उर्वशी पुरूरवा / भाग 3 / संतोष श्रीवास्तव
महारानी औशिनरी की दोनों दासियाँ निपुणिका और मदनिका वैसे तो महारानी की प्रिय दासियाँ थीं। उनका प्रयास रहता कि महारानी को कभी किसी बात से ठेस न पहुँचे ।किंतु इस समय वह उर्वशी के सौंदर्य के बंधन में बंध चुकी थीं।
"महारानी आकाश मार्ग से एक अत्यंत सुंदरी कन्या ने राजमहल में प्रवेश किया है। वह तो स्वर्ग की अप्सरा जान पड़ती है ।महाराज ने उसे अतिथि कक्ष में ले जाने का आदेश दिया है।"
महारानी को जो निपुणिका के इस कथन से पुरुरवा के प्रति संदेह प्रकट हो रहा था मदनिका के बताने पर समाप्त हो गया ।
"महारानी क्षमा करें ।किंतु सत्य से आपको परिचित कराना मेरा कर्तव्य है। राज उद्यान में उस कन्या को आया देख महाराज उसकी ओर विरही प्रेमी से दौड़े और उसे आलिंगन बद्ध करते हुए कहा -"उर्वशी ,मेरी दशा उस पपीहे जैसी हो रही है जिसने अभी-अभी मेघ की बूंद को अपने सूखे कंठ से लगाया है।" महारानी प्रस्तर मूर्ति बनी सब कुछ सुन रही थी ।वे समझ चुकी थी कि उनके वैवाहिक जीवन में ग्रहण लग चुका है। ऐसा क्या अपराध हो गया उनसे जो वे सौत की उपस्थिति का विषपान करने को विवश है।
क्या महाराज उनसे विरक्त हो गए हैं? क्या उन्हें संतान न होने का दुख इतना सता रहा है? फ़िर इतने वर्षों से क्यों प्रतीक्षा करते रहे? क्यों उन्हें विश्वास दिलाते रहे कि उनके जीवन में सिर्फ़ औशीनरी है और किसी का कोई स्थान नहीं? फ़िर पराई स्त्री के प्रति यह आसक्ति क्यों? महारानी की सोच बेलगाम दौड़े जा रही थी। वे अपने पर नियंत्रण नहीं रख सकीं उनका मुख मुरझा गया, ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी लंबी बीमारी से त्रस्त हैं।
महारानी के मुरझाए मुख को देख निपुणिका पीड़ा से भर उठी।महारानी के प्रति उसका अगाध स्नेह था। वह भले ही दासी थी किंतु छाया बनकर सदैव उनके साथ रहती थी। इसके विपरीत मदनिका को महाराज के इस भटकाव में महारानी का ही दोष दिखाई दे रहा था ।उसने धीमे स्वर में निपुणिका से कहा- "पुरुष तो होता ही चंचल है। यह तो नारी पर निर्भर करता है कि वह उसे कैसे वश में रखें।"
निपुणिका ने उसे मौन रहने का संकेत देते हुए आंखें तरेरीं - "इस तरह के संवाद से तुम महारानी को और ठेस न पहुँचाओ ।महारानी का प्रेम निर्मल और पवित्र है।" कहते हुए वह महारानी की ओर मुड़ी -"धैर्य रखें महारानी ,महाराज यदि आप जैसी सर्वगुण संपन्न सुशील और संस्कारी स्त्री के न हो सके तो उर्वशी को भी अधिक समय तक प्रेम न कर पाएँगे। उनका चंचल मन लौटकर आपके ही पास आएगा। आप ही में रमेगा।"
तब तक दासी महारानी के लिए अनार का मीठा रस ले आई थी - "लीजिए महारानी ,इसे पीकर आपको ताज़गी मिलेगी।"
महारानी ने रस का पात्र लेने से मना करते हुए द्वार की ओर देखा।
द्वार पर हलचल थी और सेवक सूचना दे रहे थे कि महाराज महारानी के कक्ष में पधार रहे हैं।
पुरूरवा को कक्ष में प्रवेश करते देख क्षण भर महारानी विचलित हुई फ़िर उलाहना देते हुए बोलीं - "क्यों आए हैं महाराज? अब और कौन-सा बलिदान मुझसे चाहते हैं?"
