उर्वशी पुरूरवा / भाग 1 / संतोष श्रीवास्तव
प्रतिष्ठानपुर का राजमहल संध्या के सुनहलेपन से स्वर्णिम दिखाई दे रहा था। संगीत कक्ष से धीमे-धीमे संगीत वाद्यों के स्वर महाराज पुरुरवा के प्रासाद के कक्ष में प्रवेश कर रहे थे किंतु आज पुरुरवा का मन उद्विग्न था। यह कैसी स्थिति से वे गुजर रहे थे ।जहाँ उन्हें स्वयं अपना भान नहीं था ,जैसे उनका मन खिंचा चला जा रहा था उस मोहक छवि में जिसके दृढ़ पाश में वे बंधे चले जा रहे थे । अवश हो उन्होंने नेत्र मूंद लिए।
निपुणिका और मदनिका के संग महारानी औशीनरी संध्या भ्रमण के लिए महल के उद्यान में जा रही थीं । भ्रमण करते हुए वे पुरुरवा के प्रासाद की ओर निकल गई। प्रासाद में सांध्यदीप स्तंभों को प्रकाशित करने की तैयारी चल रही थी। अभ्यासवश
उनकी दृष्टि पुरुरवा के कक्ष के झरोखे पर पड़ी जहाँ पुरुरवा उदास खड़े थे उनका मुख मलिन और नेत्र बेचैन दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर महारानी को आशंका हुई।आज महाराज को क्या हुआ! संध्या तो वे नृत्यशाला में नृत्याँगना के नृत्य का आनंद उठाते हुए अपने मित्रो के संग बिताते हैं! कभी-कभी नृत्य शाला न जाकर संध्या आरती के पश्चात रात्रि भोज तक वेदों ,पुराणों के गूढ़ अर्थों को समझने और महारानी से उन पर विमर्श करते हुए व्यतीत करते हैं। किंतु आज।
महारानी का मन भी भ्रमण में नहीं लगा ।वे शीघ्रता से पुरुरवा के कक्ष में गई। पुरुरवा अभी तक झरोखे में ही खड़े थे। महारानी ने पास आकर अत्यंत नम्रता से पूछा- "क्या महाराज की इस मनोदशा का कारण जान सकती हूँ ।कब से आपको इसी अवस्था में देख रही हूँ ।"
पुरुरवा ने झरोखे से हटते हुए पूछा -"यह समय तो आपके उद्यान भ्रमण का है?"
"जी महाराज, किंतु आपको उद्विग्न कैसे देख सकती हूँ ?"
"चिंतित न हो महारानी ।कभी-कभी अकारण ही मन अशांत हो जाता है।"
मन की व्यथा का असली कारण वे महारानी से छुपा गए।
झरोखे से हटकर वे आसन पर गाव तकियों के सहारे बैठ गए ।महारानी पास ही रखे शरबत पात्र से गुलाब का शरबत चांदी के पात्र में निकालते हुए बोलीं - "कई दिनों से आप मृगया के लिए नहीं गए। अपना अधिकांश समय आप राजकाज में व्यतीत करते हैं। स्वस्थ रहने के लिए मनोरंजन भी आवश्यक है। हरे भरे वन,सरोवर, जलप्रपात के बीच कुछ दिन व्यतीत करेंगे तो मन आल्हादित हो जाएगा।"
"भूल रही हैं महारानी। अभी तो गए थे हम।"
"उस बात को दो माह से अधिक हो गए।"
कहते हुए महारानी मुस्कुराई। "भूल तो आप रहे हैं महाराज ।"
"ओ अच्छा, वैसे आप ठीक कह रही हैं। आप भी चलिए न सैर के लिए ।"
"इस बार क्षमा करें महाराज, बालिका भवन में कुछ विषयों को लेकर मतभेद चल रहे हैं उन्हीं को सुलझाना है। आप भ्रमण के लिए जाएँगे तो मुझे भी समय मिल जाएगा।"
भ्रमण का प्रस्ताव रखकर महारानी अपने प्रसाद कक्ष में लौट तो आईं किंतु उनके मन में संदेह अंगड़ाइयाँ ले रहा था। उन्होंने अपनी विश्वासपात्र दासी निपुणिका को आज्ञा दी कि वह महाराज के मित्र अपने हास परिहास से उनका मनोरंजन करने वाले राज विदूषक से महाराज की इस मनोदशा का कारण ज्ञात करके आए। पता तो चले महारानी को कि महाराज को हुआ क्या है।
राज विदूषक उस समय राजमहल में ही उपस्थित था। तथा वह पुरूरवा के पास ही जा रहा था। निपुणिका ने उसे मार्ग में ही रोक कर कहा-
"रुकिए राज विदूषक जी, इतनी हड़बड़ी में कहाँ चले जा रहे हैं?"
