उर्वशी पुरूरवा / भाग 15 / संतोष श्रीवास्तव
राज ज्योतिषी विश्वमना ने राजकुमार आयु की जय जयकार के बीच खड़े होकर महामात्य से प्रार्थना की कि वह कुछ कहना चाहते हैं। महामात्य ने हाथ के संकेत से जय जयकार रोक कर सभी से अपने आसन ग्रहण करने का अनुरोध किया। तथा महाराज की ओर उन्मुख होकर कहा- "महाराज विश्वमना जी आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं ।आज्ञा दें ।"
"आज्ञा है" पुरुरवा ने गदगद होकर कहा ।उनके तो आयु के मुख से नेत्र ही नहीं हट रहे थे । संभवतः यही कारण था कि वे उर्वशी का एकाएक राजसभा से चले जाना देख नहीं पाए। जिस उर्वशी की उपस्थिति के बिना वह एक पल भी रह नहीं पाते थे आज पुत्र मोह ने...
विश्वमना ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-"महाराज अब समय आ गया है। जब राजकुमार आयु का आप राज्याभिषेक कर दें । आप स्वयं..."
"हम स्वयं भी यही चाहते हैं कि शीघ्र ही राज्याभिषेक हो।आप मुहूर्त निकालें । महामात्य जी आप सभी राज्यों के नृपतियों को यह शुभ समाचार और निमंत्रण पत्र भेजे। चंद्रवंश के वैभवशाली राज्य के राजकुमार का राज्याभिषेक भी उतना ही वैभव पूर्ण होना चाहिए।
विश्वमना की बात पुरूरवा के रोमांचक आनंद के आगे अधूरी रह गई। वे कहना चाहते थे कि आप स्वयं राजपाट राजकुमार को सौंप वानप्रस्थ ग्रहण करें। आपके हित में यही उचित होगा। किंतु महाराज की प्रसन्नता ने उनके कथन को मुख से बाहर नहीं आने दिया।
आवश्यक आदेश दे पुरूरवा शीघ्रता से अपने प्रासाद की ओर चले गए। उनके मन की स्थिति ऐसी थी कि उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उनका रक्षक दल उनके साथ है या नहीं। वे तो उर्वशी को दिया भरत मुनि का श्राप भी भूल गए थे।उनका मन मानो पंख लगाकर उड़ा जा रहा था उर्वशी की ओर। जिसे वे शीघ्रातिशीघ्र बाहों में भरकर धन्यवाद देना चाहते थे कि उसने उन्हें पुत्र सुख दिया । 'धन्य हो तुम उर्वशी, तुमने चंद्र वंश को समाप्त होने से बचा लिया।'
इधर राजमहल के परामर्श कक्ष में विश्वमना, राजपुरोहित तथा अन्य पुरोहितों के बीच राज्याभिषेक की शुभ मुहूर्त तिथि को लेकर विचार विमर्श होने लगा। यह अत्यंत जटिल कार्य था ।क्योंकि तिथि के साथ-साथ ग्रह नक्षत्रों की दिशा व दशा भी देखनी थी ।कहीं किसी भी तरह की चूक नहीं होनी चाहिए।
राजसभा से महारानी आयु और सुकन्या के साथ अपने कक्ष में आई। सुकन्या के प्रति वे इतनी कृतज्ञता से भरी थीं कि उनकी वाणी मूक हो चुकी थी। वे अपलक आयु को निहार रही थीं। देवी सुकन्या की कुशल शिशु पालन योग्यता आयु के व्यक्तित्व में स्पष्ट दिखाई दे रही थी। महर्षि च्यवन ने धर्म, यज्ञ, शास्त्र और शस्त्रों से आयु को निष्णात कर दिया था ।महाराज पुरुरवा के प्रतिरूप आयु का सुदर्शन एवं बलिष्ठ स्वरूप देख वे फूली नहीं समा रही थीं। आयु में कर्तव्यनिष्ठा ,आदर्श राजा होने के समस्त गुण दृष्टिगोचर हो रहे थे।