महाराज के आते ही कक्ष में एकांत हो गया।दासियाँ बाहर जा चुकी थीं। पुरुरवा समझ गए कि सारा वृत्तांत महारानी को पहले से ही ज्ञात हो चुका है। वे आहिस्ता से महारानी के निकट बैठ गए । उनका मन हुआ जो वह कहने जा रहे हैं वह महारानी चिबुक उठाकर कहें ।किंतु ऐसा करने का उनमें साहस नहीं हुआ। अपने वाक्यों में स्नेह उंडेलते हुए उन्होंने कहा-
"बलिदान कैसा महारानी। उर्वशी आपके एकांत की साथी बन कर रहेगी। वह नृत्य कला और गायन में प्रवीण है। आपकी उदासी को क्षण मात्र में दूर कर देगी। सच कहता हूँ महारानी ,उसके साथ रहकर आप मुझे भूल जाएँगी ।" महारानी को पुरुरवा के मुख से झड़ते शब्दपुष्प तीखे बाण से लगे ।
"अर्थात आपके एकाकी शयन को नवीन साथी मिल गया।अर्थात मैं तो व्यर्थ सिद्ध हुई न।"
"इस तरह न कहे महारानी, ज़रा सोचें ,इतने वर्षों से हम निस्संतान हैं ।हमारे ऐलवंश को आगे कौन बढ़ाएगा। इसी निमित्त तो उर्वशी आई है। हमें उसका परोपकार मानना चाहिए ।"
ओह ,कितना स्वार्थी होता है पुरुष। अपनी कामपिपासा शांत करने को संतान की उत्पत्ति में आरोपित करता है। महारानी इतने वर्षों से संतान नहीं दे सकी तो अब यह तरीक़ा अपनाया जा रहा है। धन्य है पुरुष स्वभाव। धन्य है उसकी मति।
पुरुरवा तो मानो निश्चय करके ही आए थे कि वे उर्वशी के आगमन और उसके साथ की योजना महारानी से स्पष्ट शब्दों में कह देंगे। वे जानते हैं महारानी कितनी भी पीड़ित क्यों न हो जाएँ किंतु उनकी हर योजना में उनकी सहायक रही है। विश्वस्त होकर उन्होंने कहा-
"महारानी एक वर्ष तक आपको राजकाज संभालना होगा। एक वर्ष तक हम उर्वशी के साथ गंधमादन पर्वत पर निवास करेंगे। किंतु उसके पहले उर्वशी से विवाह कर संतान प्राप्ति के लिए नेमीशेय यज्ञ करेंगे ।उस यज्ञ में आहुति देने के लिए आप मेरे साथ बैठेंगी ।"
महारानी ने कहना चाहा मुझ निपूती का साथ क्यों ?मैं तो आपकी दोषी हूँ न। ऐलवंश को आगे बढ़ाने में मेरी तो कोई भूमिका ही नहीं है। किंतु वे मौन रहीं। काफ़ी देर तक कक्ष में सन्नाटा रहा। पुरुरवा ने उठते हुए कहा - "चलता हूँ महारानी , आशा करता हूँ आप स्वस्थ और प्रसन्नचित्त रहेंगी। आपने मेरे कार्यों में सर्वदा मेरा साथ दिया है। इस बार भी पीछे नहीं हटेंगी ।उर्वशी अतिथि कक्ष में अपरिचितों के बीच स्वयं को पा कर व्याकुल हो रही होगी।"
द्वार की ओर प्रस्थान करते हुए पुरुरवा ने मुड़कर महारानी की ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा - "वह अपने साथ दो मेमने लाई है। आपके दिल बहलाव के लिए भेजूं ?"
कहा तो पुरुरवा ने प्रमोद वश किंतु महारानी का मन रो पड़ा ।अनजाने में ही पुरुरवा उनके हृदय को गहरी चोट दे गए थे ।यह कैसा काल का क्रूर परिहास था कि जिसमें अपने जीवनसाथी को पराया होते जीते जी देखना पड़ रहा है ।अपना सब कुछ लुटाकर बदले में उर्वशी के लाये मेमने !उनके ही जीवनसाथी के द्वारा! आह ,यह कैसा अग्निबाण चला दिया महाराज ने! कि वे स्वयं उर्वशी के संग भोग विलास का सुख भोगेंगे और महारानी मेमनों के साथ जी बहलाएँगी!