"निश्चय ही आपको मुझसे कुछ काम होगा। बताइए, मैं किस तरह आपकी सहायता कर सकता हूँ?"राज विदूषक ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"क्या आप सच-सच बताएँगे?" राजमहल के गलियारे रेशमी पर्दों से ढके थे। गलियारों के स्तंभ भांति-भांति के रंग-बिरंगे पत्तों वाले पौधों के पात्रों से सजे थे। रात्रि के अंधकार में भी सूर्य किरनो-सी जगमगाती माणिक्य मालाओं से स्वर्ग-सा आभास होता था। निपुणिका ने राज विदूषक को एक स्तंभ के परदे के पीछे बुलाकर धीमे स्वर में पूछा- "सच कहिए हमारे महाराज की उदासी का कारण क्या है? आप तो उनके मित्र हैं।"
राज विदूषक समझ गया कि यह जानने का आदेश महारानी की ओर से हुआ है। काशी नरेश की पुत्री महारानी ओशिनरी पुरूरवा के प्रति गहरा प्रेम और दर्पण-सा स्वच्छ मन रखती हैं। उनसे असत्य कहने का साहस किसी में न था ।महारानी अत्यंत दयालु और दीन दुखियों की सहायक हैं। वे प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव रखती हैं। सभी उन्हें महारानी माता कहते हैं। राज विदूषक ने पुरुरवा की उदासी का जो कारण बताया उसे सुनकर तो निपुणिका भी पल भर को स्तब्ध रह गई। यह क्या सुन रही है! वह कैसे विश्वास करे कि राज विदूषक सत्य कह रहा है। कैसे महारानी से जाकर यह सच बताए। सुनकर उन पर क्या बीतेगी। हे प्रभु, महारानी को यह सब सुनने ,सहने की शक्ति देना। मन ही मन राज विदूषक के कथन को दोहराती हुई वह महारानी के पास पहुँची ।महारानी का स्नेह उसे सब कुछ बता देने को बाध्य कर रहा था। वह बड़ी कठिनाई से वाक्य को ढकेलती हुई बोली- "महारानी हमारे महाराज हैं ही ऐसे ।जो एक बार कोई स्त्री देख ले उन्हीं की होकर रह जाती है।"
"कौन है वह स्त्री?"महारानी ने चकित होते हुए पूछा। यह भी न सोचा कि महाराज तो कभी अन्य स्त्रियों की ओर देखते भी नहीं। उन्हें तो बस राज काज और पूजा पाठ से ही मतलब रहता है ।निपुणिका ने साहस कर राज विदूषक से सुनी हुई सारी बातें विस्तार से बता दीं- "राज विदूषक तो यह भी कह रहा था कि उसने महाराज को इस मृगतृष्णा से बचाने का बहुत प्रयास किया किंतु महाराज उस त्रैलोक्य सुंदरी के ज़ाल में फंसते ही चले गए ।"
महारानी ने धैर्य पूर्वक सब कुछ सुना और एकांत का आदेश दे कक्ष के द्वार बंद कर लिए। वे पलंग पर स्तंभित हो बैठ गईं।
देवसभा में अनगिनत बार राजा पुरूरवा के सुदर्शन व्यक्तित्व,श्रेष्ठ चरित्र, परमवीर एवं प्रतापी और सर्वगुण संपन्न होने की चर्चा सभासद कर चुके थे जिसे सुनकर देवलोक की अप्सराएँ पुरुरवा के सान्निध्य के लिए उतावली हो उठी थी। उर्वशी तो दिन रात पुरूरवा के ही विचारों में मग्न रहने लगी। भूलोक पर बसंत ऋतु का आगमन हो चुका था। प्रतिष्ठानपुर के समीप का वन प्रदेश पुष्पित पल्लवित हो कांच की तरह पारदर्शी जल के झर झर बहते जलप्रपातों, सुरभित वासंती पवन, कलरव करते पक्षियों और कोयल की मधुर तान से गुंजायमान हो रहा था। कामदेव के पांचो बाण मानो वन प्रदेश को शृंगार रस से सराबोर कर रहे थे।
