उर्वशी पुरूरवा / भाग 16 / संतोष श्रीवास्तव

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पुरुरवा अपने प्रासाद के कक्ष में उद्विग्न टहल रहे थे ।विश्वमना ठीक कहते हैं कि अब उन्हें वानप्रस्थ ले लेना चाहिए। राजमहल में करने के लिए अब कुछ शेष नहीं रह गया। अब उन्हें उनके कर्तव्यों से मुक्त करने के लिए आयु राजगद्दी पर आसीन है। औशीनरी राजमाता होकर राज्य के कार्यों में उसकी मदद करेगी।

सोचते हुए पुरूरवा अपने प्रिय चंद्र सरोवर की ओर चल दिए। सरोवर उनके प्रासाद के विशाल उद्यान की पश्चिम दिशा में था। यह सरोवर उनका ऐसा मित्र था जहाँ वे अपने अवसाद के क्षणों में भी आते और आनंद के क्षणों में भी। यहाँ आकर उन्हें अपूर्व शांति मिलती। सरोवर के आसपास भांति भांति के वृक्षों की सघनता थी जिन पर हमेशा पखेरू चहचहाते । सरोवर के जल पर मंद गति से हंस और बत्तख तैरा करते। उन्हें देखते ही वे सरोवर के किनारे आ जाते और क्वें क्वें की ध्वनि निकालते। प्रकृति से उनका यह साहचर्य उन्हें नई ऊर्जा देता और वे राजकाज में दुगने उत्साह से जुट जाते। किंतु आज सरोवर का जल स्थिर था। पवन रुका हुआ था ।सरोवर के आसपास लगे वृक्षों के पत्ते भी स्थिर थे ।फिर पुरुरवा का हृदय क्यों नहीं स्थिर हो पा रहा है!

उर्वशी के जाने से बने शून्य को वे सह नहीं पा रहे हैं । वे सरोवर के तट पर रखी चंद्रिका शिला पर बैठ गए। सरोवर और शिला का नाम ओशीनरी ने ही रखा था अपने आराध्य चंद्र देव के नाम पर।

अपने आरंभ के दिनों को याद करते हैं पुरूरवा, जब वे विवाह के पश्चात ओशीनरी के साथ प्रत्येक संध्या यहाँ आया करते थे।

उनके चंद्रिका शिला पर बैठते ही सरोवर तरंगित होने लगा। शीतल पवन ने वातावरण को आह्लादकारी बना दिया। किंतु पुरुरवा के मुख पर स्मित की एक भी रेखा न थी। सरोवर मानो अपनी लहरों को उत्तेजित कर उनसे प्रश्न पूछ रहा हो "महाराज, आप तो धैर्यवान पुरुष हैं । फ़िर यह आपके स्वभाव के विपरीत अधीरता क्यों? पुरुरवा का हृदय संताप से भर उठा। उन्हें शीतल चंद्रिका शिला अतिशय दग्ध लगी । शिला से लटके उनके पांवो को सरोवर का जल स्पर्श कर रहा था। किंतु उस स्पर्श में भी दग्धता थी।

पुरुरवा विचारों की आंधी से घिर गए थे। किसी निष्कर्ष पर टिक नहीं पा रहा था उनका मन। कभी आयु के विषय में सोचते, इतने वर्ष आश्रम से शिक्षा दीक्षा ग्रहण कर एकाएक उसका राज्य सिंहासन को संभालना, विशाल महल के विभिन्न प्रासादों में निवास कर रहे सम्बंधियों, राजसभा और सभी पदाधिकारियो के आचार व्यवहार को परखना क्या आयु के वश का है ?क्या वह सभी को प्रसन्न रख पाएगा? क्या ओशीनरी के मातृत्व को स्वीकार कर पाएगा? उर्वशी को तो उसने मात्र कुछ ही समय के लिए देखा है, देखा तो ओशनरी को भी उर्वशी के साथ ही है किंतु उर्वशी देवलोक प्रस्थान कर चुकी है। उर्वशी के मन में यदि वात्सल्य होता तो निश्चय ही रुकती यहाँ। वात्सल्य नहीं तो मेरे प्रेमवश रुक जाती ।

इतने वर्षों के संग साथ को निष्ठुरता से त्याग कर वह बिना अंतिम विदा लिए ही चली गई।

उद्विग्न होकर उन्होंने सरोवर की ओर देखा।

उन्हें लगा सरोवर अट्टहास कर रहा है ...'शापग्रस्त से आप यह अपेक्षा कर रहे हैं महाराज?'