"माताश्री में कितना भाग्यशाली हूँ कि तीन-तीन माताओ का वरद हस्त मेरे शीश पर है । जन्मदात्री माता उर्वशी, लालन पालन जिनके कर कमलों हुआ माता सुकन्या और आप।"
आयु ने महारानी के चरणों में शीश नवाते हुए कहा।
" हाँ पुत्र ,तुम सचमुच भाग्यशाली हो ।महाराज पुरूरवा तुम्हारे पिताश्री हैं जिनकी किसी से भी तुलना नहीं की जा सकती। नृपों में श्रेष्ठ महाराज विलक्षण प्रतिभावान है। उनके यश की ज्योति अत्यंत प्रखर है। उन्होंने कभी भी अपनी ओर से किसी से युद्ध नहीं किया।न कभी किसी का राज्य या भूमि जीतने का प्रयास किया किंतु फ़िर भी प्रतिष्ठानपुर की राज्य सीमा दिन पर दिन विस्तृत होती गई ।आयु तुम सीखना अपने पिताश्री से किस प्रकार राज्य के पदाधिकारी और सभासदों को प्रसन्न और संतुष्ट रखा जाता है ।किस प्रकार अपने नागरिकों यहाँ तक कि राज्य सीमा में आने वाले वन प्रदेशों की तपस्थली एवं आश्रमों की देखभाल किस प्रकार की जाती है।
"सत्य है महारानी, महर्षि च्यवन का आश्रम भी महाराज ने संपूर्ण सुख सुविधाओं से पूर्ण किया। ऐसा करते हुए महर्षि ने उन्हें रोका भी कि तपस्वियों के लिए यह सब वर्जित है। फ़िर भी ..."
देवी सुकन्या ने महारानी के कथन का समर्थन करते हुए कहा।
"पुत्र ,तुम्हारे पिताश्री परम धर्मात्मा है ।वे यज्ञ व्रत पूजन इत्यादि में विश्वास रखते हैं। तथा ज्योतिष शास्त्र को मानते हैं ।"
"माताश्री निश्चिंत रहें। मैं पिता श्री के चरण चिन्हों पर चलने का पूरा प्रयास करूंगा। मैं प्रजा को उनका अभाव अनुभूत नहीं होने दूंगा।"
कहते हुए आयु महारानी के समीप के आसन पर बैठ गया और देवी सुकन्या से आग्रह करने लगा - "माता, आप मेरे राज्याभिषेक तक रुकेंगी न?"
"यह भी कोई कहने की बात है। बिना राज्याभिषेक का उत्सव देखे देवी सुकन्या को यहाँ से जाने का प्रतिष्ठानपुर की महारानी औशिनरी आदेश नहीं देती।"
तीनों खिलखिला कर हंस पड़े। तभी कक्ष के गवाक्ष से बाहर राज सेवकों की चिंतित मुद्रा में आवाजाही देख महारानी शंका से भर उठी। उन्होंने निपुणिका को बुलाया - "क्या हुआ? ये राज्य सेवकों द्वारा इस तरह तीव्र गति से आना-जाना मानो कुछ खोज रहे हों।"
जी महारानी ,राजसभा में देवी उर्वशी उपस्थित थीं। फ़िर कहाँ गई किसी को नहीं पता।"
"अरे यह कैसे संभव है? उर्वशी हम सबसे मिले बिना, कुछ कहे बिना ही देवलोक प्रस्थान कर गई ?"महारानी ने दुख प्रकट किया ।
"महारानी सब कुछ भरत मुनि के श्राप के कारण ही तो हुआ। वे रुक ही नहीं सकती थी एक पल भी पृथ्वी लोक पर। क्योंकि महाराज और आयु का मिलन हो चुका था।" सुकन्या ने महारानी के दुख का समाधान करते हुए कहा ।
थोड़ी देर कक्ष में सन्नाटा रहा। तीनों ही उर्वशी के जाने से दुखी और व्याकुल थे। निपुणिका तीनों के लिए दूध और फल ले आई। आयु ने उठते हुए कहा - "माताश्री ,क्या मैं पिताश्री के प्रासाद में उनसे मिलने उनके कक्ष में जा सकता हूँ?"