उर्वशी देख रही थी देव सभा से धरती के इस अनुपम सौंदर्य को। उसका हृदय प्रेम की तीव्रता में हिलोरें ले रहा था। अभी तक उसके हृदय पर किसी का अधिकार नहीं था। वह केवल इंद्र की सभा की अत्यंत रूपसी नर्तकी, गायिका और अभिनेत्री थी ।वह सभी की महिला मित्र के रूप में ही जानी जाती थी। भूलोक के वासंती सौंदर्य से मोहित हो उर्वशी ने अपनी सखियों के संग भूलोक भ्रमण का कार्यक्रम बनाया।
वह जिस अरण्य में आई वह प्रतिष्ठानपुर से लगा हुआ अरण्य था। अरण्य में वसंत अपने पूरे साजो सामान से डेरा डाले था। वृक्ष पुष्पों से लदे थे जिनकी डालियों का स्पर्श करते हुए समीर मतवाला हो बहता तो कुछ पुष्प पगडंडियों पर झड़ते हुए उसे राजसी स्वरूप प्रदान कर रहे थे। आम्र कुंज में कोयल सुरीली तान छेड़ती पूरे अरण्य को संगीतमय कर रही थी। भ्रमर सुगंधित पुष्पों पर मंडराते हुए गुंजन कर रहे थे। तितलियाँ उस गुंजन की लय पर नर्तन कर रही थीं।
उर्वशी अपनी सखियों सहित चकित थी। क्या देवलोक से भी सुंदर भूलोक हो सकता है! जहाँ तक दृष्टि जाती सौंदर्य का कोष बिखरा पड़ा था ।मनोरम पर्वत से उतरते जलप्रपात में जल क्रीड़ा हेतु वह उतरने ही वाली थी कि तभी एक रथ उनके पास आया और उर्वशी सहित सभी सखियों का अपहरण कर तीव्र गति से वन वीथिकाओं में दौड़ने लगा। वे सब चीत्कार करने लगीं - "बचाओ- बचाओ ,सहायता करो ।"
उनकी चीत्कार पुरुरवा ने सुनी। वे इस जलप्रपात में स्नान कर सूर्य की स्तुति करते हुए अर्घ दे रहे थे। उन्होंने तत्काल अपने अश्व पर सवार होकर चीत्कार की दिशा में अपना अश्व दौड़ा दिया ।अश्व वायु से भी अधिक तीव्र गति से रथ के पास पहुँच गया। सिंह के समान बलशाली निर्भीक पुरुरवा ने रथ के सारथी को ललकारते हुए जो और कोई नहीं केसी नामक दानव था और उर्वशी के रूप सौंदर्य पर मोहित हो उसे पाना चाहता था, रथ के आगे अपना अश्व रोककर उस पर तलवार से वार किया। वार अचूक था और केसी पल भर में ढेर हो गया। रथ के एकाएक रुक जाने से रथ से बंधे अश्व हिनहिनाने लगे। सभी सखियाँ रथ से उतरीं। किंतु उर्वशी पुरुरवा के रूप सौंदर्य पर मोहित हो ठगी-सी रथ में बैठी रही ।उसका अपने हृदय पर वश नहीं रहा। वह पुरुरवा के समीप जाने के लिए शीघ्रता से रथ से उतरी किंतु संतुलन बिगड़ जाने से वह रंभा के कंधे से जा लगी।
"संभाल कर देवी।" पुरुरवा ने उर्वशी को सहारा देते हुए कहा।
"राजन ,यह उर्वशी है ।देवलोक से हम सब भूलोक में भ्रमण करने आए और हमारी यह दशा हो गई ।"
चित्रलेखा ने कहा- "अगर आप नहीं होते तो वह दुष्ट हमारे साथ न जाने कैसा व्यवहार करता।"
रंभा ने उर्वशी की बांह पकड़ते हुए कहा।
"उसका इतना साहस नहीं था देवियों। प्रतिष्ठानपुर के आसपास प्रयाग की नदियाँ, वन, पशु - पक्षी सब की रक्षा हम ही तो करते हैं। हमारे रहते यहाँ कुछ भी अनर्थ नहीं हो सकता।"
"फिर वह दुष्ट ऐसा साहस कैसे कर सका ?"
