उसके हृदय में कोमल भावनाओं का समावेश किया था। आश्रम में पले मृग छौनों के साथ उसने बचपन ज़िया था। हवन की धूम्र रेखा आंखों में पड़ते ही चिरमिराहट से व्याकुल हो आंखें मल- मल कर माता सुकन्या को पुकारा था। उनके आंचल में दुबक कर त्रिलोक का सुख पाया था। वह आंचल की छांव अब छूट रही है। अब उसे कड़ी धूप का सामना करना है। नेत्र खोलते ही जिस सुकन्या को देखा वे प्रथम दृष्टया माता आज उससे सदा के लिए विलग हो रही हैं। आयु का अंतर्मन कचोट रहा था। किंतु मुख पर उसने स्थिरता बनाए रखी।

सुकन्या भी वात्सल्य विभोर थी। कहना चाहती थी 'पुत्र तुमने मेरे सूने जीवन में अपनी किलकारियों से,मां - मां, मात - मात कह तोतली बोली से मुझ अधूरी नारी को पूर्णता दी । कैसे सह पाऊँगी तुम्हारा वियोग पुत्र?' किंतु दूसरे ही पल सुकन्या संभल गई। वह साधारण गृहस्थ नहीं बल्कि मायामोह से परे तपस्वी च्यवन की पत्नी है। यह वियोग विलाप तो साधारण नारियों के लिए है। सुकन्या ने स्वयं को दृढ़ करते हुए कहा- "चलो आयु,दोपहर आरंभ हो रही है और मार्ग लंबा है ।"

सुकन्या की पुकार से आयु का ध्यान भंग हुआ। उसने औषधि के दोनों पात्रों में बंधी रस्सी को कंधे पर लटकाया और वन में बहुत दूर तक विदा करने आए शिष्य मित्रो के संग चलने के बाद उसने सभी से आश्रम में लौट जाने का आग्रह किया। सूर्य अपनी तेजस्वी किरणों से वनप्रदेश को प्रकाशित कर रहा था। आयु देवी सुकन्या और अपने मित्रो के साथ प्रतिष्ठानपुर की ओर जाने वाले मार्ग पर थे।

प्रातः काल निश्चित समय पर पुरुरवा जब राजसभा में आए ठीक उसी समय देवी सुकन्या ने आयु के संग राजमहल में प्रवेश किया। मुख्य द्वार से राजसेवक द्वारा उन्हें अतिथि कक्ष में ले जाया गया। उचित आदर सत्कार करते हुए राज सेवक आयु को बार-बार निहार रहा था। लगता है जैसे हमारे महाराज की प्रतिलिपी है यह बालक। न जाने कौन है। उसके साथ आई देवी और चारों युवक तो आश्रम वासी लगते हैं किंतु यह बालक तो राजकुमार प्रतीत हो रहा है। सेवक शीघ्रता से राजसभा की ओर गया और महामात्य को अतिथियों के आने की सूचना दी।

"उन्हें आदर पूर्वक यहाँ ले आओ।"

"जो आज्ञा महामात्य जी ।"

कहते हुए राजसेवक अतिथि कक्ष में गया और देवी सुकन्या से राजसभा में उपस्थित होने का आग्रह किया। जिस समय देवी सुकन्या आयु को लेकर राजसभा पहुँची उस समय महारानी भी वहाँ पहुँची। वे आयु को देखकर चकित रह गई। उन्हें लगा जैसे महाराज अश्व पर बैठकर बारात सहित काशी के राजमहल में ओशीनरी से विवाह करने आए हों। कदाचित यही बात राजसभा के सदस्य तथा पदाधिकारी भी सोच रहे थे। महामात्य ने देवी सुकन्या, आयु और चारों महर्षि शिष्यों को उचित आसन दिए। कुछ क्षण ही व्यतीत हुए होंगे कि पुरुरवा ने जो कि आयु के राजसभा में प्रवेश करते ही कौतूहल से अपने स्वप्न को सत्य होते देख रहे थे देवी सुकन्या से पूछा - आपका इस राजमहल में स्वागत है देवी सुकन्या, महर्षि कैसे हैं ?इतने वर्षों बाद आपसे पुनः भेंट होगी सोचा न था। निश्चय ही कोई महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए आप आश्रम से प्रतिष्ठानपुर तक चलकर आई है। देवी ,आपके आने का प्रयोजन जानने का कौतूहल है।"

सुकन्या पुरूरवा की अधीरता समझ रही थी और उस क्षण को मानो साक्षात देख रही थी जब पुरुरवा को आयु उनका पुत्र है यह ज्ञात होगा। उसने प्रसन्नतापूर्वक पुरुरवा से कहा-

"महाराज, आपकी धरोहर लौटाने आई हूँ। आपका पुत्र आयु लगभग 16 वर्ष आश्रम में रहा। गंधमादन के अरण्य महल में जन्म लेते ही उर्वशी की सखियाँ इसे मुझे सौंप गई थीं। 16 वर्ष मैंने इसका लालन-पालन किया किंतु यह तो प्रतिष्ठानपुर का राजकुमार है कब तक तपस्वियों जैसा जीवन व्यतीत करता अतः..."