"अवश्य पुत्र ,उर्वशी के जाने से वह भी दुखी हो रहे होंगे। तुम्हें देखकर प्रसन्न हो जाएँगे।"
राजसभा से लगभग दौड़ती हुई उर्वशी अपने कक्ष में आई ।उसका अनुसरण करती अपाला भी...
यह दृश्य वियोग का चरम था।उर्वशी का अपने हृदय पर से मानो वश ही समाप्त हो रहा था। वह हृदय जिसमें मात्र उसके पुरू थे अब सदा के लिए उससे दूर जा रहे थे ।वह अपने प्रियंक पर कटे वृक्ष से गिरी और फूट-फूट कर रो पड़ी। अपाला जल आदि पिलाकर उर्वशी को संयत करने का उपाय करने लगी। तभी कक्ष में उसकी चारों सखियों ने प्रवेश किया। रंभा, मेनका, चित्रलेखा , सहजन्या चारों कमनीय शृंगार में थीं। उनके मुख कमल पुष्प की भांति खिले हुए थे क्योंकि आज उनकी सखी उर्वशी 17 वर्ष के वियोग के पश्चात देवलोक में आने वाली है। उर्वशी के व्यथित मुख को देख रंभा ने कहा - "उर्वशी, प्रस्थान बेला है। क्या ऐसा रूप लेकर देवलोक चलोगी? आओ तुम्हारा शृंगार कर दें।"
उर्वशी ने अपने अश्रु पोंछते हुए कहा -"नहीं रंभा, मुझे ऐसे ही ले चलो। अब यदि एक क्षण भी मैं यहाँ रुकी तो मेरा स्वयं पर से अधिकर जाता रहेगा। ले चलो, मेरी सखियों,शीघ्र ले चलो। अपाला, मेरे पुरू से कहना उनकी उर्वशी की देह देवलोक चली गई किंतु हृदय यहीं है, यहीं उनके पास ।सदा उर्वशी उनकी ही रहेगी।" कहते-कहते उर्वशी पुनः रो पड़ी ।सखियों ने विलंब न करते हुए उर्वशी को साथ लिया और प्रस्थान करने से पूर्व अपाला को निर्देश दिया- "जब तक हम राजमहल से चली न जाएँ किसी से इस विषय में कुछ न कहना ।"
"आज्ञा का पालन होगा देवी।" अपाला ने नतमस्तक हो कहा।
कक्ष से बाहर निकल दो क़दम चलकर ही उर्वशी "अपाला मेरे साथ कक्ष में आओ।" कहती पुनः कक्ष में आई और स्वर्ण की छोटी-सी पेटिका जिसमें पुरुरवा के नाम उसने पत्र लिखकर रखा था अपाला को देती हुई बोली - "यह महाराज को दे देना।"
अपाला ने पेटिका तिपाई पर रख दी और उर्वशी को विदा करने राजमहल के मुख्य द्वार तक आई। संयोगवश या देव कृपा से उस समय वहाँ कोई प्रहरी नहीं था। उर्वशी को राजमहल से बाहर जाते हुए किसी ने भी नहीं देखा। वह सखियों के संग राजमहल के बाहर सुरक्षित और सुनसान स्थल पर रखे रथ में आकर बैठ गई। रथ ने तीव्र गति से देवलोक की ओर आकाश मार्ग से प्रस्थान किया।
राजसभा से पुरुरवा उर्वशी के कक्ष में आए। कक्ष सूना पड़ा था। अपाला ने नतमस्तक करबद्ध हो निवेदन किया "महाराज देवी उर्वशी देवलोक की ओर अपनी सखियों के साथ प्रस्थान कर चुकी हैं। आपको यह पेटिका देने कहा है।"
'प्रस्थान कर चुकी है? मुझसे मिले बिना ही चली गई? यह कैसे संभव है?' मन ही मन प्रश्न किया पुरुरवा ने । फ़िर तुरंत संभलकर संयम से काम लिया अपाला के हाथ से पेटिका लेकर उन्होंने कहा - "ठीक है तुम जाओ।"अपाला के जाते ही उन्होंने कक्ष अंदर से बंद कर लिया और उर्वशी के पर्यंक पर बैठ गए ।वे कभी पर्यंक पर बिछे मखमली बिछावन पर हाथ फेरते कभी तकिए को वक्ष स्थल पर दबोच लेते। आधी घड़ी तक वे उर्वशी के वियोग को अनुभव करते रहे फ़िर उन्होंने अपाला की दी पेटिका खोली। पेटिका खोलते ही सुगंध में लिपटा भोजपत्र पर लिखा उर्वशी का पत्र वे व्याकुल होकर पढ़ने लगे-