"देवी यह तर्क का विषय नहीं है। बल्कि हमारे लिए चुनौती है ।अवश्य हमारे रक्षको से कोई चूक हुई है। हमें और सजग रहना होगा। चलिए मैं आपको आपके गंतव्य तक छोड़ देता हूँ ।"
"नहीं राजन, हम चले जाएँगे ।हमें अपना मार्ग विदित है। आप कष्ट न करें।" कहते हुए सभी ने पुरुरवा से विदा ली किंतु न तो उर्वशी के हृदय से पुरुरवा ने और न पुरुरवा के हृदय से उर्वशी ने विदा ली। दोनों प्रेम पुष्प में बिंध चुके थे।
उर्वशी के जाते ही पुरूरवा अत्यंत व्याकुलता से सघन वन में इधर से उधर चलने लगे ।उनके मन की दशा उस चातक पक्षी जैसी हो रही थी जो स्वाति नक्षत्र में बादलों से गिरी वर्षा की पहली बूंद की प्रतीक्षा में पी कहाँ - पी कहाँ की टेर लगाता है।
पुरुरवा महल तो लौट आए किंतु उर्वशी का भोला भाला सुंदर मुखड़ा उनकी आंखों से ओझल ही नहीं हो रहा था। उन्होंने अपने बचपन के मित्र राज विदूषक से भेंट कर अपने मन का हाल सुनाया- "मित्र उर्वशी के बिना जी नहीं पाऊँगा। मुझे स्वयं ज्ञात नहीं है कि मुझे एकाएक हो क्या गया है?"
राजविदूषक पुरुरवा के मन की स्थिति जानकर अत्यंत चिंतित हुआ। सोचने लगा, क्या करें जिससे महाराज पहले जैसे प्रसन्नचित्त रहने लगें। प्रतिदिन राजकाज से निवृत होकर पुरुरवा राजविदूषक के संग कभी नृत्यशाला, कभी वन भ्रमण, कभी जलप्रपात के किनारे सूर्यास्त के समय केवल उर्वशी की ही बातों में डूबे रहते ।उनकी उदासी दिन पर दिन बढ़ती जाती।
यही दशा उर्वशी के मन की थी ।वह पुरुरवा के प्रेम में आकंठ निमग्न थी ।यह कैसा भाव था जो पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। देवलोक में ऐसा होना तो संभव ही नहीं था। वहाँ की कन्याएँ इन सब मनोभावों से परे केवल देवसभा की अमूल्य धरोहर थीं। न वे किसी की माता थीं, न बहन, न प्रेमिका और न पत्नी ।वे स्वच्छंद विचरण करने वाली देवलोक के समस्त सुखों का उपभोग कर रही थीं। दुख ने उन्हें स्पर्श तक नहीं किया था। वे इस शब्द से परिचित ही नहीं थीं। सदैव उनका बदन स्वेद रहित और अपूर्व शांति से युक्त था। ऐसे में उर्वशी का पुरुरवा को देखकर विचलित होना सभी सखियों के लिए विस्मय का कारण था। रंभा ने राय दी- "चलो भूलोक चलकर पुरूरवा से मिलते हैं ।थोड़ा समय उनके साथ बिता कर तुम्हारा मन बदलेगा उर्वशी।" उर्वशी का चेहरा पुष्प-सा खिल गया। उसने रंभा को आलिंगनबद्ध करते हुए उसका मुख चूम लिया।
भूलोक पर जाने के लिए उर्वशी ने विशिष्ट शृंगार करने का विचार किया। फ़िर यह सोचकर कि पुरुरवा कहीं अप्रसन्न ना हो जाए उसने रेशमी वस्त्र धारण कर मोतियों के आभूषण पहने । पुरूरवा से मिलन के क्षण धीरे-धीरे उसे अपने आगोश में लेने लगे।