पुरुरवा की दशा उस रंक जैसी हो गई जिसे एकाएक रत्न जवाहरात से भरा स्वर्ण पात्र मिल गया हो। उनके नेत्रों से अश्रुधार बह चली। विस्मित महारानी भी भावविह्वल हो अश्रु बहा रही थीं।

सुकन्या का संकेत पाते ही आयु ने दोनों के चरण स्पर्श किए। चरणों पर जैसे ही आयु की उंगलियों का स्पर्श हुआ पुरुरवा ने उसे हुलस कर आलिंगन बद्ध कर लिया- "मेरे पुत्र ,मेरे हृदय के टुकड़े, देखिए महारानी , हमारा पुत्र, आपका पुत्र। हमने इतने वर्ष जिसकी प्रतिक्षा की वह पुत्र , चंद्रवंश के राज सिंहासन का उत्तराधिकारी, हमारे हृदय का सम्राट हमें वापस मिल गया।"

राजसभा में कुछ देर को निस्तब्धता छाई रही ।सभी को इस अप्रत्याशित ख़ुशी को स्वीकार करने,समझने में समय लगा। अंततः सभी राजकुमार आयु की जय जयकार करने लगे। जय जयकार के नारे उर्वशी के कक्ष तक भी पहुँचे।वह समझ गई उसके पुत्र का आगमन हो गया है। तभी राज सेवक ने आकर सूचना दी कि आपको महाराज अविलंब राजसभा में बुला रहे हैं। यही होना था किंतु इसी बात का भय उर्वशी को सता रहा था। अब समय आ गया है पुरुरवा से सदा के लिए बिछोह का।

अपाला ने उर्वशी को पादुकाएँ पहनाई और राजसभा की ओर प्रस्थान करती उर्वशी का अनुसरण करने लगी।

जैसे ही उर्वशी ने राजसभा में प्रवेश किया देवी सुकन्या ने हर्षित हो उसे हृदय से लगा लिया।

उर्वशी ने स्वयं को सामान्य रखते हुए पूछा - "कैसी है देवी? महर्षि कैसे हैं? मेरे पुत्र ने आपको अधिक परेशान तो नहीं किया?"

"तुम्हारे पुत्र को जन्म से पाला है। परेशान तो करेगा न।"

देवी सुकन्या ने परिहास किया।

किंतु पुरुरवा चकित थे उन्होंने उर्वशी से पूछा- उर्वशी, सभी यह जानने के इच्छुक हैं कि हमारा पुत्र देवी सुकन्या के आश्रम क्यों और कैसे पहुँचा? अपने से दूर करने का, उसके अपहरण की सूचना देने का अंततः कारण क्या था?

"हाँ उर्वशी, हम सभी यह जानने के लिए बेहद उत्सुक हैं।"ओशीनरी के कथन पर उर्वशी ने दयनीय नेत्रों से सुकन्या की ओर देखा। सुकन्या ने क्षण भर भी व्यर्थ किए बिना उर्वशी से सारी बात स्पष्ट कर देने को कहा।

सुकन्या से संकेत पाते ही उर्वशी ने सारा वृत्तांत बता देने की शक्ति जुटाई और पुरुरवा की ओर देखकर हाथ जोड़े - "क्षमा करें महाराज, मुझसे यह अपराध हुआ है कि मैंने आपके पुत्र को आपसे दूर रखा। मैंने आपसे बल्कि सभी लोकों, भुवनों में एक मात्र आपसे प्रेम की चरम सीमा भी इसके लिए व्यवधान नहीं थी ऐसा एकनिष्ठ प्रेम किया ।वह प्रेम ही था जो मैंने आपको पुत्र का मुख नहीं देखने दिया।"

पुरुरवा अवाक - "क्या कह रही हो उर्वशी ।पुत्र हमारे प्रेम में कैसे बाधक हो सकता है ?आश्चर्य !"