" मेरे प्राण सखा, मेरा जाना अकस्मात नहीं है। मैंने 16 वर्ष अपने पुत्र को अपने से दूर रखा या यूं कहिए कि छुपाए रखा क्योंकि पता चलते ही तुम उसे देवी सुकन्या के पास से ले आते और यह जो 16 वर्ष का प्रेम भरा जीवन हमने ज़िया यह संभव नहीं हो पाता। मैं भरत मुनि के दिए श्राप से ग्रस्त या तो माता बनकर रह सकती थी या तुम्हारी प्रियतमा। पुरू तुम्हारे प्रति मेरे अथाह प्रेम का यह प्रमाण है कि मैंने माता के पद से वंचित हो तुम्हें चुना। मेरी प्रकृति में गोपनीयता नहीं है किंतु फ़िर भी मैं तुमसे तुम्हारे पुत्र के देवी सुकन्या के आश्रम में होने की बात छुपा गई । इसे तुम मेरा स्वार्थ कह सकते हो या तुम्हारे प्रति मेरी तीव्र आसक्ति। तुमसे मैंने आत्मिक प्रेम और दैहिक प्रेम ईमानदारी से किया। तुमसे मेरा प्रेम, हाँ तुम कह सकते हो उसे विलक्षण तीव्र सच्चा पवित्र और पारदर्शी भी। मेरे पूरे बदन में तुम वीणा की झंकार बनकर रहोगे। सदैव मुझे ऊर्जस्वित करोगे। तुम मेरे बदन के एक-एक तार से झंकृत हो उठोगे प्रतिपल। देवलोक से जब तुम्हें पाने को मैं धरा पर आई थी तब नहीं जानती थी कि तुम्हारा प्रेम अटूट बंधन बनकर मेरी कलाइयों में कभी न खुलने वाले पवित्र कलावे का प्रेम ग्रंथ बनकर रहेगा। तुमने मेरे एक-एक अंग उन अंगों की एक-एक गति को पूरी तरह अपने में बाँध लिया ,समो लिया है। मैं याद करूंगी गंधमादन के उस सरोवर को जिसके जल में आकंठ निमग्न तुमने मुझे चारों ओर से घेर कर मेरी रग रग को अपने प्रगाढ़ आलिंगन में पोर- पोर कस लिया था। तुमने मुझे स्त्री होने की संपूर्णता दी थी। तुमने मुझे प्रेयसी और माता के सर्वोच्च पद से सुशोभित किया था। मैंने तुम्हारे साथ एक युग से भी लंबा मनचाहा जीवन जिया। अब तुम आयु के संग जीवन व्यतीत करो। पिता होने का गर्व अनुभव करो ।आयु को तुम्हारी आवश्यकता है। हम एक दूसरे को देखते हुए दो उल्काओं की तरह आकाश में चमकते अलग-अलग दिशाओं में हमेशा के लिए विलुप्त हो रहे हैं ।मिलन- बिछोह की सीमा से परे सत्य और शाश्वत।
विदा प्रियतम (यह कहते हुए मेरा हृदय छलनी हो रहा है)
तुम्हारी
उर्वशी
पत्र पढ़ कर संज्ञाशून्य से हो गए पुरूरवा, मुख से अस्फुट निकला- प्रिये, मुझसे अंतिम बार मिलकर तो जाती। मैं कैसे स्वीकार करूं कि तुम चली गईं। कैसे जीवित रहूँ तुम बिन। 16 वर्ष तुमने मुझे दैहिक और आत्मिक सुख दिया। इस सुख का तो मुझे पता ही न था। तुम तो वाणी से स्पष्ट, द्वंद्व मुक्त और उन्मुक्त हृदय की हो। पृथ्वी पर जिसे सनातन नारी कहा जाता है तुम बिल्कुल वैसी ही हो ।मेरी प्रेयसी ,मेरी रमणी, रूपसी उर्वशी, मेरे हृदय में निवास करने वाली, मैं तो तुम्हारे विरह की आशंका से ही व्याकुल हो जाता था ।अब जीवन भर का यह विरह कैसे सहूँगा ?उर्वशी, सौंदर्य की प्रतिमान। असुर ,किन्नर, गंधर्वलोक ,त्रिभुवन में कहीं तुम जैसा सौंदर्य नहीं है। सौंदर्य के साथ अथाह प्रेम को धारे तुमने मेरा वरण किया और मात्र 16 वर्ष साथ देकर मुझे सदा सदा के लिए त्याग दिया!
