उर्वशी पुरूरवा / भाग 2 / संतोष श्रीवास्तव

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देवलोक में उर्वशी के आते ही सर्वत्र प्रसन्नता व्याप्त हो गई ।तनिक भी देर न कर भरत मुनि ने उर्वशी तथा नाटक के अन्य पात्रों को अपने कक्ष में बुलाकर आवश्यक निर्देश दिए -

"यह नाटक तुम सभी की एक तरह से परीक्षा है ।अपना सर्वश्रेष्ठ तुम्हें इस नाटक में प्रदर्शित करना है। ताकि देवराज इंद्र की स्मृति में यह नाटक शिलालेख की तरह रहे।" सभी ने भरत मुनि को विश्वास दिलाया कि ऐसा ही होगा। संध्या होते ही देवसभा में अप्सराओं के पैर में बंधे घुंघरू बज उठे। उर्वशी सर्वश्रेष्ठ नर्तकी थी ।अतः उसका नृत्य देखने पूरे देवलोक से देवगण पधारे थे ।इंद्र कभी भी उसका नृत्य देखने से नहीं चूकते थे।

अपूर्व सुंदरी उर्वशी जब नृत्य मंच पर आई तो सब देखते ही रह गए । आज उर्वशी का सौंदर्य अन्य दिनों की अपेक्षा अद्वितीय था।वाद्य यंत्र बजाने वाले मानो वाद्य बजाना ही भूल गए। तभी उर्वशी की सखी रंभा ने गीत प्रारंभ किया। गीत को सुन वाद्य यंत्र भी झंकृत होने लगे। कर्णप्रिय गीत संगीत के साथ सधे क़दमों से उर्वशी नृत्य करने लगी। किंतु आज उसका ध्यान नृत्य पर केंद्रित नहीं हो पा रहा था। बार-बार ध्यान भटक कर पुरुरवा की ओर चला जाता ।उसके नृत्य में त्रुटियाँ दिखाई देने लगीं।कभी लय से भटक जाती ,कभी नृत्य मुद्रा भूल जाती।

इंद्र ने उसका नृत्य बीच में ही रोक दिया और उसे विश्राम करने की सलाह दी। इंद्र ने रंभा, मेनका, चित्रलेखा को आदेश दिया कि वह उर्वशी के साथ अगले सप्ताह होने वाले नाटक के संवाद को भली भांति स्मरण कर ले ताकि कोई त्रुटि न हो।

उर्वशी अपने कक्ष में आ गई ।उसकी सखियाँ उसके साथ परिहास करने लगीं -

"देखो हमारी उर्वशी का मन भी आया तो किस पर ।"

"ऐसा न कहो रंभा, पुरुरवा भले पृथ्वी लोक के हैं पर उनके जैसा सुदर्शन तो देवलोक तक में नहीं है।"

"हाँ यह तो है।" मेनका ने चित्रलेखा की हाँ में हाँ मिलाई। किंतु उर्वशी मौन ही रही। वह तो सुन ही नहीं रही थी सखियों के बीच हो रहे संवाद को। वह पूर्णतया पुरूरवा के आकर्षण में बंध चुकी थी। भूलोक की बसंत ऋतु देवलोक की बसंत ऋतु को मात दे रही थी। जबकि देवलोक से बसंत कभी विदा ही नहीं होता। देवलोक के वासी यौवन से सदा पूर्ण, ज़रा - मरण से सर्वथा दूर ही रहते है। वे स्वेद, थकान तथा आहार से भी अपरिचित हैं। वे केवल सुरापन करते हैं और संगीत नृत्य ,नाट्य आदि कलाओं में डूबे रहते हैं ।

नाटक के रिहर्सल में उर्वशी सहित सभी नाट्यकर्मियों ने जी जान लगा दी। यह नाटक उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण था, कौन सर्वश्रेष्ठ पात्र है यह निर्णय इसी नाटक के आधार पर किया जाएगा। सभी रोमांचित थे और अपने सर्वश्रेष्ठ होने की कल्पना में मग्न थे।

नाट्य प्रस्तुति का दिन आ गया। रंगमंच नाटक के दृश्यों के अनुरूप कई भागों में सजाया गया। नाट्य कलाकार रंगमंच पर अपनी अपनी कला से दर्शकों को प्रभावित करने के लिए दृढ़ संकल्प लेकर उतरे। भरत मुनि के लिखे "लक्ष्मी स्वयंवर" नाटक का मंचन होना था ।नाटक के गीत देवी सरस्वती ने अपनी वीणा के स्वरों में पिरोये थे ।उसमें रस ,अलंकार का इतना सुंदर समन्वय हुआ था कि पूरी सभा मगन हो उठी थी।