वह पूर्णिमा की रात्रि थी। पुरूरवा राज विदूषक के संग वन सौंदर्य देखने अश्व पर सवार हो निकले ।प्रत्येक मास की पूर्णिमा राजमहल के लिए उत्सव की तरह होती है। इस दिन महारानी अपने आराध्य देव चंद्र के लिए व्रत रखती हैं ।उनकी पूजा अनुष्ठान में कभी पूरूरवा सम्मिलित होते हैं, कभी वन सौंदर्य देखने के लिए राज विदूषक के संग चले जाते हैं ।दोनों के श्वेत अश्व वन के जाने पहचाने मार्ग पर धीमी गति से चल रहे थे। चंद्रमा की ज्योत्सना वन के चप्पे-चप्पे को रजत कर रही थी। नदी का जल दूर से रजत का ढेर नज़र आ रहा था। नदी किनारे कदंब के वृक्ष पीले पुष्पों की छटा बिखेरते मानो आमंत्रण दे रहे थे कि आओ इस सौंदर्य में स्वयं को समाहित कर क्षण भर के लिए इस संसार को भूल जाओ।यह प्रकृति तुम्हारे निमित्त है। इसका आनंद लो।"
पुरूरवा नदी के किनारे सुंदर पुष्पों वाले पौधों से घिरी चट्टान पर राज विदूषक के संग बैठ गए ।राज विदूषक ने अश्वों को समीप के वृक्ष से बाँध दिया था ।नदी की उर्मियाँ हौले - हौले आगे बढ़ रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो चंद्रमा को अपनी बाहों में भर लेने को शरमाती हुई किंतु आतुर भी थीं। जब मन में प्रेम का प्रस्फुटन हो तो सारा संसार प्रेममय दिखाई देता है। तभी तो कहा जाता है जो जैसा होता है उसे संसार भी वैसा ही दिखाई देता है।
दोनों उर्वशी की बातों में खोए हुए थे कि तभी उर्वशी अपनी सखियों के संग वहाँ आती दिखलाई दी। पुरुरवा हर्ष से पुकार उठे - "उर्वशी तुम !
देखो मित्र उर्वशी मेरे हृदय की पुकार सुन स्वयं चली आई ।"कहते हुए वे शीघ्रता से उर्वशी की ओर बढ़े।वे यह भूल गए कि उर्वशी अपनी सखियों के संग आई है। वे राज विदूषक की उपस्थिति भी भूल गए। उन्होंने उर्वशी को आलिंगनबद्ध करते हुए कहा -"कहाँ थी तुम ?तुम्हारे बिना रहने के विचार से ही मैं मृतप्राय हो चला था ।"
उर्वशी को मानो इसी की प्रतीक्षा थी। उसने पुरुरवा के होठों पर अपनी हथेली रख दी ।
"ऐसा न कहें पुरु। मैं स्वयं इन्हीं मनोभावों से गुजर रही हूँ।"
उर्वशी और पुरुरवा को हर्षित देख सखियाँ मधुर स्वर में गीत गाने लगी। मेनका तो नृत्य ही करने लगी ।मेनका को नृत्य करते देख हास्य व्यंग्य की भूमिका करने वाले राज विदूषक ने परिहास किया- "इतनी कुशल नृत्याँगना को देख इसीलिए तो बड़े-बड़े ऋषि मुनियों के तप भंग हो जाते हैं ।बेचारे अवश हो तप करना भूल जाते हैं और इंद्रलोक का राज सिंहासन बच जाता है।"
सभी हंसने लगे। सखियाँ भी हंसते हुए वहाँ से प्रस्थान करने लगी।
"चलिए राज विदूषक जी हमें इस सुंदर कानन की सैर तो करा दीजिए।"