सोचते - सोचते पुरुरवा उर्वशी के पर्यंक पर गिर पड़े। तभी कक्ष के द्वार खुले और आयु ने "पिताश्री आप यहाँ!" कहते हुए प्रवेश किया। पुरुरवा पर्यंक से उठे। उन्होंने आयु को आलिंगन बद्ध करते हुए कहा- "आयु, तुम्हारी माता सदा के लिए हमसे विलग हो गई है। अब वे कभी लौटकर नहीं आएँगी।"
"पिताश्री हमें धैर्य रखना होगा। यह भरत मुनि के शाप का ही प्रतिफल है जो माताश्री हमसे बिछड़ गई।"
फिर पुरुरवा का ध्यान दूसरी ओर करते हुए आयु ने कहा- चलिए पिताश्री, अपने कक्ष में चलिए।कितनी सारी बातें करनी है आपसे।"
राजपुरोहित ने आयु के राजमहल में पदार्पण का तीसरा दिन राज्याभिषेक के लिए निश्चित किया। तैयारियाँ जोर-शोर से आरंभ हो गई ।सभी राज्यों के नृपतियों को निमंत्रण पत्रिका नारियल और स्वर्ण मुद्राओं के संग भेजी गई। राजमहल को नववधू की तरह सजाया गया ।रात के अंधकार में राजमहल गगन के सितारों को धूमिल कर रहा था किंतु चंद्रवंश का कुल देवता चंद्र अपनी पूरी उज्जवलता से गगन में देदीप्यमान था। राज्याभिषेक के लिए गंगा, यमुना, सरस्वती का पावन जल रजत कलश में भरकर लाया गया था ।
राजरसोई की महिमा तो कुछ ऐसी थी कि ओशीनरी के मार्गदर्शन में 56 व्यंजनों के थाल प्रतिष्ठानपुर के प्रत्येक नागरिक के लिए थे ।अमीर ग़रीब या ऊँची नीची जाति का भेदभाव नहीं रखा गया था।
क्षण भर को सुकन्या भूल गई कि वह महर्षि च्यवन की पत्नी है ।उसे लगा वह अपने राजमहल में अपने राजकुमार पुत्र का राज्याभिषेक होते देख रही है। मानो वही राजमाता है। एकाएक पिताश्री शर्याति का भव्य महल उसकी आंखों के आगे साकार होने लगा। कदाचित वह उस साकार होते महल की दिव्यता में डूब ही जाती कि उसने अपने विचारों को झटका। नहीं अब वह तपस्विनी है ।अब उसका राजमहल से कोई सरोकार नहीं है ।अब वह महर्षि च्यवन की पत्नी है जिसने अपना पूरा जीवन उनकी सेवा सुश्रुषा में समर्पित कर दिया है। महलों के विषय में सोचना भी अब उसके लिए अनुचित और व्यर्थ है।
राज्याभिषेक के संपन्न होते ही राजकुमार आयु की जय जयकार के नारे गगन गुंजाने लगे ।राजमहल मधुर गीतों और वीणा की झंकार से संगीतमय हो उठा था ।ऐसा लग रहा था जैसे देवलोक से अप्सराएँ धरती पर उतरकर इस आनंद को अपने नृत्य ,गायन ,वादन से द्विगुणित कर रही थीं।
राज्याभिषेक का उत्सव राजमहल में सप्ताह भर तक मनाया जाता रहा।
महारानी सुकन्या के साथ रहते हुए उसके मधुर सामीप्य के बीच यह भूल ही गई थी कि देवी सुकन्या को राजमहल से विदा भी देनी है। अतः वे चौंक पड़ी थी जब सुकन्या ने कहा- "देवी ,अब मैं विदा चाहती हूँ ।आपके आतिथ्य में इतने दिन अत्यंत हर्ष भरे बीते। अब आज्ञा दें ।आयु के राज्याभिषेक तक यहाँ रुकने का आपके आदेश का मैंने पालन किया। आयु भी यही चाहता था।"