उर्वशी सोच कर आई थी कि पुरुरवा का ध्यान बिल्कुल नहीं करेगी किंतु उसका तो अपने मन पर अधिकार ही नहीं रहा। नाटक के संवादों को बोलते समय वह भूल करती चली गई। जिस समय वारुणी बनी हुई मेनका ने लक्ष्मी बनी हुई उर्वशी से पूछा- "सखी यहाँ पर तीनों लोको के एक से एक सुंदर प्रतिभावान पुरुष ,लोकपाल और स्वयं भगवान विष्णु विराजमान है। इनमें से कौन सर्वगुण संपन्न है? कौन तुम्हारा मन मोह रहा है ?"

उर्वशी पुरुरवा को मानो साक्षात देख रही थी ।उसके आकर्षक व्यक्तित्व के मोहपाश में वह बंधती चली गई ।उसके मुख से पुरुषोत्तम की जगह पुरुरवा निकल गया ।पुरुरवा कहते ही उसकी आंखें चमकने लगीं।उसका अंग अंग अभिसार की तरंग में हौले हौले बहती पवन के स्पर्श से वृक्ष की शाखाओं के समान तरंगित होने लगा।

"अनर्थ ,अनर्थ हुआ।" भरत मुनि क्रोध के आवेग में कांपने लगे -"तुम्हारा यह दुस्साहस क्षमा के योग्य नहीं है। तुमने नाटक की अवहेलना की है ।तुमने मेरे लिखे को चुनौती दी है। संवादों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत कर प्रयास किया है ।"

उर्वशी भरत मुनि के क्रोध से कांप उठी -"क्षमा गुरुदेव, क्षमा।"

" दंड मिलेगा, तुम्हें अवश्य दंड मिलेगा। तुम्हें देवलोक से हम निष्कासित करते हैं ।

जिसके ध्यान में डूब कर तुमने यह भूल की है उसके साथ तुम पृथ्वी लोक पर अपना मनचाहा जीवन जियो। सुख दुख की भागीदार बनो। सर्दी, गर्मी ,वर्षा ,ओले ,तूफान को सहो। वहाँ आठों प्रहर वसंत नहीं है । जाओ श्रम के स्वेद से नहाओ। हाँ, तुम्हें तुम्हारी परछाई भी सौंपता हूँ ताकि तुम्हें सदैव यह स्मरण रहे कि तुम देवलोक में नहीं भूलोक में हो। यह भी स्मरण रखना कि जब तुम माता बनोगी और जब भी तुम्हारे पुत्र का मुख पुत्र का पिता देखेगा उसी क्षण तुम्हें उसे त्याग कर देवलोक लौटना होगा।"

इंद्र ने भरत मुनि को शांत करते हुए उर्वशी को उसके कक्ष में जाने को कहा।

इंद्र की सभा में सभी को रत्न जटित पात्रों में सोमरस परोसा गया ।इंद्र ने भरत मुनि से कहा- "आपने देवलोक से उर्वशी को निष्कासित कर कड़ा दंड दे दिया। भूल उससे अनजाने में हुई।कहीं न कहीं इस तरह की भूल से हमारा भी साक्षात्कार हुआ है। कितनी बार देवलोक की अप्सराओं का हमने अपने स्वार्थ हेतु उपयोग किया है। पृथ्वीलोक के ऋषि मुनियों से हम सदा आक्रांत रहे हैं। किंतु उर्वशी तो प्रेम वश...

इंद्र का कथन अकाट्य था। भरत मुनि चुपचाप सोमरस का पान करते रहे । कहने को उनके पास कुछ रह नहीं गया था।

भरत मुनि के प्रस्थान के पश्चात इंद्र उर्वशी के कक्ष में आए ।उर्वशी आसन से उठकर खड़ी हो गई ।वह बहुत उदास मुरझाई हुई लग रही थी। जैसे किसी कोमल लता का अग्नि की लपट ने स्पर्श कर दिया हो। वह इंद्र को देखकर लज्जित हो उठी ।

"महाराज।"

"नहीं कुछ मत कहो उर्वशी ,तुमने प्रेम किया है। प्रेम में अवसाद का ,लज्जित होने का स्थान नहीं। राजर्षि पुरूरवा एक श्रेष्ठ और सर्वथा सम्बंध बनाने के योग्य हैं। उन्होंने मेरी आवश्यकता पर सदैव रणभूमि में मेरा साथ दिया है ।सहायता की है ।तुम पृथ्वी पर जाओ, उनकी संगिनी बनकर गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए उनके पुत्रों को जन्म दो ।तथा जब तक मन कहे उनके साथ विचरण कर मनचाहा जीवन जियो। हाँ ऐसा करते हुए देवलोक के सुख तुमसे छूट जाएँगे। किंतु तुम्हें यह सब इसलिए ज्ञात नहीं होगा क्योंकि तुम पृथ्वी लोक के अनुरूप जीवन जी रही होगी।"