पुरुरवा स्वयं पर विस्मित हुए ।उर्वशी शापित थी ।भरत मुनि के शाप का अंत यही होना था। या तो उर्वशी उनकी अंतिम सांस तक उनके साथ रहती या पुत्र आयु के साथ ।यह कैसा दोषारोपण अपनी प्रिया पर! वह तो विवश थी ।अपने प्रारब्ध के अधीन थी।किंतु मन को समझाने के लिए यह कारण पर्याप्त नहीं है। शाप, वरदान के परिणामों से अपरिचित नहीं है पुरूरवा किंतु इस समय इन सब बातों पर भारी है उर्वशी का वियोग। यह जानते हुए भी कि समस्त पीड़ाओं ,उहापोह, अंतर्द्वंद का हल है प्रभु चिंतन। प्रभु में लौ लगाने से तुरंत ही भटकाव को मार्ग मिल जाता है। मार्ग भी और परम शांति भी। वे जो वियोग की पीड़ा में आकंठ निमग्न थे एकाएक मानो उस पीड़ा से उबर आए ।उनके ज्ञान चक्षु खुल गए। मन का अंधकार दूर हो गया। एक उज्ज्वल सात्विक प्रकाश में उन्हें शेष जीवन का लक्ष्य दिखाई देने लगा। ठीक उसी समय सरोवर से एक लहर उठी जिसने किनारे खिली कमलिनी के पुष्प से उनके पांव को स्पर्श किया। मानो उर्वशी उनके पांव को स्पर्श कर लक्ष्य के कठिन मार्ग पर चलने योग्य बना रही है ।उनका पूरा शरीर रोमांचित हो उठा।

क्षणांश में ही वे स्थितप्रज्ञ हो गए ।शांत चित्त, अनुराग विराग से परे। समस्त विचलन से परे ।अब उन्हें अपने लक्ष्य को साधना है। तप के मार्ग का चयन कर उन्हें अपूर्व शांति का अनुभव हुआ ।

उनके भाग्य में जो कुछ था वह उन्हें मिला वे अपने जीवन से पूर्ण संतुष्ट हैं उन्हें अपने जीवन से कोई शिकायत होना भी नहीं चाहिए। प्रतिष्ठानपुर से आध्यात्मिक मार्ग की ओर ग़मन करते हुए वह याद रखे जाएँगे अपनी वीरता, धर्मनिष्ठा प्रजा के कल्याण के लिए किए हुए कार्यों को लेकर। पुरुरवा अपने समय के ऐसे सूर्य हैं जो कभी अस्ताचलगामी नहीं हुए।

वानप्रस्थ लेने की प्रबलता से पुरुरवा का हृदय तनिक भी अशक्त नहीं हो रहा था।

उन्होंने अंतिम सारी स्थितियाँ ओशीनरी के समक्ष स्पष्ट करने के लिए उनके प्रासाद की ओर क़दम बढ़ाए।

रात्रि का प्रथम प्रहर था। राजमहल अभी भी आयु के सिंहासन पर आरूढ़ होने के उत्सव में डूबा था। घने अंधकार में हीरे-सा जगमगाता राजमहल मानो पृथ्वी पर प्रतिष्ठानपुर के सर्वश्रेष्ठ राज्य होने का प्रमाण था। संगीत कक्ष से गायन के मधुर स्वर वातावरण को स्वर लहरी में डुबो रहे थे।

जिस समय पुरुरवा ओशनरी के प्रासाद में उनके कक्ष में पहुँचे। वे कक्ष के प्रकोष्ठ में हिंडोले पर बैठी रात्रि के सौंदर्य को निहार रही थीं। निपुणिका ने सूचना दी- "महारानी कक्ष में महाराज पधारे हैं।"

औशीनरी शीघ्र हिंडोले से उतरकर कक्ष में आई। पुरुरवा के उनके कक्ष में आगमन की जहाँ एक ओर प्रसन्नता थी वहीं दूसरी ओर मन में प्रश्न भी उठा महाराज इस समय ?

पुरुरवा आसन पर विराजमान हुए तो ओशिनरी से समीप बैठने का निवेदन किया -

"मैं आपसे कुछ निवेदन करने आया हूँ ओशीनरी।

"निवेदन क्यों महाराज? आदेश करिए। आपकी हर आज्ञा का पालन मैं हमेशा से करती आई हूँ।"

"यह सब याद दिलाने की आवश्यकता नहीं ओशिनरी, मुझे ज्ञात है आप हमेशा से मेरे प्रति ईमानदार और समर्पित रही हैं।"

ओशीनरी ने बहुत ही स्नेह से पुरूरवा की ओर देखा। कयास लगाने की कोशिश की कि पुरुरवा क्या कहना चाहते हैं?

कहीं पुरुरवा पहले की तरह अपने साथ के दिनों को उनके साथ पुनः जीना चाहते हैं या फ़िर ?