उर्वशी व्याकुलता से अतिथि कक्ष में बैठी पुरूरवा की प्रतीक्षा कर रही थी। उसके दोनों मेमने उछल कूद कर रहे थे। पुरुरवा को कक्ष में प्रवेश करते देख वह खड़ी हो गई- "पुरू ,तुमने इतना विलंब क्यों किया आने में । क्या मैंने यहाँ आने में भूल की?"
"उर्वशी,मेरी प्राणप्रिया। हम महारानी से तुम्हारे विषय में ही बातचीत करने उनके प्रासाद की ओर गए थे।"
उर्वशी आश्वस्त हुई। मन में उत्सुकता भी जागी।
"कहो पुरू महारानी ने क्या कहा ? क्या तुमने उनसे हमारे प्रेम के विषय में भी बताया? यह बताया कि अब मैं तुम्हारी परिणीता हूँ ।बताओ पुरू।"
उर्वशी ने अधीरता से कहा ।
पुरू को उर्वशी की यह अधीरता अच्छी लगी। उन्होंने उर्वशी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा - "सब कुछ बता दिया है उर्वशी।"
"फिर क्या वह हमारे मिलन के लिए तैयार हैं ?"
"इससे क्या अंतर पड़ता है ।उर्वशी। उन्हें सूचित करना आवश्यक था क्योंकि वह मेरी धर्मपत्नी और प्रतिष्ठानपुर की महारानी है ।"
पुरुरवा ने उर्वशी को आलिंगनबद्ध करते हुए कहा - "तुम्हारा यह दास तो तुम्हारा तभी हो चुका था जब मैं तुम्हारी सखियों समेत तुम्हें उस दानव से छुड़ाकर लाया था। तुम नहीं जानती उर्वशी ,उस दिन प्रतिष्ठानपुर में मेरा शरीर लौटा था ।हृदय तुम्हारे साथ चला गया था।उस पर उसी दिन से मेरा वश नहीं रहा था। पहले सोचा इंद्र से तुम्हें मांग लूं किंतु मैं तुम्हें अपने हृदय से जीतना चाहता था। अपनी बनाना चाहता था और अब हम शीघ्र ही विवाह करके गंधमादन पर्वत पर कुछ समय निवास करेंगे। राजकाज की चिंताओं से दूर।"
उर्वशी पुरुरवा के बंधन से मुक्त हो उठ खड़ी हुई - "पुरू तुमसे विवाह करके तुम्हारे साथ वि हार करना मेरी भी इच्छा है। किंतु मेरी तीन शर्ते हैं।"
शर्तें? प्रेम में शर्तें कैसी, फ़िर भी पुरुरवा ने मुस्कुराते हुए कहा- "कहो उर्वशी, तुम्हारा पुरू तुम्हारी हर शर्त मानने को तैयार है ।"
उर्वशी ने बिना किसी भूमिका के कहा "तो सुनो पुरु,मेरी पहली शर्त है कि सहवास के अतिरिक्त मैं कभी भी तुम्हें निर्वस्त्र न देखूं ।"
चौंक पड़े पुरुरवा !यह कैसी शर्त और क्यों! इसका पालन न करने पर क्या अनर्थ हो जाएगा। कई बार तो महारानी के साथ राजमहल के सरोवर में जल क्रीड़ा की है उन्होंने।महारानी ने तो ऐसा कोई बंधन नहीं रखा ।
"मेरी दूसरी शर्त है कि मेरे भोजन में केवल घी का उपयोग किया जाए। अन्य किसी भी प्रकार के बने भोजन को मैं ग्रहण नहीं करूंगी।"
इस शर्त में पुरुरवा को कोई आपत्ति न थी ।वह स्वयं घी मक्खन से बना भोजन ही करते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह अति उत्तम है।
"मेरी तीसरी और अंतिम शर्त है कि मैं जिन दो मेमनों को अपने साथ लाई हूँ वे सदैव मेरे साथ मेरे शयनकक्ष में रहेंगे ।"
पुरुरवा पुनः आश्चर्य में पड़ गए ।यह तो शर्त न हुई बचपना हो गया । अर्थात क्या उन्हें शयनकक्ष में पशु को भी रखना पड़ेगा!
"उर्वशी मेमने महल में रहें, उद्यान में रहें तो बात समझ में आती है। किंतु शयनकक्ष में!"