इंद्र के समझाने पर उर्वशी के हृदय का संताप दूर हो गया।वह मुस्कुराते हुए आग्रह पूर्वक बोली - "महाराज, क्या पृथ्वी पर मैं अपने दोनों मेमने ले जा सकती हूँ । कहने को यह मेरे नन्हे मेमने हैं पर ये मेरे रक्षक हैं ।उनके साथ रहने से मुझे कभी एकाकीपन का एहसास नहीं होता ।"

उर्वशी के आग्रह पर इंद्र ने मुस्कुरा कर स्वीकृति दे दी।और कक्ष से बाहर चले गए ।उर्वशी भी प्रसन्न होकर अपनी सखियों से मिलने को उतावली हो गई ।वह अपने कक्ष से निकलकर उन्हें ढूँढने लगी

"रंभा, मेनका ,चित्रलेखा कहाँ हो तुम सब?"

कहते हुए उर्वशी अपनी बहन पूर्वचिति के पास गई ।वह अपने शयन कक्ष में पिंजरे में फुदक रही रंग बिरंगी चिड़ियाँ को दाना चुगा रही थी। सफेद , भूरे ,नीले ,हरे, लाल, काले पंखों की वे नन्ही-नन्ही चिड़ियाँ बड़ी आकर्षक थीं। पूर्वचिति को पक्षियों और जानवरों से अत्यंत प्रेम था ।उसी ने उर्वशी को दो बेहद सुंदर मेमने दिए थे। "देखो कितने प्यारे हैं यह। इनके सफेद घने बाल काली चमकती गोल गोल आंखें और गुलाबी होंठ कितने मनमोहक हैं। आज से यह तुम्हारे हुए। इन्हें कभी अपने से अलग मत करना ।"

उर्वशी ने उन मेमनों को गोद में उठा लिया था

"सच में दीदी, आहा कितने मुलायम बाल हैं इनके शरीर पर। कैसे देख रहे हैं मुझे अपनी गोल-गोल चमकती आंखों से ।मैं तो इन्हें अपने शयनागार में ही रखूंगी। इनके लिए कोमल बिछौने बनवाऊँगी।"

उर्वशी मेमनों को बहुत देर तक गोद में लिए रही। पूर्वचिती बताने लगी - "उर्वशी तुम्हें तो पता ही होगा। मेढ़ निर्भीकता की प्रतीक है। यह दोनों मेमने सदा तुम्हारे रक्षक बनकर तुम्हारे साथ रहेंगे और तुम्हें सदा निर्भीक, निडर रखेंगे। उर्वशी के मन में प्रश्न उठा था

"फिर दीदी ,आप इन्हें अपने से अलग क्यों कर रही हैं ?"

पूर्वचिती ने उर्वशी की चिबुक उठाते हुए प्यार से कहा- "मेरी भोली बहना। यह गुण तो सभी मेढ़ों में होता है और मेरे उद्यान के समीप बने बाड़े में और भी मेढ़ हैं , मेमने हैं ।"

पिंजरे की चिड़ियों से खेलती दाना चुगाती पूर्वचिती उर्वशी को देखकर खड़ी हो गई।

"आओ उर्वशी, बहुत प्रसन्न दिख रही हो ।कोई विशेष बात? कहीं किसी तपस्वी का तप भंग करने तुम्हें महाराज इंद्र भूलोक पर तो नहीं भेज रहे हैं ?"

"दीदी तप तो मेरा भंग हुआ है।भूलोक में प्रतिष्ठानपुर के राजर्षि पुरुरवा मेरे हृदय में बस गए हैं। उन्हीं के ध्यान में रहने के कारण मुझसे जो नृत्य नाटिका में त्रुटि हुई भरत मुनि अत्यंत कुपित हुए। उन्हें यह अपने प्रति निरादर, अवज्ञा लगा। उन्होंने मुझे भूलोक में वास करने का श्राप दे दिया।"

पूर्वचिती यह सुनकर विचलित हो गई ।वैसे भी उसे नाटक देखने का सौभाग्य नहीं मिल सका था और फ़िर उर्वशी का यह शाप! किंतु वह उर्वशी को मिले पुरुरवा के मिलन के अवसर से अत्यंत प्रसन्न हुई।