कई पलों तक पुरुरवा मौन रहे। उनका मौन महारानी के लिए व्याकुलता का कारण बन गया। उन्होंने पुरुरवा के मुख पर प्रश्नों भरे नेत्र टिका दिए।

बहुत ही स्नेहिल शब्दों में पुरुरवा ने कहना शुरू किया-

"मैं विगत 16 वर्ष आपसे अलग नहीं रहा औशीनरी। मेरे जीवन में कितने ही ऐसे अवसर आए किंतु मेरा मन कोई बांट पाया क्या ? एक उर्वशी को छोड़कर? उर्वशी ने न जाने किन स्थितियों में मेरे हृदय में प्रवेश कर प्रेम का बिरवा रोप दिया। उन दिनों मेरा स्वयं पर से अधिकार ही समाप्त हो गया था। मैं उर्वशी के वशीभूत वह सब करता रहा जिसकी उसने अभिलाषा की।"

"तो क्या आपको पश्चाताप है महाराज।"

"नहीं महारानी, मैंने जीवन में ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिसके लिए मुझे बाद में पश्चाताप हो। मैंने प्रत्येक कार्य अपनी इच्छा और अपने अंतर्मन की आवाज़ से किया।

उर्वशी एक ऐसी शीतलधारा थी जिसमें मैने वस्त्र की भांति स्वयं को छोड़ दिया था और परिपूर्ण आनंद से बहता चला गया था।

किंतु आप मेरे जीवन की ऐसी संगिनी है जो अपनी कस्तूरी-सुवासों में आजीवन मुझे लपेटे रहीं। आप ही वह कलकल-निनादिनी गंगा हैं जिसकी धारा में स्वयं को उन्मुक्त छोड़कर असीम आनंद में डूबा हूँ मैं।"

एकाएक जैसे नदी की धारा-सी उमड़ पड़ी औशीनरी, महाराज का कथन सुन।"

"रुलाइए मत महाराज।"

"ओशीनरी भावुकता में मत बहो क्योंकि अब जो मैं कहने जा रहा हूँ उसके लिए तुम्हें अपना हृदय दृढ़ करना होगा।"

यह सुनकर ओशीनरी का हृदय तीव्रता से धड़कने लगा। पता नहीं महाराज क्या कहने वाले हैं। हे प्रभु मुझे शक्ति दो।

ओशीनरी ने अपने छलक आए नेत्रों पर हथेलियाँ दबा लीं।

"महारानी, मैंने प्रतिष्ठानपुर की सेवा करते हुए राज्य सिंहासन के समस्त प्रदत्त कर्तव्यों का पालन करते हुए स्वयं को समर्पित किया है"

अब तक स्वयं पर क़ाबू कर लिया था ओशिनरी ने। उन्होंने प्रकृतिस्थ होकर कहा-

"इसमें क्या संदेह है महाराज, आप जैसा महा बलशाली, श्रेष्ठ योद्धा ,कुशल प्रशासक तो मुझे कोई दूसरा दिखाई ही नहीं देता।"

"किंतु अब मैं थक चुका हूँ। अब आयु को समस्त कार्यभार सौंप कर मैं वानप्रस्थ लेना चाहता हूँ।"

"वानप्रस्थ अर्थात राजमहल का त्याग कर वन में निवास!"

ओशीनरी ने चकित होकर पूछा।

"हाँ महारानी ,किंतु इसे मेरा पलायन मत समझना। यह तो मात्र मेरे थमने का अंतिम विकल्प है। आप तो जानती हैं जीवन के चार चरण है ।ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। ऋषि मुनियों ने अपने दिव्य दर्शन और ज्ञान के अनुसार आश्रमों के सिद्धांत निश्चित किए हैं तथा वैसा व्यवहार करने की प्रेरणा दी है ।"

"जानती हूँ महाराज,और यह तो सर्व विदित है कि एक आदर्श जीवन को चार चरण में समय और आयु के अनुसार बांटा गया है।"

"तो महारानी, अब मेरा वानप्रस्थ लेने का समय आ गया।"

चौकी महारानी- "यह आप क्या कह रहे हैं। अभी तो आयु का राज्याभिषेक हुआ है ।अभी तो आपके मार्गदर्शन में उसे बहुत कुछ सीखना है।"

"समय और कर्तव्यों से बढ़कर कोई गुरु नहीं महारानी, हम कितना भी मार्गदर्शन क्यों न दें किंतु व्यक्ति के अनुभव और ठोकरें ही उसकी गुरु होती हैं ।फिर आयु तो महर्षि च्यवन का शिष्य है। महान गुरु के द्वारा दिए गए ज्ञान, कौशल, परंपरा का निश्चय ही पालन करेगा। बल्कि एक दृष्टि से विचार करो तो उसकी ओर से मैं निश्चिंत ही हूँ। मैंने वानप्रस्थ लेने का निर्णय ले लिया है। मैं वन में निवास कर जप- तप करते हुए शिष्यों को विद्या ज्ञान दूंगा ।"