"पुरू, ये मेरे शिशु समान हैं।जिन्हें मैं अपने शयनकक्ष में ही रखती हूँ ।यह मेरे रक्षक भी हैं और मुझे समस्त विपदाओं से बचाते हैं ।"
पुरुरवा मन ही मन हंसे। ये नन्हे मेमने किस तरह विपदाओं से बचाएँगे । निश्चय ही उर्वशी अपने बाल्यकाल की यादों में विचरण कर रही है इस समय ।
"ठीक है न, इसमें हमें क्या आपत्ति हो सकती है। इन सुंदर प्यारे मेमनों से हमारी राजकाज की व्यस्तता से उत्पन्न एकांत आनंद से बीतेगा तुम्हारा।"
उर्वशी आश्वस्त हुई। अब उसके मन में कोई दुविधा न थी। अब वह अपने पुरू के साथ दीर्घकाल तक प्रेम का सुख भोगेगी।
राजसभा में तेजी से यह बात फैल रही थी कि महाराज विवाह कर रहे हैं ।एक ऐसी कन्या से जो अपूर्व सुंदरी है ।किंतु जिसके माता-पिता ,गोत्र आदि का पता ही नहीं है ।भारतीय संस्कारों के एकदम विपरीत जो स्वयं चलकर सीधे राजमहल में आ गई है और उसके साथ मेढ के दो मेमने भी हैं।
सभासदों की धीमी धीमी बातचीत मुख्य सचिव महामात्य के कानों में जब पड़ी तो पुरुरवा के प्रति आदर सम्मान से प्रेरित उन्होंने सभासदों को चुप रहने का संकेत किया।
"थोड़ी ही देर में महाराज पधार रहे हैं । वे हमसे कोई भी बात गुप्त नहीं रखते। अतः निश्चय ही आपकी शंका का समाधान हो जाएगा।"
नियत समय पर पुरुरवा राजसभा में पधारे । यह समय प्रजा की परेशानियाँ आदि के निवारण का समय होता है किंतु आज तो प्रजा को कोई परेशानी ही न थी। आज तो अपने प्रिय महाराज से वे उर्वशी के विषय में सुनना चाहते थे।सभी सभासद राजा की ओर टकटकी बाँध कर देख रहे थे।राज ज्योतिषी विश्वमना अपने आसन पर बैठे सामने खुले ज्योतिष शास्त्र ग्रंथ से उलझे थे ।यह तो उन्हें ज्ञात ही था कि महाराज निःसंतान हैं किंतु अभी तक न तो महारानी ने और न ही महाराज ने ऐलवंश की वंश बेल बढ़ाने पर ध्यान दिया।
पुरुरवा अत्यंत चरित्रवान व्यक्ति थे। विलक्षण प्रतिभा के कीर्ति स्तंभ माने जाते हैं ।वे अत्यंत वीर ,ज्ञानी, सूर्य के समान तेजस्वी तथा दानवीर थे। उनकी प्रजा कष्टों से परे सुखपूर्वक जीवन यापन कर रही थी। यह बात अलग है कि प्रजा भूमि, संपत्ति या पारिवारिक झगड़ों को लेकर महाराज से न्याय मांगने पहुँच जाती थी। संपूर्ण गुणों से युक्त पुरुरवा की प्रशंसा तो कोई महारानी से सुने। महारानी चंद्रदेव और उनकी पत्नी रोहिणी की उपासक थीं और सदैव पुरुरवा के हित की प्रार्थना करती रहती थीं।
किंतु उनके प्रेम के गुण तो कोई उर्वशी से सुने ।उर्वशी के पुरुरवा चित चोर हैं। तभी तो सैकड़ो प्रकाशवर्ष की दूरी तय कर वह धरती पर हिरनी-सी भागती चली आई। पुरुरवा की पुलक ,उन्माद ,कामनाएँ वह अच्छी तरह जानती थी। उसके सुदर्शन व्यक्तित्व और पराक्रम को उर्वशी ने मन में धारण कर लिया था। उर्वशी यह भी जानती थी कि पुरुरवा निःसंतान तो है किंतु स्वयं उसका जन्म भी विपरीत परिस्थितियों में हुआ। बुध और इला के प्रेम की थाती है पुरुरवा। बुध और इला विवाहित नहीं थे। प्रेमी प्रेमिका थे ।चंद्र के पुत्र बुध को इला से प्रेम हो गया था किंतु प्रेम ने कब रिश्तो की या समाज की परवाह की है। उर्वशी सोचती है, अतीत दोहराया जा रहा है पुरूरवा के साथ उसके सम्बंधों के विषय में। किंतु वह पुरूरवा से विवाह करेगी। उसका स्वप्न है उसकी दुल्हन बनना।
राज दरबार का कार्य आरंभ हो चुका था। लगभग 1 घंटे में प्रजा की सुनवाई और निपटारे के पश्चात महामात्य ने बेहद संकोच से कहा - "महाराज राजमहल में उर्वशी नामक अनजान स्त्री पधारी है। सभासद उनका परिचय जानना चाहते हैं। वह कौन है? कहाँ से आई हैं ?प्रतिष्ठानपुर में उनके आने का कारण क्या है?" महामात्य अपनी बात समाप्त कर आसन पर बैठ गए। पुरुरवा आंखें बंद कर सोचमग्न हो गए। एकाएक महारानी निपुणिका
और मदनिका के साथ राजसभा में आईं। उनकी जय जयकार सुन पुरुरवा ने नेत्र खोले - महारानी स्वागत है आपका ,किंतु आप यहाँ ?"