"पुत्र प्रेम में सहायक भी नहीं था महाराज। सुनकर आपको विश्वास तो नहीं होगा किंतु

मेरे पास इसके अतिरिक्त दूसरा उपाय न था।"

उर्वशी नतमस्तक थी ।

"ऐसी क्या विवशता थी उर्वशी? मेरी समझ से परे है !"

"महाराज मैं शापग्रस्त होकर इस धरती पर आई थी। भरत मुनि ने मुझे श्राप दिया था कि मैं धरती पर या तो आपके प्रेम को आपके जीवित रहते तक पा सकती हूँ या पुत्र को। मैं देवलोक की वासी। मैं तो आपसे प्रेमवश धरती पर आई थी।अतः मैंने दोनों में से आपको चुना और पुत्र को त्याग दिया। पुत्र के जन्म के समय मेरी देवलोक की सखियाँ मेरे पास थी। उनकी सहायता से पुत्र को महर्षि च्यवन के आश्रम में सुरक्षित पहुँचा दिया गया। देवी सुकन्या ने पुत्र को अपने आंचल में शरण दी। मुझे आश्वस्त किया। मैं सदैव उनकी ऋणी रहूँगी। हाँ मैं अपराधी हूँ आपकी महाराज, मैंने आपसे असत्य कहा था कि पुत्र का अपहरण हुआ ।किंतु इस असत्य पर प्रेम भारी था। मैं आपके साथ दीर्घ जीवन की आकांक्षी थी। मानती हूँ स्वार्थ था मेरा। किंतु मैं हृदय से विवश थी। क्षमा महाराज... क्षमा।" कहती हुई उर्वशी रो पड़ी। उसके रुदन से पुरुरवा विचलित हो गए । औशीनरी अपने आसन से उठकर उर्वशी के पास आईं-

"धैर्य रखो उर्वशी, तुमने कोई अपराध नहीं किया है ।हम सब अपने प्रारब्ध के अधीन है ।जिसे मनुष्य नहीं बदल सकता।"

सांत्वना पाकर उर्वशी औशीनरी के गले लगकर रुदन करते हुए बोली- "महारानी महाराज ने पुत्र आयु का मुख देख लिया है। अतः धरती पर मेरा समय समाप्त हुआ। मुझे देवलोक लौटना होगा।" ओशिनरी, सुकन्या दोनों ने ही उर्वशी को धैर्य बंधाया।

प्रकृतिस्थ होते ही उर्वशी ने

अश्रुपूरित नेत्रों से पुरुरवा की ओर देखते हुए कहा- "महाराज आपका और मेरा यहीं तक का साथ था ।मुझे देवलोक प्रस्थान करना ही होगा। मैं प्रतिष्ठानपुर के सभी नागरिकों, सभासदों एवं देवी ओशीनरी के सम्मुख अपने इस अपराध से नतमस्तक हूँ कि 16 वर्ष मैंने चंद्रवंश के राजकुमार आयु को आपसे दूर रखा। मैं देवी सुकन्या की आभारी हूँ जिनके कारण मुझे महाराज पुरुरवा के संग अपना मनपसंद जीवन जीने का अवसर मिला और अंत में पुत्र आयु से क्षमा प्रार्थी हूँ।

"पुत्र ,अपनी माता को क्षमा करना। मैंने अपने स्वार्थ वश तुम्हें अपनी ममता और वात्सल्य से दूर रखा । हा पुत्र, युगों युगों तक मेरा यह स्वार्थ याद रखा जाएगा।"

एकाएक आयु ने उर्वशी के चरण पकड़कर कहा- "नहीं माता, मैं आपके इस त्याग से अभिभूत हूँ क्योंकि मुझे बदले में माता सुकन्या और माता ओशिनरी मिली। माता, आपने इस ब्रह्मांड के शक्तिशाली तत्व प्रेम को इतना महत्त्व दिया कि उसके आगे आप कुछ सोच ही नहीं पाई ।माता, अगर युगों युगों तक आपके स्वार्थ को याद रखा जाएगा तो संसार यह भी तो याद रखेगा कि मेरे पिता को आपने प्राणों से अधिक प्रेम किया।"

आयु के कथन को सुनकर सभी चकित रह गए। राजकुमार आयु की जय जयकार से राजसभा गूंज उठी। सभी हर्ष से आयु पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

यही उचित समय था उर्वशी के देवलोक प्रस्थान का क्योंकि न तो वह पुरुरवा से विदा लेने की शक्ति जुटा पा रही थी और न देवी ओशिनरी ,पुत्र आयु और देवी सुकन्या को अंतिम बार कुछ कहने की स्थिति में थी।