औशीनरी ने पुरूरवा के कथन पर ग़ौर किया। उसके परिणामों पर विचार करते हुए कहा - "वानप्रस्थ तो मैं भी ले सकती हूँ महाराज। 16 वर्ष आप मेरे समीप रहते हुए भी मुझसे दूर रहे। अब जीवन की संध्या बेला में अपने से दूर न करें। आपके साथ मैं भी आश्रम में निवास करूंगी। आपके शिष्यों की गुरु माता कहलाऊँगी।"

"औशीनरी" पुरुरवा जब भावुक हो जाते हैं तो उन्हें महारानी न कह कर ओशीनरी सम्बोधित करते हैं।

"हम आपके भरोसे ही तो वानप्रस्थ ले रहे हैं। अभी-अभी आयु की जन्मदात्री उससे बिछड़ी है। उर्वशी के वियोग का घाव ताज़ा है उसके हृदय में। ऐसे में आप ही तो उसे संरक्षण देंगी ।उसके जीवन में आई ममता के अभाव को पूर्ण करेंगी और फ़िर बालिका भवन भी तो है। आप वनप्रस्थ लेंगी तो वे अनाथ बालिकाएँ तो पुनः अनाथ हो जाएँगी।"

महारानी पुरुरवा के तर्क से क़ायल तो हुईं किंतु मन में यह विचार भी कौंधा कि महाराज मेरा साथ चाहते ही नहीं।

"ओशनरी,

वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यास मानव जीवन की अंतिम परिणति है ।इसका सुख अद्भुत है आप जानती हैं । उर्वशी के साथ के 16 वर्ष यदि मेरे जीवन से निकाल दो तो मैंने एक तरह से जीवन से अनासक्त रहकर ही अपने कर्तव्यों का पालन किया। संतानहीन रहकर भी दूसरा विवाह नहीं किया।""जानती हूँ महाराज ,आप मेरे प्रति एकनिष्ठ रहे ।मैं स्वयं को जीवन भर दोष देती रही कि मैं चंद्रवंश को आगे न बढ़ा सकी। कदाचित इसी वेदना के वशीभूत मैंने उर्वशी को अपने जीवन में स्वीकार किया।"

क्षण भर रुक कर औशीनरी ने पुरुरवा के वानप्रस्थ लेने के पक्ष की अपनी मनोदशा का तीव्रता से अनुभव किया।

"महाराज, आपने मेरे राजमहल और बालिका भवन के कर्तव्यों को याद तो दिलाया किंतु यह भी तो बताएँ कि मैं आपके बिना कैसे रहूँगी?"

पुरूरवा ने अति स्नेह से ओशीनरी की ओर देखा। उनके माथे पर स्वेद कण और नेत्रों में अश्रु झिलमिला रहे थे।

"महारानी, प्रिये औशीनरी आप राजमाता और आयु की माता के रूप में सदा इस प्रतिष्ठानपुर में पूजी जाओगी। आपने जिस तरह पति भक्ति का निर्वाह किया है वह इस पृथ्वीतल की समस्त स्त्रियों के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है । आपकी योग्यता, आपका आत्मबल सदैव प्रत्येक भटकी स्त्री का मार्गदर्शन करेगा। उनका मार्ग प्रशस्त करेगा।"

कहते हुए पुरुरवा के हृदय में संन्यास भाव उदित हो चुका था। उन्होंने ओशीनरी का विदा स्पर्श भी नहीं किया किंतु नतमस्तक हो प्रणाम करते हुए कहा- "राजमाता ओशीनरी को मेरा अंतिम प्रणाम। ब्रह्म मुहूर्त में मैं राज महल का त्याग कर वन की ओर प्रस्थान करुंगा ।मेरे लिए शोक मत करना राजमाता औशीनरी, यही जीवन का संदेश है हम सबके लिए।"

पुरुरवा कक्ष से प्रस्थान कर चुके थे। किंतु ओशीनरी न जाने किस दैवी शक्ति के वशीभूत न तो व्याकुल हुई न विचलित।

पुरुरवा के द्वारा थोपे गए समस्त कर्तव्यों को ओढ़ कर वे शून्य नेत्रों से अपने वैवाहिक जीवन के अंतिम अध्याय का पटाक्षेप होते देखते रहीं।

उस रात उनके जीवन में विस्मयकारी, विस्फोटक घटना घटी। जब पूर्व और पश्चिम दिशाएँ साथ-साथ चलीं और सूर्य और चंद्र एक साथ उदित और अस्त हुए।