"तुम्हारे लिए तो यह श्राप वरदान हो गया।"

पूर्वचिती ने चुटकी लेते हुए कहा ।

दीदी भूलोक की संस्कृति नियम क़ानून सब अलग हैं जिनकी मुझे जानकारी नहीं है। वहाँ भी त्रुटि हुई तो फ़िर किस लोक में जाऊँगी ।

"पाताल में।"

कहते हुए पूर्वचिती ठहाका मारकर हंसने लगी ।उसकी हंसी की आवाज़ से रंभा, मेनका, चित्रलेखा भी उसके कक्ष में आ गईं -

"क्या हुआ? हमें भी तो बताओ।"

पूर्वचिती से संपूर्ण वृत्तांत सुन सखियाँ गंभीर हो गईं - "ओह उर्वशी, फ़िर तो हमारा तुमसे वर्षों का वियोग है। भूलोक में मृत्यु भी होती है। पुरुरवा की मृत्यु के बाद ही हम तुमसे यहाँ मिल सकेंगे ।"

उर्वशी ने मौन हो सिर झुका लिया ।वह भी सभी से दूर चले जाने के विषय में सोच कर भावाकुल हो रही थी।

तुम सब से दूर जाना मेरे लिए बहुत कष्टदायक है।"उर्वशी ने कहा ।

"किंतु इस कष्ट में पुरुरवा से मिलन का सुख भी तो है। उनके सान्निध्य, सहवास को कौन नहीं पाना चाहेगा। वह है ही इतने सुदर्शन ,बलिष्ठ।"

तभी सूचना मिली कि उर्वशी के देवलोक से प्रस्थान का समय हो गया है।आकाशगामी रथ तैयार है और विदाई समारोह की तैयारियाँ भी हो चुकी हैं।

उर्वशी विचलित हो गई ।इस समय उसे भरत मुनि बहुत याद आ रहे हैं जिनका श्राप उर्वशी को भूलोक जाने को विवश कर रहा है। किंतु जो अब वरदान बन चुका है। वह दौड़ी हुई भरत मुनि के भवन में गई। वे अपने अध्ययन कक्ष में लेखन में व्यस्त थे। उर्वशी के आने की सूचना मिलते ही वह बाहर आए ।उर्वशी ने उन्हें प्रणाम करते हुए उनके चरणों में सिर नवाया - "गुरुजी, आपके शाप को आदेश मान मैं भूलोक जा रही हूँ। किंतु अधिक समय तक आपके बिना नहीं रह पाऊँगी।" भरत मुनि त्रिकालदर्शी थे ।उन्हें भूलोक में उर्वशी का समय ज्ञात था ।वह जानते थे उर्वशी का पुरूरवा के प्रति प्रेम। उन्होंने उर्वशी के सिर पर अपना वरदहस्त रखा-

"जाओ उर्वशी, तुम्हारे मन की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।"

कहते हुए उन्होंने उर्वशी को द्वार तक छोड़ा।उर्वशी के नयन छलके पड़ रहे थे।

सखियों ने उर्वशी का सोलह श्रंगार किया। उर्वशी के सौंदर्य के लिए कोई भी उपमा देना व्यर्थ है ।बस यही कि पूरे ब्रह्मांड में ऐसा सौंदर्य ढूँढने पर भी नहीं मिलेगा। विदाई समारोह में देवलोक के लगभग सभी सभासद उपस्थित थे ।अप्सराओं का भूलोक भेजा जाना हर बार किसी न किसी प्रयोजन से होता था किंतु इस बार निस्वार्थ प्रेम के वशीभूत है देवलोक ।प्रेम जिसके लिए पूरा ब्रह्मांड भी छोटा है। वह प्रेम है जिसने संपूर्ण ब्रह्मांड को मोहित कर रखा है ।कीट पतंग से लेकर तीनों लोकों के वासी प्रेम के अधीन है। नदियाँ बहती हैं अपने दोनों किनारो से प्रेमवश। धरती से मिलने को आतुर जलप्रपात पर्वतों के अंतर से निकलकर बहे चले जाते हैं ।पुष्पों पर भ्रमर का गुंजन, तितलियों का नर्तन प्रेम की परिभाषा ही गढ़ देता है ।उर्वशी भी उसी प्रेमवश निर्झरिणी-सी आकुल है पुरुरवा से मिलने को।