महामात्य ने उनके आसन की ओर संकेत कर कहा - "पधारिए महारानी ,वैसे तो आप इस राज्य की महारानी है। मेरी धृष्टता को क्षमा करें किंतु ...
इसके आगे महामात्य कुछ न कह सके, उनमें इतना साहस नहीं था कि वे महारानी के राजसभा में आने का कारण जान सकें।
महारानी ने अपने आसन के सामने खड़े होकर निपुणिका
और मदनिका को बाहर जाने का संकेत किया-
"यही कहने आई हूँ महामात्य कि महाराज को कुछ समय का अवकाश दें । राजकाज में वह इतना डूबे रहते हैं कि अपनी तरफ़ ध्यान ही नहीं दे पाते। वैसे भी इन दिनों उनका मन किसी कार्य में नहीं लग रहा है। उनके लिए मनोरंजन और विश्राम अति आवश्यक है ।"
"जी हाँ, हम भी यही सोच रहे हैं। इन दिनों महाराज उद्विग्न रहते हैं। इसका कारण अत्यधिक व्यस्तता हो सकती है ।महारानी हम आपके प्रस्ताव का समर्थन करते हैं।"
महामात्य के कथन पर सभी सभासदों ने अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी ।किंतु राज ज्योतिषी विश्वमना मौन रहे ।उन्होंने महारानी की ओर देखा और विचारों में डूब गए ।
"आप किन नक्षत्रों की गणना में हमारे प्रस्ताव पर अपनी राय नहीं दे पाये ।"
विश्वमना ने ज्योतिष ग्रंथ बंद करते हुए कहा - "इस प्रस्ताव में मुझे क्या आपत्ति हो सकती है ।यह तो हर्ष का विषय है ।महाराज को भी तो विश्राम की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे सुंदर प्राकृतिक दृश्यों से पूर्ण गंधमादन पर्वत सबसे उपयुक्त स्थान है।"
गंधमादन का नाम सुनते ही पुरूरवा के होठों पर मुस्कुराहट चंपाकली-सी खिल गई।
"हम जाएँगे वहाँ विश्राम के लिए ।किंतु तब तक आप सब राजकाज को निर्विघ्न संपन्न करते रहने का आश्वासन दें।" महामात्य सहित सभी पदाधिकारियो ने इस बात की पुष्टि की कि उनका प्रयत्न रहेगा कि वे महाराज की कमी प्रजा को महसूस नहीं होने दें और फ़िर हमारी मार्गदर्शक महारानी भी तो हैं। वह तो राजसभा के समस्त कार्यों को भली-भांति निर्देशित कर सकती हैं।
"महाराज, यदि आज्ञा हो तो मैं महारानी से एकांत में कुछ निवेदन करना चाहता हूँ।"
विश्वमना ने आसन से उठते हुए कहा।
पुरुरवा जानते हैं निश्चय ही अतीत ,भविष्य को साक्षात देखने वाले ज्योतिषाचार्य विश्व मना महारानी से उर्वशी के विषय में ही चर्चा करने चाहते हैं। आज्ञा मिलते ही महारानी के साथ विश्वमना उनके कक्ष में आ गए ।जहाँ पहले से ही निपुणिका और मदनिका बतरस का आनंद उठा रही थीं।महारानी और विश्वमना को देख उन्होंने तुरंत उनके लिए आसन तैयार किया- "विराजिये आदरणीय।"
आसन पर बैठते हुए महारानी ने दोनों को कक्ष से बाहर चले जाने का संकेत किया। उनके जाते ही महारानी विश्वमना की ओर उन्मुख हुईं - "बताइए ज्योतिषाचार्य जी ,मैं निःसंतान तो हूँ ही अब और क्या दशा चल रही है मेरी कुंडली में नक्षत्रों की?"