"मेरा आदेश नहीं यह तो आपका अधिकार था देवी सुकन्या। जन्म देने वाली माता से अधिक लालन-पालन करने वाली माता का पुत्र पर अधिक अधिकार होता है। आप ही उसकी माता है। सदा आप ही रहेंगी। आयु महाराज का उत्तराधिकारी बन राज्य की सेवा और कर्तव्यों का पालन अवश्य करेगा, किंतु पुत्र वह आपका ही कहलाएगा।"कहते हुए महारानी के नेत्र भर आए।
महारानी के भावुकता भरे कथन को बहुत ही गंभीरता से लेते हुए सुकन्या ने कहा - "पुत्र आयु चिरंजीवी हो और आप राजमाता के पद पर सुशोभित हों । यही न्याय कहता है। आयु का जीवन तो अब चंद्रवंश के लिए समर्पित होना चाहिए।"
"बहुत बड़ा हृदय है आपका देवी सुकन्या, आपने 16 वर्ष तक आयु का पुत्रवत पालन पोषण किया। आश्रम के कठोर जीवन के रहते उसे दृढ़ पुरुष बनाया।अपनी ममता और वात्सल्य की छत्रछाया में सुरक्षित रखा और अब उसे आप चंद्रवंश को समर्पित कर रही हैं, धन्य हैं आप।"
विदा वेला में दोनों इस तरह गले मिली जैसे जन्मों का साथ हो।
महारानी ने सुकन्या के लिए रथ की व्यवस्था की थी। सुकन्या के मना करने पर भी रथ में मिष्ठान्न के पात्र रखे गए ।आयु ने सुकन्या की चरण रज अपने माथे से लगाते हुए कहा- माता आशीर्वाद दें कि मैं राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए एक सफल शासक बनूं। पिताश्री और माताश्री तथा समस्त राजमहल के सम्बंधियों के बीच में एक योग्य पुत्र कहलाऊँ।
सुकन्या ने आयु के शीश पर अपना हाथ रखते हुए आशीर्वाद दिया।
"माता राजकाज से जब भी थोड़ा समय निकल पाऊँगा आपके दर्शन के लिए आश्रम अवश्य आऊँगा। वही तो मेरा प्रथम ग्रह है।"
सुकन्या ने अश्रुपूरित नेत्रों से आयु को गले लगा लिया- कीर्तिवान हो पुत्र, चंद्रवंश के दीपक तुम, सदा तुम्हारे यश की ज्योति प्रज्वलित रहे।"
आयु ने साथ आए अपने तीनों मित्रो से भी अत्यंत भावुक होकर कहा - "मित्र मेरी माता का ध्यान रखिएगा।वे अपने कष्ट कभी बताती नहीं है। उनके मुख से ही आप उनके कष्टों को समझ कर उन्हें दूर करने का प्रयास करना।"
चारों मित्र बारी-बारी से गले मिले। विदाई अत्यंत कष्टप्रद हो रही थी किंतु संसार का नियम है जहाँ मिलन है वहाँ वियोग तो होता ही है।
आयु ने रथ में देवी सुकन्या को बैठाकर अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें विदा किया।
रथ के प्रस्थान करते ही पल भर को आयु विचलित हुआ। पहले माता उर्वशी फ़िर माता सुकन्या। इतनी जल्दी-जल्दी वियोग उसे अंतर्मन तक मथ गया।
राजमहल के मुख्य द्वार से जब वह अपने कक्ष की ओर लौटा तो उसे ऐसा लगा जैसे वह इस राज महल का अतिथि है। राजमहल को ,यहाँ की प्रत्येक वस्तु को अपना समझने में उसे अभी समय लगेगा।