देवलोक से विदाई उर्वशी के अंतरमन को कष्ट दे रही थी। पर उसके मूल में प्रेम था।

नियत समय पर उर्वशी को लिए रथ ने प्रस्थान किया ।यह मिलन था आकाश से धरती का और यह बिछोह था अनिश्चितकाल के लिए देवलोक के समस्त सुख और आनंद का। प्रेम ने यहाँ विजय पाई ।उर्वशी धीरे-धीरे अपनी सखियों को ओझल होते देखते रही। देखती रही उस राज प्रासाद को जहाँ प्रति संध्या उसके पैरों के घुंघरू से राजप्रासाद का नृत्य भवन गूंजा करता है। उन उद्यानों को जहाँ सखियों के संग वह भ्रमण करती है और गीत गाती है। क्या इस सबसे बिछोह वह सह पाएगी।

सहना ही होगा, प्रेम की डगर कठिन है। उस डगर पर चलना, सब कुछ के समर्पण के बाद ही संभव है। सोचते हुए उर्वशी ने विदा होते इंद्रलोक और दृष्टि के सामने आते भूलोक को देखा। प्रियतम की नगरी की ओर

रथ वायु की गति से उतर रहा था । रथ की गति के समान ही उर्वशी का हृदय धड़क रहा था।

क्या पुरूरवा उसे सहज स्वीकार कर लेंगे? कहीं प्रतिष्ठानपुर में उसका आना पुरुरवा के लिए परेशानियों का कारण न बन जाए। कहीं पुरुरवा उसके साथ कुछ दिन आमोद प्रमोद में बिताकर उसे वापस इंद्रलोक न भेज दें। उर्वशी का मन की जहाँ एक ओर पुरुरवा के प्रेम के लिए व्याकुल था वहीं दूसरी ओर संदेह ने जड़ ज़माना शुरू कर दिया था।

रथ ने पुरुरवा के राजमहल के उद्यान में उर्वशी को उतारा और तुरंत ही देवलोक की ओर प्रस्थान किया । उद्यान में स्वयं को अकेले पा उर्वशी बेचैन हो गई ।तभी उसने देखा कि राज महल का प्रतिहारी उसके पास आ रहा है।

उर्वशी के पास आकर प्रतिहारी ने उसे प्रणाम किया और पूछा- "देवी आप कौन हैं तथा यहाँ किस प्रयोजन से आई है?"

"मैं उर्वशी हूँ ,इंद्रलोक से आपके महाराज पुरुरवा से मिलने आई हूँ।"

प्रतिहारी ने उद्यान के आसन पर उर्वशी को आदर पूर्वक बैठाते हुए कहा - देवी आप विश्राम करें।मैं अभी महाराज को यह सूचना देता हूँ।

प्रतिहारी से पुरुरवा को जैसे ही उर्वशी के आगमन की सूचना मिली वे जिस दशा में थे उसी दशा में शीघ्रता से उद्यान में पहुँचे और उर्वशी को आलिंगनबद्ध करते हुए बोले- "तुम आ गई प्रियतमा ।मेरी पुकार निष्फल नहीं थी। तुम्हें आना ही था। यह निश्चित था।"

इस चिर प्रतीक्षित क्षण में पुरुरवा से आलिंगनबद्ध उर्वशी

"पुरू"बस इतना ही कह पाई। दोनों के नेत्र विह्वल हो छलकने लगे। तब तक दास दासियाँ भी वहाँ पहुँच चुकी थीं। सभी आदरपूर्वक उर्वशी को अतिथि कक्ष में ले गए। पुरूरवा ने उर्वशी के भोजन विश्राम की विशेष व्यवस्था करने के लिए दासियों से कहा और स्वयं महारानी के कक्ष की ओर चले गए । वे निश्चय कर चुके थे कि महारानी को उर्वशी के विषय में सब कुछ बता कर उनसे विवाह की स्वीकृति लेंगे ।

एक तरफ़ महारानी के इस विषय में समर्थन न मिलने की आशंका और दूसरी ओर उन पर पूर्ण विश्वास, उहापोह की इस स्थिति में उन्हें महारानी का सामना करना होगा। वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि उर्वशी के साथ उनके प्रेम सम्बंधों की जानकारी महारानी को पहले ही निपुणिका से मिल चुकी थी।

राजमहल में उर्वशी के आने की सूचना भी उन्हें मिल चुकी थी और उन्हें मालूम था कि उन्हें इस स्थिति का सामना महाराज के सामने करना ही होगा। इस् समय सिवाय अपने इष्ट्देव के स्मरण के उन्हें कहीं से भी शक्ति नहीं मिल सकती थी।हर संकट में ,हर विपरीत स्थिति में उन्हीं ने तो उन्हें उबारा है। वे मंदिर के सामने हाथ जोड़े बैठ गईं। अगरबत्ती की धूम्र रेखा पूरे कक्ष में अपनी सुगंध फैला रही थी।