विश्वमना महारानी के सुंदर स्वभाव से परिचित थे ।वे जानते थे कि महारानी के मन में महाराज के प्रति अगाध प्रेम है। उन्होंने मन, वचन ,कर्म से कभी उन्हें ठेस नहीं पहुँचाई ।किंतु उन्हें महाराज ठेस पहुँचाने का बीड़ा उठा चुके हैं। विश्वमना ने बात को हर्ष का विषय बनाते हुए कहा - "महारानी, आप शीघ्र माता बनने वाली हैं।" चौक पड़ी महारानी। यह कैसे हो सकता है ।जो बात उन्हें ज्ञात नहीं वह विश्वमना को कैसे! फ़िर अगले ही पल वे तेज धूप में कोमल लतिका-सी कुम्हला गईं।
"नहीं महारानी ,पुत्र महाराज का ही होगा किंतु उसकी माता आप नहीं अन्य स्त्री होगी।" विश्वमना ने महारानी के सम्मुख अपनी बात स्पष्ट की।
"कहीं वह अन्य स्त्री उर्वशी तो नहीं। जो इन दिनों राजमहल में ही निवास कर रही है।"
"जी महारानी, उर्वशी कामदेव के चुरू से उत्पन्न इंद्रसभा की नर्तकी है ।"
"नर्तकी! गणिका!"
एकाएक महारानी के मुख से गणिका शब्द सुन विश्वमना चुप हो गए। महारानी ने यह बात विश्वमना से छुपा ली कि वे महाराज और उर्वशी के प्रेम से परिचित हैं। महाराज उनके सामने उर्वशी से प्रेम विवाह का
प्रस्ताव रख चुके हैं। प्रेम के विषय में महारानी स्वयं को पराजित पाती हैं। कितनी बार वे अपनी इस पराजय पर छुप-छुप कर आंसू बहा चुकी हैं। वे महाराज के किसी भी निर्णय का विरोध नहीं कर पातीं।राज दरबार में उन्होंने महाराज के भ्रमण, विश्राम का प्रस्ताव इसलिए रखा था कि वह भ्रमण के आनंद में उर्वशी को भूल जाएँगे। किंतु यहाँ तो विश्वमना कुछ और ही कह रहे हैं।
"महारानी आपको महाराज के इस प्रेम को स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि उर्वशी से उनका मिलन अकाट्य है। वही उनके पुत्र की माता बनेगी ।"
महारानी ने धीरे-धीरे सिर झुका लिया।
"मैं सब कुछ समझ चुकी हूँ ज्योतिषाचार्य जी। अब आप प्रस्थान करें ।मैं एकांत चाहती हूँ ।"
"जी प्रणाम, विश्वमना के जाते ही महारानी ने कक्ष का द्वार बंद कर लिया और स्वयं को पलंग पर ढह जाने दिया। उनके अश्रु पूरित नयन स्वयं से प्रश्न करने लगे- क्यों, क्यों ओशिनरी, क्यों तुम अपने अंदर की उस सौंदर्यवान स्त्री को महाराज के सामने प्रकट नहीं कर पाई जो उर्वशी में है। क्यों महाराज के प्रेम ,लालसा की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाईं?
घबराकर महारानी ने अपना चेहरा हथेलियों में छुपा लिया। सभी उन्हें सदाचार स्त्री कहते हैं। किंतु वे तो महाराज की उपेक्षा की शिकार हैं। वे महारानी नहीं बल्कि भिक्षुणी हैं। लाचार,विवश, दुर्बल,असहाय। इतने बड़े साम्राज्य की साम्राज्ञी किंतु मात्र एक भिक्षुणी।