उर्वशी समझ गई कि सखियाँ उसे पुरुरवा के साथ एकांत देना चाहती हैं।सखियों और राज विदूषक के जाते ही पुरुरवा ने उर्वशी को अपने समीप चट्टान पर बैठा लिया ।और उसके गले में बांहे डालते हुए उसका मुख चूम लिया ।उर्वशी शरमा कर पुरुरवा के सीने से लग गई ।उसके अंदर उन सभी मनोभावों, संस्कारों का उदय होने लगा जो भूलोक वासियों में होता है। उसका हृदय तेजी से धड़क रहा था। उसने इससे पहले ऐसा कभी अनुभव नहीं किया था। पुरुरवा ने उसके होठों पर अपने होंठ रखते हुए गहरा चुंबन लिया और उसके स्तनों के उभार में खो गए ।यह दो बिल्कुल विपरीत संस्कृतियों का समर्पण था ।यह धरती आकाश का मिलन था। जितना ही पुरुरवा उसके अंगों में खोते जाते उतना ही उर्वशी खुलती जाती। प्रेम की पराकाष्ठा में दोनों ने स्वयं को समा जाने दिया ।समय आकर ठहर गया जहाँ के तहाँ ।
एकाएक उर्वशी ने प्रश्न किया "बताओ पुरु, अब तक इन मनोभावों को क्यों छुपाए रखा तुमने? यह मुझे देखकर ही क्यों प्रकट हुए? क्यों तुमने जीवन के रस का पान नहीं किया?"
पुरुरवा ने अपनी गोद में लेटी उर्वशी की ठोड़ी उठाते हुए कहा- "मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने में स्वयं को अयोग्य पा रहा हूँ। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मेरा हृदय प्रदेश अब तक रिक्त था जिसे तुमने भर दिया।मेरे मन की आकुलता, प्रेम पाने की ललक, तीव्र उठी कामेच्छा इस सब की धुरी तुम हो। बस तुम। तुम्हें पाकर अब और कोई इच्छा शेष नहीं। तुम मेरी संपूर्ण इच्छाओं की इति हो।"
पुरुरवा के कथन को मन ही मन धारण और रेखांकित करती उर्वशी उन दोनों के प्रेम ग्रंथ की मानो हेतु बनती गई। दोनों के मध्य का अंतर अब अंतरात्मा तक पहुँचकर एकमेव हो चुका था ।उर्वशी के देह की अलौकिक कांति में पुरुरवा को चंद्र के पश्चिम की ओर निस्तेज होकर चलते चले जाने का भान ही नहीं रहा।
एकाएक उर्वशी को अपने नाम की पुकार सुनाई दी ।देखा सभी सखियाँ राज विदूषक के संग उसी की ओर आ रही हैं।
"उर्वशी, हमें वापस जाना होगा ।हमारे महाराज इंद्र का संदेशा आया है कि हम तत्काल देवलोक पहुँचकर भरत मुनि द्वारा लिखित, निर्देशित नृत्य नाटिका में भाग लें ।"
सखियों ने उर्वशी का हाथ पकड़ कर पुरुरवा से आज्ञा मांगी-
"राजन ,जाना ही होगा। किंतु हम पुनः आएँगे। बार-बार आपके प्रतिष्ठानपुर में समय बिताएँगे।"
"अवश्य, मेरे अहोभाग्य । प्रतिष्ठानपुर आपका भी है। आप आती रहेंगी तो जीवन के प्रति मेरी रुचि बढ़ती रहेगी।"
पुरुरवा के मुख से ऐसे वाक्य सुनकर राज विदूषक मुस्कुराने लगा "हमारे महाराज शब्दों के जादूगर हैं। सम्हलकर रहिएगा देवियों।"
"आज्ञा दें ।"उर्वशी ने भी पुरुरवा की ओर देखते हुए कहा।
मोहपाश में दोनों बंध चुके थे। वियोग प्राणलेवा था किंतु नियति से कौन बच सका है।